सलीम अख्तर सिद्दीकी
शहर से 20 किलोमीटर दूर सड़क किनारे बसे एक गांव में रिपोर्टिंग के लिए जाना था। नहर किनारे बसे उस गांव में मेरा लगभग 15 साल बाद जाने का इत्तेफाक हुआ था। नवंबर की शुरुआत में मौसम कुछ ठंडा हो गया था। यह सोचकर कि उस गांव तक जाने वाली सड़क के दोनों और घने पेड़ों का साया रहता है, इसलिए वहां ठंड कुछ ज्यादा होगी, मैंने स्वेटर पहन लिया था। शहर की सीमा खत्म होने के बाद गांव जाने वाले रास्ते पर मोटर साइकिल पहुंची, तो एकबारगी लगा कि यह वह रास्ता नहीं है। सड़क पहले से दोगुनी चौड़ी हो गई थी। पेड़ वहां से नदारद थे। सड़क के दोनों तरफ नई-नई कालोनियां विकसित हो रही थीं। कुछ एजुकेशन इंस्टीट्यूट की इमारतें नजर आ रही थीं। सुबह के नौ बजे थे। गर्मी का एहसास हुआ और स्वेटर भारी लगने लगा था। प्यास भी उभर आई थी। पानी की तलाश में नजरें इधर-उधर दौड़ार्इं, लेकिन कहीं किसी नल आदि के दर्शन नहीं हुए, जिससे पानी पीया जा सकता। थोड़ा चलने पर एक गांव आया, तो सोचा यहां जरूर पानी का नल होगा। लेकिन यहां भी मायूसी ही हाथ आई। कुछ दुकानों पर कोल्ड ड्रिंक कंपनियों के बड़े-बड़े फ्रिजों में पानी की बोतलें सजी हुई थीं, लेकिन गांव में बिजली न होने की वजह से ठंडी नहीं थीं। तभी ख्याल आया कि जिस गांव जा रहा हूं, वहां नहर के किनारे नल है, जो तपती दोपहरी में भी ठंडा पानी देता है। वहीं पानी पीया जाना चाहिए। मैंने मोटर साइकिल आगे बढ़ा दी। मैं नहर किनारे लगे नल के बारे में सोचने लगा। शायद ही कोई मुसाफिर होगा, जो वहां रुककर पानी न पीता हो। पानी पीकर मुंह पर मारे गए पानी के छींटे सफर की थकान दूर कर देते हैं। नहर पर पहुंचते ही बस का कोई मुसाफिर ड्राइवर से बस रोकर पानी पीने की दरयाफ्त करता, तो उसकी देखा-देखी पूरी बस ही पानी पीने उतर जाती थी। यही सब सोचते-सोचते मैं नहर तक आ गया था। यहां का नजारा भी पहले से जुदा था। अब चौैड़ा और बुलंद पुल बन गया था। उसकी बगल में पुराना पुल वीरान पड़ा था। उस पर जगह-जगह घास उग आई थी। पुल से ठीक पहले लगा नल झाड़-झंखाड़ के बीच जंगआलूदा होकर बेजान खड़ा था। मैंने नए पुल के आसपास नल की तलाश में नजरें घूमार्इं। एक खोखे के बराबर में, जिसमें कोल्ड ड्रिक की बोतलों से भरा एक फ्रिज भी रखा था, की जड़ में एक नल दिखाई पड़ा, लेकिन हालात बता रहे थे कि उससे कई दिन से पानी नहीं खींचा गया था। मैंने किसी उम्मीद में उसकी हत्थी को ऊपर-नीचे किया, लेकिन पानी नहीं आया। मैंने हताशा में खोखे वाले से पूछा, ‘भाई नल क्या खराब है?’ उसने बेरुखी से जवाब दिया, ‘हां, खराब है।’ ‘पानी की बोतल है क्या?’ ‘हां, है। 20 रुपये की है।’ मैंने प्रतिवाद किया, ‘15 रुपये की जगह 20 रुपये की क्यों भाई!’ ‘इसलिए की नल खराब है। जब नल ‘कुछ दिनों’ के लिए सही होता है, तो कोई फ्री में लेने को भी तैयार नहीं होता।’ इतना कहकर उसने एक कुटिल मुस्कुराहट के साथ मेरे हाथ में लोकल ब्रांड की एक पानी की बोतल थमा दी।
उसका एफ़ डी आय है, बना आय का स्रोत्र ।
ReplyDeleteसुखा दिया जल-स्रोत्र को, रुपियों का हो होत्र ।।
रुपियों का हो होत्र, गोत्र से शॉप विदेशी ।
पैदल बनता ऊँट , चले टेढा वह वेशी ।
नदी नहर नल कूप, मिटाता मानव मुस्का ।
कुदरत जल्द वजूद, मिटा नहिं देवे उसका ।।