सलीम अख्तर सिद्दीकी
मेरठ में कमेला लंबे अरसे से सियासत का अखाड़ा बना हुआ है। इसके संचालकों
ने इसे बचाए रखने के लिए राजनीति को कवच के तौर पर इस्तेमाल किया, जिसमें
वह कामयाब होते रहे। जब वे सियासत में हाशिए पर आए, तो कमेला ध्वस्त हुआ और
उसकी जगह पर कन्या इंटर कॉलेज बनाने की घोषणा हुई। लेकिन, प्रशासन उन
गोदामों को ध्वस्त करने में नाकाम रहा, जिन्हें मेरठ नगर निगम अपनी जमीन पर
अवैध रूप से बने बताता है, इससे उलट उन पर काबिज लोग उसे अपनी जमीन बताते
हैं। कई गोदाम पर स्टे है, तो कुछ का मामला अदालत में विचाराधीन है। कई
मुकदमे खारिज हो चुके हैं।
बहरहाल, कमेला संचालकों के पास बस यही विकल्प बचता था कि कमेला बचाए रखने के लिए देवबंद के उलेमा का इस्तेमाल करें। पिछले सप्ताह जमीयत-उल-कुरैश की एक मीटिंग मेरठ में हुई, जिसमें दारुल उलूम देवबंद के कुछ उलेमा ने शिरकत की। उलेमा से मशविरा करने के बाद जमीयत-उल-कुरैश के अध्यक्ष युसूफ कुरैशी ने मेरठ प्रशासन को अल्टीमेटम दे दिया कि यदि वह 23 मई तक ध्वस्त किए गए कमेले की जगह पर कन्या इंटर कालेज की बुनियाद नहीं रखता है, तो 24 मई से वहां दोबारा कटान शुरू कर दिया जाएगा। यानी कमेला दोबारा शुरू कर दिया जाएगा। यदि जमीयत-उल-कुरैश अपने अल्टीमेटम पर अमल करता है, तो क्या इससे शहर की कानून व्यवस्था नहीं बिगड़ेगी? देवबंद के उलेमा उस काम के भागीदार क्यों बनना चाहते हैं, जिससे शहर के अमन को खतरा पैदा हो जाए?
सवाल उठना लाजिमी है कि विशुद्ध रूप से एक कारोबारी मामले में उलेमा क्यों सामने आए हैं? यह कोई ऐसा धार्मिक या सामाजिक मुद्दा नहीं था, जिस पर उनका आना जरूरी था। यह महज कुछ लोगों के कारोबार का निजी मामला था। उलेमा को कमेले के आसपास रहने वाली बड़ी आबादी से भी पूछना चाहिए था कि वे क्या चाहते हैं? यदि वे ऐसा करते तो यकीनन यही सामने आता कि उन्हें कमेला नहीं, लड़कियों के लिए स्कूल चाहिए। जहां कन्या इंटर कॉलेज बनाना प्रस्तावित है, उसके आसपास लाखों की संख्या में लोग रहते हैं। उस लाखों की आबादी के बीच लड़कियों के लिए एक भी कॉलेज नहीं है। जाहिर है, यदि वहां कॉलेज बनता है, तो लड़कियों को पढ़ने के लिए अपने घर से बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। कमेला संचालक परिवार के सदस्य हाजी याकूब कुरैशी उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे हैं। यह उनकी जिम्मेदारी बनती थी कि उस क्षेत्र का विकास कराते। स्कूल-कॉलेज खुलवाते, अस्पताल बनवाते, लेकिन उन्होंने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। सच तो यह है कि उन्होंने सियासत को कमेला बचाने के लिए कवच के रूप में ही इस्तेमाल किया है। 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्होंने यूडीएफ का गठन किया। उसी से विधासभा चुनाव लड़ा। जीत भी दर्ज की। जब उन्होंने यूडीएफ का गठन किया था, तो कौम से मशविरा लिया था, लेकिन जीतने के बाद बसपा में जाने में उन्होंने एक पल की देर भी नहीं लगाई। तब उन्हें ख्याल नहीं आया कि कौम से मशविरा कर लिया जाए। ऐसा सिर्फ इसलिए किया गया था, ताकि कमेले पर आंच न आए। यदि सपा के आजम खान से उनका छत्तीस का आंकड़ा नहीं होता, तो वह फिर से सत्ता की ओर जाने में एक पल भी नहीं लगाते।
यह सही है कि शहर की जरूरत पूरी करने के लिए कमेला निहायत जरूरी है, लेकिन जिस तरह से वह आबादी के बीच में आ गया था और परेशानी का सबब बना हुआ था, यह देखते हुए उसे दूसरी जगह शिफ्ट करना बहुत जरूरी हो गया था। वैसे भी कमेले को भारतीय जनता पार्टी ने सियासत का अहम मुद्दा बनाया हुआ था। उसके ध्वस्त होने से उसका मुद्दा भी खत्म हो गया है। चूंकि कमेला संचालक ही पिछले 20 वर्षों से भाजपा के सियासी प्रतिद्वंद्वी रहे हैं, इसलिए उसे मुद्दा बनाना भाजपा को रास आता था। समय-समय पर भाजपा के कुछ नेताओं पर कमेला संचालकों से साठगांठ करने के आरोप भी लगते रहे हैं। कम से कम दो बार कमेले की वजह से शहर हिंसा की आग में भी जला। जरूरत इस बात की है कि ऐसा कोई काम न किया जाए, जिससे शहर की शांति खतरे में पड़े। कमेला हटने के बाद बड़ी आबादी को गंदगी और प्रदूषण से निजात मिल पाई है। दोबारा कमेला शुरू किया गया, तो उनकी जिंदगी फिर से नारकीय हो जाएगी। इसका एकमात्र हल यही है कि घोसीपुर कमेला आधुनिक तकनीक से चलाया जाए, जिससे गंदगी और प्रदूषण न फैले। आखिर उन्हीं लोगों के आधुनिक निजी कमेले भी तो चल ही रहे हैं, जो ध्वस्त किए गए कमेले को दोबारा शुरू करना चाहते हैं। देवबंद के उलेमा को शहर के लोगों की राय भी जान लेनी चाहिए कि वे क्या चाहते हैं? शहर के लोगों में यह संदेश न जाए कि उलेमा सियासी और कारोबारी लोगों के प्रभाव में आकर उनकी राय की अनदेखी कर रहे हैं। कानूनी और सामाजिक रूप से भी चंद लोगों को अपने फायदे के लिए लाखों लोगों को नुकसान पहुंचाने का कोई हम नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कमेला संचालक ओर उलेमा जनहित में अपने फैसले पर दोबारा नजरसानी करके मसले का कोई ऐसा हल निकालेंगे, जिससे टकराव की नौबत न आए। यही शहर के हित में होगा।
बहरहाल, कमेला संचालकों के पास बस यही विकल्प बचता था कि कमेला बचाए रखने के लिए देवबंद के उलेमा का इस्तेमाल करें। पिछले सप्ताह जमीयत-उल-कुरैश की एक मीटिंग मेरठ में हुई, जिसमें दारुल उलूम देवबंद के कुछ उलेमा ने शिरकत की। उलेमा से मशविरा करने के बाद जमीयत-उल-कुरैश के अध्यक्ष युसूफ कुरैशी ने मेरठ प्रशासन को अल्टीमेटम दे दिया कि यदि वह 23 मई तक ध्वस्त किए गए कमेले की जगह पर कन्या इंटर कालेज की बुनियाद नहीं रखता है, तो 24 मई से वहां दोबारा कटान शुरू कर दिया जाएगा। यानी कमेला दोबारा शुरू कर दिया जाएगा। यदि जमीयत-उल-कुरैश अपने अल्टीमेटम पर अमल करता है, तो क्या इससे शहर की कानून व्यवस्था नहीं बिगड़ेगी? देवबंद के उलेमा उस काम के भागीदार क्यों बनना चाहते हैं, जिससे शहर के अमन को खतरा पैदा हो जाए?
सवाल उठना लाजिमी है कि विशुद्ध रूप से एक कारोबारी मामले में उलेमा क्यों सामने आए हैं? यह कोई ऐसा धार्मिक या सामाजिक मुद्दा नहीं था, जिस पर उनका आना जरूरी था। यह महज कुछ लोगों के कारोबार का निजी मामला था। उलेमा को कमेले के आसपास रहने वाली बड़ी आबादी से भी पूछना चाहिए था कि वे क्या चाहते हैं? यदि वे ऐसा करते तो यकीनन यही सामने आता कि उन्हें कमेला नहीं, लड़कियों के लिए स्कूल चाहिए। जहां कन्या इंटर कॉलेज बनाना प्रस्तावित है, उसके आसपास लाखों की संख्या में लोग रहते हैं। उस लाखों की आबादी के बीच लड़कियों के लिए एक भी कॉलेज नहीं है। जाहिर है, यदि वहां कॉलेज बनता है, तो लड़कियों को पढ़ने के लिए अपने घर से बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। कमेला संचालक परिवार के सदस्य हाजी याकूब कुरैशी उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे हैं। यह उनकी जिम्मेदारी बनती थी कि उस क्षेत्र का विकास कराते। स्कूल-कॉलेज खुलवाते, अस्पताल बनवाते, लेकिन उन्होंने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। सच तो यह है कि उन्होंने सियासत को कमेला बचाने के लिए कवच के रूप में ही इस्तेमाल किया है। 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्होंने यूडीएफ का गठन किया। उसी से विधासभा चुनाव लड़ा। जीत भी दर्ज की। जब उन्होंने यूडीएफ का गठन किया था, तो कौम से मशविरा लिया था, लेकिन जीतने के बाद बसपा में जाने में उन्होंने एक पल की देर भी नहीं लगाई। तब उन्हें ख्याल नहीं आया कि कौम से मशविरा कर लिया जाए। ऐसा सिर्फ इसलिए किया गया था, ताकि कमेले पर आंच न आए। यदि सपा के आजम खान से उनका छत्तीस का आंकड़ा नहीं होता, तो वह फिर से सत्ता की ओर जाने में एक पल भी नहीं लगाते।
यह सही है कि शहर की जरूरत पूरी करने के लिए कमेला निहायत जरूरी है, लेकिन जिस तरह से वह आबादी के बीच में आ गया था और परेशानी का सबब बना हुआ था, यह देखते हुए उसे दूसरी जगह शिफ्ट करना बहुत जरूरी हो गया था। वैसे भी कमेले को भारतीय जनता पार्टी ने सियासत का अहम मुद्दा बनाया हुआ था। उसके ध्वस्त होने से उसका मुद्दा भी खत्म हो गया है। चूंकि कमेला संचालक ही पिछले 20 वर्षों से भाजपा के सियासी प्रतिद्वंद्वी रहे हैं, इसलिए उसे मुद्दा बनाना भाजपा को रास आता था। समय-समय पर भाजपा के कुछ नेताओं पर कमेला संचालकों से साठगांठ करने के आरोप भी लगते रहे हैं। कम से कम दो बार कमेले की वजह से शहर हिंसा की आग में भी जला। जरूरत इस बात की है कि ऐसा कोई काम न किया जाए, जिससे शहर की शांति खतरे में पड़े। कमेला हटने के बाद बड़ी आबादी को गंदगी और प्रदूषण से निजात मिल पाई है। दोबारा कमेला शुरू किया गया, तो उनकी जिंदगी फिर से नारकीय हो जाएगी। इसका एकमात्र हल यही है कि घोसीपुर कमेला आधुनिक तकनीक से चलाया जाए, जिससे गंदगी और प्रदूषण न फैले। आखिर उन्हीं लोगों के आधुनिक निजी कमेले भी तो चल ही रहे हैं, जो ध्वस्त किए गए कमेले को दोबारा शुरू करना चाहते हैं। देवबंद के उलेमा को शहर के लोगों की राय भी जान लेनी चाहिए कि वे क्या चाहते हैं? शहर के लोगों में यह संदेश न जाए कि उलेमा सियासी और कारोबारी लोगों के प्रभाव में आकर उनकी राय की अनदेखी कर रहे हैं। कानूनी और सामाजिक रूप से भी चंद लोगों को अपने फायदे के लिए लाखों लोगों को नुकसान पहुंचाने का कोई हम नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कमेला संचालक ओर उलेमा जनहित में अपने फैसले पर दोबारा नजरसानी करके मसले का कोई ऐसा हल निकालेंगे, जिससे टकराव की नौबत न आए। यही शहर के हित में होगा।