खुरशीद आलम, उर्दू पत्रकार
इन दिनों मुसलिम राजनीति नए परीक्षण के दौर से गुजर रही है। कहीं मुसलिम पार्टियां एक मंच पर एकत्र होने का प्रयास कर रह हैं, तो कहीं राष्ट्रीय स्तर पर मुसलिम राजनैतिक पार्टियां वजूद में आ रही हैं। पीपुल्स डैमोक्रेटिक फ्रंट के गठन के साथ ही जमाअत इसलामी ने एक नई सियासी पार्टी की रूपरेखा तैयार कर ली है। इसकी औपचारिक घोषणा 18 अप्रैल को नई दिल्ली के फिक्की सभागागर में आयोजित एक कार्यक्रम में की जाएगी। इस प्रसंग में जमाअत-ए-इसलामी हिंद का सियासी सफर बहुत दिलचस्प है। इसमें कई उतार-चढ़ाव हैं। जमाअत पहले राजनीति में हिस्सा लेने की ही विरोधी रही है। लेकिन आपातकाल में जिस तरह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया और जमाअत इसलामी पर बैलेंस करने की नीयत से प्रतिबंध लगाकर इसके सदस्यों को जेल भेज दिया था, उससे उसे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया। जमाअत का यह आत्मंथन ही था कि उसने पहली बार मतदान में भाग लेने का फैसला किया। इसके सदस्यों ने खुलकर 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ वोट किया था। इस फैसले के बाद ही जमाअत के अंदर राजनीति में उतरने का सवाल चर्चा में रहा। कुछ सदस्यों का मानना था कि जमाअत को राजनीति में कूद जाना चाहिए, जबकि कुछ सदस्य यह तो मानते थे कि वे राजनीति में तो आए, लेकिन अभी इसका माहौल नहीं है। इसलिए हमें माहौल बनाना चाहिए और समय आने पर अपनी योग्यता दिखानी चाहिए।
इसको लेकर जमाअत के अंदर काफी आत्मंथन हुआ और चुनाव में जमाअत के भाग न लेने की वकालत करने वाले सदस्यों ने अपनी बात पर अडिग रहते हुए जमाअते इसलामी हिंद से स्वयं को अलग कर लिया। इस प्रकार जमाअत इसलामी हिंद से वह लोग निकल गए, जो अपने विचारों को लेकर कट्टर थे। अब जमाअत में बहुसंख्यक उन लोगों की थी, जो वर्तमान में जमाअत के राजनीति के आने के अनुकूल नहीं मान रहे थे और समय का इंतजार करने की बात कर रहे थे। जमाअत ने अपने एक महत्वपर्ण फैसले के तहत निर्णय लिया कि राजनीति, जिसमें आमतौर पर लोग ऊपर से नीचे जाते हैं और वह अपनी जमीनी सच्चाई की अनदेखी करते हैं, यदि नीचे से सफर शुरू किया जाए तो लक्ष्य की प्राप्ति में आसानी होगी।
इस उद्देश्य के तहत जमाअत ने निकाय चुनाव द्वारा राजनीति में आने का फैसला किया। पहले चरण में जमाअत अच्छी छवि वाले उम्मीदवारों को सामने लाएगी, ताकि निकाय चुनाव में उन लोगों की उपस्थिति से बेहतर माहौल बन सके। निकाय संस्थान, जो जनता के हित एवं विकास की शुरुआती श्रंखला है, में यदि सही लोग आएंगे और काम करेंगे तो निश्चय ही जन-जन तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। और मानव सेवा का दायित्व भी पूरा होगा। इसी योजना के तहत उसने केरल और तमिलनाडु में गत दिनों हुए नगर निकाय चुनावों में हिस्सा लिया। उसने लगभग दो हजार उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, लेकिन दस उम्मीदवार भी नहीं जीत सके । वर्तमान में जमाअत के अंदर व्यवाहारिक राजनीति के सोच रखने वाले तत्व पूरे देश का भ्रमण कर रहे हैं और नई राजनैतिक पार्टी के हक में माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं। पूरी कवायद के बाद मुसलमानों में इसको लेकर कोई उत्साह नहीं है। यह एक वैचारिक जमाअत है। इस लिहाज से उसकी कोई राजनैतिक पृष्ठभूमि नहीं है, जिससे वह लोगों को अपनी ओर आकृषित कर सके।
जमाअत के इस फैसले से अभी तक किसी राजनैतिक पार्टी ने किसी तरह की परेशानी का इजहार नहीं किया है। जहां तक मुसलमानों में पायी जाने वाली राजनैतिक पार्टियों अथवा राजनैतिक गतिविधियों का मामला है, बाबरी मसजिद गिराए जाने के बाद कांग्रेस से उसका मोह भंग हो गया था। तब वह उनसे दूर हो गया था और तीसरे मोर्चे को एक विकल्प के तौर पर चुना था, लेकिन तीसरे मोर्चे के बिखरने और कांग्रेस एवं भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा दो पार्टी व्यवस्था को आगे बढ़ाने के उपाय के बाद मुसलिम दानिश्वरों का रुख कांग्रेस की ओर हो गया। ऐसे में जमाअत की राजनैतिक गतिविधियां क्या इस सोच के विपरीत होेंगी? यदि ऐसा हुआ तो क्या वह मुसलमानों के लिए लाभदायक साबित होगी, जैसे अनेक सवाल भविष्य के गर्भ में छिपे हुए हैं। जमाअत में धारणा प्रबल होती जा रही है कि जमाअत के उद्देश्यों की पूर्ति और उसके उत्थान के लिए संघर्षशील कार्यकर्ता और पदााधिकारी नेताओं की श्रेणी में शामिल होने के लिए व्याकुल हैं। इससे राजनीतिक स्वरूप तो जमाअत का किसी न किसी स्तर से देश के समक्ष आ जाएगा। लेकिन संगठन ने जिन उद्देश्यों और लक्ष्यों को लेकर आगे बढ़ा था, वह लुप्त होते जा रहे हैं। जमाअत इसलामी हिंद की राजनैतिक शाखा की ‘वैलयफेयर पार्टी’ क्या करती है, इसका सभी को इंतजार है। क्या यह भी अन्य मुसलिम पार्टियों की तरह अपना वजूद खो देगी ?
No comments:
Post a Comment