सलीम अख्तर सिद्दीकी
बहुत दिनों बाद बाजार गया था। बाजार में महंगाई इठलाती इतराती घूम रही थी। वह पहले से ज्यादा मोटी हो गई थी। चेहरे पर पहले से ज्यादा चमक थी। गरूर तो जैसे उसमें कूट-कूट कर भरा पड़ा था। उसने मुझ पर तंज भरी नजरें डालीं। मैंने उससे कहा, तुम तीन महीने तक चिल्लाती रहीं कि मैं जा रही हूं, क्योंकि ‘वो’ आ रहे हैं? उन्हें आए हुए भी सवा महीना हो गया, लेकिन तुम तो यहीं जमी हुई हो, बल्कि पहले से ज्यादा तंदुरुस्त हो गई हो। महंगाई मुझ पर हिकारत भरी नजर डालकर बोली, हे मूर्ख! वह विज्ञापन था, सच्चाई नहीं। क्या तुम वह विज्ञापन बार-बार नहीं सुनते कि दिखावे पर मत जाओ, अपनी अक्ल लड़ाओ। जागो ग्राहक जागो! मैंने कहा, हम तो कह रहे थे कि यह सब दिखावा है, लेकिन कोई सुनने के लिए तैयार ही नहीं था। वह फिर बोली, अरे मूर्ख! सभी झांसे में नहीं आते। 31 प्रतिशत झांसे में आ गए और काम हो गया। इतना कहकर उसने जोरदार अट्ठाहस लगाया। ऐसा करते वक्त उसके दो नुकीले दांत बाहर को ऐसे निकले हुए दिखाई दिए, जैसे ड्राक्युला के होते हैं। यानी अब महंगाई डायन से ड्राक्युला बन गई थी।
मैं कल्पना लोक से तब बाहर आया, जब मैं एक ठेले से टकरा गया। वह प्याज का ठेला था। उस पर मुर्दा टाइप प्याज लुढ़कीं पड़ीं थीं। ठेले वाले ने मुझे घूरकर देखा। मैंने ठेले वाले से पूछा, प्याज किस भाव दी है। उसने मुझे एकटक देखते हुए कहा, 12 रुपये। मैंने अविश्वास से कहा, 12 रुपये? ठेले वाला समझ गया कि मैं गलतफहमी का शिकार हो गया हूं। उसे साफ किया, हां, 12 रुपये पाव। मैंने अचंभे से पूछा, यानी 60 रुपये किलो? ठेले वाला बोला, क्यों साहब अखबार वगैरहा नहीं पढ़ते हो या मंगल ग्रह से आए हो? मैंने कहा, मैं समझा था बारह रुपये किलो हैं। वह बोला, बताना पड़ता है पाव का
हिसाब, जिससे ग्राहक को एकदम झटका न लगे। ग्राहक को कुछ हो गया तो कौन संभालेगा?
मैं आगे बढ़ा तो एक फेसबुकिया मित्र टकरा गए। मैं उनसे छूटते ही बोला, भाई साहब महंगाई बहुत हो गई है? उन्होंने लापरवाही से कहा, कहां है महंगाई? दस-बीस रुपये प्याज पर बढ़ गए तो महंगाई-महंगाई चिल्लाने लगे हो। अरे देशहित में कुछ दिन प्याज नहीं खाओगे तो क्या मर जाओगे? कभी साल में दो-चार बार रेल का बढ़ा किराया दे दोगे तो क्या दिवालिया हो जाओगे? इतना कहकर उन्होंने मुझे घूरकर देखा और बोले, तुम्हारे लहजे से कांगे्रसी होने की बू आ रही है। मैंने प्रतिवाद किया, लेकिन कांग्रेस शासन में हुई महंगाई के खिलाफ तो तुम भी रात-दिन फेसबुक लिखते रहते थे। वह बोले, कांग्रेसी राज में हुई महंगाई राष्ट्र विरोधी थी, मोदी राज की महंगाई राष्ट्रवादी है। यह बढ़ेगी तभी तो अच्छे दिन आएंगे। पांच साल सब्र करो। इतना कहकर वह आगे बढ़ गए। मैं यह सोचने के लिए खड़ा रहा कि जेब में जितने पैसे हैं, उनसे कितना और क्या खरीदा जा सकता है।
बहुत दिनों बाद बाजार गया था। बाजार में महंगाई इठलाती इतराती घूम रही थी। वह पहले से ज्यादा मोटी हो गई थी। चेहरे पर पहले से ज्यादा चमक थी। गरूर तो जैसे उसमें कूट-कूट कर भरा पड़ा था। उसने मुझ पर तंज भरी नजरें डालीं। मैंने उससे कहा, तुम तीन महीने तक चिल्लाती रहीं कि मैं जा रही हूं, क्योंकि ‘वो’ आ रहे हैं? उन्हें आए हुए भी सवा महीना हो गया, लेकिन तुम तो यहीं जमी हुई हो, बल्कि पहले से ज्यादा तंदुरुस्त हो गई हो। महंगाई मुझ पर हिकारत भरी नजर डालकर बोली, हे मूर्ख! वह विज्ञापन था, सच्चाई नहीं। क्या तुम वह विज्ञापन बार-बार नहीं सुनते कि दिखावे पर मत जाओ, अपनी अक्ल लड़ाओ। जागो ग्राहक जागो! मैंने कहा, हम तो कह रहे थे कि यह सब दिखावा है, लेकिन कोई सुनने के लिए तैयार ही नहीं था। वह फिर बोली, अरे मूर्ख! सभी झांसे में नहीं आते। 31 प्रतिशत झांसे में आ गए और काम हो गया। इतना कहकर उसने जोरदार अट्ठाहस लगाया। ऐसा करते वक्त उसके दो नुकीले दांत बाहर को ऐसे निकले हुए दिखाई दिए, जैसे ड्राक्युला के होते हैं। यानी अब महंगाई डायन से ड्राक्युला बन गई थी।
मैं कल्पना लोक से तब बाहर आया, जब मैं एक ठेले से टकरा गया। वह प्याज का ठेला था। उस पर मुर्दा टाइप प्याज लुढ़कीं पड़ीं थीं। ठेले वाले ने मुझे घूरकर देखा। मैंने ठेले वाले से पूछा, प्याज किस भाव दी है। उसने मुझे एकटक देखते हुए कहा, 12 रुपये। मैंने अविश्वास से कहा, 12 रुपये? ठेले वाला समझ गया कि मैं गलतफहमी का शिकार हो गया हूं। उसे साफ किया, हां, 12 रुपये पाव। मैंने अचंभे से पूछा, यानी 60 रुपये किलो? ठेले वाला बोला, क्यों साहब अखबार वगैरहा नहीं पढ़ते हो या मंगल ग्रह से आए हो? मैंने कहा, मैं समझा था बारह रुपये किलो हैं। वह बोला, बताना पड़ता है पाव का
हिसाब, जिससे ग्राहक को एकदम झटका न लगे। ग्राहक को कुछ हो गया तो कौन संभालेगा?
मैं आगे बढ़ा तो एक फेसबुकिया मित्र टकरा गए। मैं उनसे छूटते ही बोला, भाई साहब महंगाई बहुत हो गई है? उन्होंने लापरवाही से कहा, कहां है महंगाई? दस-बीस रुपये प्याज पर बढ़ गए तो महंगाई-महंगाई चिल्लाने लगे हो। अरे देशहित में कुछ दिन प्याज नहीं खाओगे तो क्या मर जाओगे? कभी साल में दो-चार बार रेल का बढ़ा किराया दे दोगे तो क्या दिवालिया हो जाओगे? इतना कहकर उन्होंने मुझे घूरकर देखा और बोले, तुम्हारे लहजे से कांगे्रसी होने की बू आ रही है। मैंने प्रतिवाद किया, लेकिन कांग्रेस शासन में हुई महंगाई के खिलाफ तो तुम भी रात-दिन फेसबुक लिखते रहते थे। वह बोले, कांग्रेसी राज में हुई महंगाई राष्ट्र विरोधी थी, मोदी राज की महंगाई राष्ट्रवादी है। यह बढ़ेगी तभी तो अच्छे दिन आएंगे। पांच साल सब्र करो। इतना कहकर वह आगे बढ़ गए। मैं यह सोचने के लिए खड़ा रहा कि जेब में जितने पैसे हैं, उनसे कितना और क्या खरीदा जा सकता है।
बहुत सुंदर व्यंगया लिखा है अपने, परसाई जी की याद दिलाती हुई. " उनकी महंगाई राष्ट्रद्रोही और इनकी राष्ट्रवादी" - वा भाई वाह!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति- -
ReplyDeleteआभार आपका-