Monday, September 10, 2012

आस्था और राजनीति


-सलीम अख्तर सिद्दीकी

सूरज अपना सफर तय करता हुआ दूसरी जगहों को रोशन करने के लिए गामजन था। मेरे शहर में सांझ की सुरमई फैलने लगी थी। मैं शहर के एक मशहूर चौराहे की एक पान की दुकान पर खड़ा कोल्ड ड्रिंक की चुस्कियां ले रहा था। मेरे दोस्त ने मुझे यहीं मिलने का कहा था। चौराहे के बीच में एक मजार था। अक्टूबर का महीना था, इसलिए मौसम में हल्की-सी ठंड का एहसास हो रहा था। वह गुरुवार की शाम थी। इस दिन मजारों पर सामान्य से ज्यादा भीड़ रहती है। अगरबत्ती की खुशबू फिजा में तैर रही थी। मजार पर र्शद्धालुओं की संख्या कम थी। थोड़ी देर बाद र्शद्धालुओं की आमद बढ़ गई। मैंने वक्त गुजारने के लिए कोल्ड ड्रिंक पीते हुए मजार पर आने वाले लोगों पर ध्यान केंद्रित कर दिया। वहां आने वालों के हाथ में तबरुक यानी प्रसाद का लिफाफा था। वे पहले प्रसाद चढ़ाते और फिर मजार के सामने थोड़ी देर र्शद्धा से सिर झुकाकर खड़े हो जाते। इसी बीच मजार के पास एक स्कूटर आकर रुका। स्कूटर सवार को मैं पहचानता था। वह एक स्थानीय नेता था, जो अपने विवादास्पद बयानों के लिए बदनाम था। उन बयानों की बदौलत ही वह शहर में पहचाना जाता था। वह एक ऐसी पार्टी से ताल्लुक रखता था, जिसके कार्यकर्ता किसी न किसी बहाने शहर में धरना-प्रदर्शन करते रहते थे। यह अलग बात है कि कोई भी उस पार्टी को गंभीरता से नहीं लेता था। उसने स्कूटर एक साइड लगाया और मजार की ओर बढ़ा। मुझे लगा कि वह मजार पर नहीं जाएगा, लेकिन वह अपने जूते उतारकर मजार के अंदर गया। मुझे ताज्जुब हुआ कि उस आदमी का मजार पर क्या काम। इसी पार्टी के लोगों ने तो दंगों के दौरान इसे तोड़ दिया था। जब दंगों की आग शांत हुई थी, तो मजार को दोबारा न बनने की जिद भी की थी। पता नहीं क्यों, मेरे कदम मजार की ओर उठ गए। मैं उससे पूछना चाहता था कि मजार को तोड़ने वाले की कैसे इसमें र्शद्धा जाग गई। जब मैं मजार के करीब पहुंचा तो वह बड़े भक्तिभाव से सिर झुकाए खड़ा था। मैं उसके बाहर निकलने का इंतजार करने लगा। थोड़ी देर में वह बाहर निकलकर अपने स्कूटर की ओर बढ़ा, तो उसे मैंने रोका और अपना परिचय देते हुए अपना सवाल दाग दिया। वह मुझे नीचे से ऊपर की ओर देखते हुए बोला, यह मेरी आस्था है, वह राजनीति। संक्षिप्त जवाब देकर वह अपने स्कूटर की ओर बढ़ गया था। मैंने पान की दुकान की ओर नजर उठाई। मेरे दोस्त की आंखें मुझे तलाश रही थीं।

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