सलीम अख्तर सिद्दीकी
पिछले तीन दिन से देश के मशहूर शायर डा0 बशीर बद्र अचानक मेरठ के मीडिया और भगवा ब्रिगेड के निशाने पर आ गए हैं। वाकया कुछ यूं है कि मीडिया के यू ट्यूब पर पाकिस्तान के शहर पेशावर में हुए किसी मुशाअरे की क्लिपिंग हाथ आ गयी, जिसमें वे यह कहते हुए बताए जाते हैं कि 1987 में हुए मेरठ के दंगों में दंगाईयों ने आग लगा दी थी। वहां उन्होंने कुछ अशआर यह कह कर भी पढ़े बताए जाते हैं कि मैं उन्हें वहां (भारत) में नहीं पढ़ सकता हूं। बस इसी बात को लेकर डा0 बशीर बद्र की राष्ट्रभक्ति का सवालिया निशान लग गया। भगवा ब्रिगेड की बात तो समझ में आती है कि वे ऐसे मुद्दों पर फौरन किसी की भी देशभक्ति पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाने में देर नहीं लगाते, खासकर पाकिस्तान में या भारत में पाकिस्तान के बारे में कुछ कहना तो कयामत बुलाने जैसा हो जाता है। शाहरुख का मामला तो अभी ताजा ही है। आडवाणी तो इसी ब्रिगेड के सर्वमान्य नेता थे। लेकिन जब वे कराची में मौहम्मद अली जिनाह की मजार पर जाकर उन्हें सैक्यूलर बता आए थे तो इसी ब्रिगेड ने कितना हंगामा किया था। बशीर बद्र से सम्बन्धित खबरों को मेरठ के अखबारों ने इस एंगिल से लिखा है कि जैसे किसी दूसरे देश में अपनी व्यथा को बताना भी बहुत बड़ा देशद्रोह हो। खबर को भी इस मौके पर लिखा गया, जब डा0 बशीर बद्र 18 फरवरी को को चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में एक पत्रिका का विमोचन करने आने वाले थे। 19 फरवरी को उन्हें विश्वविद्यालय की ओर से मानद् उपाधि दी जाने वाली थी। इन खबरों का नतीजा है कि भगवा ब्रिगेड के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने बशीर बद्र के आगमन पर उनका विरोध शुरु कर दिया उनके पुतले फूंके गए। विरोध के चलते वे पत्रिका का विमोचन नहीं कर सके। बशीर बद्र को मानद् उपाधि तो दी गयी। लेकिन अखबारों ने लिखा कि उनको 'सम्मानित' स्थान पर बैठाने के बजाय 'कम सम्मानित' स्थान पर बैठाया गया।
बहरहाल, बशीर बद्र इसी वजह से मीडिया से सख्त नाराज दिखे। उन्होंने अपनी सफाई में कहा कि वे पिछले दस-पद्रहा सालों में पाकिस्तान ही नहीं गए। उनकी बात में दम हो सकता है, क्योंकि यह पता नहीं लगा पाया है कि फुटेज किस तारीख ही है। यूट्यूब पर पुरानी फुटेज भी मौजूद हैं। ऐसा हो सकता है कि वे अस्सी के दशक के आखिर में यहा नब्बे के दशक के शुरु में कभी पाकिस्तान गए हों और जज्बात की रौ में कुछ कह बैठे हों, क्योंकि तब जख्म भी ताजा था और भगवा ब्रिगेड का कहर भी जारी था।
लेकिन डा0 बशीर बद्र भी तो अपने गिरेबां में झांक कर देखें कि उन्होंने क्या किया था। 2004 के लोकसभा चुनाव होने वाले थे। डा0 बशीर बद्र को न जाने क्या सूझा कि उन्हें भगवा ब्रिगेड में अपना भविष्य नजर आने लगा था। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की शान में कसीदे पढ़ने शुरु कर दिए थे। ऐसे ही जैसे पुराने जमाने के कवि और शायर अपने बादशाह को खुश करने के लिए अपनी रचनाओं में उनकी झूठी वाह-वाह करते थे। उन्हें आस रहती थी कि बादशाह खुश होगा तो उनकी झोली अशरर्फियों से भर जाएगी। बादशाह के विरोध में लिखने वालों को क्या मिलता था। उम्र भर की काल कोठरी या फिर फांसी। डा0 बशीर बद्र ने भी शायद यही सोचा था कि अटल बिहारी वाजपेयी का गुणगान करेंगे तो पता नहीं 'बादशाह सलामत' किस चीज से नवाज दें। 2004 के बाद अटल बिहारी का युग खत्म हुआ तो डा0 बशीर बद्र की आशा भी दम तोड़ गईं। उनसे एक सवाल है कि क्या उस किसी शायर या कवि को, जो जनता की नुमाइन्दगी करने का दम भरता हो, उस हाकिम-ए-वक्त की शान में कसीदे पढ़ने चाहिए, जो उस पार्टी से ताल्लुक रखता हो, जिसने कारगुजारियों से देश का सैक्यूलर चरित्र खत्म हो गया था ? उनका बेहद मशहूर शेर है- 'कोई हाथ भी नहीं मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से। ये नए मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो।' अब उनके शेर की पैरोडी कुछ इस तरह से की जा सकती है- 'कोई मुंह भी नहीं लगाएगा, जो गले मिलोगे भगवा ब्रिग्रेड से, ये नए मिजाज की फौज है, जरा दूर ही रहा करो।' अब देखिए न। बशीर साहब कहते हैं कि 'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।' बशीर साहब ने कितनी मुश्किलों से अपनी अच्छी छवि बनायी थी। एक अटल बिहारी वाजपेयी की शान में कसीदे पढ़कर उन्होंने अपनी छवि को खुद ही जलाया था। अब रही सही कसर उसी भगवा ब्रिगेड ने पूरी कर दी, जिसकी शान में उन्होंने कसीदे पढ़े थे।
aap ke jhn ki asliyt yhan dikhti hai bhgva aur gai bhgava ki khai hi to aaj tk aap paida krte rhe hain ydi bhgva briged glt kr rhi hai to aap ne yh drsha kr kya shi kr diya is khai ko aap kb tk chaoda krte rhenge yh koi hl hai
ReplyDeletedr.ved vyathit
जब बशीर बद्र ने भाजपा की सदस्यता लेने की चापलूसी में यह कहा था कि वे भाजपा कार्यालय में झाड़ू लगाने को भी तैय्यार हैं तो उनके शेर की जो पैरोडी सूझी थी वो यूं थी-
ReplyDeleteकुछ तो मजबूरियाँ रही होंगीं
यूं कोई भाजपा नहीं होता