Saturday, June 19, 2010

भोपाल गैस त्रासदी और फैसले के बीच

सलीम अख्तर सिद्दीकी
भोपाल गैस त्रासदी जैसे भूले-बिसरे मौत के तांडव को एक फैसले ने इतनी शिद्दत से याद दिला दिया है कि इस की जद में आने से कोई नहीं बच सकता है। राजनैतिक पार्टियां, मीडिया और नौकरशाही भी कठघरे में खड़ा हो गयी है। पच्चीस साल का वक्फा कम नहीं होता। सब कुछ बदल गया है। यदि नहीं बदला तो गैस त्रासदी में मारे गए लोगों के परिजनो का दर्द और हताशा। सबसे बडे+ लोकतान्त्रिक देश का दम भरने वाले भारत में अनेकों सरकार आई और चली गयीं, लेकिन भोपाल गैस त्रासदी को सबने भुला दिया। पच्चीस साल बाद जब एक फैसले में भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदारों को महज दो-दो साल की सजा सुनाई जाती है तो चारों और विधवा विलाप शुरु हो जाता है। मीडिया बहुत ही बेशर्मी के साथ वॉरेन एण्डरसन पर हमलावर हो जाता है। अचानक मीडिया पता लगा लेता है कि एण्डरसन कैसे भागा ? उसको भागने में किसने मदद की ? भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी की अन्तरआत्मा भी जाग गयी। मीडिया ने वे पायलट भी ढूंढ निकाले, जो एण्डरसन को भोपाल से दिल्ली ले गए थे। यहां बहुत सारे ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब मीडिया, राजनैतिक दलों और नौकरशाहों को देना चाहिए। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि सब की जबान तभी क्यों खुल रही है, जब सब कुछ खत्म हो गया ? मीडिया के पास एण्डरसन के भागने वक्त का वह विजुअल भी मीडिया के हाथ अभी क्यों लगा ? पिछले पच्चीस सालों से जब हर दो दिसम्बर को गैस पीड़ित अपने-अपने तरीके से इंसाफ की गुहार लगाने सड़कों पर आते थे, तब किसी की आंख क्यों नहीं खुली ? यदि उस वक्त के नौकरशाहों ने सरकारों के इशारे पर एण्डरसन को भगाया तो यह मानना ही पड़ेगा कि नौकरशाह सरकार के गुलाम ज्यादा है, जनता के हितेषी कम हैं। भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदार लोग नेताओं और सरकार के जरखरीद गुलाम नौकरशाहों की वजह से कम सजा पाने से बच गए। अब खबर आयी है कि सरकार गैस पीड़ितों को भारी मुअवाजा देने का इरादा कर रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार गैस पीड़ितों की वास्तव में मदद करेगी।
2 दिसम्बर 1984 और 7 जून 2010 के बीच बहुत कुछ घटा। कई सरकारें आईं। जब भोपाल गैस त्रासदी हुई थी तो उस वक्त इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश नाजुक दौर से गुजर रहा था। लोकसभा के चुनाव घोषित हो चुके थे। चुनाव प्रचार चल रहा था। इसी प्रचार के दौरान एण्डरसन को भगाया गया। इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति को वोट में तब्दील करने की कोशिश हुई, जो कामयाब रही। कांग्रेस को 425 सीटें हासिल हुईं। राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी को खयाल नहीं रहा कि भोपाल के लोगों का हत्यारा देश को छोड़कर भाग गया है। 1986 में देश में राम मंदिर और बाबरी मस्जिद का बखेड़ा शुरु हो गया। मंदिर और मस्जिद की बात करने वालों को गैस से मरने वाले हजारों लोगों की लाशें नजर नहीं आईं बल्कि और ज्यादा लाशें बिछाने में मशगूल हो गए। इसी दौरान देश पर बोफार्स तोप दलाली का भूत सवार हो गया। विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस से अलग होकर कांग्रेस को जड़ से उखाड़ फेंकने की मुहिम में जुट गए। वह हर सभा में कहते थे कि बौफोर्स तोप में दलाली खाने वालों के नाम की लिस्ट मेरी जेब में पड़ी है, वक्त आने पर देश को बताउंगा। वीपी सिंह प्रधानंत्री बन गए। लेकिन बौफोर्स तोप में दलाली खाने वालों के नाम सामने नहीं आए। वीपी सिंह को भी, जिन्हें गरीबों का मसीहा कहा जाता था, भोपाल के गैस पीड़ित याद नहीं आए। भाजपा ने देश को राममंदिर के नाम पर आग में झोंक दिया। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दीवार खड़ी करने का काम किया। राम के नाम पर सत्ता का सुख भोगा। भोपाल गैस पीड़ितों को भाजपा ने भी भुला दिया। जानते हैं ऐसा क्यों हुआ। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भोपाल गैस त्रासदी में मरने वाले गरीब-गुरबे लोग थे। उनकी लाशों पर राजनीति करने से वोट नहीं मिल सकते थे। उस वक्त इंदिरा गांधी की हत्या में वोट थे। बौफोर्स तोप दलाली में वोट थे। राममंदिर और बाबरी मस्जिद में वोट थे। इसलिए भोपाल गैस से मरने वालों की चीत्कारों का असर किसी पर भी नहीं हुआ था।
अब इस बात पर आते हैं कि क्या भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोगों को ही इस देश में इंसाफ नहीं मिला है ? जरा दिमाग पर जोर देकर सोचिए कि लगभग पच्चीस साल पहले ही हुए अनेक सामूहिक नरसंहारों के शिकार लोगों को कितना इंसाफ मिला है ? यह भी याद रखिए कि देश में हुए सामूहिक नरसंहारों के दोषी एण्डरसन की तरह विदेशी नहीं थे, यहीं के लोग थे और एण्डरसन की तरह भागे भी नहीं है, बल्कि देश में ही रह कर शासक रह चुके हैं और आज भी हैं। सामूहिक नरसंहारों को भी नेताओं के इशारे पर उन नौकरशाहों की देख-रेख में किया गया था, जिन नौकरशाहों ने एण्डरसन को भगाने में मदद की थी। जब भोपाल गैस त्रासदी हुई थी तो उससे ठीक एक महीना पहले इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में सिखों का कत्लेआम किया गया था। क्या आज तक इंसाफ मिला ? कत्लेआम को आयोग-दर-आयोग बैठाकर भुला दिया गया। राम मंदिर आंदोलन के बहाने पूरे देश में कई सामूहिक नरसंहार हुए, आयोग बैठे। नतीजा सिफर। मलियाना, हाशिमपुरा, कानपुर, मुंबई, भागलपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़ और भिवंडी। कहां तक नाम लें। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया। उसके अपराधी तो देश पर छह साल तक देश पर शासन ही करके चले गए। सत्रह साल बाद लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट आयी। क्या हुआ ? कुछ दिन बहस हुई और फिर सब कुछ शांत हो गया। फरवरी 2002 में गुजरात में जो हुआ, वह तो इतना हौलनाक था कि सोच कर भी रुह कांप जाए। जब कातिल ही मुंसिफ हो तो इंसाफ की उम्मीद कैसे की जाए ? मुंबई दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट को डस्टबिन में डाल दिया गया। गुजरात दंगों की जांच कई आयोग कर चुके हैं लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। दरअसल, सामूहिक नरसंहारों के दोषियों को सजा मिले यह कोई नहीं चाहता। सरकार भी नहीं और न्याय पालिका भी नहीं। मामले को लम्बा लटका कर भुलाने की कोशिश की जाती है। कोशिश कामयाब भी हो जाती है। इससे पहले कि किसी सामूहिक नरसंहार के दोषियों को अदालतें बाइज्जत बरी कर दें, मीडिया को इधर भी ध्यान देना चाहिए। वैसे मीडिया तभी हाय-तौबा मचाता है, जब कुछ ऐसा हो जाए, जिससे उसकी टीआरपी बढ़े।

2 comments:

  1. asslaam alaikum bhai mera number 09313542450 hai. aap mijhe msg milte hi phone krein to ahsaan hoga.

    majid

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  2. साथियो, आभार !!
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