Saturday, February 27, 2010

सत्ता के मद में चूर 'हाथी' का तांडव

सलीम अख्तर सिद्दीकी
'हाथी' की सवारी कर रहे दो नेताओं ने राजनीति के साथ ही आपस में रिश्तेदार बनने का फैसला लिया। 24 फरवरी को बसपा के सांसद कादिर राणा के बेटे और वरिष्ठ बसपा नेता मुनकाद अली की बेटी की शादी की रस्म मेरठ के एक बड़े रिसोर्ट में पूरी की जा रही थीं। हालांकि इस्लाम में शादी की रस्म इतनी छोटी होती है कि उसे पांच आदमियों के बीच मात्र आधा घंटे में ही निपटाया जा सकता है। लेकिन दोनों नेतओं ने इतना आडम्बर किया कि मेरठ में दो दिन तक अफरा-तफरी का माहौल रहा। शादी में इतने लोगों ने शिरकत की कि मेरठ-दिल्ली रोड पर यातायात रोक दिया गया। मीलों लम्बा जाम लगा। जाम में फंसे लोग त्राहि-त्राहि कर बैठे। लोगों ने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि आम आदमी की नुमाइन्दगी करने का दावा करने वाले नेता ही अपनी शान-ओ-शौकत दिखाने के लिए आम आदमी को परेशानी में डाल दें ? क्या इन्हें यह नहीं पता कि जाम में फंसे लोगों को कितना कष्ट होता है ? बच्चे प्यास से बिलबिला जाते हैं। मरीज वक्त पर अपनी दवा नहीं ले सकता। शहर में आने के बाद दूर-दराज जाने वालों के लिए वाहन उपलब्ध नहीं हो पाता। किसी युवा का इंटरव्यू छूट जाता है। क्योंकि सत्तारुढ़ पार्टी के नेताओं के बच्चों की शादी थी इसलिए पूरा प्रशासन व्यवस्था में जुटा हुआ था। बात यहीं खत्म हो जाती तो भी गनीमत थी। मुनकाद अली ने शादी की रस्म को भी चापलूसी का जरिया बना दिया। क्योंकि मायावती लखनउ में जगह-जगह हाथियों की मूर्तियां स्थापित कर रहीं हैं, शायद इसी से प्रेरणा लेकर मुनकाद अली ने 11 जीते-जागते हाथियों को ही शादी स्थल पर खड़ा करके चापलूसी की एक महान मिसाल पेश कर दी।
बात यहीं खत्म हो जाती तो फिर भी ठीक था। एक हाथी सुबह से भूखा था। हाथी को शायद या तो यह बुरा लगा कि सब इंसान तो लजीज खानों का मजा ले रहे हैं, लेकिन मुझ बेजुबान जानवर को सुबह से भूखा रखा हुआ है। और शायद यह बुरा लगा कि एक गरीब मुल्क के अमीर नेता कैसे शाही शादियों पर बेशुमार दौलत खर्च करके गरीबों के नमक पर छिड़क रहे हैं। शायद यह बुरा लगा हो कि 'सरकार' भी इन्हीं नेताओं की जी-हजूरी में लगी हुई है। तभी तो जैसे ही एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की गाड़ी हूटर बजाती हुई शादी स्थल पर आयी, हाथी के सब्र का बांध टूट गया। हाथी ऐसा बिफरा की उसने उत्पात मचाना शुरु कर दिया। कई दर्जन आलीशान गाड़ियों को अपने पैरों तले कुचल डाला। सूंड से उठाकर गाड़ियों को सड़क पर पटक दिया। चारों ओर अफरा तफरी मच गयी। हाथी शायद मानवतावादी था, इसलिए उसने इंसानों को नुकसान नहीं पहुंचाया। हाथी अगले दिन तक काबू में नहीं आया। दिल्ली और लखनउ से हाथी को काबू में करने के लिए विशेषज्ञ बुलाए गए, तब कहीं जाकर हाथी के उत्पात को रोका जा सका।
हादसे के बाद जिस तरह की शर्मनाक बातें हुईं, उन्हें सुन और देखकर पक्का यकीन हुआ कि नेताओं का नैतिक पतन ही नहीं हुआ है, बल्कि वे मुंह तक 'कीचड़' में धंस चुके हैं। इस कीचड़ में कादिर राणा और मुनकाद अली जैसे नेता इतने लिथड़ चुके हैं कि उनका चेहरा ही पहचान में नहीं आता। दावा वे आम आदमी की सेवा का करते हैं लेकिन उनके चेहरों के पीछे सामंती चेहरा छिपा है। मुनकाद अली ने फरमाया कि 'मैंने तो हाथी को पागल नहीं किया है, जो इसके लिए मैं जिम्म्ेदारी लूं।' यह ठीक है मुनकाद ने हाथी को पागल नहीं किया, लेकिन उनसे यह सवाल तो किया ही जा सकता है कि किस 'पागल' ने उनको हाथियों की नुमाईश लगाने की सलाह दी थी ? हाथियों को लाकर शादी की कौनसी रस्म अदा की जा रही थी ? अब क्योंकि मामला सत्तारुढ़ पार्टी के नेताओं का था, इसलिए मुनकाद अली को शासन-प्रशासन ने भी कुछ नहीं कहा। यहां भी केवल हाथी के मालिक को ही पकड़कर जेल भेज दिया गया। थाने में जो एफआईआर लिखायी गयी है, उसमें इस बात का जिक्र नहीं है कि हाथी वहां क्यों आया था ? किसने बुलाया था ? यहां भी गरीब मार ही पड़ी। यह उस सरकार की हरकतें हैं, जो अपने आप को 'दलित' की सरकार कहती है। 'दलित' सरकार के नेताओं ने सामंतों को भी पीछे छोड़ दिया है। सच तो यह है कि मेरठ में 24 और 25 फरवरी को जो कुछ हुआ, वह एक भूखे हाथी का तांडव नहीं, सत्ता के मद में चूर 'हाथी' का तांडव था। एक भूखे हाथी के तांडव से पूरा शासन-प्रशासन कांप गया था, लेकिन उस दिन को याद करिए, जब देश का 'भूखी जनता' रुपी हाथी तांडव मचाने निकलेगा। तब इन 'सामंती' नेताओं को उस 'हाथी' से कौन बचाएगा ?

Tuesday, February 23, 2010

पाकिस्तान में सिखों की हत्याओं का विरोध करें भारतीय मुसलमान

सलीम अख्तर सिद्दीकी

पाकिस्तान में दो सिखों के सिर कलम करने की घटना निहायत ही निन्दनीय और घटिया है। किसी भी देश के अल्पसंख्यकों की रक्षा करना वहां की सरकार के साथ ही बहुसंख्यकों की भी होती है। लेकिन बेहद अफसोस की बात है कि पाकिस्तान और बंगला देश के अल्पसंख्यकों पर जुल्म कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं। दोनों ही देश अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में असफल साबित हुए हैं। इक्कीसवीं सदी में धर्म के नाम पर ऐसे अत्याचार असहनीय हैं। पाकिस्तान के जिस हिस्से पर तालिबान का राज चलता है, उस हिस्से के अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की खबरें ज्यादा है। वहां तो कभी का खत्म हो चुका 'जजिया' भी संरक्षण के नाम पर वसूला जा रहा है। 'जजिया' भी करोड़ों रुपयों में वसूले जाने की खबरें हैं। आज की तारीख में शायद ही किसी सउदी अरब जैसे पूर्ण इस्लामी देश में अल्पसंख्यकों से 'जजिया' लिया जाता हो। इस्लाम धर्म अपने देश के अल्पसंख्यको की पूर्ण रक्षा करने का निर्देश देता है। लेकिन ऐसा लगता है कि इसलाम के नाम पर उत्पात मचाने वालों ने इस पवित्र धर्म की शिक्षाओं को सही ढंग से समझा ही नहीं। इस्लाम साफ कहता है कि पड़ोसी के घर की रक्षा करना प्रत्येक मुसलमान का फर्ज है। पड़ोसी भूखा तो नहीं है, उसका ध्यान रखने की शिक्षा भी इसलाम देता है। पड़ोसी किस नस्ल या धर्म का है, यह बात कोई मायने नहीं रखती है। लेकिन ऐसा लगता है कि तालिबान मार्का इसलाम को मानने वालों के लिए वही सब कुछ ठीक है, जो वह कर रहे हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि पूरी दुनिया में मुसलमान भी अल्पसंख्यक की हैसियत से रहते हैं। जब अमेरिका इराक या अफगानिस्तान में मुसलमानों पर बम बरसाता है तो पूरी दुनिया के मुसलमानों को दर्द होना स्वाभाविक बात है। मुसलमानों का भी यह फर्ज बनता है कि वे किसी मुस्लिम देश में दूसरे धर्म के लोगों पर होने वाले अत्याचार के विरोध में भी सामने आएं। यह नहीं हो सकता कि जब अपने पिटे तो दर्द हो और जब दूसरा पिटे तो आंखें और जबान बंद कर लें। भारत में ही पूरे पाकिस्तान की आबादी के बराबर मुसलमान हैं। ठीक है। यहां भी गुजरात जैसे हादसे होते हैं। लेकिन यह भी याद रखिए कि जब भी भारत में मुस्लिम विरोधी हिंसा होती है तो बहुसंख्यक वर्ग के लोग ही उनके समर्थन में आते हैं। लेकिन पाकिस्तान या बंगला देश में कोई तीस्ता तलवाड़ या हर्षमंदर सामने नहीं आता है। यही वजह है कि इन दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की संख्या तेजी से घट रही है। अत्याचार से बचने के लिए उनके सामने धर्मपरिर्वतन ही एकमात्र रास्ता बचता है। सच बात तो यह है कि तालिबान मार्का इसलाम को मानने वाले लोग केवल दूसरे धर्म के लोगों को ही नहीं इसलाम धर्म को मानने वालों को भी नहीं बख्श रहे हैं। पाकिस्तान से आए हिन्दुओं को भारत कभी का आत्मसात कर चुका है। लेकिन विभाजन के वक्त भारत से गए उर्दू भाषी मुसलमानों को आज भी पाकिस्तान में मुहाजिर (शरणार्थी) कहा जाता है। उनको हर तरीके से प्रताड़ित किया जाता है। हालत यह हो गयी है कि मुहाजिर वहां के एक वर्ग में तब्दील हो गया है। यानि पंजाबी, पठान, सिंधी, ब्लूच के बाद मुहााजिर एक जाति हो गयी है। पाकिस्तान में हर रोज मरने वाले लोग का ग्राफ तेजी से बढ़ता जा रहा है। नब्बे के शुरु का वक्त मैंने पाकिस्तान के शहर कराची में गुजारा है। उस वक्त बेनजीर भुट्टो की सरकार थी। उनके दौर में मुहाजिरों पर जो जुल्म किए गए उसे देखकर रोंगटे खड़े जो जाते थे। मुहाजिर नौजवानों को निर्दयता से मारा जाता था। उस वक्त अखबार शहर के तापमान के साथ ही यह भी लिखता था कि आज कराची में कितनी हत्याएं हुईं। मुहाजिरों की हालत आज भी नब्बे के दशक वाली ही है। सुन्नी-शिया विवाद के चलते हजारों लोग मारे जा चुके हैं। एक-दूसरे की मस्जिदों पर बम फेंककर बेकसूर लोगों को मारना कौनसा जेहाद है, यह आज तक समझ नहीं आया। जबकि इसलाम साफ कहता है कि 'बेकसूर का कत्ल पूरी मानवता का कत्ल है।' हमारी तो समझ में नहीं आता है कि इन लोगों ने कौनसा इसलाम पढ़ लिया है। अब ऐसा इसलाम मानने वालों से यह उम्मीद करना कि वे दूसरे धर्म के मानने वालों के साथ बराबरी का सलूक करेंगे, बेमानी बात ही लगती है। लेकिन यही सोचकर पाकिस्तान को बख्शा भी नहीं जा सकता है। भारत सरकार की यह जिम्मेदारी बनती ही है कि वह पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों पर होने वाले अत्याचार के मामले में पाकिस्तान सरकार के समक्ष अपना विरोध दर्ज करे। पाकिस्तान में सिखों की हत्याओं पर भारतीय मुसलमानों की चुप्पी चुभने वाली है। भारतीय मुसलमानों को सिखों की हत्याओं के लिए पाकिस्तान की पुरजारे निन्दा करने के लिए सामने आना वाहिए।

Saturday, February 20, 2010

भगवा ब्रिगेड से वफा की उम्मीद, किस जमाने के आदमी बशीर बद्र तुम हो

सलीम अख्तर सिद्दीकी

पिछले तीन दिन से देश के मशहूर शायर डा0 बशीर बद्र अचानक मेरठ के मीडिया और भगवा ब्रिगेड के निशाने पर आ गए हैं। वाकया कुछ यूं है कि मीडिया के यू ट्यूब पर पाकिस्तान के शहर पेशावर में हुए किसी मुशाअरे की क्लिपिंग हाथ आ गयी, जिसमें वे यह कहते हुए बताए जाते हैं कि 1987 में हुए मेरठ के दंगों में दंगाईयों ने आग लगा दी थी। वहां उन्होंने कुछ अशआर यह कह कर भी पढ़े बताए जाते हैं कि मैं उन्हें वहां (भारत) में नहीं पढ़ सकता हूं। बस इसी बात को लेकर डा0 बशीर बद्र की राष्ट्रभक्ति का सवालिया निशान लग गया। भगवा ब्रिगेड की बात तो समझ में आती है कि वे ऐसे मुद्दों पर फौरन किसी की भी देशभक्ति पर प्रश्नवाचक चिह्‌न लगाने में देर नहीं लगाते, खासकर पाकिस्तान में या भारत में पाकिस्तान के बारे में कुछ कहना तो कयामत बुलाने जैसा हो जाता है। शाहरुख का मामला तो अभी ताजा ही है। आडवाणी तो इसी ब्रिगेड के सर्वमान्य नेता थे। लेकिन जब वे कराची में मौहम्मद अली जिनाह की मजार पर जाकर उन्हें सैक्यूलर बता आए थे तो इसी ब्रिगेड ने कितना हंगामा किया था। बशीर बद्र से सम्बन्धित खबरों को मेरठ के अखबारों ने इस एंगिल से लिखा है कि जैसे किसी दूसरे देश में अपनी व्यथा को बताना भी बहुत बड़ा देशद्रोह हो। खबर को भी इस मौके पर लिखा गया, जब डा0 बशीर बद्र 18 फरवरी को को चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में एक पत्रिका का विमोचन करने आने वाले थे। 19 फरवरी को उन्हें विश्वविद्यालय की ओर से मानद् उपाधि दी जाने वाली थी। इन खबरों का नतीजा है कि भगवा ब्रिगेड के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने बशीर बद्र के आगमन पर उनका विरोध शुरु कर दिया उनके पुतले फूंके गए। विरोध के चलते वे पत्रिका का विमोचन नहीं कर सके। बशीर बद्र को मानद् उपाधि तो दी गयी। लेकिन अखबारों ने लिखा कि उनको 'सम्मानित' स्थान पर बैठाने के बजाय 'कम सम्मानित' स्थान पर बैठाया गया।
बहरहाल, बशीर बद्र इसी वजह से मीडिया से सख्त नाराज दिखे। उन्होंने अपनी सफाई में कहा कि वे पिछले दस-पद्रहा सालों में पाकिस्तान ही नहीं गए। उनकी बात में दम हो सकता है, क्योंकि यह पता नहीं लगा पाया है कि फुटेज किस तारीख ही है। यूट्यूब पर पुरानी फुटेज भी मौजूद हैं। ऐसा हो सकता है कि वे अस्सी के दशक के आखिर में यहा नब्बे के दशक के शुरु में कभी पाकिस्तान गए हों और जज्बात की रौ में कुछ कह बैठे हों, क्योंकि तब जख्म भी ताजा था और भगवा ब्रिगेड का कहर भी जारी था।
लेकिन डा0 बशीर बद्र भी तो अपने गिरेबां में झांक कर देखें कि उन्होंने क्या किया था। 2004 के लोकसभा चुनाव होने वाले थे। डा0 बशीर बद्र को न जाने क्या सूझा कि उन्हें भगवा ब्रिगेड में अपना भविष्य नजर आने लगा था। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की शान में कसीदे पढ़ने शुरु कर दिए थे। ऐसे ही जैसे पुराने जमाने के कवि और शायर अपने बादशाह को खुश करने के लिए अपनी रचनाओं में उनकी झूठी वाह-वाह करते थे। उन्हें आस रहती थी कि बादशाह खुश होगा तो उनकी झोली अशरर्फियों से भर जाएगी। बादशाह के विरोध में लिखने वालों को क्या मिलता था। उम्र भर की काल कोठरी या फिर फांसी। डा0 बशीर बद्र ने भी शायद यही सोचा था कि अटल बिहारी वाजपेयी का गुणगान करेंगे तो पता नहीं 'बादशाह सलामत' किस चीज से नवाज दें। 2004 के बाद अटल बिहारी का युग खत्म हुआ तो डा0 बशीर बद्र की आशा भी दम तोड़ गईं। उनसे एक सवाल है कि क्या उस किसी शायर या कवि को, जो जनता की नुमाइन्दगी करने का दम भरता हो, उस हाकिम-ए-वक्त की शान में कसीदे पढ़ने चाहिए, जो उस पार्टी से ताल्लुक रखता हो, जिसने कारगुजारियों से देश का सैक्यूलर चरित्र खत्म हो गया था ? उनका बेहद मशहूर शेर है- 'कोई हाथ भी नहीं मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से। ये नए मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो।' अब उनके शेर की पैरोडी कुछ इस तरह से की जा सकती है- 'कोई मुंह भी नहीं लगाएगा, जो गले मिलोगे भगवा ब्रिग्रेड से, ये नए मिजाज की फौज है, जरा दूर ही रहा करो।' अब देखिए न। बशीर साहब कहते हैं कि 'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।' बशीर साहब ने कितनी मुश्किलों से अपनी अच्छी छवि बनायी थी। एक अटल बिहारी वाजपेयी की शान में कसीदे पढ़कर उन्होंने अपनी छवि को खुद ही जलाया था। अब रही सही कसर उसी भगवा ब्रिगेड ने पूरी कर दी, जिसकी शान में उन्होंने कसीदे पढ़े थे।

Monday, February 15, 2010

आतंकवाद को मुसलमानों से जोड़ना बंद हो

सलीम अख्तर सिद्दीकी
राजनीति का स्तर इस कदर नीचे आ जाएगा, इसकी कल्पना नहीं की गयी थी। आम आदमी के बुनियादी मुद्दों को छोड़कर राजनीति किसी भी मुद्दे पर की जा सकती है। आतंकवाद जैसे गम्भीर और राष्ट्रीय समस्या पर भी राजनैतिक दल राजनीति करने से बाज नहीं आते हैं। पुणे की जर्मन बेकरी में हुए बग धमाके के बाद यही किया जा रहा है। कुतर्क दिया जा रहा है कि क्योंकि महाराष्ट्र सरकार का पूरा जोर शाहरुख खान की फिल्म 'माय इज नाम खान' को रिलीज कराने पर लगा रहा और आतंकवादियों को अपना काम करने का मौका मिल गया। सवाल यह है कि अब तक जितने भी राज्यों में बम धमाके हुए हैं, उनकी राज्य सरकारें कब 'माय नेम इज खान' रिलीज सरीखे कामों में उलझी हुई थीं ? 26/11 से पहले तो महाराष्ट्र सरकार किसी फिल्म को रिलीज कराने में व्यस्त नहीं थी, फिर 26/11 कैसे हो गया था ? संसद पर हमले से पहले तो केन्द्र सरकार किसी फिल्म को रिलीज कराने में व्यस्त नहीं ? यह भी तो कहा जा सकता है कि यदि शिवसेना 'माय इज नेम खान' पर बेमतलब का बवंडर खड़ा नहीं करती तो महाराष्ट्र सरकार को अपनी पूरी ताकत मात्र एक फिल्म को रिलीज कराने में खर्च नहीं करनी पड़ती। क्या यह कहा जाए कि शिवसेना ने आतंकवादियों को मौका देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ? यहां यह सब लिखने का मतलब महाराष्ट्र सरकार को बरी करने का मकसद नहीं है। मकसद केवल बम धमाकों पर राजनीति करने वालों को तथ्यों से अवगत कराना मात्र है।
भारत बड़ा और विभिन्न नस्लों के लोगों का देश है। विभिन्न मांगों और समस्याओं से घिरे भारत में बहुत से वर्गों में असंतोष व्याप्त है। लेकिन इस्लामी आतंकवाद का ऐसा मिथक घड़ दिया गया है कि किसी भी आतंकवादी घटना में सिमी, अलकायदा, लश्कर, इंडियन मुजाहिदीन और आईएसआई का आंख मूंदकर हाथ मान लिया जाता है। आज तक यह बात समझ में नहीं आई कि बम धमाकों के चन्द घंटों बाद ही देश की खुफिया एजेंसियों की शक सूईं कैसे लश्कर या इंडियन मुजाहिदीन की ओर घूम जाती है ? यदि देश की खुफिया एजेंसियां इतनी ही काबिल हैं तो फिर बम धमाकों से पहले ही यह पता क्यों नहीं लगाया जाता कि आतंवादी कब और कहां आतंकवादी घटना को अंजाम दे सकते हैं। खुफिया एजेंसियां कुछ दिनों बाद लश्कर या इंडियन मुजाहिदीन के नाम पर चन्द मुसलमानों को बम धमाकों का मास्टर माइंड बता कर बात खत्म कर देती है। लेकिन बम धमाकों के मास्टर माइंड को लेकर खुफिया एजेंसियां और राज्यों की पुलिस में मतभेद होते रहे हैं। बटला हाउस एनकाउण्टर में में मारे गए आतिफ को 2008 में हुए दिल्ली, गुजरात, जयपुर और उत्तर प्रदेश के बम धमाकों का मास्टर माइंड बताया गया था। यह भी दावा किया गया था कि आतिफ ही इंडियन मुजाहिदीन का मास्टर माइंड था। इसके विपरीत गुजरात पुलिस ने दावा किया था कि अबुल बशर और सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर इंडियन मुजाहिदीन के असली मास्टर माइंड थे और उन्होंने ही गुजरात और जयपुर में बम धमाके किए थे। लेकिन राजस्थान पुलिस अबुल बशर को मास्टर माइंड मानने को तैयार नहीं थी। उत्तर प्रदेश का दावा था कि वाराणसी सहित उत्तर प्रदेश के अन्य शहरों में बम धमाके बंगला देश के संगठन हुजी के मास्टर माइंड वलीउल्लाह ने कराए थे।
खुफिया एजेंसियों और राज्यों की पुलिस के परस्पर विरोधी दावों के बीच पता चला था कि 'अभिनव भारत' नाम के एक संगठन के कुछ लोग भी बम धमाके करके लोगों की जान ले रहे थे। इसमें सबसे बुरी बात यह थी कि धर्मनिरपेक्ष समझी जाने वाली फौज का पुरोहित नाम का एक कर्नल बम धमाकों की साजिश रच रहा था। यह तो अच्छा हुआ था कि मालेगांव और हैदराबाद की मक्का मस्जिद समेत अन्य स्थानों पर हुए बम धमाकों में साध्वी प्रज्ञा सिंह और कर्नल पुरोहित की संलिप्तता सामने आ गयी थी, वरना खुफिया एजेंसियां इन बम धमाकों को भी सिमी या इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों के खाते में डलाकर इतिश्री कर लेती। हालांकि कई शहरों में हिन्दुवादी संगठन के लोग बम बनाते समय हुए विस्फोट में मारे गए थे, लेकिन पता नहीं किसके इशारे पर इन घटनाओं पर परदा डालने की कोशिश की गयी थी। शहीद हेमंत करकरे ने जांच करके पता लगाया था कि मालेगांव समेत कई शहरों में 'अभिनव भारत' नाम के एक संगठन ने धमाके किए थे। अब पुणे के बम धमाके को 26/11 के एक साल बाद पकड़ में आए हेडली को जिम्मेदार बताने की कवायद की जा रही है। इस धमाके के पीछे भारत और पाकिस्तान के बीच 25 फरवरी को विदेश सचिव स्तर की शुरु होने वाली वार्ता प्रभावित होने की अटकलें लगाई जा रही हैं। सवाल यह है कि जब अभी तक यही पता नहीं चला है कि पुणे बम विस्फोट में पाकिस्तान का हाथ है तो वार्ता स्थगित करने की मांग क्यों की जा रही हैं। करने की बातें भी की जा रही है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। जब भी भारत और पाकिस्तान करीब आना चाहते हैं, अक्सर इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम दिया जाता रहा है। सवाल यह है कि भारत और पाकिस्तान करीब न आने पाए, यह कौन चाहता है ? जब शिवसेना जैसे संगठन आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खिलाने की मात्र बात करने से ही हायतौबा मचाते हों, वह कैसे यह बर्दाश्त करेंगे कि भारत और पाकिस्तान बातचीत करें। यह नहीं भूलना चाहिए कि 'अभिनव भारत' के लोगों का ताल्लुक भी महाराष्ट्र से है। किसी भी बम धमाके के बाद कूदकर शक की सूई तब तक किसी की ओर घूमाने से पहले खुफिया एजेंसियों को सही तरह से जांच-पड़ताल करना बहुत जरुरी है। चन्द घंटों की जांच की बाद ही किसी की ओर शक की सूई धुमाने से खुफिया एजेंसियां की नीयत पर सवाल उठेंगे ही।
ऐसा नहीं है कि आतंकवाद की आग में मुसलमान नहीं झुलसे हैं। 18 फरवरी 2007 को समझौता एक्सप्रेस, 18 मई 2007 को हैदराबाद की मक्का मस्जिद, 8 सितम्बर 2007 को मालेगांव की एक मस्जिद, 11 अक्टूबर 2007 को अजमेर की दरगाह में हुए बम धमाकों में सौ से अधिक लोग मारे गए थे। मरने वाले सभी मुसलमान थे। बम धमाकों में बेगुनाह लोगों की जान लेने वालों की पहचान बहुत जरुरी है। लेकिन जब तक आतंकवाद जैसे गम्भीर और राष्ट्रीय समस्या को एक ही समुदाय से जोड़कर राजनीति होती रहेगी, आतंकवाद को खाद-पानी मिलता रहेगा।

Thursday, February 11, 2010

मातोश्री जिनाह हाउस और महाराष्ट्र बना वजीरिस्तान

सलीम अख्तर सिद्दीकी
देश के बंटवारे के जिम्मेदार माने जाने वाले मौहम्मद अली जिनाह की रिहाईश जिनाह हाउस मुंबई मैं है, तो महाराष्ट्र को देश से अलग करने की साजिश रचने वाले बाल ठाकरे का निवास 'मातोश्री' भी मुंबई मैं ही है। ऐसा लगता कि मातोश्री जिनाह हाउस बन गया है और महाराष्ट्र को बालठाकरे ने पाकिस्तान का वजीरिस्तान बना दिया है। वजीरिस्तान में भी तालिबान के सामने पाकिस्तान सरकार की नहीं चलती है तो महाराष्ट्र में शिवसेना की समानान्तर सरकार काम कर रही है। यदि महाराष्ट्र में सरकार नाम की कोई चीज होती तो 'माय नेम इज खान' जरुर रिलीज होती। मल्टीप्लेक्स मालिकों को सरकार पर भरोसे के बजाय शिवसेना की दहशत ज्यादा है। तभी मल्टीप्लेक्स मालिकों ने 'माय नेम इज खान' को दिखाने से मना कर दिया है। अशोक चव्हाण की बेशर्मी देखिए कि वह कहते हैं कि मल्टीप्लेक्स मालिकों का माय नेम इज खान नहीं दिखाने का उनका निजि फैसला है। फिल्म नहीं दिखाने का फैसला शिवसेना की जीत और सरकार की शर्मनाक हार है। ऐसे ही जैसे वजीरिस्तान में तालिबान के सामने पाकिस्तान की सरकार घुटने टेक देती है।
शाहरुख खान ने यह अच्छा किया कि अमिताभ बच्चन की तरह 'मातोश्री' के आगे सिर नहीं झुकाया। बाल ठाकरे की तानाशाही का डटकर मुकाबला करने के लिए पूरा देश उनके साथ आ गया है। सच तो यह है कि अमिताभ बच्चन जैसे लोगों ने ही बाल ठाकरे के भाव बढ़ाएं हैं। जब मुंबई में रह रहे उत्तर भारतीय लोग अमिताभ बच्चन और शरद पवार जैसों को 'मातोश्री' में जाकर सिजदा करते समय की तस्वीरें देखते होंगे मो उनका मनोबल और ज्यादा टूटता होगा। उनके दिल में यह बात जरुर आती होगी कि जब इतने बड़े लोगों को 'मातोश्री' के आगे सिजदा करना पड़ता है तो उनकी तो औकात ही क्या है। इसलिए वह मनसे और शिवसेना के गुंडों का मुकाबला करने के बजाय उनके सामने सिर झुका देते हैं या अपने गांव वापस आ जाते हैं। शाहरुख खान ने शेर की मांद में हाथ डालने की जुर्रत की है तो उत्तर भारतीयों की हिम्मत में भी इजाफा जरुर हुआ होगा।
दरसअल, शिवसेना, मनसे, कांग्रेस और एनसीपी ने राजनीति की बिसात पर देश की एकता और अखंडता को दांव लगा दिया है। महाराष्ट्र को एक साजिश के तहत देश से काटने की जमीन तैयार की जा रही है। सभी पार्टियां महाराष्ट्र में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए जोड़-तोड़ कर रही हैं। इनकी लड़ाई में आम आदमी पिस रहा है। मीडिया में यह तो आता है कि किस पार्टी ने किस पार्टी या व्यक्ति पर निशाना साधा, यह नहीं आता कि आम आदमी क्या चाहता है। एक आदमी, जो देश के दूर-दराज इलाकों से अपना पेट पालने के लिए मुंबई आया है, उसकी क्या दशा है ? उसे कौन शिवसेन या मनसे के गुंडों से बचाएगा। कांग्रेस के युवराज मुंबई में बिंदास घूमकर आ गए। खबर बनी कि राहुल ने शिवसेना के मुंह पर तमांचा मार दिया है। यह याद रखिए कि राहुल 'युवराज' हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार है। वह महाराष्ट्र में तो क्या देश के किसी भी कोने में बिंदास घूम सकते है। लेकिन इलाहाबाद के किसी राम खिलावन की टैक्सी पर मनसे या शिवसेना के गुंडे हॉकियों से हमला कर देते हैं या उसके घर का सामान सड़क पर फेंक देतें है, उसका बचाने कौन आता है ? सब कुछ सहकर भी वह मुंबई छोड़ने को तैयार नहीं है। शाबाशी तो राम खिलावन को मिलनी चाहिए, राहुल गांधी को नहीं। जिस दिन राम खिलावन मुंबई की सड़कों पर बिंदास घूमेगा उस दिन लगेगा कि राहुल का मुंबई की लोकल रेल में बिंदास घूमना कामयाब रहा।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री आदेश देते हैं कि मुंबई के टैक्सी चालकों को मराठी लिखना-पढ़ना अनिवार्य है। उनके इस बयान के बाद उन्हें मुख्यमंत्री क्यों बने रहना चाहिए ? जब एक प्रदेश का मुख्यमंत्री ही भाषावाद फैलाएगा तो शिवसेना और मनसे की नाक में नकेल कौन डालेगा ? मुख्यमंत्री भी उस कांग्रेस पार्टी का, जो अपने आप को भाषावाद और क्षेत्रवाद से अलग मानती है। यूपीए सरकार के केन्द्रीय मंत्री शरद पवार 'मातोश्री' इसलिए जाते हैं ताकि बाल ठाकरे को इस बात के लिए मना सकें कि आईपीएल में आस्ट्रेलिाई खिलाड़ियों को खेलने दें। कितनी हैरत की बात है कि 'सरकार' उस आदमी के पास चलकर जा रही है, जो अपने आप को न केवल कानून से अलग समझता है, बल्कि देश को भाषा और क्षेत्र के नाम पर एक और विभाजन की ओर ले जाना चाहता है। अब ऐसी सरकार के लिए आम आदमी तक क्या संदेश जाएगा ? यही न कि बाल ठाकरे की हैसियत सरकार से भी बड़ी है। ऐसी सरकार के रहते आम आदमी अपनी सुरक्षा के लिए किस के पास जाए ?
राज ठाकरे की महाराष्ट्र निर्माण सेना पता नहीं महाराष्ट्र का किस तरह से निर्माण करना चाहती है ? लेकिन उसने विधान सभा में अपने तेरह विधायकों को जिताकर अपने निर्माण की प्रक्रिया तो शुरु कर ही दी है। लेकिन यहां यह याद रखना जरुरी है कि मनसे के जो तेरह विधायक जीत कर आए हैं, उसमें कांग्रेस का भी बड़ा योगदान है। क्योंकि कांग्रेस शिवसेना को कमजोर करने के लिए मनसे को मौन समर्थन देती रही है। इसलिए महाराष्ट्र में जो कुछ हो रहा है, इसके लिए कांग्रेस को बरी नहीं किया जा सकता है। महाराष्ट्र की सरकार मनसे को कुचलने की मंशा नहीं रखती है। वह बालठाकरे परिवार की लड़ाई में अपना हित साध रही है। इधर, मनसे की बढ़त से बौखलाई शिवसेना के सुप्रीमो बालठाकरे ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। तभी तो वह शाहरुख के पीछे बेमतलब ही हाथ धोकर पीछे पड़ गए हैं। यह दोगली बातें नहीं हैं और तो क्या हैं, बालठाकरे तो दाउद इब्राहीम के साढू जावेद मियांदाद को 'मातोश्री' में बुलाकर उनकी खातिर तवाजों करें, लेकिन शाहरुख खान को इतना हक नहीं है कि वह आईपीएल-3 में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खिलाने का समर्थन कर सकें। शाहरुख की फिल्म 'माय नेम इज खान' को महाराष्ट्र में रिलीज न होने देना उनके 'मानसिक संतुलन' खो देने की पुष्टि करती है।

Saturday, February 6, 2010

राहुल गाँधी बोल्या----- मुंबई में मनमानी नहीं चलेगी

शेष नारायण सिंह

राहुल गांधी ने अपनी मुंबई यात्रा से साबित कर दिया है कि उनमें जन नेता बनने की वही ताकत है जो उनके पिताजी के नाना जवाहर लाल नेहरू में थी। जवाहरलाल नेहरू के बारे में बताते हैं कि वे भीड़ के अंदर बेखौफ घुस जाते थे। राहुल गांधी ने उससे भी बड़ा काम किया है। उन्होंने मुंबई में आतंक का पर्याय बन चुके ठाकरे परिवार और उनके समर्थकों को बता दिया है कि हुकूमत और राजनीतिक इच्छा शक्ति की मजबूती के सामने बंदर घुड़की की राजनीति की कोई औकात नहीं है।शुक्रवार को मुंबई में राहुल गांधी उन इलाकों में घूमते रहे जो शिवसेना के गढ़ माने जाते हैं लेकिन शिवसेना के आला अधिकारी बाल ठाकरे के हुक्म के बावजूद कोई भी शिवसैनिक उनको काले झंडे दिखाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। अपनी मुंबई यात्रा के दौरान राहुल गांधी के व्यवहार से एक बात साफ हो गई है कि अब मुंबई में शिवसेना का फर्जी भौकाल खत्म होने के मुकाम पर पहुंच चुका है। सुरक्षा की परवाह न करते हुए राहुल गांधी ने उन इलाकों की यात्रा आम मुंबईकर की तरह की जहां शिवसेना और राज ठाकरे के लोगों की मनमानी चलती है। लेकिन राहुल गांधी ने साफ बता दिया कि अगर सरकार तय कर ले तो बड़ा से बड़ा गुंडा भी अपनी बिल में छुपने को मजबूर हो सकता है।मुंबई में राहुल गांधी का कार्यक्रम एसपी.जी. की सुरक्षा हिसाब से बनाया गया था। सांताक्रज हवाई अड्डे पर उतरकर उन्हें हेलीकोप्टर से जुहू जाना था जहां कालेज के कुछ लडके -लड़कियों के बीच में उनका भाषण था। यहां तक तो राहुल गांधी ने सुरक्षा के हिसाब से काम किया। कालेज में भाषण के बाद राहुल गांधी को फिर हेलीकाप्टर से ही घाटकोपर की एक दलित बस्ती में जाना था लेकिन उन्होंने इस कार्यक्रम को अलग करके मुंबई की लोकल ट्रेन से वहां पहुंचने का फैसला किया। जुहू से अंधेरी रेलवे स्टेशन पहुंचे, वहां एटीएम से पैसा निकाला, फिर वहां से चर्चगेट की फास्ट लोकल पकड़ी। दादर में उतरे और पुल से स्टेशन पार किया जैसे आम आदमी करता है। दूसरी तरफ जाकर सेंट्रल रेलवे के दादर स्टेशन से घाटकोपर की ट्रेन पर बैठे और आम आदमियों से मिलते जुलते अपने कार्यक्रम में पहुंच गए। शिवसेना वाले अपने मालिक के हुक्म को पूरा नहीं कर पाए और शहर में कहीं भी काले झंडे नहीं दिखाए गये।राहुल गांधी की हिम्मत के यह चार घंटे भारत में गुंडई की राजनीति के मुंह पर एक बड़ा तमाचा है। अजीब इत्तफाक है कि इस देश में गुंडों को राजनीतिक महत्व देने का काम राहुल गांधी के चाचा, स्व. संजय गांधी ने ही शुरू किया था। और अब गुंडों को राजनीति के हाशिए पर लाने का बिगुल भी नेहरू के वंशज राहुल गांधी ने ही फूंका है। जो लोग मुंबई का इतिहास भूगोल जानते हैं, उन्हें मालूम है कि अंधेरी से लोकल ट्रेन के जरिए घाटकोपर जाना अपने आप में एक कठिन काम है। जिन रास्तों से होकर ट्रेन गुजरती है वह सभी शिवसेना के प्रभाव के इलाके हैं और वहां कहीं भी,कोई भी आम आदमी राहुल गांधी के खिलाफ नहीं खड़ा हुआ। इससे यह बात साफ है कि मुंबई महानगर में भी कुछ कार्यकर्ताओं के अलावा बाल ठाकरे और राज ठाकरे के साथ कोई नहीं है।हालांकि यह मानना भी नहीं ठीक होगा कि सुरक्षा एजेंसियों ने राहुल गांधी की हर संभव सुरक्षा का पक्का इंतजाम नहीं किया होगा लेकिन मुंबई में शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुकामी दादाओं के आतंक के साए में रह रहे लोगों का यह मुगालता जरूर टूटेगा कि शिवसेना वालों को कोई नहीं रोक सकता। राहुल गांधी की ताज़ा मुंबई यात्रा से यह संदेश जरूर जायेगा कि अगर हुकूमत तय कर ले तो कोई भी मनमानी नहीं कर सकता। पता चला है कि पुलिस ने शिवसेना के मुहल्ला लेवेल के नेताओं को ठीक तरीके से धमका दिया है और पुलिस की भाषा में धमकाए गए यह मुकामी दादा लोग आने वाले वक्त में जोर जबरदस्ती करने से पहले बार बार सोचेंगे। कुल मिलाकर राहुल गांधी ने शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के फर्जी भौकाल पर लगाम लगाकर आम मुंबईकर को यह भरोसा दिलाया है कि सभ्य समाज और बाकी राजनीतिक बिरादरी भविष्य में उसे शिवसेना छाप राजनीति के रहमोकरम पर नहीं छोड़ेगी।

Friday, February 5, 2010

अमिताभ बच्चन में जमीर नाम की चीज है या नहीं ?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
यूपी में सपा का दम निकलने के बाद या कहें कि अमर सिंह के साथ मिलकर सपा का दम निकालने के बाद अमिताभ बच्चन ने अब गुजरात में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए गुजरात का ब्रांड एम्बेसेडर बनने का निर्णय लिया है। सपा से अमर सिंह की विदाई के बाद अमिताभ बव्वन ने शायद यही सोचा होगा कि उत्तर प्रदेश से बोरिया बिस्तर समेटने में भलाई है। इसलिए अब वह नरेन्द्र मोदी के कारनामों से बदनाम हुए गुजरात में पर्यटकों को आकृषित करने के लिए उसके ब्रांड एम्बेसेडर बन गए हैं। टेलीविजन पर अमिताभ बच्चन महीनों तक 'यूपी में हैं दम, क्योंकि यहां जुर्म हैं कम' चिल्लाते रहे, लेकिन यूपी में जुर्म तो कम नहीं हुआ लेकिन अमिताभ की तिजोरी में करोड़ों रुपए का इजाफा जरुर हो गया होगा। अमिताभ को यूपी से कोई मौहब्बत नहीं थी कि वे मुफ्त में ही सब कुछ कर रहे थे। मुलायम सिंह का गुणगान करने के लिए उन्हें पैसा दिया गया था। अब अमिताभ बच्चन उस गुजरात में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए काम करेंगे, जिसके मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं और हजारों बेगुनाह लोगों के खून से जिनके हाथ रंगे हुए हैं। अस्सी दशक का 'एंग्रीयंग' मेन, जो गरीब गुरबों की लड़ाई को पर्दे पर लड़ता दिखता था, अब पैसों के पीछे भागने वाला एक इंसान बन गया है, जो किसी भी तरीके से पैसा कमाना चाहता है।'रण' फिल्म में अमिताभ बच्चन हिन्दु-मुस्लिम एकता की पैरवी करते नजर आए थे तो फिल्म 'देव' में एक मुख्यमंत्री की शह पर हुए कत्लेआम का राज फाश करने के लिए अपनी जान देने कुर्बान करते हुए दिखाई दिए थे। फिल्म 'देव' में श्याम बेनेगल ने गुजरात नरसंहार को ही अपनी विषय-वस्तु बनाया था। लेकिन फिल्म तो फिल्म है। हकीकत तो यह है कि अमिताभ बच्चन सिर्फ और सिर्फ एक प्रोफेशनल आदमी हैं। पैसों के लिए वह 'बूम' जैसी घटिया फिल्म में काम कर सकते हैं। उनके परिवार की फिल्में महाराष्ट्र में बिना किसी बाधा के रिलीज होती रहें, इसके लिए वह बाल ठाकरे और राज ठाकरे की ड्योढी पर सिर नवाने से भी परहेज नहीं करते। भले ही उनके शहर इलाहाबाद के लोगों को राज ठाकरे के गुंडे मार-मार कर मुंबई से भगाते रहें।
अब जब अमिताभ गुजरात के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए गुजरात के ब्रांड एम्बेसेडर बन ही गए हैं तो उन्हें दुनिया को यह बताना चाहिए कि गुजरात में नरोदा पाटिया, गुलबर्गा सोसायटी और बेस्ट बेकरी नाम की जगह भी हैं, जहां प्रदेश के 'जांबाज' मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की शह पर सैकड़ों लोगों को जिन्दा जला दिया गया था। उन राहत कैम्पों के बारे में भी विस्तार से दुनिया को जानकारी दें, जिनमें आज भी बहुत सारे लोग इसलिए नारकीय जीवन बिता रह हैं, क्योंकि उनका घर-बार सब कुछ लुट लिया गया है और गुजरात सरकार जिन्हें मुआवजे के रुप में चन्द रुपयों से नवाज रही है। गुजरात के उस अलिखित कानून का भी जिक्र करें, जिसके तहत एक समुदाय के लोगों को किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं दी जाती है। बिलकीस बानो के बारे में भी बताना चाहिए, जिसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था। 19 साल की छात्रा इशरत जहां के बारे में भी जरुर बताएं, जिसे आतंकवादी बताकर फर्जी मुडभेड़ में मार दिया गया था। सोहराबुद्दीन शेख में बारे में भी जानकारी दें कि कैसे उसको फर्जी मुठभेड़ में मारकर उसकी पत्नि की लाश तक को गायब कर दिया था। मुख्यमंत्री की शह पर गुजरात के दर्जनों युवकों को आतंकवादी बताकर फर्जी मुठभेड़ों में मारने वाले पुलिस अधिकारी डीके बंजारा की 'बहादुरी' की भी जरुर चर्चा करें।
लगता है कि अमिताभ बच्चन का जमीर जैसी किसी चीज से कोई मतलब नहीं है। यदि अमिताभ के पास जमीर नाम की चीज होती तो वह गुजरात का ब्रांड एम्बेसेडर बनना मंजूर नहीं करते। यदि वह ऐसा कर पाते तो यह फासिस्ट ताकतों के मुंह पर एक तमांचा होता और मजलूम लोगों के दिलों में सम्मान पाते। पता नहीं अमिताभ बच्चन नरेन्द्र मोदी के बारे में क्या विचार रखते है, लेकिन पूरी दुनिया उन्हें मानवता का कातिल मानती है। इसीलिए अमेरिका भी उन्हें वीजा जारी नहीं करता। लेकिन अमिताभ को इससे क्या, उन्हें तो पैसा चाहिए इसके लिए वह सब कुछ कर सकते हैं। तेल बेच सकते हैं। उत्तर प्रदेश में जुर्म कम बता सकते हैं। यहां तक कि नरेन्द्र मोदी के राज्य के ब्रांड एम्बेसेडर भी बन सकते हैं। गुजरात का ब्रांड एम्बेसेडर बनने से पहले अमिताभ बच्चन को सोचना चाहिए था कि वह देश में 'रील' के महानायक कहे जाते हैं। 'रियल' में महानायक बनने के लिए उन्हें पैसों का मोह छोड़कर उस मजलूम आदमी के जज्बातों को भी समझना होगा, जो उन्हें फिल्मों में मजलूम की लड़ाई लड़ता देखकर अपने करीब समझने लगता है। नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा होकर अमिताभ बच्च्न को पैसा तो मिल सकता है, लेकिन उन लोगों की हमदर्दी और प्यार नहीं मिल सकता, जो नरेन्द्र मोदी के सताए हुए हैं।

Monday, February 1, 2010

'प्रेस' शब्द का बढ़ता दुरुपयोग

सलीम अख्तर सिद्दीकी
आजकल जिसे देखों 'पे्रस' वाला होना चाहता है। आजकल 'प्रेस' होने वाला आसान भी बहुत हो गया है। किसी साप्ताहिक समाचार-पत्र के मालिक-सम्पादक को पांच सौ रुपए का नोट थमाएं और एक घंटे में आपके पास चमचाता हुई अखबार का आई-कार्ड आ जाएगा। इतने पैसे तो साधारण संवाद्दाता बनने के लगते हैं। चीफ रिपोर्टर या ब्यूरो चीफ बनना चाहते हैं तो जेब बहुत ज्यादा ढीली करनी पड़ती है। कार्ड हाथ में आने के बाद अब आपके घर में जितने भी वाहन हैं, सब पर शान से प्रेस लिखवाएं और सड़कों पर रौब गालिब करते घूमें। इससे कोई मतलब नहीं है कि आपको अपने हस्ताक्षर करने आते हैं या नहीं। कभी एक भी लाईन लिखी है या नहीं। आपके पास किसी अखबार का कार्ड है तो आप प्रेस वाले हैं। हद यह है कि गैर कानूनी काम करने वाले भी अपने पास दो-तीन अखबारों के कार्ड रखते हैं। पैसे देकर कार्ड बनाने वाले अखबारों के तथाकथित मालिक और सम्पादक भी अपन जान बचाने के लिए कार्ड के पीछे एक यह चेतावनी छाप देते हैं कि 'यदि कार्ड धारक किसी गैरकाूनी गतिविधियों में लिप्त पाया जाता है तो उसका वह खुद जिम्मेदार होगा और उसी समय से उसका कार्ड निरस्त हो जाएगा।' जिन अखबारों के नाम में 'मानवाधिकार' शब्द का प्रयोग हो तो उस अखबार के कार्ड की कीमत पांच से दस हजार रुपए तक हो सकती है। इसकी वजह यह है कि आप अखबार वाले के साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हो जाते हैं। लोगों की आम धारणा है कि पुलिस और प्रशासन 'प्रेस' और 'मानवाधिकार' शब्द से बहुत खौफ खाते हैं। अब तो कुछ तथाकथित न्यूज चैनल भी 'ब्यूरो चीफ' बनाने के नाम पर दो लाख रुपए तक वसूल रहे हैं। न्यूज चैनल कभी दिखाई नहीं देता लेकिन उसके संवाददाता कैमरा और आईडी लेकर जरुर घूमते नजर आ जाते हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती। बड़े अखबारों के एकाउंट सैक्शन, विज्ञापन सैक्शन और मशीनों पर अखबार छापने वाले वाले तकनीश्यिन भी अपने वाहनों पर धड़ल्ले से प्रेस लिखकर घूमते है। यहां तक की अखबार बांटने वाला हॉकर भी प्रेस शब्द का प्रयोग करते देखा जा सकता है। यही कारण है कि सड़कों पर चलने वाली प्रत्येक दूसरी या तीसरी मोटर साइकिल, स्कूटर और कार पर प्रेस लिखा नजर आ जाएगा। यकीन नहीं आता तो अपने शहर की किसी व्यस्त सड़क पर पांच-दस मिनट बाद खड़े होकर देख लें। कम-से-कम मेरठ की सड़कों का तो यही हाल है। 'प्रेस' से जुड़ने की लालसा के पीछे का कारण भी जान लीजिए। शहर में वाहनों की चैकिंग चल रही है तो वाहन पर प्रेस लिखा देखकर पुलिस वाला नजरअंदाज कर देता है। मोटर साइकिल पर तीन सवारी बैठाकर ले जाना आपका अधिकार हो जाता है, क्योंकि आप प्रेस से हैं। किसी को ब्लैकमेल करके भारी-भरकम पैसा कमाने का मौका भी हाथ आ सकता है। प्रेस की आड़ में थाने में दलाली भी की जा सकती है। देखा, है ना प्रेस वाला बनने में फायदा ही फायदा। तो आप कब बन रहे हैं, प्रेस वाले ?