सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला इस ऐतबार से अच्छा का जा सकता है कि इस फैसले के बाद देश में अमन कायम रहा। आलोचना इस लिए की जा सकती है, क्योंकि यह फैसला किसी अंजाम पर नहीं पहुंचा है। शायद दुनिया का यह पहला अदालती फैसला होगा, जिसमें सबूतों और तथ्यों की अनदेखी करके 'आस्था' को आधार बनाया गया है। इस फैसले से 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली कहावत चरितार्थ हुई है। हद तो यह है जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने तो अपने फैसले में भगवा ब्रिगेड की थ्योरी को ज्यों का त्यों का रख दिया है। क्या अब अदालत के फैसले भी 'आस्था' के आधार पर होंगे ? यह फैसला एक गलत नजीर बनने जा रहा है। इसकी कोई गारंटी नहीं है कि आस्था के नाम अन्य धर्म स्थलों पर विवाद खड़ा नहीं किया जाएगा। तीनों ही माननीय जजों ने माना है कि कोई भी पक्ष इस बात के सबूत नहीं दे पाया है कि विवादित स्थल पर उसका मालिकाना हक है। इस सूरत में जिस स्थान का कोई मालिक नहीं है, क्या उस स्थान को सरकार को अपने कब्जे में नहीं ले लेना चाहिए ? हालांकि, भाजपा व अन्य हिन्दुवादी संगठन अब से पहले यह कहते रहे हैं कि 'आस्था' का फैसला अदालत नहीं कर सकती। कैसा अजीब संयोग है कि अदालत ने फैसला देते समय 'आस्था' को ही आधार बनाया है। अब कैसे भगवा ब्रिगेड को 'आस्था' पर दिया गया फैसला मंजूर हो गया ? मेरा मानना है कि भारत की कोई अदालत इससे अलग फैसला दे भी नहीं सकती। भले ही सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रहा हो, वहां भी इससे अलग फैसला आने की कतई उम्मीद नहीं है। बहुसंख्यकों की 'आस्था' के सामने सुप्रीम कोर्ट भी नममस्तक हो जाएगी।
इस विवाद ने सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों का ही हुआ है। अब मुसलमानों का बड़ा वर्ग ऐसा है, जो बाबरी मस्जिद जैसे विवादों को भूलकर तरक्की की राह पर जाना चाहता है। यही वजह है कि विपरीत फैसला आने के बाद भी मुसलमानों ने अपना संयम नहीं खोया। इस बात के लिए मुसलमान बधाई के हकदार हैं। जरा कल्पना किजिए यदि फैसला राममंदिर के पक्ष में नहीं आता तो क्या होता ? क्या देश में इसी तरह अमन-ओ-आमान कायम रहता ? हां, हिन्दुवादी संगठनों की इस बात के लिए बहुत ही तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने 6 दिसम्बर 1992 की तर्ज पर शौर्य दिवस या विजय दिवस मनाने की घोषणा नहीं की। यदि ऐसा होता तो हालात खराब हो सकते थे। नरेन्द्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी जैसे तथाकथित फायर ब्रांड नेताओं के मुंह से भी धैर्य बनाए रखने की बातें सुनकर सुखद आश्चर्य हो रहा था। सब जानते हैं कि मैं संघ परिवार का घोर विरोधी हूं। लेकिन फैसले के फौरन बाद मोहन भागवत ने जो कुछ कहा, सुनकर अच्छा लगा।
इस सब के बीच यह नहीं भूलना चाहिए कि यह फैसला एक तरह से भाजपा की आशाओं के विपरीत आया है। यह भी याद रखिए कि बाबरी मस्जिद को ढहाना भाजपा के एजेंडे में कभी नहीं था। कहते हैं कि जब बाबरी मस्जिद तोड़ी जा रही थी तो उस वक्त लालकृष्ण आडवाणी की आंखों में आंसू थे। उनके वे आंसू पश्चाताप के नहीं, बल्कि अपनी राजनीति के प्रतीक को ढहते हुए देखने के थे। फैसले के बाद भाजपा नेताओं के दिमाग में कहीं न कहीं यह जरुर सवाल उभर रहा होगा कि उनकी राजनीति अब कैसे चलेगी तारिक अरशद नाम का मेरा एक दोस्त था। वह मेरठ के 1990 के दंगों में एक हिन्दु को बचाते हुए मुसलमानों के हाथों शहीद हुआ था। वो मुझसे कहा करता था कि मुसलमानों को चाहिए कि भाजपा को सत्ता में लाएं। एक बार सत्ता में आने के बाद इनका ऐसा पतन शुरु होगा कि फिर से यह दो सीटों पर न सिमट जाएं तो कहना। वो हमारे बीच नहीं है। यदि होता तो देखता कि ऐसा ही हो रहा है।
बाबरी मस्जिद के टूटने और भाजपा के सत्ता में आने बाद भाजपा ग्राफ लगातार गिरा है। हाईकोर्ट यह फैसला भाजपा के ताबूत में अंतिम कील साबित होने जा रहा है। इस फैसले ने एक तरह से भाजपा की हवा निकाल दी है। सच तो यह है कि राममंदिर के विपक्ष में होने वाला फैसला भाजपा के लिए ज्यादा 'अनुकूल' होता। 'प्रतिकूल' फैसला आने की पीड़ा उनके चेहरों पर साफ पढ़ी जा सकती है। अब हालात यह हैं कि अयोध्या का मुक्कमिल फैसला सुप्रीम कोर्ट करेगी या आपसी बातचीत से मसला हल होगा। बातचीत में भाजपा को कुछ लेना-देना नहीं रहेगा। अदालत के फैसले या आपसी बातचीत से विवादित स्थल पर राममंदिर का निर्माण होता भी है तो इसका श्रेय भाजपा को बिल्कुल नहीं मिलने वाला है। इस विवाद से वह जितना राजनैतिक फायदा उठा सकती थी, उसने उठा लिया है। किसी चैक को बार-बार कैश नहीं कराया जा सकता। अयोध्या विवाद भगवा ब्रिगेड के लिए एक चैक था, जिसे कैश कराकर उसने देश पर 6 साल तक राज कर लिया। हवा उन राजनैतिक दलों की भी निकली है, जो भगवा ब्रिगेड का हव्वा दिखाकर मुसलमानों के वोट लेकर सत्ता का मजा लेते रहे हैं। भाजपा कमजोर होगी तो तथाकथित सैक्यूलर दलों का भी गुब्बारा जरुर पिचकेगा।
No comments:
Post a Comment