Friday, July 24, 2009

अदने से पत्रकार की इतनी हिम्मत अमिताभ को आइना दिखाने की जुर्रत करे!

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
मुंबई के अंग्रेजी टेब्लायड अखबार मिड-डे में अमिताभ बच्चन के परिवार के द्वारा पर्यावरण को हानि पहुंचानी वाली स्पोर्ट्स यूटिलिटी वेन के इस्तेमाल करने, जो कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन अन्य गाड़ियों की तुलना में अधिक करती है, की आलोचना के जवाब में मिड-डे के संवाददाता तुषार जोशी पर अपने ब्लॉग पर सवालों की झड़ी लगा दी है। अमिताभ ने जो सवाल किए हैं, वे बचकाना ही नहीं, बेमतलब भी हैं। मसलन उनका यह कहना कि 'अखबारी कागज पेड़ों की छाल से तैयार किया जाता है, जिसके लिए हरे पेड़ों को काटकर पर्यावरण को बिगाड़ा जा रहा है, इसलिए अखबार छपने बन्द होने चाहिए।' उन्होंने तुषार जोशी को मोबाइल इस्तेमाल नहीं करने की सलाह दी है, क्योंकि मोबाइल के इस्तेमाल से सेहत पर गलत असर पड़ता है।
अमिताभ बच्चन को क्या यह नहीं पता कि कागज पर सिर्फ अखबार ही नहीं छपता, किताबें और कापियां भी छपती हैं। क्या पढ़ना-लिखना बन्द कर देना चाहिए ? स्कूलों में ताले डाल देने चाहिए ? अमिताभ बच्चन साहब अखबार अभी तक आज की जरुरत है। इनका विकल्प नहीं है। ठीक है। न्यूज चैनल हैं। इंटरनेट है। लेकिन ये कभी भी अखबार का विकल्प नहीं हो सकते। मोबाइल से समय और पैसे की भारी बचत होती है। इसका फिलहाल विकल्प नहीं है। हां, यूएसवी का विकल्प है।
अमिताभ ने मिड-डे को अपने ब्लॉग माध्यम से जो जवाब दिए हैं, उनमें अपनी गलती को मानने की मंशा कम मुंहजोरी ज्यादा दिखाई दे रही है। उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा है कि 'चलिए मैं मान लेता हुं मेरी गलती है। भूल हो गयी मैं अपनी भूल को सुधारुंगा भी।' यदि अमिताभ यही कहकर अपनी बात खत्म कर देते तो ठीक था। लेकिन वे अमिताभ बच्चन हैं। इस सदी के महानायक कहलाते हैं। उन्हें भला ये कैसे गंवारा होता कि एक अदना सा पत्रकार उन्हें नसीहत देने की जुर्रत करे। लिहाजा उनका 'दीवार' वाला कैरेक्टर उभर कर सामने आ गया और उन्होंने उसी अंदाज में लिख मारा कि 'जाओ पहले अखबार छापना बन्द करो। पहले मोबाइल का इस्तेमाल बन्द करो। पहले एसी गाड़ियों को आग लगा दो। इसके बाद तुषार में भी यूएसवी का इस्तेमाल बंद कर दूंगा।' दीवार फिल्म का एक डायलॉग अमिताभ भूल गए लगते हैं, इसे हम याद दिला दिलाते हैं। डायलॉग कूछ यूं है। 'दूसरों के गुनाह गिनाने से अपने गुनाह कम नहीं हो जाते'
दरअसल, अमिताभ बच्चन एक खुदगर्ज, एहसान फरामोश और कमजोर इंसान हैं। वे नायक सिर्फ रील तक ही हैं। रियल में वह कमजोर हैं। वह 1984 में इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव जीते थे। बोफोर्स कांड में अपना नाम आने के आरोप मात्र से ही वह बौखला कर अपने बाल सखा राजीव गांधी को अकेला छोड़कर इस्तीफा देकर मैदान छोड़ भागे थे। यदि आज की बात करें तो मुंबई में जब मनसे के गुंडों ने उत्तर भारतीयों पर अपना कहर बरपाया तो वह न केवल मूकदर्शक बने रहे, बल्कि कहीं राज ठाकरे नाराज न हो जाएं, उनकी चापलूसी करते रहे और अपनी पत्नि जया से माफी मंगवाते रहे। उत्तर भारतीयों की हमदर्दी में उनके मुंह से एक बोल नहीं फूटा था। जब भी मुंबई में भयंकर बारिश होती है तो उनके बंगले 'प्रतीक्षा' और 'जलसा' में पानी भर जाता है। इस बात का जिक्र वह अपने ब्लॉग पर करते हैं कि कैसे बंगलों में पानी घुसने से उनका परिवार परेशान हो जाता है। लेकिन उनके बंगले से मात्र एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर एक झोपड़ पट्टी आबाद है। उस झोपड़ पट्टी के लोग अपने मुख्तसर सामान को अपने सिर पर रखकर घंटों पानी में ख्ड़े होकर पानी के उतरने का इंतजार करते हैं। अमिताभ बच्चन ने कभी अपने ब्लॉग पर उन झोपड़ पट्टी वालों की तकलीफों का जिक्र भूले से भी नहीं किया ? वो जिक्र करें भी क्यों ? क्योंकि कभी सुनने में भी नहीं आया कि राज बब्बर, आमिर खान, सुनील दत्त, शबाना आजमी जैसे अनेक अभिनेताओं की तरह अमिताभ बच्चन का सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता रहा है। उन्होंने अपने आप को एक मिथक के रुप में गढ़ा, जो सिर्फ अपने ही खोल में सिमटा रहता है। ये उस तथाकथित नायक की हरकतें है, जो सत्तर और अस्सी के दशक में पर्दे पर गरीबों, मजलूमों और वंचितों की हक की बात करता था और जिसके बदले में देश की जनता ने उन्हें नायक बनाया तो मीडिया ने उन्हें सदी का महानायक घोषित किया। हालांकि यह बात समझ से परे है कि उनसे बेहतर कई अभिनेताओं के रहते मीडिया उन्हें सदी का महानायक क्यों कहता है ?
जब अमिताभ बच्चन मुंबई में संघर्ष कर रहे थे तो महमूद, अनवर (महमूद के भाई), शत्रुघन सिन्हा, नवीन निश्चल आदि कलाकारों ने उनका तन-मन-धन से साथ दिया था। लेकिन यह अमिताभ बच्चन की एहसान फरामोशी ही कही जाएगी कि सफलता मिलने के साथ ही उन्होंने अपने मोहसिनों को भूला दिया। यहां तक कि अपने बेटे अभिषेक की शादी में बुलाया तक नहीं। सिर्फ इतना ही नहीं उन्होंने इलाहाबाद में रह रहे अपने खानदान के करीबी लोगों तक को भी शादी में बुलाना मुनासिब नहीं समझा। कहा तो यह भी जाता है कि परवीन बॉबी की बरबादी के पीछे भी अमिताभ बच्चन का ही हाथ था। ये सब वे बातें हैं, जिनका जिक्र समय-समय पर मीडिया में होता रहता है। मीडिया से दूर रहने वाले अमिताभ बच्चन की और क्या-क्या कारगुजारियां रही होंगी, कौन जानता है ?

Thursday, July 23, 2009

मीडिया को पैसे की खनक पर नाचने वाली तवायफ होने से बचाएं

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
प्रसिद्व पत्रकार स्वर्गीय उदयन षर्मा के जन्म दिन 11 जौलाई को दिल्ली के कांस्टीट्यूषन कल्ब के डिप्टी स्पीकर हॉल में हुई एक परिचर्चा 'लोकसभा के चुनाव और मीडिया को सबक' में खबर में मिलावट करने वालों के खिलाफ कानून बनाने का शिगूफा 'आउटलुक' के सम्पादक नीलाभ ने छोड़ा है। इस पर न्यूज पोर्टलों पर बहस हो रही है। इस पर बहस करना बेमानी और बेमतलब है। हैरत तो यह है कि खबरों में मिलावट करने वाले और टीआरपी और प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए कुछ भी छापने के लिए मजबूर लोग खबरों में मिलावट के खिलाफ कानून बनाने की बात कर रहे हैं। इस देश में किसी भी चीज में मिलावट के लिए कानून हैं। क्या मिलावट रुकी ? खबर में मिलावट करने वाले ही तो अन्य चीजों में मिलावट के खिलाफ दिन रात चीख्ते रहते हैं। लेकिन उनकी सुनता कौन है ? सुनें भी क्यों जब वह ख्ुद मिलावटखोर हैं। कपिल सिब्बल ने शायद गलत नहीं कहा था कि मीडिया के छापने या नहीं छापने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वाकई अब खबरों के छपने से आसमान नहीं टूट पड़ता। अक्सर अखबार और न्यूज चैनल छापते और दिखते रहते हैं कि किस चीज में क्या और कितनी मात्रा में मिलाया जा रहा है। छापते रहिए, दिखाते रहिए। मिलावट करने वालों के खिलाफ कभी कार्यवाई नहीं होती। यदि होती भी है तो महज दिखावा होता है। बड़े मिलावटखोरों और झूठ बोलकर अपने प्रोडक्ट को बेचने वालों तो को मीडिया भी छेड़ना नहीं चाहता। उदाहरण के लिए, किसी अखबार ने फेयर एंड लवली क्रीम के निर्माताओं से यह पूछने की हिम्मत नहीं दिखायी कि भैया क्रीम में ऐसा क्या डालते हों, जिससे आदमी काले से गोरा होता जाता है। बता देते तो माइकल जैक्सन को क्यों करोड़ों डालर खर्च करके अपनी चमड़ी गोरी करानी पड़ती। बराक ओबामा भी काले से गोरा हो जाता। जिस अखबार ने क्रीम निर्माताओं से यह पूछ लिया, उसी दिन फेयर एंड लवली के विज्ञापन बन्द हो जाएंगे। मैं अपना एक वाकया बताता हूं। मेरे पास पेप्सी की एक बोतल आयी,, जिसमें गंदगी भरी हुई थी। मैंने उस बोतल के बारे में अपने मीडिया के दोस्तों को बताया तो उनका जवाब था कि इसे हम नहीं छाप सकते। मैंने कारण पूछा तो जवाब मिला कि पेप्सी से हमें सालाना बहुत बड़ा रेवन्यू विज्ञापन के रुप में मिलता है। इसका मतलब यह हुआ कि खबर पर विज्ञापन भारी है। अब यदि चुनाव में एक हारते हुए दिख रहे प्रत्याशी का दिल रखने के लिए कुछ लाख रुपए लेकर किसी अखबार ने उसको जीतता हुआ दिखा दिया तो प्रभाश जोशी क्यों हंगामा बरपा कर रहे हैं।
अब सवाल यह है कि यदि खबर में मिलावट के खिलाफ कानून बन भी जाए तो उसका पालन कैसे होगा ? ये तय कैसे होगा की खबर में क्या मिलाया गया है ? यदि विज्ञापन में खबर और खबर में विज्ञापन को मिलाने की बात है तो इसके लिए जिम्मेदार तो मीडिया हाउस हैं। पत्रकार तो महज नौकर है। खबरें कैसी होंगी, इसका फैसला अब सम्पादक नहीं करता। सम्पादक को निर्देषित किया जाता है, कि क्या छापना है और क्या नहीं। यदि कानून बनाने की बात भी आती है तो यही नीलाभ ही मालिकों के कहने पर अपने कॉलम में लिखने के लिए मजबूर हो जाएंगे कि प्रेस की आजादी को खत्म करने की साजिश की जा रही है। सेंसरशिप लगायी जा रही है। लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ को धराशायी करने की कोशिश की जा रही है। नीलाभ ये सब इसलिए लिखेंगे, क्योंकि वे खुद आजाद नहीं हैं। बगावत कर नहीं सकते, क्योंकि बच्चे पालने हैं।
बहस खबरों में मिलावट पर ही नहीं होनी चाहिए। बहस इस बात पर भी होनी चाहिए कि मीडिया प्रसार संख्या और टीआरपी बढ़ाने के लिए 'बेच' क्या रहा है ? बात 'आउटलुक' से ही शुरु करें। अभी चार-छह महीने पहले ही 'आउटलुक' ने सैक्स पर कवर स्टोरी छापी थी। सैक्स स्टोरी के नाम पर 'आउटलुक' को पोर्न मैग्जीन में बदल गया था। जैसे इतना ही काफी नहीं था। स्टोरी सैक्स पर थी तो विज्ञापन कंडोम के थे। विज्ञापन भी इतने अश्लील कि यूरोप भी शरमा जाए। बात 'आउटलुक' की ही नहीं है। लगभग हर पत्रिका समय-समय पर प्रसार बढ़ाने के लिए सैक्स पर कवर स्टोरी छापती हैं। इनसे कहा जाएगा तो जवाब यही मिलेगा कि आजकल बाजार में सैक्स ही बिकता है। दरअसल 'आउटलुक' जैसी पत्रिकाओं का टारगेट ही वो मध्यम वर्ग है, जो उदारीकरण के बाद वजूद में आया है, जिसे सैक्स, खाना और सैर सपाटा ही भाता है। इसलिए इन पत्रिकाओं में मध्यम वर्ग को लुभाने वाली सामाग्री ही परोसी जाती है। आम आदमी की समस्याओं से इन पत्रिकओं से कुछ लेना-देना नहीं है। इसलिए ये पत्रिकाएं दिल्ली और चंडीगढ़ में ही बहुत बिकती हैं।
पत्रिका तो खैर बहुत घरों में नहीं पहुंचती लेकिन दैनिक अखबारों तो बहुत घरों में पहुंचता है। दैनिक अखबार भी लिंगवर्धक यंत्र, कंडोम और सैक्स बढ़ाने की दवाएं बेचते नजर आते हैं। विज्ञापनों के साथ कामुक मुद्रा में लड़की की तस्वीर जरुर चस्पा होती है। यही नहीं अन्डरवियर के विज्ञापनों को अश्लील बना दिया गया है। दरअसल देष की जनता को सिर्फ और सिर्फ सैक्स के बारे में ही सोचने के लिए मजबूर किया जा रहा है। 1991 में जब से निजी चैनलों का प्रसार बढ़ा है, तब से देष की जनता को सैक्स रुपी धीमा जहर दिया जा रहा है। यह जहर पीते-पीते एक पीढ़ी जवान हो गयी है। इस पीढ़ी में यह जहर इतना भर चुका है कि एक तरह से अराजकता की स्थिति हो गयी है। मां-बाप षर्मिंदा हो रहे है।ं यह जहर 'सच का सामना' जैसे रियलिटी षो के आते-आते इतना अधिक हो चूुका है कि अब करोड़ों लोगों के सामने आदमी की बहुत ही निजि समझी जाने वाली चीज सैक्स के बारे में ऐसे-ऐसे सवाल किए जा रहे हैं कि आंखें षर्म से पानी-पानी हो जाती है। यह तो पूछा ही जाने लगा है कि क्या आपने अपनी साली के साथ सम्बन्ध बनाए हैं या सम्बन्ध बनाने की सोची है ? हो सकता है कल यह भी पूछा जाए कि क्या आपने कभी अपनी बेटी भतीजी या भांजी के साथ भी जिस्मानी सम्बन्ध बनाए है ?
सेमिनारों में बड़ी-बड़ी बातें करना आसान है, उन पर अमल करना बहुत मुश्किल है। सच्चाई यह है कि अब अखबार, पत्रिका और न्यूज चैनल भी किसी साबुन, क्रीम और टूथपेस्ट की तरह एक प्रोडक्ट भर हैं। उन्हें बेचना है। रेवेन्यू लाना है, भले ही मिलावट करके आए या सैक्स परोसकर। मीडिया में तो इस वक्त दो तरह के लोग हैं। एक वो, जो मीडिया मुगलों की चाकरी करके पैसा कमा रहे हैं। दूसरे वे मीडिया मुगल हैं, जो किसी भी तरह पैसा कमाना चाहते हैं। दोनों से ही उम्मीद करना बेकार है। ऐसे में देष के जागरुक नागरिकों, राजनितिज्ञों और सामाजिक संगठनों का दायित्व बनता है कि वे समय रहते मीडिया को पैसे की खनक पर नाचने वाली तवायफ होने से बचाएं।

Wednesday, July 15, 2009

बेजमीर पत्रकारों को कुरबान अली की सलाह

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
11 जुलाई को उदयन शर्मा के जन्म दिन पर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब के डिप्टी स्पीकर हॉल में एक परिचर्चा 'लोकसभा के चुनाव और मीडिया को सबक' विषय पर आयोजित की गयी थी। परिचर्चा का आयोजन करने वाले, वक्ता और श्रोता मीडिया से ही जुड़े लोग थे। परिचर्चा में मीडिया को कसौटी पर कसने की कोशिश की गयी । परिचर्चा में प्रभाष जोशी के उन इल्ज+ामात को विस्तार मिला जिनमें उन्होंने कहा था कि हालिया लोकसभा चुनाव में अखबारों ने पैसे लेकर प्रत्याशियों के फेवर में खबरें छापी हैं। हालांकि परिचर्चा में किसी भी वक्ता ने इतनी हिम्मत नहीं दिखाई कि उन मीडिया हाउस के नाम लें, जिन्होंने पैसे लेकर खबरें छापने जैसा घिनावना काम किया था। बी4एम के यशवंत सिंह ने जरुर दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर का नाम लेकर कहा कि इन दोनों अखबारों ने खुले आम ये काम किया।
परिचर्चा के शुरु में मुख्य अतिथि केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपित सिब्बल ने अपने सम्बोधन में यह कहा कि मीडिया के कुछ छापने अथवा छापने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। कपिल सिब्बल की इस बात का किसी पत्रकार ने विरोध नहीं किया। उनके जाने के बाद कुरबान अली ने जरुर यह कहकर अपनी भड़ास निकाली कि 'आज कपिल सिब्बल सबके मुंह पर तमांचा मार कर चला गया और हम कुछ नहीं कह सके'
पंकज पचौरी का कहना था कि 'केवल 100रु महीना में न्यूज चैनल और दो रुपए में अखबार खरीदोगे तो वही मिलेगा, जो अब मिल रहा है। स्तरीय खबरों के लिए कम से कम दस से पन्द्रह रुपए और चैनल के लिए 1000 रुपए खर्च करने पड़ेंगे।' क्या पंकज पचौरी को यह नहीं मालूम की देश की सत्तर फीसदी जनता केवल 20 रुपए रोजाना पर गुजर-बसर करती है। ऐसे में कौन् खबरों के लिए इतना पैसा खर्च करेगा। यहां यह कहा जा सकता है कि मोटी सेलरी लेने वाले पत्रकार ही क्यों नहीं अपनी सेलरीकम कर लेते या मीडिया हाउस अपना प्रोफिट कम कर लेते। चलिए मान लिया कि दर्र्शक और पाठक ज्यादा पैसे खर्च भी करे तो इस बात की क्या गारंटी है कि ज्यादा पैसे लेने के बाद भी पैसे लेकर खबरें नहीं छापी जाएंगी।
विनोद अग्निहोत्री ने बताया कि 2004 के चुनाव से ही खबरों के पैकेज बेचे जा रहे हैं। उन्होंने उदाहरण देकर बताया कि 2004 में मेरठ से जद यू के प्रत्याशी केसी त्यागी ने उन्हें बताया था कि मेरठ के अखबारों ने उनसे पैकेज खरीदने की पेशकश की थी। सीमा मुस्तफा ने बहुत साहस के साथ कहा कि हम पत्रकार डरे हुए और सहमे हुए हैं। बड़े से बड़े सम्पादक को भी पता नहीं होता कि कब मालिक की तरफ से आदेश आ जाएगा कि आपकी सेवाएं समाप्त की जा रही हैं। नौकरी सलामत रहे इसीलिए वे सब काम कर रहे हैं, जो नहीं करने चाहिएं। अलका सक्सेना ने कहा कि पैसे को मैनेज करने वाले नाकाबिल पत्रकार वहां हैं, जहां एक पत्रकार की हैसियत से उन्हें नहीं होना चाहिए और अच्छे पत्रकार हाशिए पर हैं।
परिचर्चा 1947-1977 की पत्रकारिता और 2009 की पत्रकारिता की बहस में भी उलझी। कुलदीप नैयर ने 1977 की पत्रकारिता को याद किया। इस पर आशुतोष का कहना था कि 1977 की पत्रकारिता 2009 में नहीं की जा सकती। उन्होंने यह भी कहा कि 1977 में भी यही होता था, जो आज हो रहा है। इस पर कुरबान अली ने उन्हें टोका कि 1977 में ऐसा नहीं होता था। इस पर आशुतोष नाराज हुए और माइक छोड़कर जाने लगे। संचालन कर रहे राहुल देव ने उन्हें रोका। लेकिन आशुतोष पर टीका टिप्पणी जारी रही तो आशुतोष को बीच में ही बात खत्म करके बैठना पड़ा।
आशुतोष शायद नहीं जानते कि 1977 में एम जे अकबर, एसपी सिंह, और उदयन शर्मा ने जिस पत्रकारिता की नींव डाली थी, उसी नींव पर आज की यानि 2009 की हिन्दी पत्रकारिता का महल खड़ा है। मीडिया को बेचने वाले उस नींव को हिलाने की कोशिश कर रहे हैं। कुरबान अली ने सही कहा था कि 1977 में पत्रकारिता करने वाले लोगों के सामने किसी कपिल सिब्बल की यह कहने की हिम्मत नहीं हो सकती थी कि तुम लोगों के छापने या नहीं छापने से कुछ नहीं होता। आज कपिल सिब्बल जैसे लोगों को पता है कि जमीर बेचने वालों का दिल भी कमजोर हो जाता है। यदि किसी को मौत से डर लगता तो उसे कोई हक नहीं है कि वह फौज की नौकरी करे। कुरबान अली ने सलाह दी कि 'पत्रकारिता के नाम पर पैसा बनाने से तो अच्छा दुनिया का सबसे प्राचीन धंधा है।
अपने अध्यक्ष्ीय भाषण में शरद यादव ने क्या कहा, किसी को समझ नहीं आया। परिचर्चा के बाद जलपान के समय प्रसिद्व हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने चुटकी ली कि 'सबसे अच्छा शरद यादव बोला, यही नहीं पता की क्या बोला।' उनकी इस चुटकी पर उनके पास खड़े लोग हंसे बिना नहीं रह सके।
इसमें दो राय नहीं कि मीडिया पर कॉरपोरेट जगत का कब्जा है। खबरें सम्पादक के विवेक से नहीं, बाजार की मांग के आधार पर तय होती हैं। यह निष्कर्ष नया नहीं है। यह सब जानते हैं कि कॉरपोरेट जगत समाज सेवा के लिए अखबार, मैंगजीन या न्यूज चैनल नहीं चलाता। मुनाफा उनकी पहली शर्त है। मुनाफा भी कम नहीं भरपूर चाहिए। इसके लिए चाहे मीडिया खबरों को विज्ञापन बनाकर छापे, नंगी तस्वीरें दिखाए, आरुषी जैसी मासूम लड़की का चीरहरण करे या सच्ची कहानियां जैसी पत्रिकाओं की तरह अपराध, सैक्स और अन्धविश्वास को बेचे। कुछ भी करें बस अखबारों का प्रसार बढ़े और न्यूज चैनल की टीआरपी। समाज भाड़ में जाए या पत्रकारिता का बेड़ा गर्क हो या पत्रकार दल्ला बनकर रह जाए। सामाजिक सरोकार आज के मीडिया के एजेण्डे से गायब हो चुके हैं।
परिचर्चा में कुलदीप नैयर, कुरबान अली, संतोष भारतीय, आशुतोष, पंकज पचौरी, राहुल देव, अलका सक्सेना, हिसाम सिद्दीकी, नीलाभ, विनोद अग्निहोत्री, यशवंत सिंह, पुण्यप्रसून वाजपेयी, शेष नारायण सिंह और अविनाश जैसे नाम, जो किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, सहित मीडिया जगत की महान हस्तियां भी मौजूद थीं। वेब पत्रकारिता और ब्लॉगिंग से जुड़े लोग भी काफी संख्या में मौजूद थे। मैं 2003 से प्रत्येक 11 जुलाई को दिल्ली जाता रहा हूं। इस बार से ज्यादा मीडिया के लोग कभी इस अवसर पर मौजूद नहीं रहे। संचालन कर रहे राहुल देव ने भी इस बात को कहा कि इस बार उपस्थिति बहुत ज्यादा है। बहुत से लोगों को बैठने का स्थान तक नहीं मिला। स्थान नहीं मिलने का किसी को कोई गिला कोई शिकवा नहीं था। निर्धारित समय से एक घंटे से ज्यादा चली परिचर्चा को बहुत सारे लोगों ने खड़े-खड़े ही सुना। समय के अभाव में कई लोग अपने विचार भी नहीं रख सके। ये उपस्थित लोगों का उदयन शर्मा के प्रति प्यार तो दर्शाता ही है, यह भी बताता है कि परिचर्चा का विषय कितना गम्भीर था।

Sunday, July 5, 2009

मेरठ से जुड़े हो सकते हैं रणवीर एनकाउंटर के तार

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
यह तो तय हो चुका है कि देहरादून में बागपत के रणवीर की हत्या की गयी है। एनकाउंटर का तो बस नाम दिया गया है। लेकिन इन सवालों का जवाब अभी तक नहीं मिल सका है कि पुलिस ने आखिर ऐसा क्यों किया ? पोस्टमार्टम की रिपोर्ट कहती है कि रणवीर के सीने पर एक नहीं दो नहीं पूरी दस गोलियां उतारीं गयीं थीं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि गोलियां मारने से पहले रणवीर को बुरी तरह से पीटा भी गया था। देहरादून पुलिस अब भी यदि एक बदमाश को एनकाउंटर में मारने का तमगा हासिल करना चाहती है तो इसे देहरादून पुलिस की बेशर्मी के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है। रणवीर हत्याकांड में कई इत्तेफाक ऐसे हैं, जिन्हें नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। पहला इत्तफाक तो यह कि रणवीर का ताल्लुक मेरठ से भी रहा है। यहां से उसने एक इंस्टीट्यूट से एमबीए किया था। दूसर इत्तेफाक यह कि देहरादून के जिस मोहनी चौक पर कथित रुप से पुलिस और रणवीर के साथियों का झगड़ा हुआ और यह कहा गया कि रणवीर ने एसआई के हाथ से उसकी सर्विस रिवाल्वर छीनकर उसकी कनपटी पर लगा दी थी,, उसी मोहनी चौक पर रहने वाले और पूरा नजारा देखने वाले सिविल इंजीनियर परवेज खान का ताल्लुक भी मेरठ से ही है। परवेज खान साहब ने ही पुलिस और लड़कों का बीच-बचाव करने की कोशिश की थी। एक लड़के ने जब परवेज साहब पर रिवाल्वर तान दिया तो वह अपने घर लौट गए और वहां से अपनी सर्विस रिवाल्वर लेकर आए। हवाई फायरिंग की,, जिससे बदमााश भाग गए। बाद में रणवीर पुलिस के कैसे हत्थे चढ़ा ? कैसे उसका एनकाउंटर किया गया यह पुलिस की अपनी कहानी है। लेकिन पुलिस की कहानी पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद धाराशायी हो गयी है।
रणवीर की हत्या का सच जानने के लिए यह जरुरी है कि रणवीर के मेरठ प्रवास के समय की गतिविधियों को खंगाला जाए। उसका किन लोगों के साथ मिलना-जुलना था ? क्या उसकी कोई ऐसी थी दोस्त थी,, जो बाद में देहरादून शिफ्ट हो गयी थी ? क्योंकि इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मेरठ में पढ़ाई के दौरान रणवीर के किसी लड़की से अफेयर रहा हो और बाद में वह लड़की देहरादून शिफ्ट हो गयी, हो, जिससे रणवीर अक्सर देहरादून मिलने जाता हो ? हो सकता है कि लड़की के घर वालों को इस बात की भनक लग गयी हो। लड़की के घरवालों को यह पता हो कि रणवीर 3 जौलाई को फिर आएगा। सम्भव है कि उन्होंने एसआई भट्ट से रणवीर को सबब सिखाने की गुहार लगायी हो ? यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि जब एसआई भट्ट ने रणवीर और उसके कथित साथियों को मोटर साइकिल से जाते हुए मौहनी चौक पर चैकिंग के नाम रोका था तो उस समय एसआई भट्ट अकेले ही थे, जबकि रुटीन चैकिंग के दौरान भी एक एसआई के साथ दो या तीन पुलिस वाले जरुर होते हैं, जो हाथ या डंडे के इशारे से मोटर साइकिल रोकने के काम को अंजाम देते हैं। एसआई के साथ रणवीर की झड़प हुई होगी। एसआई ने थाने से जीप मंगवाई होगी। रणवीर को जबरदस्ती जीप में डालकर थाने ले जाया गया होगा। बहुत मुमकिन है कि थाने में थर्ड डिग्री देते समय रणवीर की मौत हो गयी होगी। इससे घबराकर पुलिस उसे रायुपर के जंगल में ले गयी और एनकाउंटर का ड्रामा रचा गया।