निदा फाजली : जिंदा शायरी की मिसाल
सचिन श्रीवास्तव के ब्लॉग ‘नई इबारतें’ से साभारउन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार समेत करीब दो दर्जन पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। उनकी 24 पुस्तकें छप चुकी हैं, लेकिन यह तथ्य निदा फाजली की ऊंचाई और कद की मिसाल पेश नहीं करते। असल में तो निदा पुरस्कारों, किताबों और अन्य कामयाबियों से बड़े रचनाकार हैं, क्योंकि वे इंसानियत के फनकार हैं।
बहुत करीब से देखने पर चीजें अक्सर बड़ी दिखाई देती हैं और करीब से बड़ी चीजों के सही कद का अंदाजा लगाना भी मुमकिन नहीं होता। अपने समय से आगे के लोगों के बारे में भी आज लिखना मुश्किल और उलझनों से भरा होता है। खासकर ऐसी शख्सियत के बारे में, जिसने अपनी उम्र में अनगिनत पड़ाव देखे हों, जिसका जीवन टेढ़ी, तिरछी, तंग गलियों से भी गुजरा हो और जिसने आसमानी ऊंचाई भी हासिल की हो। हम बात कर रहे हैं मकबूल कवि, दार्शनिक शायर, संजीदा गीतकार और अपने समय के सबसे बड़े रचनाकारों में शुमार निदा फाजली की। 12 अक्टूबर को निदा साहब 73 साल के हो जाएंगे। यह वह उम्र है, जहां किसी भी रचनाकार को इज्जत हासिल हो सकती है, लेकिन निदा साहब की इज्जत करने के लिए उम्र कोई पैमाना नहीं। असल में शायरी की लोकप्रियता भी इस इज्जत को सही ढंग से बयान नहीं करती है। निदा उन शख्सियतों में शुमार हैं, जिन्हें तव्वजो देकर हमारे समाज, अदब और इतिहास ने खुद इज्जत हासिल की है। यह बात पूरी गंभीरता से इसलिए सामने आनी चाहिए, क्योंकि हमारे समय के अन्य शायर या कवि, जो शायद आज निदा के आसपास की शख्सियत लगते हों, लेकिन असल में निदा उनसे बहुत बड़ी अदबी हैसियत रखते हैं। निदा हमारे समय के उन गिने-चुने शायरों में हैं, जिनकी शायरी में कोई कंट्राडिक्शन नहीं है। कोई भटकाव नहीं है। निदा एक-दो गजलों के शायर भी नहीं है। हमारे समय की शायरी में मंचों पर ऐसे लोग भी प्रतिष्ठित हैं, जिन्होंने अपने अश्आर के दर्शन को दूसरे मिसरे में ही काट दिया। यह भटकन, यह उलझन, यह खम निदा में नहीं है। उनकी शायरी को कहीं से भी पकड़िए, आपको इंसानी हक के पक्ष में सबसे जदीद बयान मिलेंगे। उनके मिसरों को कहीं से भी उठाएं, निदा हमेशा दर्शन की सामाजिकता के पक्ष में मिलेंगे। यह इसलिए है कि निदा सिर्फ हिट होने, या वाहवाही के शायरी नहीं है। शायरी उनके दिलो-दिमाग में पैबस्त विचारों का खूबसूरत समुच्चय है। जिंदगी के उतार-चढ़ाव को करीब से जीने वाले फाजली साहब ने हर रंग देखा है। इसीलिए उनकी शायरी जिंदगी की शायरी है, अपनी पूरी आब और ताव में।
नन्हें निदा के आसपास अदब का माहौल था। उनके पिता की शायरी में गहरी दिलचस्पी थी और घर में उर्दू-फारसी के संग्रह बिखरे पड़े थे। लाजिमी था कि निदा को इन किताबों, रिसालों से प्यार होना था। शायरी से प्यार हुआ और यह प्यार हिंदुस्तान की सरजमीं से मुहब्बत में भी तब्दील हो गया। हिंदुस्तान से प्यार की तस्दीक इस बात में होती है कि जब बंटवारे के बाद सारा फाजली परिवार पाकिस्तान का रुख कर रहा था, तो भरी आंखों से निदा अपने कदम हिंदुस्तान में ही जमाये रहे। 1954 में ग्वालियर से कॉलेज स्तर तक की पढ़ाई की और आने वाली उम्र का खाका तैयार करने लगे। यही दौर था, जब निदा सूरदास को पढ़ रहे थे। कबीर से रूबरू हो रहे थे और मीर-गालिब के दर्शन से परिचित हो रहे थे। यह उर्दू साहित्य में परंपरिक लेखन का दौर था। गालिब के दर्शन की ऊंचाई, मीर की गहराई, दाग की कशिश और जौक की रूमानियत पर उर्दू लेखन रुक गया था। इन महान रचनाकारों के आगे नतमस्तक हिंदुस्तानी लेखन आगे बढ़ने की तैयारी कर रहा था। निदा ने भी ठहरने के बजाए आगे बढ़ने को तरजीह दी। उन्होंने अपनी शैली विकसित की और 1964 में मुंबई आ गए। मुंबई में मकबूलियत से पहले मुफलिसी से दो-चार होना पड़ता है, और निदा के साथ भी ऐसा ही हुआ। मुफलिसी से निजात के लिए लिए उन्होंने ‘धर्मयुग’ और ‘ब्लिट्ज’ जैसी पत्रिकाओं में अपना योगदान दिया। नई शैली और जदीद सोच के कारण निदा फाजली की प्रतिभा ने ध्यान खींचा और वे मुशायरों में हिस्सेदारी करने लगे। यहां उन्हें शोहरत तो मिली, लेकिन आर्थिक तंगी से छुटकारा नहीं मिला था, जिस कारण निदा अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहे थे। इसके लिए उन्होंने फिल्मों का रुख किया, लेकिन यहां कामयाबी उनसे रूठी रही। करीब दस साल तक अखबारों, पत्रिकाओं और मुशायरों के सहारे जिंदगी खींचने के बाद 1980 में ‘आप तो ऐसे ना थे’ फिल्म आई, जिसका एक गीत ‘तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है...’ लोगों की जुबान पर चढ़ा। इसके बाद फिल्म ‘आहिस्ता आहिस्ता’ में ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता...’ जैसा गीत, जो आज मुहावरे की तरह इस्तेमाल किया जाता है, भी निदा फाजली ने दिया। ‘रजिया सुल्तान’ से लेकर ‘सरफरोश’ और ‘यात्रा’ तक निदा फाजली के गीत मुंबइया शैली के बीच अलग पहचाने और सराहे जाते रहे हैं। लेकिन फिल्मी सफलता निदा फाजली की ऊंचाई का शीर्ष नहीं है। असल में दोहे भी निदा की प्रतिभा और उनके फन की असली कसौटी नहीं है। यही बात निदा को खास बनाती है। विधा कोई भी रही हो, निदा को अपने कहन की वजह से जाना जाता है। आज रोजमर्रा की जिंदगी में हम-आप निदा के कई दोहों को बातचीत के बीच लाते हैं। अपनी बात को सीधी-साधी भाषा में कहने के लिए इस्तेमाल करते हैं। यही निदा की खासियत है। गरीबी और मुफलिसी को ‘सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर, जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फकीर’ जैसे दोहे से बयान करने वाले निदा को भारत का बर्तोल्त ब्रेख्त भी कहा जाता है। ब्रेख्त की तरह अपने पक्ष में मजबूती से खड़े निदा सत्ता प्रतिष्ठानों के हमेशा खिलाफ रहे हैं। सांप्रदायिकता और उग्र राष्ट्रवाद की मुखालफत को पूरी संजीदगी से धार देने वाले निदा ने महाराष्ट्र सरकार का पुरस्कार ठुकराकर इसकी मिसाल पेश की थी। लहजे में तल्ख और विचारों में सादा निदा ने भटकने पर अपने समकालीन लेखकों के खिलाफ भी खुलकर लिखा और बोला। जावेद अख्तर से उनके मतभेद इसी की मिसाल हैं। अपनी इंसानी सोच के कारण निदा सत्ता के निशाने पर भी रहे, बाल ठाकरे का अघोषित प्रतिबंध इसकी ताकीद करता है। निदा के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे अगर समझौते करते तो उन्हें कई और बड़ी फिल्मों में गीत लिखने का मौका मिलता, लेकिन मुंबइया चाल के बजाए अपनी धुन को ही उन्होंने इज्जत बख्शी और डिगे नहीं। निदा के बारे में जानना असल में उस इंसान के बारे में जानना है, जो अपनी दुनिया में रहते हुए भी आगे की दुनिया की खूबसूरती और इंसान को महफूज रखने के बारे में सोच रहा है। खुशामद से परहेज करने वाले और हर किस्म के अन्याय के खिलाफ, हर मोर्चे पर मुखर होने वाले निदा जिंदा शायर हैं। एक ऐसे शायर, जिसकी उम्र सालों में नहीं हो सकती, उनकी उम्र शताब्दियों में होती है। आज के शायरों में निदा ऐसे अकेले शायर हैं, जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वे आने वाली कई शताब्दियों तक इंसानी सोच को प्यार, मासूमियत, उसूल, नाजुकी और जिंदादिली बांटते रहेंगे, क्योंकि वे बहुत छोटे काम करने के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन उनके मायने बड़े होते हैं। मिसाल के तौर पर निदा कहते हैं,
(9 अक्तूबर 2011 को जनवाणी में प्रकाशित)
बहुत करीब से देखने पर चीजें अक्सर बड़ी दिखाई देती हैं और करीब से बड़ी चीजों के सही कद का अंदाजा लगाना भी मुमकिन नहीं होता। अपने समय से आगे के लोगों के बारे में भी आज लिखना मुश्किल और उलझनों से भरा होता है। खासकर ऐसी शख्सियत के बारे में, जिसने अपनी उम्र में अनगिनत पड़ाव देखे हों, जिसका जीवन टेढ़ी, तिरछी, तंग गलियों से भी गुजरा हो और जिसने आसमानी ऊंचाई भी हासिल की हो। हम बात कर रहे हैं मकबूल कवि, दार्शनिक शायर, संजीदा गीतकार और अपने समय के सबसे बड़े रचनाकारों में शुमार निदा फाजली की। 12 अक्टूबर को निदा साहब 73 साल के हो जाएंगे। यह वह उम्र है, जहां किसी भी रचनाकार को इज्जत हासिल हो सकती है, लेकिन निदा साहब की इज्जत करने के लिए उम्र कोई पैमाना नहीं। असल में शायरी की लोकप्रियता भी इस इज्जत को सही ढंग से बयान नहीं करती है। निदा उन शख्सियतों में शुमार हैं, जिन्हें तव्वजो देकर हमारे समाज, अदब और इतिहास ने खुद इज्जत हासिल की है। यह बात पूरी गंभीरता से इसलिए सामने आनी चाहिए, क्योंकि हमारे समय के अन्य शायर या कवि, जो शायद आज निदा के आसपास की शख्सियत लगते हों, लेकिन असल में निदा उनसे बहुत बड़ी अदबी हैसियत रखते हैं। निदा हमारे समय के उन गिने-चुने शायरों में हैं, जिनकी शायरी में कोई कंट्राडिक्शन नहीं है। कोई भटकाव नहीं है। निदा एक-दो गजलों के शायर भी नहीं है। हमारे समय की शायरी में मंचों पर ऐसे लोग भी प्रतिष्ठित हैं, जिन्होंने अपने अश्आर के दर्शन को दूसरे मिसरे में ही काट दिया। यह भटकन, यह उलझन, यह खम निदा में नहीं है। उनकी शायरी को कहीं से भी पकड़िए, आपको इंसानी हक के पक्ष में सबसे जदीद बयान मिलेंगे। उनके मिसरों को कहीं से भी उठाएं, निदा हमेशा दर्शन की सामाजिकता के पक्ष में मिलेंगे। यह इसलिए है कि निदा सिर्फ हिट होने, या वाहवाही के शायरी नहीं है। शायरी उनके दिलो-दिमाग में पैबस्त विचारों का खूबसूरत समुच्चय है। जिंदगी के उतार-चढ़ाव को करीब से जीने वाले फाजली साहब ने हर रंग देखा है। इसीलिए उनकी शायरी जिंदगी की शायरी है, अपनी पूरी आब और ताव में।
नन्हें निदा के आसपास अदब का माहौल था। उनके पिता की शायरी में गहरी दिलचस्पी थी और घर में उर्दू-फारसी के संग्रह बिखरे पड़े थे। लाजिमी था कि निदा को इन किताबों, रिसालों से प्यार होना था। शायरी से प्यार हुआ और यह प्यार हिंदुस्तान की सरजमीं से मुहब्बत में भी तब्दील हो गया। हिंदुस्तान से प्यार की तस्दीक इस बात में होती है कि जब बंटवारे के बाद सारा फाजली परिवार पाकिस्तान का रुख कर रहा था, तो भरी आंखों से निदा अपने कदम हिंदुस्तान में ही जमाये रहे। 1954 में ग्वालियर से कॉलेज स्तर तक की पढ़ाई की और आने वाली उम्र का खाका तैयार करने लगे। यही दौर था, जब निदा सूरदास को पढ़ रहे थे। कबीर से रूबरू हो रहे थे और मीर-गालिब के दर्शन से परिचित हो रहे थे। यह उर्दू साहित्य में परंपरिक लेखन का दौर था। गालिब के दर्शन की ऊंचाई, मीर की गहराई, दाग की कशिश और जौक की रूमानियत पर उर्दू लेखन रुक गया था। इन महान रचनाकारों के आगे नतमस्तक हिंदुस्तानी लेखन आगे बढ़ने की तैयारी कर रहा था। निदा ने भी ठहरने के बजाए आगे बढ़ने को तरजीह दी। उन्होंने अपनी शैली विकसित की और 1964 में मुंबई आ गए। मुंबई में मकबूलियत से पहले मुफलिसी से दो-चार होना पड़ता है, और निदा के साथ भी ऐसा ही हुआ। मुफलिसी से निजात के लिए लिए उन्होंने ‘धर्मयुग’ और ‘ब्लिट्ज’ जैसी पत्रिकाओं में अपना योगदान दिया। नई शैली और जदीद सोच के कारण निदा फाजली की प्रतिभा ने ध्यान खींचा और वे मुशायरों में हिस्सेदारी करने लगे। यहां उन्हें शोहरत तो मिली, लेकिन आर्थिक तंगी से छुटकारा नहीं मिला था, जिस कारण निदा अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहे थे। इसके लिए उन्होंने फिल्मों का रुख किया, लेकिन यहां कामयाबी उनसे रूठी रही। करीब दस साल तक अखबारों, पत्रिकाओं और मुशायरों के सहारे जिंदगी खींचने के बाद 1980 में ‘आप तो ऐसे ना थे’ फिल्म आई, जिसका एक गीत ‘तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है...’ लोगों की जुबान पर चढ़ा। इसके बाद फिल्म ‘आहिस्ता आहिस्ता’ में ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता...’ जैसा गीत, जो आज मुहावरे की तरह इस्तेमाल किया जाता है, भी निदा फाजली ने दिया। ‘रजिया सुल्तान’ से लेकर ‘सरफरोश’ और ‘यात्रा’ तक निदा फाजली के गीत मुंबइया शैली के बीच अलग पहचाने और सराहे जाते रहे हैं। लेकिन फिल्मी सफलता निदा फाजली की ऊंचाई का शीर्ष नहीं है। असल में दोहे भी निदा की प्रतिभा और उनके फन की असली कसौटी नहीं है। यही बात निदा को खास बनाती है। विधा कोई भी रही हो, निदा को अपने कहन की वजह से जाना जाता है। आज रोजमर्रा की जिंदगी में हम-आप निदा के कई दोहों को बातचीत के बीच लाते हैं। अपनी बात को सीधी-साधी भाषा में कहने के लिए इस्तेमाल करते हैं। यही निदा की खासियत है। गरीबी और मुफलिसी को ‘सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर, जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फकीर’ जैसे दोहे से बयान करने वाले निदा को भारत का बर्तोल्त ब्रेख्त भी कहा जाता है। ब्रेख्त की तरह अपने पक्ष में मजबूती से खड़े निदा सत्ता प्रतिष्ठानों के हमेशा खिलाफ रहे हैं। सांप्रदायिकता और उग्र राष्ट्रवाद की मुखालफत को पूरी संजीदगी से धार देने वाले निदा ने महाराष्ट्र सरकार का पुरस्कार ठुकराकर इसकी मिसाल पेश की थी। लहजे में तल्ख और विचारों में सादा निदा ने भटकने पर अपने समकालीन लेखकों के खिलाफ भी खुलकर लिखा और बोला। जावेद अख्तर से उनके मतभेद इसी की मिसाल हैं। अपनी इंसानी सोच के कारण निदा सत्ता के निशाने पर भी रहे, बाल ठाकरे का अघोषित प्रतिबंध इसकी ताकीद करता है। निदा के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे अगर समझौते करते तो उन्हें कई और बड़ी फिल्मों में गीत लिखने का मौका मिलता, लेकिन मुंबइया चाल के बजाए अपनी धुन को ही उन्होंने इज्जत बख्शी और डिगे नहीं। निदा के बारे में जानना असल में उस इंसान के बारे में जानना है, जो अपनी दुनिया में रहते हुए भी आगे की दुनिया की खूबसूरती और इंसान को महफूज रखने के बारे में सोच रहा है। खुशामद से परहेज करने वाले और हर किस्म के अन्याय के खिलाफ, हर मोर्चे पर मुखर होने वाले निदा जिंदा शायर हैं। एक ऐसे शायर, जिसकी उम्र सालों में नहीं हो सकती, उनकी उम्र शताब्दियों में होती है। आज के शायरों में निदा ऐसे अकेले शायर हैं, जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वे आने वाली कई शताब्दियों तक इंसानी सोच को प्यार, मासूमियत, उसूल, नाजुकी और जिंदादिली बांटते रहेंगे, क्योंकि वे बहुत छोटे काम करने के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन उनके मायने बड़े होते हैं। मिसाल के तौर पर निदा कहते हैं,
घर से मसजिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
यह हंसाना, जिंदगी को जीने का ढंग भी बताता है, जो निदा को आता है, और वे दूसरों को जिंदा रहने का हौसला देते हैं। ऐसे अजीम इंसान को जन्मदिन मुबारक।(9 अक्तूबर 2011 को जनवाणी में प्रकाशित)
No comments:
Post a Comment