Thursday, October 28, 2010

'राजीव गांधी हों, वीपी सिंह हों या मुलायम सिंह यादव हों, कोई भी मुसलमानों का हमदर्द नहीं है।'


सलीम अख्तर सिद्दीक़ी

अहमद बुखारी अपने वालिद अब्दुल्ला बुखारी से चार कदम आगे साबित हुए हैं। पिछले सप्ताह उर्दू अखबार के एक सहाफी (पत्रकार) ने उनसे एक सवाल क्या कर लिया, वे न सिर्फ आग बबूला हो गए बल्कि सहाफी को 'अपने अंदाज' में सबक भी सिखा दिया। एक सहाफी को सरेआम पीटा गया, पत्रकार जगत में कोई खास हलचल नहीं हुई। होती भी क्यों। पिटने वाला पत्रकार किसी बड़े अखबार या चैनल का नुमाईन्दा न होकर एक अनजान से उर्दू अखबार का नुमाईन्दा जो था। जरा कल्पना किजिए कि यदि पिटने वाला किसी रसूखदार मीडिया हाउस का नुमाईन्दा होता तो क्या होता ? पूरी पत्रकारिता खतरे में नजर आने लगती। प्रेस की आजादी पर हमला माना जाता। एक सवाल यह भी है कि क्या अहमद बुखारी से सवाल पूछने वाला पत्रकार किसी बड़े अखबार का नुमाईन्दा होता तो क्या अहमद बुखारी इसी तरह अपना 'आपा' खोने की जुर्रत कर सकते थे ? शायद नहीं। अहमद बुखारी जैसे लोगों का चाबुक छोटे लोगों पर ही चलता है। वह बड़े लोगों पर हाथ नहीं डालते। क्योंकि बड़े लोगों से कुछ मिलने की आशा रहती है।

दरअसल, अब्दुल्ला बुखारी तो एक मस्जिद के पेश इमाम मात्र थे। जिसका काम मस्जिद में पांच वक्त की नमाज पढ़ाना होता है। उनकी खासियत यह हो सकती है कि वह एक ऐतिहासिक मस्जिद के पेश इमाम थे। आज वही हैसियत उनके बेटे अहमद बुखारी की होनी चाहिए थी। लेकिन बाप-बेटे ने ऐतिहासिक जामा मस्जिद को अपनी 'जागीर' तो नेताओं ने दोनों को पेश इमाम के स्थान पर भारतीय मुसलमानों का रहनुमा बना डाला। मजेदार बात यह है कि अब्दुल्ला बुखारी कभी नमाज नहीं पढ़ाते थे और न आज अहमद बुखारी नमाज पढ़ाने का का फर्ज पूरा करते हैं। अब्दुल्ला बुखारी को मुसलमानों का रहनुमा बनाने में आरएसएस की खास भूमिका रही है। मुझे याद आता है आपातकाल के बाद का 1977 का लोकसभा का चुनाव। तब मैं बहुत छोटा था। उस वक्त आरएसएस के लोग नारा लगाते फिरते थे- 'अब्दुल्ला बुखारी करे पुकार, बदलो-बदलों यह सरकार।' उस वक्त देश की जनता में आपातकाल में हुईं ज्यादतियों को लेकर कांग्रेस के प्रति जबरदस्ती रोष था। खासकर मुसलमान जबरन नसबंदी को लेकर बहुत ज्यादा नाराज थे। ऐसे में यदि अब्दुल्ला बुखारी कांग्रेस को वोट देने की अपील भी करते तो मुसलमान उनकी अपील को खारिज ही करते। उस समय की जनसंघ और आज की भाजपा का विलय जनता पार्टी में हो गया था। 1977 के लोकसभा और विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की जबरदस्त शिकस्त के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी। जनसंघ का जनता पार्टी में विलय होने के बाद भी जनसंघ के नेताओं ने आरएसएस से नाता नहीं तोड़ा। इसी दोहरी सदस्यता तथा जनता पार्टी के अन्य नेताओं के बीच सिर फुटव्वल के चलते 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव हुए। इस चुनाव में अब्दुल्ला बुखारी ने यह देखकर कि जनता पार्टी की कलह के चलते और आपातकाल की ज्यादतियों की जांच करने के लिए गठित शाह जांच आयोग द्वारा इंदिरा गांधी से घंटों पूछताछ करने और पूछताछ को दूरदर्शन पर प्रसारित करने से इंदिरा गांधी के प्रति देश की जनता में हमदर्दी पैदा हो रही है, मुसलमानों से कांग्रेस को वोट देने की अपील कर दी। स्वाभाविक तौर पर देश की जनता ने जनता पार्टी को ठुकरा कर फिर से कांग्रेस का दामन थाम लिया।

इस तरह से देश की जनता में यह संदेश चला गया कि देश का मुसलमान अब्दुल्ला बुखारी की अपील (हालांकि इसे फतवा कहा गया। जबकि अब्दुल्ला बुखारी फतवा जारी करने की योग्यता नहीं रखते थे। अहमद बुखारी भी नहीं रखते) पर ही मतदान करते हैं। जबकि हकीकत यह थी कि देश का मुसलमान भी अन्य नागरिकों की तरह मुद्दों पर ही मतदान करता था। इसका उदहारण 1989 कर चुनाव भी है। इस चुनाव में राजीव गांधी की सरकार बौफोर्स तोप दलाली को लेकर कठघरे में थी तो राम मंदिर आंदोलन के चलते उत्तर प्रदेश के शहर साम्प्रदायिक दंगों की आग में जल रहे थे। दंगों में उत्तर प्रदेश सरकार एक तरह से पार्टी बन गई थी। पुलिस और पीएसी ने मलियाना और हाशिमपुरा में जबरदस्त ज्यादती की थी। परिणाम स्वरुप मुसलमान वीपी सिंह के पीछे लामबंद हो गए थे। ऐसे में कोई कांग्रेस को वोट देने की अपील करता तो मुंह की ही खाता। यहां भी अब्दुल्ला बुखारी ने हवा का रुख देख कर जनता दल को समर्थन देने की अपील की थी। बदले में उन्होंने जनता दल सरकार से जमकर पैसा वसूला और मीम अफजल जैसे अपने चेलों को जनता दल के टिकट पर राज्य सभा की सीट दिलवाई। जनता दल सरकार के कार्यकाल में दिल्ली की जामा मस्जिद को जनता दल सरकार ने पचास लाख का अनुदान दिया था। उन पचास लाख का अब्दुल्ला बुखारी परिवार ने क्या किया, यह पूछने की हिम्मत ने तो किसी की हुई और न हो सकती थी। पूछने की जुर्रत करेगा तो उसका वही हश्र होगा, जो लखनउ के पत्रकार का हुआ है।

ऐसा वक्त भी आया कि अब्दुल्ला बुखारी ने हवा के विपरीत मुसलमानों से किसी दल को समर्थन देने की अपील की और मुंह की खाई। एक बार तो भाजपा और आरएसएस को पानी पी-पी कर कोसने वाले अहमद बुखारी दिल्ली विधान सभा चुनाव में मुसलमानों से भाजपा को समर्थन देने की अपील कर चुके हैं। आज हालत यह हो गयी है कि अहमद बुखारी पुरानी दिल्ली से अपने समर्थन से एक पार्षद को जिताने की हैसियत भी खो चुके हैं।

एक घटना का जिक्र जरुर करना चाहूंगा। जब मई 1987 में मलियाना और हाशिमपुरा कांड हुए थे तो उनकी गूंज पूरी दुनिया मे हुई थी अब्दुल्ला बुखारी ने दोनों कांड के विरोध में जामा मस्जिद को काले झंडे और बैनरों से पाट दिया था। 1989 में जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार वजूद में आयी तो मैं अपने दोस्त मरहूम तारिक अरशद के साथ यह सोचकर अब्दुल्ला बुखारी से मिलने गए थे कि उनके दिल में मलियाना और हाशिमपुरा के लोगों के लिए हमदर्दी है इसलिए उनसे जाकर यह कहा जाए कि आप वीपी सिंह और मुलायम सिंह यादव से कहें कि मलियाना जांच आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करें और दोषियों को सजा दिलाएं। जब हमने अब्दुल्ला बुखारी के सामने रखी तो उनका का जवाब था। 'राजीव गांधी हों, वीपी सिंह हों या मुलायम सिंह यादव हों, कोई भी मुसलमानों का हमदर्द नहीं है।' उनके इस सवाल पर मैंने उनसे सवाल किया था कि 'जब कोई राजनैतिक दल मुसलमानों का हमदर्द ही नहीं है तो आप क्यों बार-बार किसी राजनैतिक दल को समर्थन देने की अपील मुसलमानों से करते हैं ?' मेरे इस सवाल पर अब्दुल्ला बुखारी हत्थे से उखड़ गए थे और बोले, 'मुझसे किसी की सवाल करने की हिम्मत नहीं होती, तुमने कैसे सवाल करने की जुर्रत की।' उस दिन मुझे मालूम हुआ था कि हकीकत क्या है ?

दरअसल, राममंदिर आंदोलन के ठंडा पड़ने के बाद इस आंदोलन के चलते वजूद में आए नेता हाशिए पर चले गए थे। अयोध्या फैसले के बाद ये नेता एक फिर मुख्य धारा में लौटने की कोशिश कर रहे हैं। संघ परिवार के साथ ही कुछ मुस्लिम नेता भी ऐसे हैं, जो अयोध्या फैसले को अपनी वापसी के रुप में देख रहे हैं। अहमद बुखारी भी उनमें से एक हैं। संवाददाता सम्मेलन में एक मुस्लिम पत्रकार के साथ बेहूदा हरकत इसी कोशिश का नतीजा थी।

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