Sunday, January 13, 2013

मानवाधिकारियों का दोहरा चरित्र

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मानवाधिकार सभी इंसानों के लिए एक समान है। सेना, पुलिस और अन्य सुरक्षाकर्मी इससे अलग नहीं हैं। इसी सप्ताह पाकिस्तान की बदनाम सेना ने भारतीय सैनिकों के साथ, तो देश के अंदर नक्सलियों ने सीआरपीएफ जवानों के साथ बर्बरता की सीमा लांघी हैं। एक हिंसा में बर्बर विदेशी हैं, तो दूसरे में अपने ही लोग हैं, लेकिन दोनों की नृशंसता में फर्क नहीं है। दोनों ने मानवता को शर्मसार करने वाले दुष्कृत्य को अंजाम दिया है। पाक सैनिकों ने हमारे सैनिकों के सिर कलम कर दिए तो नक्सलियों ने जवानों के शव की अंतड़ी फाड़कर उसमें विस्फोटक भरकर अधिक से अधिक लोगों को मौत के घाट उतारने की योजना बनाई। दोनों ही मामले में बर्बरता की इंतहा है और मानवाधिकारों का खुला उलंघन है। पाकिस्तान हमारा दुश्मन देश है। वह ऐसा करे, तो समझ में आता है, लेकिन अपने ही देश के लोग अपने ही सुरक्षाकर्मियों के साथ बर्बरता करें, यह तो हदों से भी आगे है। यहां असल सवाल यह है कि दिल्ली में दुष्कर्म के खिलाफ सड़क पर मोमबत्ती लेकर उतरने वाला मध्यवर्ग हैरतअंगेज तौर पर खामोश है। इतना ही नहीं आतंकवादियों, उग्रवादियों और नक्सलियों या अन्य अपराधियों के खिलाफ सुरक्षाकर्मियों की कार्रवाई पर हायतौबा मचाने वाले मानवाधिकार के ठेकेदार भी इन दोनों बर्बरता पर मुर्दा चुप्पी साधे हुए हैं। राजनीतिक दल इस मामले में राजनीति तलाश रहे हैं तो उसके निम्नतम स्तर से हम सब वाकिफ हैं, लेकिन आम आदमी में अगर इन घटनाओं को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं है तो यह चिंता की बात है। देश लगभग एक महीने से दिल्ली में हुए बर्बर दुष्कर्म कांड से दहला हुआ था। एक बड़ा वर्ग लगातार कैंडिल मार्च निकाल रहा था और आंसू बहा रहा था, लेकिन इन दोनों घटनाओं पर किसी के सिर पर जूं तक नहीं रेंगी। सवाल है कि जिस वर्ग ने दुष्कर्म मामले का जबरदस्त विरोध किया, क्या उसके लिए सुरक्षाकर्मियों की हौलनाक मौत का कोई मतलब नहीं है? लेकिन जब सुरक्षाकर्मी द्वारा किसी सुरक्षा कार्रवाई में गुनहगार मारे जाते हैं, तो देश के तथाकथित मानवाधिकार संगठन सड़कों पर होते हैं, लेकिन दोनों ही मामलों में उनकी चुप्पी खलने वाली है और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। पता नहीं यह क्यों मान लिया गया है कि सुरक्षाकमियों द्वारा की गई कार्रवाई तो मानवाधिकारों का हनन है, लेकिन उनके साथ हुई बर्बरता मानवाधिकारों का हनन नहीं है। मानवाधिकार संगठनों का यह रवैया देखकर संदेह पैदा होता है क्या ये अपने ही आवाम के लोग हैं, क्या इनके दिलों में अपने आवाम के लिए कोई जगह है? या ये फिर किन्हीं के लिए या किसी खास मकसद से मानवाधिकारों को किसी सरकार के खिलाफ या किसी व्यवस्था के खिलाफ या किसी सुरक्षा बल के खिलाफ ढाल के रूप में इस्तेमाल करते हैं और किन्हीं का हित साधते हैं। पाक सैनिकों ने और नक्सलियों ने जो घिनौनी हरकत की है, वह अंतरराष्ट्रीय कानून और भारतीय संविधान का सरासर उल्लंघन है। हर तरह की बर्बरता किसी भी सभ्य समाज के लिए घोर निंदनीय है। इसका हर स्तर पर विरोध होना चाहिए और इस तरह की कठोर व्यवस्था बननी चाहिए कि फिर कोई ऐसा कृत्य करते हुए सौ बार सोचे। अंत में इतना ही कहा जा सकता है मानवाधिकार के पहरेदारों के लिए यह समय बेहद सोचनीय है।

3 comments:

  1. नक्सल मारे जान से, फाड़ फ़ोर्स का पेट।
    करवाता बम प्लांट फिर, डाक्टर सिले समेट ।
    डाक्टर सिले समेट, कहाँ मानव-अधिकारी ।
    हिमायती हैं कहाँ, कहाँ करते मक्कारी ।
    चुप क्यूँ हो पापियों, कहाँ चरती है अक्कल ?
    शत्रु देश नापाक, कहाँ का है तू नक्सल ??

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  2. बहुत सही बात कही है आपने . सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
    बहुत सही बात कही है आपने

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    मकर संक्रान्ति के अवसर पर
    उत्तरायणी की बहुत-बहुत बधाई!

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