Saturday, January 19, 2013

वेदना के बीच

सलीम अख्तर सिद्दीकी
 शहर की तहसील का मंजर। कई दिन की गजब की सर्दी के बाद सूरज के दर्शन हुए हैं। तहसील का बाबू, जिसके जिम्मे आय प्रणाम-पत्र बनाने का काम है, ने धूप का आनंद लेने के लिए अपनी मेज कुर्सी बाहर लग वाली है। उसके चारों ओर भीड़ लगी है। सभी को इस तरह का आय प्रमाण-पत्र चाहिए, जिससे उसका बीपीएल कार्ड बन जाए। इसलिए भीड़ में हाशिए पर जीने वाले लोगों की संख्या अधिक है। उनमें भी महिलाओं की तादाद ज्यादा है। छुटभैये नेताओं की जमात भी है, जिनकी बाबू से सेटिंग है। सेटिंग कैसी है, यह बताने की जरूरत नहीं है। उसी भीड़ में एक महिला है, जिसकी उम्र यही कोई लगभग 55 साल है। उसने एक हाथ में कागजों का पुलिंदा थामा हुआ था, तो दूसरे हाथ में पॉलीथिन थी, जिसे देखकर लग रहा था कि वह अपने साथ खाना भी लेकर आई है। वह बड़ी आस से बाबू की ओर देख रही थी, जिसने थोड़ी देर पहले ही उसे काम हो जाने का आश्वासन दिया था। वह खड़ी-खड़ी थक गई, तो उबड़-खाबड़ उगी घास पर बैठ गई। थोड़ी देर बाद उसने पॉलीथिन से कागजों में लिपटा एक रोल-सा निकाला। उसने उसे खोला, तो उसमें चंद रोटियां थीं। उसने रोटी का निवाला मुंह में डाला ही था कि उसकी नजर एक कुत्ते पर पड़ी, जो उससे चंद कदम फासले पर उसे टुकर-टुकर देख रहा था। महिला ने रोटियां गिनीं, कुछ सोचा और एक रोटी कुत्ते के सामने डाल दी, जो कुत्ते से थोड़ा पहले ही गिर गई। महिला खाने में मशगूल हो गई। कुत्ता घिसट-घिसट कर रोटी की ओर बढ़ने लगा। उसके पिछले दोनों पैर खराब थे। शायद किसी दुर्घटना की वजह से ऐसा हुआ होगा। कुत्ता जैसे-जैसे रोटी के नजदीक पहुंच रहा था, उसकी आंखों में उम्मीद की चमक बढ़ती जा रही थी। वह रोटी तक पहुंचने वाला ही था कि एक दूसरा कुत्ता तेजी के साथ कहीं से प्रकट हुआ और रोटी को मुंह में दबाकर भाग गया। विकलांग कुत्ते की आंखों में वेदना उभरी और मायूसी से भागते हुए कुत्ते को देखता रहा। तभी बाबू ने महिला को नाम से पुकारा। वह जल्दी से रोटी पॉलीथिन में रखकर बाबू के पास पहुंची। बाबू ने चश्मा नाक पर थोड़ा आगे करते हुए उससे कहा, आज तहसीलदार मीटिंग में हैं, उनके साइन नहीं हो पाएंगे, तुम सोमवार में आना। महिला अवाक रह गई। तभी एक नेतानुमा आदमी वहां नमूदार हुआ। उसने बाबू के कान में कुछ कहा। बाबू ने हां में सिर हिलाया। नेता ने उसे कागजों का एक सैट थमाया, जिसके बीच में पांच सौ का नोट भी नुमायां हो रहा था। बाबू ने संतुष्ट भाव से एक बार फिर सिर हिलाया और बोला, दो घंटे में मिल जाएगा। महिला ने वह सब देखा। उसकी आंखों में भी उसी तरह की वेदना दिखाई दी, जैसी विकलांग कुत्ते की आंखों में उभरी थी।

Tuesday, January 15, 2013

जामा मस्जिद का 'मातोश्री' !

शीबा असलम फ़हमी
14/01/2013, सुबह ग्यारह बजे के करीब जामा मस्जिद के चूड़ीवालान इलाके में सात कारखानों में छापा मार कर पुलिस बल ने लगभग 33 बालश्रमिकों को बरामद किया और इन सभी 7 कारखानों को सील लगा कर बंद किया तथा कारखाना मालिकों को गिरफ्तार किया गया। इस कार्यवाही में पुलिस के साथ 'बचपन बचाओ आन्दोलन' नामक एन जी ओ के कार्यकर्ता भी शामिल बताये जाते हैं। पुलिस कार्यवाही के होते ही गिरफ्तार कर्खान्दारों ने इमाम अहमद बुखारी की शरण ली और पुलिस कार्यवाही से बचाने के लिए उनको  मौके पर ले आये। इमाम बुखारी ने बल श्रम विभाग की इस कार्यवाही के खिलाफ उसी वक़्त जमा मस्जिद के लाउड स्पीकर से पुलिस को ललकारा, और ऐलानिया इस कार्यवाही को मुसलमानों पर ज़ुल्म बताया, कानून को चुनौती दी की 'हमारे इलाके में घुस कर ये जालिमाना हरकत करने की जुर्रत कैसे की गई? " इसके बाद इमाम बुखारी उस ही वक़्त मौके पर गए और अपने हाथ से, सातों दुकानों पर, पुलिस द्वारा लगाई सील तोड़ी। इसके बाद कारखाना मालिकों को भी पुलिस थाने से ही छुड़वा लिया गया और 33 में से 12 बाल श्रमिक व्यस्क बताये गए लिहाज़ा 21 बल श्रमिकों को अभी भी पुलिस की हिफाज़त में ही रखा गया है।
इस घटना ने व्यवस्था की चरमराहट को कई जगह से ज़ाहिर किया है। सबसे पहले तो ये की पुरानी दिल्ली कारखानों और कारोबार का केंद्र है जहाँ खुलेआम बाल श्रमिक काम पर लगाये गए हैं, ऐसी स्तिथि में जहाँ खुद कारखाना मालिकों के अपने बच्चे भी बाल श्रम कर रहे हैं क्यूंकि ये बहोत ग़रीब वर्ग के कारखाने हैं जहाँ कारोबार में मार्जिन इतना नहीं की पूरी तनख्वाह पर श्रमिक को अनुबंधित किया जा सके, दूसरे ये की कानूनों में हुई तब्दीलियों से भी ये वर्ग वाकिफ नहीं क्यूँ की ये मालिक खुद भी अशिक्षित हैं। तीसरे ये, कि ये लगभग पुश्तैनी कारखाने हैं जहाँ दशकों से यही व्यवस्था चली आ रही है।
ऐसे में बाल श्रम विभाग किसी भी तरह का जागरूकता कार्यक्रम कभी क्यूँ नहीं चलाता? क्यूँ पुरानी दिल्ली की इन गलियों में जहाँ कारखानों की भरमार है एक भी पोस्टर, बैनर, होर्डिंग नज़र नहीं आता जो बाल श्रम के प्रति जागरूकता पैदा करे। हालत ये है की इन बच्चों से मजदूरी करवाने वाले मालिक इस भाव से इन्हें काम पर रखते है मानो वो इन पर अहसान कर रहे हों 'काम सिखा कर'. ये श्रमिक भी ऐसे ही कृतार्थ भाव से जो मिल जाता है वो रख लेते हैं। इन हालात में 'बचपन बचाओ आन्दोलन' जैसे एन जी ओ की देख रेख में सीधे छापा मार कार्यवाही की जगह विभाग खुद एक जागरूकता और वार्निंग से शुरुआत करता तो अच्छा रहता। क्यूंकि ज़मीनी हकीकत यही है की खुद कारखाना मालिक भी ग़रीब, अनपढ़ और ठेकेदारों के शोषण का शिकार है जो मार्किट मेकेनिज्म को न समझने के कारण कम मुनाफे पर अपना उत्पादन बिचौलियों को दे रहे हैं। ये भी की 'बचपन बचाओ आन्दोलन' अब लगभग कुख्यात हो चुका है ऐसे मामलों में पुलिस/आई ओ के साथ मिल कर सौदे बाज़ी करने के लिए। ऐसे में इतने महत्वपूर्ण कानून को एन जी ओ के ज़रिये नहीं बल्कि मंत्रालय द्वारा खुद के स्क्वाड या दस्ते बना कर लागू करना ज्यादा बेहतर होगा।
लेकिन सबसे चिंताजनक पहलू है इमाम अहमद बुखारी का ये कहना की 'हमारे इलाके में घुस कर ये कार्यवाही करने की हिम्मत कैसे हुई'. इमाम अहमद बुखारी अगर कारखाना मालिकों को राहत ही दिलाना चाहते थे तो कम से कम उन्हें इस बात का अहसास तो करवाने की ज़रुरत थी ही की यह एक अपराधिक ग़लती है, जो दोबारा नहीं होनी चाहिए, और  इसी शर्त पर उन्हें कानून से कोई राहत मिल सकती है। पुलिस द्वारा तकमील की गई कार्यवाही को इस तरह अपने अहंकार और अराजकता के आगे रौंदना सिर्फ ये बताता है की इस शख्स के लिए देश के कानून की कोई कद्र नहीं। मुस्लिम इलाकों को कानून के दायरे से बाहर रख कर ये शख्स गुंडा-गर्दी, रंगदारी आधारित अपनी सत्ता चलाना चाहता है। फिर इमाम का राज 'मातोश्री' के राज से किस तरह अलग है?
क्या पत्रकार बिरादरी पुलिस के आला अधिकारीयों से इमाम की इस हरकत पर सवाल करेगी? खुद हमने ये कोशिश की थी अभी अभी, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला सिवा इसके कि पुलिस क्या करे?

Sunday, January 13, 2013

मानवाधिकारियों का दोहरा चरित्र

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मानवाधिकार सभी इंसानों के लिए एक समान है। सेना, पुलिस और अन्य सुरक्षाकर्मी इससे अलग नहीं हैं। इसी सप्ताह पाकिस्तान की बदनाम सेना ने भारतीय सैनिकों के साथ, तो देश के अंदर नक्सलियों ने सीआरपीएफ जवानों के साथ बर्बरता की सीमा लांघी हैं। एक हिंसा में बर्बर विदेशी हैं, तो दूसरे में अपने ही लोग हैं, लेकिन दोनों की नृशंसता में फर्क नहीं है। दोनों ने मानवता को शर्मसार करने वाले दुष्कृत्य को अंजाम दिया है। पाक सैनिकों ने हमारे सैनिकों के सिर कलम कर दिए तो नक्सलियों ने जवानों के शव की अंतड़ी फाड़कर उसमें विस्फोटक भरकर अधिक से अधिक लोगों को मौत के घाट उतारने की योजना बनाई। दोनों ही मामले में बर्बरता की इंतहा है और मानवाधिकारों का खुला उलंघन है। पाकिस्तान हमारा दुश्मन देश है। वह ऐसा करे, तो समझ में आता है, लेकिन अपने ही देश के लोग अपने ही सुरक्षाकर्मियों के साथ बर्बरता करें, यह तो हदों से भी आगे है। यहां असल सवाल यह है कि दिल्ली में दुष्कर्म के खिलाफ सड़क पर मोमबत्ती लेकर उतरने वाला मध्यवर्ग हैरतअंगेज तौर पर खामोश है। इतना ही नहीं आतंकवादियों, उग्रवादियों और नक्सलियों या अन्य अपराधियों के खिलाफ सुरक्षाकर्मियों की कार्रवाई पर हायतौबा मचाने वाले मानवाधिकार के ठेकेदार भी इन दोनों बर्बरता पर मुर्दा चुप्पी साधे हुए हैं। राजनीतिक दल इस मामले में राजनीति तलाश रहे हैं तो उसके निम्नतम स्तर से हम सब वाकिफ हैं, लेकिन आम आदमी में अगर इन घटनाओं को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं है तो यह चिंता की बात है। देश लगभग एक महीने से दिल्ली में हुए बर्बर दुष्कर्म कांड से दहला हुआ था। एक बड़ा वर्ग लगातार कैंडिल मार्च निकाल रहा था और आंसू बहा रहा था, लेकिन इन दोनों घटनाओं पर किसी के सिर पर जूं तक नहीं रेंगी। सवाल है कि जिस वर्ग ने दुष्कर्म मामले का जबरदस्त विरोध किया, क्या उसके लिए सुरक्षाकर्मियों की हौलनाक मौत का कोई मतलब नहीं है? लेकिन जब सुरक्षाकर्मी द्वारा किसी सुरक्षा कार्रवाई में गुनहगार मारे जाते हैं, तो देश के तथाकथित मानवाधिकार संगठन सड़कों पर होते हैं, लेकिन दोनों ही मामलों में उनकी चुप्पी खलने वाली है और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। पता नहीं यह क्यों मान लिया गया है कि सुरक्षाकमियों द्वारा की गई कार्रवाई तो मानवाधिकारों का हनन है, लेकिन उनके साथ हुई बर्बरता मानवाधिकारों का हनन नहीं है। मानवाधिकार संगठनों का यह रवैया देखकर संदेह पैदा होता है क्या ये अपने ही आवाम के लोग हैं, क्या इनके दिलों में अपने आवाम के लिए कोई जगह है? या ये फिर किन्हीं के लिए या किसी खास मकसद से मानवाधिकारों को किसी सरकार के खिलाफ या किसी व्यवस्था के खिलाफ या किसी सुरक्षा बल के खिलाफ ढाल के रूप में इस्तेमाल करते हैं और किन्हीं का हित साधते हैं। पाक सैनिकों ने और नक्सलियों ने जो घिनौनी हरकत की है, वह अंतरराष्ट्रीय कानून और भारतीय संविधान का सरासर उल्लंघन है। हर तरह की बर्बरता किसी भी सभ्य समाज के लिए घोर निंदनीय है। इसका हर स्तर पर विरोध होना चाहिए और इस तरह की कठोर व्यवस्था बननी चाहिए कि फिर कोई ऐसा कृत्य करते हुए सौ बार सोचे। अंत में इतना ही कहा जा सकता है मानवाधिकार के पहरेदारों के लिए यह समय बेहद सोचनीय है।

Saturday, January 5, 2013

पहचान पर शक


सलीम अख्तर सिद्दीकी
वह भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहा डे-नाइट क्रिकेट मैच था। पाकिस्तान बैटिंग कर रहा था। मैच बेहद रोमांचक हो चला था। आखिरी ओवर चल रहा था और पाकिस्तान को जीतने के लिए अंतिम ओवर में 16 रन बनाने थे। सांसें अटकी हुई थीं। मैदान पर तनाव पसरा था, लेकिन उससे ज्यादा तनाव मैच देखने वालों के चेहरे पर नजर आ रहा था। ऐसा लगता था, जैसे पूरा शहर ही मैच देखने में व्यस्त हो गया था। शहर में ट्रैफिक कम हो गया था। पान और चाय वालों की दुकानों में लगे टीवी सैट के सामने लोगों की भीड़ जमा थी। घरों के ओर जाते लोग भीड़ लगी देखकर उसका हिस्सा बनते जा रहे थे। वाकया ऐसी ही एक पान की दुकान का है। अंतिम ओवर की पहली गेंद खाली गई, तो लोगों ने गहरी सांस ली। दूसरी गेंद पर चौका लगा, तो भीड़ में सन्नाटा पसर गया। अब 4 गेंदों पर 12 रन बनाने थे। तीसरी गेंद पर खिलाड़ियों ने दो रन बनाए। लक्ष्य लक्ष्य तीन गेंदों पर 10 रन का रह गया था। चौथी गेंद पर खिलाड़ी ने तगड़ा शॉट लगाया। गेंद आसमान में छूती हुई दर्शकों के बीच जा गिरी। सन्नाटा और गहरा हो गया। उस सन्नाटे को तोड़ती हुई एक आवाज उभरी, ‘ओ बेटे क्या छक्का मारा है।’ फौरन ही कई चेहरे आवाज की दिशा में घूम गए और उसे घूरकर देखने लगे। वह कोई 12-13 का एक लड़का था, जिसकी वह आवाज थी। उसके कपड़ों पर लगे काले तेल के धब्बे बता रहे थे कि वह आॅटोमोबाइल का काम सीखने वाला बच्चा था। उसके हाथ में खाने का टिफिन था। लड़के ने जब कुछ लोगों को अपनी ओर घूरते देखा तो वह सहम गया। शायद उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने एक बढ़िया शॉट की तारीफ करके क्या गलती कर दी। अभी वह सोच ही रहा था कि एक लगभग 25-26 साल के लड़के ने उससे कड़ककर पूछा, ‘क्या नाम है बे तेरा?’ लड़के ने सहम कर जवाब दिया, ‘पप्पू’। नाम पूछने वाले के चेहरे पर सवालिया निशान उभरा। उसने फिर कहा, ‘यह तो तेरा प्यार का नाम होगा, असली नाम बता?’ लड़के ने जवाब दिया, ‘सुरेश’। सवालकर्ता को उसकी पहचान पर फिर भी शक रहा। उसने फिर पूछा, ‘कहां रहता है तू?’ लड़के ने मोहल्ले का नाम बताया। सवाल करने वाले को अभी भी उसकी पहचान पर शक हो रहा था। लड़का समझ गया था कि उससे इतने सवाल क्यों किए जा रहे हैं? अब उसने प्रति प्रश्न किया, ‘आप इससे क्या लेते हो, मेरा नाम क्या है और कहां रहता हूं। मैं समझ रहा हूं कि तुम्हारा मकसद क्या है? पाकिस्तानी खिलाड़ियों की तारीफ करने वालों को आप वही क्यों समझते हैं, जो मुझे समझ रहे हैं?’ सवालकर्ता ने खामोश होकर अपना ध्यान टीवी पर लगा दिया था। पाकिस्तान लक्ष्य पूरा करने में नाकामयाब रहा था। सड़कों पर फिर से ट्रैफिक बढ़ गया था।