जब 16 मई को पूरा देश मोदीमय हो रहा था, तब देश का सुप्रीम कोर्ट 2002 में
अहमदाबाद के अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमलों के आरोपियों को गुजरात
सरकार को फटकार लगाते हुए बाइज्जत बरी कर रहा था। मोदीमय माहौल में यह खबर
कहीं नजर नहीं आई। सुभाष गाताडे ने अपने लेख ‘ऐतिहासिक जीत के बीच’ में इस
संबंध में सभी तथ्य रखे, जो दैनिक जनवाणी के 21 मई के अंक में प्रकाशित
हुआ।
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सुभाष गाताडे
सोलह साल का शाहवान, जो अहमदाबाद के कालुपुर का रहनेवाला है और अभी भी दसवीं कक्षा के रिजल्ट का इन्तजार कर रहा है, वह उस दिन बहुत खुश था, जब भारत के मतदाताओं ने अपना फैसला सुनाया। उसने अपनी अम्मी को पकड़ कर हवा में उठाने की कोशिश की और अपने भाई अलमास के साथ मोहल्ले में दौड़ गया। ‘हम जीत गए,’ ‘हम जीत गए’। और सिर्फ शाहवान और उसके परिवार के सदस्य ही नहीं, बल्कि उसी तरह की खुशियों की बयार मोहम्मद सलीम हनीफ शेख, अब्दुल कयूम मंसूरी उर्फ मुफ्ती बाबा और अन्य कइयों के घरों में दिखाई दे रही थी। गौरतलब था कि शाहवान और उसकी अम्मी नसीम की आंखों से खुशियों के आंसुओं का ताल्लुक इस बात से कतई नहीं था कि मोदी की अगुआई में भाजपा ‘ऐतिहासिक जीत’ दर्ज कर रही थी। यह एक विचित्र संयोग था कि जिस दिन भारत के मतदाताओं का फैसला सामने आया, यह वही दिन था, जब भारत की आला अदालत ने एक ऐतिहासिक फैसले में अक्षरधाम आतंकी हमले को लेकर पोटा अर्थात ‘प्रीवेन्शन आफ टेररिजम एक्ट’ जैसे कुख्यात कानून के तहत गिरफ्तार छह लोगों की रिहाई का आदेश दिया था और इस तरह गुजरात सरकार के विवादास्पद निर्णय को पलट दिया था।
वैसे आज बहुत कम लोग याद कर पा रहे होंगे कि किस तरह सितंबर 2002 में अहमदाबाद स्थित अक्षरधाम मंदिर पर आतंकी हमला हुआ था, जिसमें दो आतंकियों ने 37 लोगों को मार गिराया था और कइयों को घायल किया था। दोनों आतंकी कमांडो कार्रवाई में वहीं मारे गए थे। मामले की जांच में पुलिस के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने शाहवान के पिता आदम सुलेमान मंसूरी अर्थात आदम अजमेरी, और अन्य चार को शाहपुर और दरियापुर इलाके से अगस्त 2003 में पुलिस ने गिरफ्तार किया और छठवें अभियुक्त को कुछ दिनों के बाद उत्तर प्रदेश से उठाया था। अभियोजन पक्ष ने उन पर आरोप लगाया था कि इन छह लोगों की इस आतंकी हमले में भूमिका थी। निचली अदालत ने आदम अजमेरी एवं अन्य एक व्यक्ति को फांसी और बाकियों को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। गुजरात हाईकोर्ट ने इसी सजा को बरकरार रखा था।
आला अदालत में एके पटनायक, वी गोपाल गौड़ा की द्विसदस्यीय पीठ ने ‘निरपराध’ लोगों को फंसाने के लिए गुजरात पुलिस की खिंचाई करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष इन अभियुक्तों पर अपने आरोप प्रमाणित नहीं कर सका है और वे बिना शर्त रिहाई के पात्र हैं। इन अभियुक्तों के ‘अपराध स्वीकृति’ के बयानों को अदालत ने खारिज किया और उन्हें कानून की निगाह में अवैध घोषित किया। पीठ ने गृहमंत्री को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराया कि, ‘उन्होंने पोटा के तहत मुकदमे की अनुमति देने में दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि वह निर्णय न सूचना पर आधारित था और न ही तथ्यों के स्वतंत्र विश्लेषण पर टिका था।’ अब यह चंद दिनों की बात है, कि आदम अजमेरी अक्षरधाम आतंकी हमले में गिरफ्तार अन्य बेगुनाहों की तरह घर लौटेंगे। एक ऐसा शख्स, जिसने अपने परिवार में फिर जीवित लौटने की आस छोड़ दी हो, उसके लिए यह एक तरह से पुनर्जन्म है।
वैसे चुनावी नतीजों और सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया के बीच नजर आया यह विचित्र संयोग, जिसका शासन के अपने इकबाल से ताल्लुक दिखता है, वह सूबा गुजरात के इसी अंतराल के एक अन्य स्याह अध्याय की भी याद ताजा करता है। सभी जानते हैं कि आज की तारीख में राज्य में आईपीएस स्तर के कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एवं उनके जूनियर सलाखों के पीछे बंद हैं, क्योंकि राज्य के फर्जी मुठभेड़ों में उनकी संलिप्तता पायी गई है। भारत का यह एकमात्र राज्य, होगा जहां कार्यपालिका से संबद्ध इतने अधिकारी सालों से सलाखों के पीछे होंगे।
मालूम हो कि चुनाव नतीजे आने के महज एक सप्ताह पहले गुजरात सरकार को सुप्रीम कोर्ट में ही एक अन्य अपमानजनक झटके का सामना करना पड़ा था, जब मुठभेड़ों में हत्याओं को लेकर समरूप दिशा-निर्देश जारी करने की उसकी याचिका अदालत ने खारिज की थी। अदालत का कहना था कि भारत के संघीय ढांचे में ऐसी सलाह जारी नहीं की जा सकती। मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढा, एमबी लोकुर और कुरियन जोसेफ की त्रिसदस्यीय पीठ ने कहा कि ‘ऐसी सलाह पर अमल करना संभव नहीं होगा।’ दरअसल, 2012 में गुजरात सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में यह जनहित याचिका दायर की थी कि विगत दस सालों में भारत में हुई फर्जी मुठभेड़ों की स्वतंत्र जांच की जाए और उसके लिए न्यायालय दिशा-निर्देश तय करे। चाहे सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामला हो, इशरत जहां मुठभेड़ का प्रसंग हो या सादिक जमाल की फर्जी मुठभेड़ में हत्या का मामला हो। यह सभी के सामने था कि ऐसे मामलों में राज्य एवं उसके अधिकारियों की बार-बार किरकिरी हो रही थी और इसी वजह से उसने यह दावा किया था कि यह निहित स्वार्थी तत्वों की वजह से हो रहा है, जो चुनिंदा ढंग से उसे निशाना बना रहे हैं। याचिका में यह प्रस्ताव था कि सभी राज्य सरकारों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को यह दिशा-निर्देेश दिया जाए कि वह ‘स्पेशल टास्क फोर्स/मानिटरिंग आथारिटी’ जैसी स्वतंत्र एजेंसी का निर्माण करें, ताकि तमाम फर्जी मुठभेड़ों की जांच हो सके।
ध्यान देने योग्य बात है कि अदालत में गुजरात सरकार इस मसले पर बिल्कुल अलग-थलग नजर आई। यहां तक भाजपा शासित राज्यों ने भी इस मसले पर गुजरात सरकार का समर्थन करने से इंकार कर यह जताया कि ऐसे निर्देश भारतीय राज्य के संघीय स्वरूप पर आघात करते हैं। चाहे सूबा गुजरात की फर्जी मुठभेड़ों का मामला हो या 2002 में गुजरात के स्तब्धकारी दौर की बात हो, जब पूरे राज्य में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसाचार हुआ था और जिसे लेकर पार्टी के वरिष्ठों ने भी ‘राजधर्म’ न निभाए जाने की बात कही थी, यह बात सभी के सामने है कि मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी पारी एक ऐसे अतीत के साथ शुरू कर रहे हैं, जो अध्याय जल्द समाप्त नहीं होने वाला है। क्या वह अपने इस अतीत से रैडिकल विच्छेद कर सकेंगे और महज गुड गवर्नेंस के स्तर पर नहीं, बल्कि जस्ट गवर्नेंस अर्थात न्यायपूर्ण शासन को सुनिश्चित कर सकेंगे, यह सवाल भविष्य के गर्भ में छिपा है। हालांकि एक साल बीतते-बीतते पता चल जाएगा कि नरेंद्र मोदी कौन-सी राह पकड़ते हैं।
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सुभाष गाताडे
सोलह साल का शाहवान, जो अहमदाबाद के कालुपुर का रहनेवाला है और अभी भी दसवीं कक्षा के रिजल्ट का इन्तजार कर रहा है, वह उस दिन बहुत खुश था, जब भारत के मतदाताओं ने अपना फैसला सुनाया। उसने अपनी अम्मी को पकड़ कर हवा में उठाने की कोशिश की और अपने भाई अलमास के साथ मोहल्ले में दौड़ गया। ‘हम जीत गए,’ ‘हम जीत गए’। और सिर्फ शाहवान और उसके परिवार के सदस्य ही नहीं, बल्कि उसी तरह की खुशियों की बयार मोहम्मद सलीम हनीफ शेख, अब्दुल कयूम मंसूरी उर्फ मुफ्ती बाबा और अन्य कइयों के घरों में दिखाई दे रही थी। गौरतलब था कि शाहवान और उसकी अम्मी नसीम की आंखों से खुशियों के आंसुओं का ताल्लुक इस बात से कतई नहीं था कि मोदी की अगुआई में भाजपा ‘ऐतिहासिक जीत’ दर्ज कर रही थी। यह एक विचित्र संयोग था कि जिस दिन भारत के मतदाताओं का फैसला सामने आया, यह वही दिन था, जब भारत की आला अदालत ने एक ऐतिहासिक फैसले में अक्षरधाम आतंकी हमले को लेकर पोटा अर्थात ‘प्रीवेन्शन आफ टेररिजम एक्ट’ जैसे कुख्यात कानून के तहत गिरफ्तार छह लोगों की रिहाई का आदेश दिया था और इस तरह गुजरात सरकार के विवादास्पद निर्णय को पलट दिया था।
वैसे आज बहुत कम लोग याद कर पा रहे होंगे कि किस तरह सितंबर 2002 में अहमदाबाद स्थित अक्षरधाम मंदिर पर आतंकी हमला हुआ था, जिसमें दो आतंकियों ने 37 लोगों को मार गिराया था और कइयों को घायल किया था। दोनों आतंकी कमांडो कार्रवाई में वहीं मारे गए थे। मामले की जांच में पुलिस के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने शाहवान के पिता आदम सुलेमान मंसूरी अर्थात आदम अजमेरी, और अन्य चार को शाहपुर और दरियापुर इलाके से अगस्त 2003 में पुलिस ने गिरफ्तार किया और छठवें अभियुक्त को कुछ दिनों के बाद उत्तर प्रदेश से उठाया था। अभियोजन पक्ष ने उन पर आरोप लगाया था कि इन छह लोगों की इस आतंकी हमले में भूमिका थी। निचली अदालत ने आदम अजमेरी एवं अन्य एक व्यक्ति को फांसी और बाकियों को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। गुजरात हाईकोर्ट ने इसी सजा को बरकरार रखा था।
आला अदालत में एके पटनायक, वी गोपाल गौड़ा की द्विसदस्यीय पीठ ने ‘निरपराध’ लोगों को फंसाने के लिए गुजरात पुलिस की खिंचाई करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष इन अभियुक्तों पर अपने आरोप प्रमाणित नहीं कर सका है और वे बिना शर्त रिहाई के पात्र हैं। इन अभियुक्तों के ‘अपराध स्वीकृति’ के बयानों को अदालत ने खारिज किया और उन्हें कानून की निगाह में अवैध घोषित किया। पीठ ने गृहमंत्री को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराया कि, ‘उन्होंने पोटा के तहत मुकदमे की अनुमति देने में दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि वह निर्णय न सूचना पर आधारित था और न ही तथ्यों के स्वतंत्र विश्लेषण पर टिका था।’ अब यह चंद दिनों की बात है, कि आदम अजमेरी अक्षरधाम आतंकी हमले में गिरफ्तार अन्य बेगुनाहों की तरह घर लौटेंगे। एक ऐसा शख्स, जिसने अपने परिवार में फिर जीवित लौटने की आस छोड़ दी हो, उसके लिए यह एक तरह से पुनर्जन्म है।
वैसे चुनावी नतीजों और सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया के बीच नजर आया यह विचित्र संयोग, जिसका शासन के अपने इकबाल से ताल्लुक दिखता है, वह सूबा गुजरात के इसी अंतराल के एक अन्य स्याह अध्याय की भी याद ताजा करता है। सभी जानते हैं कि आज की तारीख में राज्य में आईपीएस स्तर के कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एवं उनके जूनियर सलाखों के पीछे बंद हैं, क्योंकि राज्य के फर्जी मुठभेड़ों में उनकी संलिप्तता पायी गई है। भारत का यह एकमात्र राज्य, होगा जहां कार्यपालिका से संबद्ध इतने अधिकारी सालों से सलाखों के पीछे होंगे।
मालूम हो कि चुनाव नतीजे आने के महज एक सप्ताह पहले गुजरात सरकार को सुप्रीम कोर्ट में ही एक अन्य अपमानजनक झटके का सामना करना पड़ा था, जब मुठभेड़ों में हत्याओं को लेकर समरूप दिशा-निर्देश जारी करने की उसकी याचिका अदालत ने खारिज की थी। अदालत का कहना था कि भारत के संघीय ढांचे में ऐसी सलाह जारी नहीं की जा सकती। मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढा, एमबी लोकुर और कुरियन जोसेफ की त्रिसदस्यीय पीठ ने कहा कि ‘ऐसी सलाह पर अमल करना संभव नहीं होगा।’ दरअसल, 2012 में गुजरात सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में यह जनहित याचिका दायर की थी कि विगत दस सालों में भारत में हुई फर्जी मुठभेड़ों की स्वतंत्र जांच की जाए और उसके लिए न्यायालय दिशा-निर्देश तय करे। चाहे सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामला हो, इशरत जहां मुठभेड़ का प्रसंग हो या सादिक जमाल की फर्जी मुठभेड़ में हत्या का मामला हो। यह सभी के सामने था कि ऐसे मामलों में राज्य एवं उसके अधिकारियों की बार-बार किरकिरी हो रही थी और इसी वजह से उसने यह दावा किया था कि यह निहित स्वार्थी तत्वों की वजह से हो रहा है, जो चुनिंदा ढंग से उसे निशाना बना रहे हैं। याचिका में यह प्रस्ताव था कि सभी राज्य सरकारों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को यह दिशा-निर्देेश दिया जाए कि वह ‘स्पेशल टास्क फोर्स/मानिटरिंग आथारिटी’ जैसी स्वतंत्र एजेंसी का निर्माण करें, ताकि तमाम फर्जी मुठभेड़ों की जांच हो सके।
ध्यान देने योग्य बात है कि अदालत में गुजरात सरकार इस मसले पर बिल्कुल अलग-थलग नजर आई। यहां तक भाजपा शासित राज्यों ने भी इस मसले पर गुजरात सरकार का समर्थन करने से इंकार कर यह जताया कि ऐसे निर्देश भारतीय राज्य के संघीय स्वरूप पर आघात करते हैं। चाहे सूबा गुजरात की फर्जी मुठभेड़ों का मामला हो या 2002 में गुजरात के स्तब्धकारी दौर की बात हो, जब पूरे राज्य में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसाचार हुआ था और जिसे लेकर पार्टी के वरिष्ठों ने भी ‘राजधर्म’ न निभाए जाने की बात कही थी, यह बात सभी के सामने है कि मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी पारी एक ऐसे अतीत के साथ शुरू कर रहे हैं, जो अध्याय जल्द समाप्त नहीं होने वाला है। क्या वह अपने इस अतीत से रैडिकल विच्छेद कर सकेंगे और महज गुड गवर्नेंस के स्तर पर नहीं, बल्कि जस्ट गवर्नेंस अर्थात न्यायपूर्ण शासन को सुनिश्चित कर सकेंगे, यह सवाल भविष्य के गर्भ में छिपा है। हालांकि एक साल बीतते-बीतते पता चल जाएगा कि नरेंद्र मोदी कौन-सी राह पकड़ते हैं।
MR. MODI SUPPORTERS HAS A LOT OF EXPECTATIONS FROM HIM .MAY GOD FULFILL THEIR ASPIRATIONS BUT INDIAN LIKE ME HAS NO HOPE FROM HIM .
ReplyDeleteMR. MODI SUPPORTERS HAS A LOT OF EXPECTATIONS FROM HIM .MAY GOD FULFILL THEIR ASPIRATIONS BUT INDIAN LIKE ME HAS NO HOPE FROM HIM .
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