Wednesday, May 22, 2013

मेरठ में कमेला मुद्दे पर देवबंद के उलेमा का दखल देना कितना सही?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मेरठ में कमेला लंबे अरसे से सियासत का अखाड़ा बना हुआ है। इसके संचालकों ने इसे बचाए रखने के लिए राजनीति को कवच के तौर पर इस्तेमाल किया, जिसमें वह कामयाब होते रहे। जब वे सियासत में हाशिए पर आए, तो कमेला ध्वस्त हुआ और उसकी जगह पर कन्या इंटर कॉलेज बनाने की घोषणा हुई। लेकिन, प्रशासन उन गोदामों को ध्वस्त करने में नाकाम रहा, जिन्हें मेरठ नगर निगम अपनी जमीन पर अवैध रूप से बने बताता है, इससे उलट उन पर काबिज लोग उसे अपनी जमीन बताते हैं। कई गोदाम पर स्टे है, तो कुछ का मामला अदालत में विचाराधीन है। कई मुकदमे खारिज हो चुके हैं।
बहरहाल, कमेला संचालकों के पास बस यही विकल्प बचता था कि कमेला बचाए रखने के लिए देवबंद के उलेमा का इस्तेमाल करें। पिछले सप्ताह जमीयत-उल-कुरैश की एक मीटिंग मेरठ में हुई, जिसमें दारुल उलूम देवबंद के कुछ उलेमा ने शिरकत की। उलेमा से मशविरा करने के बाद जमीयत-उल-कुरैश के अध्यक्ष युसूफ कुरैशी ने मेरठ प्रशासन को अल्टीमेटम दे दिया कि यदि वह 23 मई तक ध्वस्त किए गए कमेले की जगह पर कन्या इंटर कालेज की बुनियाद नहीं रखता है, तो 24 मई से वहां दोबारा कटान शुरू कर दिया जाएगा। यानी कमेला दोबारा शुरू कर दिया जाएगा। यदि जमीयत-उल-कुरैश अपने अल्टीमेटम पर अमल करता है, तो क्या इससे शहर की कानून व्यवस्था नहीं बिगड़ेगी? देवबंद के उलेमा उस काम के भागीदार क्यों बनना चाहते हैं, जिससे शहर के अमन को खतरा पैदा हो जाए?  
सवाल उठना लाजिमी है कि विशुद्ध रूप से एक कारोबारी मामले में उलेमा क्यों सामने आए हैं? यह कोई ऐसा धार्मिक या सामाजिक मुद्दा नहीं था, जिस पर उनका आना जरूरी था। यह महज कुछ लोगों के कारोबार का निजी मामला था। उलेमा को कमेले के आसपास रहने वाली बड़ी आबादी से भी पूछना चाहिए था कि वे क्या चाहते हैं? यदि वे ऐसा करते तो यकीनन यही सामने आता कि उन्हें कमेला नहीं, लड़कियों के लिए स्कूल चाहिए। जहां कन्या इंटर कॉलेज बनाना प्रस्तावित है, उसके आसपास लाखों की संख्या में लोग रहते हैं। उस लाखों की आबादी के बीच लड़कियों के लिए एक भी कॉलेज नहीं है। जाहिर है, यदि वहां कॉलेज बनता है, तो लड़कियों को पढ़ने के लिए अपने घर से बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। कमेला संचालक परिवार के सदस्य हाजी याकूब कुरैशी उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे हैं। यह उनकी जिम्मेदारी बनती थी कि उस क्षेत्र का विकास कराते। स्कूल-कॉलेज खुलवाते, अस्पताल बनवाते, लेकिन उन्होंने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। सच तो यह है कि उन्होंने सियासत को कमेला बचाने के लिए कवच के रूप में ही इस्तेमाल किया है। 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्होंने यूडीएफ का गठन किया। उसी से विधासभा चुनाव लड़ा। जीत भी दर्ज की। जब उन्होंने यूडीएफ का गठन किया था, तो कौम से मशविरा लिया था, लेकिन जीतने के बाद बसपा में जाने में उन्होंने एक पल की देर भी नहीं लगाई। तब उन्हें ख्याल नहीं आया कि कौम से मशविरा कर लिया जाए। ऐसा सिर्फ इसलिए किया गया था, ताकि कमेले पर आंच न आए। यदि सपा के आजम खान से उनका छत्तीस का आंकड़ा नहीं होता, तो वह फिर से सत्ता की ओर जाने में एक पल भी नहीं लगाते।
यह सही है कि शहर की जरूरत पूरी करने के लिए कमेला निहायत जरूरी है, लेकिन जिस तरह से वह आबादी के बीच में आ गया था और परेशानी का सबब बना हुआ था, यह देखते हुए उसे दूसरी जगह शिफ्ट करना बहुत जरूरी हो गया था। वैसे भी कमेले को भारतीय जनता पार्टी ने सियासत का अहम मुद्दा बनाया हुआ था। उसके ध्वस्त होने से उसका मुद्दा भी खत्म हो गया है। चूंकि कमेला संचालक ही पिछले 20 वर्षों से भाजपा के सियासी प्रतिद्वंद्वी रहे हैं, इसलिए उसे मुद्दा बनाना भाजपा को रास आता था। समय-समय पर भाजपा के कुछ नेताओं पर कमेला संचालकों से साठगांठ करने के आरोप भी लगते रहे हैं। कम से कम दो बार कमेले की वजह से शहर हिंसा की आग में भी जला। जरूरत इस बात की है कि ऐसा कोई काम न किया जाए, जिससे शहर की शांति खतरे में पड़े। कमेला हटने के बाद बड़ी आबादी को गंदगी और प्रदूषण से निजात मिल पाई है। दोबारा कमेला शुरू किया गया, तो उनकी जिंदगी फिर से नारकीय हो जाएगी। इसका एकमात्र हल यही है कि घोसीपुर कमेला आधुनिक तकनीक से चलाया जाए, जिससे गंदगी और प्रदूषण न फैले। आखिर उन्हीं लोगों के आधुनिक निजी कमेले भी तो चल ही रहे हैं, जो ध्वस्त किए गए कमेले को दोबारा शुरू करना चाहते हैं। देवबंद के उलेमा को शहर के लोगों की राय भी जान लेनी चाहिए कि वे क्या चाहते हैं? शहर के लोगों में यह संदेश न जाए कि उलेमा सियासी और कारोबारी लोगों के प्रभाव में आकर उनकी राय की अनदेखी कर रहे हैं। कानूनी और सामाजिक रूप से भी चंद लोगों को अपने फायदे के लिए लाखों लोगों को नुकसान पहुंचाने का कोई हम नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कमेला संचालक ओर उलेमा जनहित में अपने फैसले पर दोबारा नजरसानी करके मसले का कोई ऐसा हल निकालेंगे, जिससे टकराव की नौबत न आए। यही शहर के हित में होगा।

Saturday, May 11, 2013

बोतल का समाजवाद, मुस्तैद व्यवस्था


सलीम अख्तर सिद्दीकी
घटना है मेरे शहर के कैंट इलाके की। बात उस समय की है, जब सेना ने कैंट को आम नागरिकों के लिए एक तरह से प्रतिबंधित कर दिया था। हर किलोमीटर पर चेकिंग प्वाइंट बना दिए गए थे, जिनसे निकलने में काफी वक्त जाया हो जाता था। बहरहाल, मैं कैंट में था और उसकी एक नीम अंधेरी सड़क पर मेरी मोटर साइकिल का पेट्रोल खत्म हो गया था। पेट्रोल पंप काफी दूर था। ऐसे में मेरे पास यही विकल्प था कि मैं कैंट में रहने वाले अपने मित्र को फोन करके पेट्रोल लाने के लिए कहूं। मित्र को फोन करने के बाद मैं नीम अंधेरी सड़क से निकलकर एक पान-सिगरेट के खोखे के पास आकर इंतजार करने लगा। खोखे के सामने एक बिल्कुल नई लग्जरी गाड़ी आकर रुकी। उस पर नंबर प्लेट नहीं लगी थी, लेकिन उसके आगे समाजवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली सरकार का झंडा जरूर लगा हुआ था। गाड़ी में बैठे महाशय ने कुछ इशारा किया और खोखे वाले ने उनको गाड़ी में ही सामान दिया। अब गाड़ी थोड़ा आगे जाकर रुक गई थी। गाड़ी के अंदर की लाइट जली। उसमें दो आदमी झक सफेद कलफ लगे कपड़ों में बैठे हुए थे। उनके जूते भी शायद सफेद रंग के होंगे, क्योंकि आजकल नेताओं और माफियाओं का यह डेÑस कोड बना हुआ है। दोनों के हाथों में बीयर की बोतलें थीं। एक आदमी की बोतल खत्म हुई, तो उसने उसे सड़क  पार उछाल दिया, जहां मिट्टी पड़ी हुई थी। धप की आवाज हुई और इतने में ही दो लड़के नीम अंधेरे से प्रकट हुए और बोतल पर झपट पड़े। दोनों में बोतल को हथियाने के लिए जद्दोजहद होने लगी। अंतत: बोतल लेने में वह लड़का कामयाब हो गया, जो दूसरे के मुकाबले थोड़ा ताकतवर था। उसने बोतल को अपनी उस छोटी बोरी के हवाले किया, जिसमें पहले से कई बोतलें भरी हुई लग रही थीं। दूसरे लड़के के पास भी ऐसी छोटी बोरी थी। थोड़ी देर बाद दूसरे आदमी ने अपनी बोतल खाली की। उस लड़के ने जो बोतल लेने में नाकाम रहा था, बड़ी आस से बोतल की ओर देखा। आदमी ने बोतल को इस तरह हवा में उछालने का अभिनय किया, जैसे उस लड़के पास ही उसे फेंकना चाहता हो, लेकिन ऐन वक्त पर उसने हाथ ढीला छोड़ दिया। बोतल पक्की सड़क के बीच में आकर गिरी और टूटकर ऐसे बिखर गई, जैसे समाजवाद के परखच्चे उड़ गए हों। लड़के के चेहरे पर मायूसी उभरी और गाड़ी से दोनों आदमियों का अट्टहास गूंजा। लड़के ने दोनों को भद्दी सी गाली दी और अंधेरे में गुम हो गया। हंसी की जगह अब उनके चेहरों पर गुस्सा उभर आया। उन्होंने तेजी के साथ गाड़ी आगे बढ़ाई। जहां यह सब हुआ, उससे चंद गज के फासले पर सेना के जवान बहुत मुस्तैदी से वाहनों की चेकिंग कर रहे थे।

Thursday, May 2, 2013

चुनाव नतीजे तय करेंगे मुशर्रफ का मुस्तकबिल

सलीम अख्तर सिद्दीकी
जब पाकिस्तान के पूर्व जनरल और राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के जहाज ने कराची एयरपोर्ट पर लैंड किया था, तो अधिकतर लोगों का कयास था कि शिकार खुद चलकर जाल में आ फंसा है। बाद के दिनों में जिस तरह से उनके सभी नामांकन पत्र खारिज किए गए और एक अदालत ने उनकी गिरफ्तारी के आदेश दिए और वह भागकर अपने फार्म हाउस में जा छिपे, उसके बाद तो यकीन कर लिया गया है कि शिकार वाकई जाल में फंस चुका है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? मुशर्रफ सेना के जनरल रहे हैं। उनके पास थिंक टैंक है। वह ऐसे ही दौड़कर पाकिस्तान नहीं आ गए हैं। आज जो कुछ उनके साथ हो रहा है, उसके बारे में उन्होंने कई-कई बार सोचा होगा। ऐसा तब भी होता, जब और कुछ समय बाद आते। ठीक चुनाव के पहले पाकिस्तान आना उनकी रणनीति का हिस्सा है। वह ऐसा नहीं करते तो उन्हें अभी अगले चुनाव तक और इंतजार करना पड़ता। इस वक्फे में पाकिस्तान किस करवट बैठता, कोई नहीं जानता। 
मुशर्रफ की वापसी में अमेरिका व सऊदी अरब की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। मीडिया रिर्पोटें बताती हैं कि मुशर्रफ की वापसी से पहले पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के खास नेताओं और नवाज शरीफ को सऊदी अरब बुलाया गया था और इच्छा जाहिर की थी कि मुशर्रफ के राजनीतिक धारा में लौटने में रोड़े न अटकाएं जाएं। अमेरिका और सऊदी अरब ऐसे देश हैं, जिनकी नाफरमानी कोई भी पाकिस्तान सरकार नहीं कर सकती। लेकिन वहां की न्यायपालिका ने वह कर दिया, जो सरकार भी नहीं करना चाहती थी। इसे उसकी प्रतिशोध की भावना भी कहा जा सकता है।  
मुशर्रफ सेना में लोकप्रिय रहे हैं। उन्हें सेना ने जरूर विश्वास दिलाया होगा कि यदि उनके साथ ज्यादती की जाती है, तो वह चुप नहीं बैठेगी। कई रिटायर्ड पाकिस्तानी जनरलों ने चेतावनी दी भी है कि अगर न्यायपालिका ने उनके पूर्व जनरल का का अपमान किया, तो इसकी प्रतिक्रिया हो सकती है। पूर्व सैन्य प्रमुख जनरल (रिटायर्ड) मिर्जा असलम बेग ने भी साफ कहा है कि ‘खास स्तर’ से नीचे जाने के बाद सेना मुशर्रफ के मामले में हस्तक्षेप कर सकती है। नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान सेना में कम से कम नौ सैन्य अधिकारी ऐसे हैं, जिन्हें मुशर्रफ ने ही प्रमोशन दिया था। ये कुछ संकेत ऐसे हैं, जो बताते हैं कि मुशर्रफ अकेले नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि पाकिस्तान में उनकी लोकप्रियता बिल्कुल भी नहीं है। वहां की प्र्रगतिशील अवाम में वह ऐसे शासक के रूप में जाने जाते हैं, जिसने फौजी तानाशाह होते हुए थी जनरल जिया-उल-हक के विपरीत धार्मिक कट्टरपन की जगह आधुनिक समाज को तरजीह दी। पाकिस्तान में प्रगतिशील लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है, जो धार्मिक उन्माद में जीना नहीं चाहते। भले ही मुशर्रफ के नामांकन रद्द कर दिए गए हों, लेकिन उनकी आल पाकिस्तान मुसलिम लीग चुनाव मैदान में है। उम्मीद की जा रही है कि उसके उम्मीदवारों को समर्थन मिलेगा। मुशर्रफ की जिस तरह से बेइज्जती की जा रही है, उसके बाद तो उनकी पार्टी को सहानुभूति वोट मिलने की उम्मीदें भी हैं।
मुशर्रफ की गिरफ्तारी से चुनाव पर तो असर पड़ेगा ही, चुनाव के बाद पैदा होने वाले हालात भी असरअंदाज होने की उम्मीद है। पाकिस्तान में त्रिशंकु असेंबली के कयास लगाए जा रहे हैं। यदि ऐसा हुआ तो पाकिस्तान की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी मुत्तेहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) किंग मेकर की भूमिका में हो जाएगी। मौजूदा असेंबली में एमक्यूएम के 25 सदस्य हैं। अबकी बार भी इससे कम सदस्य नहीं होंगे। इसकी वजह यह है कि कराची और हैदराबाद मुहाजिर बहुल क्षेत्र हैं और सबका वोट एकमुश्त एमक्यूएम को जाता है। इस सूरत में वह नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुसलिम लीग (एन) और आसिफ जरदारी की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी से सौदेबाजी करने की हैसियत में होगी। जनरल मुशर्रफ को मुहाजिर होने के नाते एमक्यूम का पूरा समर्थन हासिल है। वह उस पार्टी को समर्थन दे सकती है, जो जनरल मुशर्रफ से तमाम केस वापस लेने की गारंटी दे सके। खुद मुशर्रफ की पार्टी आल पाकिस्तान मुसलिम लीग को भी कुछ सीटें मिल जाती हैं तो  काम और ज्यादा आसान हो जाएगा। जब पाकिस्तान में ‘मिस्टर टेन परसेंट’ से मशहूर आसिफ अली जरदारी, जो खरबों रुपयों की लूट के आरोप में जेल बंद थे, वहां से सीधे राष्ट्रपति की कुर्सी पर पहुंच सकते हैं, तो जनरल मुशर्रफ के केस भी वापस हो सकते हैं। सत्ता के लिए दुश्मन से दोस्त और दोस्त से दुश्मन बनने का सिलसिला बहुत पुराना है।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि मुशर्रफ की गिरफ्तारी के बाद भी उनका खेल अभी खत्म नहीं हुआ है। असली खेल तो चुनाव के बाद शुरू होगा। दरअसल, चुनाव ही मुशर्रफ का तुरप का पत्ता है। इसमें बस एक खामी यह है कि वह पत्ता इक्का नहीं है। यानी यदि हंग असेंबली नहीं आई, तो उनकी तुरप पिट भी सकती है। ऐसा हुआ, तो उनका हश्र कुछ भी हो सकता है। शायद जुल्फिकार अली भुट्टो जैसा? लेकिन अमेरिका, सऊदी अरब और फौज उन्हें बचा भी सकती है। बहरहाल, मुशर्रफ के मुस्तकबिल का फैसला चुनाव के नतीजे तय करेंगे।