सच नये स्वरुप में बिहार और पूरे देश के समक्ष आने वाला है। वही दंगे जिसे भारतीय इतिहास में सबसे अधिक दिनों तक चलने वाला दंगे के रूप में जाना जाता है और जिसमें सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1000 लोग मारे गए जबकि घायलों की संख्या के बारे में सरकार के पास आज तक कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं हो पाया। ये अलग बात है कि आज भी स्वयंसेवी संगठनों के मुताबिक इन दंगों में कम से पांच हजार लोगों के मारे जाने की बात कही जाती है।
सबसे अधिक दिलचस्प यह है कि नीतीश कुमार ने जब इस दंगे की जांच के लिए वर्ष 2006 में जस्टिस एनएन सिंह की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन किया था, तब वे एनडीए के हिस्सा थे और उनकी मंशा भागलपुर दंगा के सहारे सूबे में मुसलमानों के बीच साख बना चुके लालू प्रसाद को कमजोर करने की थी। यही वजह रही कि इस दंगे के लिए कामेश्वर यादव को जिम्मेवार ठहराया गया और कामेश्वर यादव के बहाने लालू प्रसाद पर वार किया गया। वजह यह रही थी कि अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक कार्यक्रम के दौरान लालू प्रसाद ने कामेश्वर यादव के साथ मंच साझा किया था, जबकि तब राजद ने इस तथ्य को उजागर कर भाजपा समर्थित नीतीश कुमार के मंसूबों पर पानी फ़ेर दिया था कि वर्ष 1995 के चुनाव में कामेश्वर यादव ने शिवसेना के उम्मीदवार के रुप में नाथनगर से चुनाव लड़ा था!
खैर, करीब 9 वर्षों के बाद इस वर्ष 28 फ़रवरी को आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी। इस रिपोर्ट के आलोक में राज्य सरकार ने कार्रवाईयां भी की, जिनमें दंगा पीड़ितों की नये सिरे से पहचान के साथ ही उन्हें मुआवजा दिया जाना शामिल है। अब यह पूरी रिपोर्ट और राज्य सरकार द्वारा की गई कार्रवाईयों का चिट्ठा मॉनसून सत्र के दौरान बिहार विधान मंडल के दोनों मंडलों में रखी जाएगी। यह फ़ैसला नीतीश मंत्रिमंडल ने विधानसभा चुनाव के ठीक पहले लिया है। जाहिर तौर पर इसके राजनीतिक मायने हैं और यह रिपोर्ट चुनाव को प्रभावित करेगी।
अब थोड़ा भागलपुर दंगे के काले इतिहास पर नजर डालते हैं। दंगे की शुरुआत 25 अक्टूबर 1989 को हुई थी। उस समय आरएसएस पूरे देश में अयोध्या विवाद को हवा देने के इरादे से रामशिला पूजन करवा रही थी। भागलपुर में आरएसएस पहले से मजबूत स्थिति में था। इसकी कई वजहें रही थीं। तनाव पूरे देश में था और भागलपुर भी अपवाद नहीं था। अक्टूबर महीने में शिलापूजन का जुलूस निकाला जाना था और उसके पहले अगस्त में ही जोर-शोर से तैयारी शुरू हो गईं थीं। इसी दरम्यान मुहर्रम और विषहरी पूजा का आयोजन होना था। यह आरएसएस की खतरनाक रणनीति का हिस्सा थी कि पारंपरिक विषहरी पूजा व्यापक बन चुकी थी। जब भागलपुर में विषहरी पूजा शुरू हुई तब संघ समर्थकों ने मुसलमानों के इलाके खासकर नाथनगर और चंपानगर में तनाव बढ़ाने का भरसक प्रयास किया। परिणाम यह हुआ कि तत्कालीन एसपी के एस द्विवेदी के नेतृत्व में जिला प्रशासन ने स्थिति को संभाल लिया। शांति समिति की बैठक कराई गई और मुहर्रम के जुलूस को स्थगित करा दिया गया।
यह वह दौर था जब कांग्रेस अंतर्कलह से टूटने के कगार पर थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद के बीच छत्तीस का आंकड़ा था। इसके अलावा तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष शिवचंद्र झा जो भागलपुर के ही थे, उनका संबंध भी तत्कालीन मुख्यमंत्री से मधुर नहीं था। आपसी राजनीतिक गुटबंदी और अंतर्कलह के बीच जब रामशिला पूजा की तैयारी की खबर तत्कालीन मुख्यमंत्री तक पहुंची तब विचार-विमर्श के बाद उन्होंने इसकी इजाजत इस हिदायत के साथ दी कि जुलूस में किसी तरह के हथियार का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा और किसी प्रकार का नारा नहीं लगाया जाएगा। लेकिन स्थानीय राजनीति और आरएसएस के उन्मादी रवैये के कारण ऐसा न हो सका।
24 अक्टूबर 1989 को भागलपुर के परवती इलाके से रामशिला पूजन का एक जुलूस तातरपुर मोहल्ले की ओर बढ़ा। यह जुलूस किसी तरह गुजर गया, लेकिन, तभी एक विशाल जुलूस नाथनगर की ओर से आ गया। जुलूस मुस्लिम मोहल्ले के बीचो-बीच चौराहे पर पहुंचा था कि तभी भीड़ में शामिल लोगों ने मुसलमानों के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी। जब यह सब हो रहा था, तब भागलपुर के तत्कालीन एसपी केएस द्विवेदी और जिलाधिकारी अरुण झा वहां मौजूद थे। जुलूस के नारे बढ़ते गए, आवाज भी तेज होती गई। इसकी प्रतिक्रिया में दूसरी ओर से पत्थरबाजी शुरू हो गई। अभी डीएम कुछ समझने या संभालने की कोशिश करते कि तभी वहां बम का धमाका हो गया। हालांकि इससे किसी की जान हानि नहीं हुई, लेकिन पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। बताया जाता है कि पुलिस के द्वारा इसी फ़ायरिंग ने दंगे की शुरुआत कर दी। इसकी वजह यह है कि इसमें मारे गए दोनों लोग मुसलमान थे।
उधर, शिलापूजन का जुलूस उन्मादी भीड़ में बदल गया। जंगल में आग की तरह अफवाहें फैलने लगीं कि संस्कृत विद्यालय में 40 हिंदू छात्रों को मुसलमानों ने मार दिया है। ऐसी ही अफ़वाह शहर के हर कोने से आने लगीं। इन अफ़वाहों का परिणाम यह हुआ कि समूचा भागलपुर दंगे की चपेट में आ गया। एक ऐसा दंगा जो आजाद भारत में चलने वाला सबसे बड़ा दंगा था।
इसके बाद भागलपुर मुर्दों के शहर में बदल गया। अकेले परवती में 40 मुसलमानों की हत्या कर दी गई। आसानंदपुर में भी दंगा जोर पकड़ चुका था। इस दंगे की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही कि यह केवल शहर तक ही सीमित नहीं रहा। गांवों तक दंगे की आग में जलने लग गए थे। हालांकि उस दौरान भी हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल गढ़ने वाले लोग थे। सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक भागलपुर के जमुना कोठी में हिन्दुओं ने करीब चालीस मुसलमानों को शरण दे रखी थी। लेकिन दंगाइयों ने जमुना कोठी पर हमला बोलकर 18 मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया। इनमें 11 मासूम बच्चे थे।
भागलपुर के स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चलता है कि कामेश्वर यादव, महादेव सिंह, सल्लन मियां और अंसारी जैसे लोग राजनीतिक पार्टियों के मोहरे थे और वे ही पूरे दंगे को आगे बढ़ा रहे थे। इसके लंबा खिंचने के पीछे इन्हीं अपराधियों-राजनेताओं का गठजोड़ था। इसके अलावा तत्कालीन एसपी के एस द्विवेदी की भूमिका भी संदिग्ध थी। बताया जाता है कि वे आरएसएस के एजेंट के रूप में काम कर थे और उनके इशारे पर पूरी भागलपुर पुलिस भी हिन्दू-मुसलमान में बंट चुकी थी। इस क्रम में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने केएस द्विवेदी को हटाने का निर्देश दिया। इसका प्रतिरोध भागलपुर में पुलिस के जवानों ने इस कदर किया कि जब राजीव गांधी दंगे का जायजा लेने पहुंचे तब उन्हें भागलपुर शहर में घुसने तक नहीं दिया गया।
बहरहाल, दंगे के शांत होने में करीब छह महीने लगे और इस छह महीने में पूरा भागलपुर तबाह हो चुका था। इसके बाद जब 1990 में लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने अपने स्तर से पूरे मामले की जांच कराने का निर्देश दिया और पीड़ितों को मुआवजा दिया गया। लेकिन यह बेहद दिलचस्प रहा कि दंगों के लिए जिम्मेवार एसपी के एस द्विवेदी को लालू प्रसाद ने सजा देने की बजाय विभागीय प्रोन्नति दे दी। बाद में जब लालू प्रसाद का राज खत्म हुआ और नीतीश कुमार सत्तासीन हुए तब उन्होंने लालू प्रसाद को सत्ता से उखाड़ फ़ेंकने के लिए भाजपा के साथ मिलकर ब्रह्मास्त्र चलाया। अब इसके असर की बारी है। अनुमान लगाया जाना चाहिए कि भागलपुर दंगे के लिए कौन असल में जिम्मेवार था, रिपोर्ट के सार्वजनिक होने पर इसका खुलासा होगा। साथ ही इसका भी खुलासा होगा कि इसके पीछे की राजनीति क्या थी। वैसे सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अतीत के काले दाग से बचेगा कोई नहीं। न आरएसएस न भाजपा और न जदयू, कांग्रेस और राजद। सबकी सच्चाई सामने आएगी।
No comments:
Post a Comment