Friday, November 25, 2011

यही फिजूलखर्ची पसंद नहीं


सलीम अख्तर सिद्दीकी

रात के ग्यारह बजे थे। शहर के व्यस्ततम चौराहे की एक पान की दुकान गुलजार थी। चमकते चेहरे लग्जरी गाड़ियों से आ रहे थे। पनवाड़ी सभी को उनकी पसंद के मुताबिक पान लगा रहा था। तरह-तरह के पान की फरमाइश हो रही थी। पान पर भी लोग इतने पैसे खर्च कर सकते थे, यही सोचकर हैरानी हो रही थी।

इन्हीं लोगों के बीच कुछ बच्चे बड़ी उम्मीद से पान खाने के शौकीनों के सामने हाथ फैलाते हुए दूर तक जाते थे। कई उनको ङिाड़कते हुए अपनी गाड़ी में जा बैठते थे, तो कई एक या दो रुपये उनके हाथ पर रख देते थे। इसी समय एक शानदार गाड़ी पनवाड़ी की दुकान पर आकर रुकी। उसमें से एक शानदार शख्सियत का मालिक उतरा। पनवाड़ी उसको पहचानता था। उसने दूर से ही आने वाले को जोरदार सलाम किया। उस शख्स को पनवाड़ी को कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी।

शायद वह दुकान का नियमित ग्राहक था। पान वाले ने उसके लिए पान तैयार करके उनको पैक किया। कुछ सिगरेट के पैकेट दिए। आने वाला शख्स अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ा, तो एक बूढ़ी औरत ने उसकी तरफ हाथ बढ़ा दिया। उस शख्स ने हिचकिचाहट के साथ औरत की ओर देखते हुए अपना हाथ जेब की तरफ बढ़ाया और दस का नोट उस औरत के हाथ पर रख दिया।

वह शख्स ड्राइविंग सीट पर बैठा, तो पिछली सीट पर बैठी एक महिला की आवाज उभरी, जो शायद उस शख्स की पत्‍नी थी, ‘बस मुङो तुम्हारी यही फिजूलखर्ची पसंद नहीं है। क्या जरूरत थी उस औरत को दस रुपये देने की?’ पति ने प्रतिवाद किया, ‘अरे, मेरे पास खुल्ले पैसे नहीं थे तो क्या करता?’ मुझसे ले लेते, लेकिन आपको तो फिजूलखर्ची करने की आदत ही हो गई है। इन मांगने वालों को कितना भी दे दोगे, इनका पेट नहीं भरेगा। चलो अब मूड खराब हो गया है, कहीं ले जाकर आइसक्रीम खिलवा दो।

गाड़ी एक झटके से आगे बढ़ गई।

4 comments:

  1. जीवन इसी का नाम है

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