Sunday, November 27, 2011

मुफ्तखोर हैं सब

शहर के एक खाने के होटल के बाहर लाइन लगाकर बैठे लगभग दस- पंद्रह लोग होटल में आने वाले हर आदमी को उम्मीद भरी निगाह से देख रहे हैं। चेहरे-मोहरे से भिखारी लग रहे हैं। बदन के कपड़े मैलेकु चैले हैं। सर्दी से लड़ने के लिए कुछ के पास जगह-जगह से फटे हुए कंबल का सहारा है, तो कुछ महज एक ङीनी सी चादर से सर्दी से लड़ रहे हैं। जब कोई इन्हें पहली बार देखता है, तो समझ नहीं पाता कि ये लाइन लगाकर क्यों बैठे हैं। दरअसल, इन फटेहाल लोगों को किसी ऐसे सखी शख्स का इंतजार है, जो उन्हें खाना खिला दे। इस होटल पर इस तरह का नजारा रोज ही दिखाई देता है।

इंतजार के लम्हे लंबे होते देख उनमें बैचेनी बढ़ रही है। उम्मीद खत्म होती जा रही है। गहराती सर्दियों की रात होने की वजह से सड़क भी सुनसान होने लगी है। घनी होती कोहरे की चादर के बीच उनमें से कुछ लोग और ज्यादा सिकुड़ गए हैं। एक शख्स अपने बच्चे के साथ होटल से खाना पैक करवा रहा है। बच्चा उन लोगों को बैठा देखकर अपने पिता से सवाल करता है, ‘पापा ये लोग यहां इस तरह क्यों बैठे हैं!’ उसके पिता ने कहा, ‘ये लोग इस इंतजार में हैं कि कोई आए और इन्हें खाना खिला दे, मुफ्तखोर हैं ये सब।’ थोड़े वक्फे के बाद चार-पांच युवाओं की टोली होटल में खाना खाने पहुंची है। हावभाव से लग रहा है कि वे नशे में हैं। हंसी-ठिठोली के बीच खाना खाते समय उनके बीच बाहर बैठे लोगों का जिक्र चल पड़ा है। ‘यार, इस देश में गुरबत बहुत है, देखो लोग बाहर कैसे खाने के लिए लाइन लगाए बैठे हैं।’ दूसरा उसकी बात काटते हुए कहता है, ‘सब हरामखोर हैं, नशेबाज। पैसा नशे में उड़ा देते हैं, चाहते हैं कि कोई खाना और खिला दे।’ ‘सच कह रहे हो! और अगर एक बार इन्हें खाना खिला दो, तो बस पीछे ही पड़ जाएंगे, अगले दिन फिर सामने आकर खड़े हो जाते हैं। जैसे दूसरों के पास इन पर खर्च करने के लिए ही पैसा है।’ बिल आ गया है। बिल भरकर वेटर को 50 रुपये टिप देना वे नहीं भूले।

Friday, November 25, 2011

यही फिजूलखर्ची पसंद नहीं


सलीम अख्तर सिद्दीकी

रात के ग्यारह बजे थे। शहर के व्यस्ततम चौराहे की एक पान की दुकान गुलजार थी। चमकते चेहरे लग्जरी गाड़ियों से आ रहे थे। पनवाड़ी सभी को उनकी पसंद के मुताबिक पान लगा रहा था। तरह-तरह के पान की फरमाइश हो रही थी। पान पर भी लोग इतने पैसे खर्च कर सकते थे, यही सोचकर हैरानी हो रही थी।

इन्हीं लोगों के बीच कुछ बच्चे बड़ी उम्मीद से पान खाने के शौकीनों के सामने हाथ फैलाते हुए दूर तक जाते थे। कई उनको ङिाड़कते हुए अपनी गाड़ी में जा बैठते थे, तो कई एक या दो रुपये उनके हाथ पर रख देते थे। इसी समय एक शानदार गाड़ी पनवाड़ी की दुकान पर आकर रुकी। उसमें से एक शानदार शख्सियत का मालिक उतरा। पनवाड़ी उसको पहचानता था। उसने दूर से ही आने वाले को जोरदार सलाम किया। उस शख्स को पनवाड़ी को कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी।

शायद वह दुकान का नियमित ग्राहक था। पान वाले ने उसके लिए पान तैयार करके उनको पैक किया। कुछ सिगरेट के पैकेट दिए। आने वाला शख्स अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ा, तो एक बूढ़ी औरत ने उसकी तरफ हाथ बढ़ा दिया। उस शख्स ने हिचकिचाहट के साथ औरत की ओर देखते हुए अपना हाथ जेब की तरफ बढ़ाया और दस का नोट उस औरत के हाथ पर रख दिया।

वह शख्स ड्राइविंग सीट पर बैठा, तो पिछली सीट पर बैठी एक महिला की आवाज उभरी, जो शायद उस शख्स की पत्‍नी थी, ‘बस मुङो तुम्हारी यही फिजूलखर्ची पसंद नहीं है। क्या जरूरत थी उस औरत को दस रुपये देने की?’ पति ने प्रतिवाद किया, ‘अरे, मेरे पास खुल्ले पैसे नहीं थे तो क्या करता?’ मुझसे ले लेते, लेकिन आपको तो फिजूलखर्ची करने की आदत ही हो गई है। इन मांगने वालों को कितना भी दे दोगे, इनका पेट नहीं भरेगा। चलो अब मूड खराब हो गया है, कहीं ले जाकर आइसक्रीम खिलवा दो।

गाड़ी एक झटके से आगे बढ़ गई।

Friday, November 4, 2011

बिखराव के रास्ते पर अन्ना टीम

सलीम अख्तर सिद्दीकी
कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि अगस्त में अन्ना आंदोलन से जो उबाल जनता में आया था, नवंबर आते-आते वह इस तरह बैठ जाएगा, जैसे दूध में आया उबाल बैठ जाता है। अन्ना आंदोलन जितनी तेजी के साथ ऊंचाइयों पर गया था, उतनी तेजी के साथ नीचे आता जा रहा है। अन्ना टीम के बिखराव का दौर शुरू हो गया है। बिखराव का ही नतीजा है कि आंदोलन की धार कुंद पड़ने लगी है। यह इस बात से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश का दौरा कर रही अन्ना टीम के कार्यक्रमों में भीड़ नहीं जुट रही है। जब कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर शुरूआत की जाती है, तो ऐसा ही होता है। कई विचारधाराओं के लोग मिले और जल्दबाजी में एक ऐसी मुहिम छेड़ दी, जिसके लिए जबरदस्त ‘होमवर्क’ की जरूरत थी।

भ्रष्टाचार से उकताई जनता को अन्ना हजारे का चेहरा मिला और रामलीला मैदान में चले आमरण अनशन के दौरान मिले व्यापक जनसमर्थन से अन्ना टीम एक तरह से घमंड का शिकार होकर संसद से ऊपर होने का भ्रम पाल बैठी। यही भ्रम उसके बिखराव का कारण बना और उसके अंत की शुरूआत हो गई।

टीम के विचित्र बयानों ने बिखराव को तेज किया। टीम में तब वैचारिक मतभेद भी उभरकर आए, जब प्रशांत भूषण के कश्मीर संबंधी बयान से टीम ने अपने आपको अलग कर लिया। इससे पता चला कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भले ही टीम अन्ना एकजुट नजर आती हो, लेकिन राष्ट्रीय मुद्दों पर एक नहीं है। प्रशांत भूषण के बयान से अपने आप को अलग करने का एक नुकसान सबसे ज्यादा यह हुआ कि उस पर आरएसएस का समर्थन लेने के आरोप की एक तरह से पुष्टि हो गई। क्योंकि कश्मीर मुद्दे पर संघ परिवार की राय वही है, जो अन्ना टीम की तरफ से आई है।

सवाल यह है कि टीम का ‘गठन’ करते समय ‘विचारधारा की समानता’ का ख्याल क्यों नहीं रखा गया? प्रशांत भूषण के बयान से अलग करने की एक वजह दक्षिणपंथी ताकतों का समर्थन खोने का डर भी अन्ना टीम को रहा होगा।

सबसे ज्यादा ‘घातक’ हिसार उपचुनाव में कांग्रेस को हराने की अपील रही। इससे टीम के उन नारों की धज्जियां उड़ गईं, जिनमें कहा जाता था कि ‘न हाथ, न हाथी, हम हैं अन्ना के साथी’ और ‘न साइकिल, न कमल, हम करेंगे अन्ना पर अमल’।

ऐसे नारों को जल्द ही भुलाकर इस मिथक को तोड़ दिया गया कि अन्ना आंदोलन गैरराजनीतिक है। हिसार में अन्ना टीम की अपील से यह भी पता नहीं चला कि कांग्रेस नहीं, तो फिर कौन? अधिकतर लोगों ने इसका मतलब यही निकाला कि ‘हाथ नहीं, कमल’ के साथ जाना है। लोग यह भी जानते हैं कि कमल पर भी तो ‘कीचड़’ लगी है। बात कमल की भी नहीं है, कौनसा ऐसा ‘निशान’ है, जो पाक-साफ है? आंदोलन के राजनीतिक होने से सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि जो लोग भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना के साथ आए थे, वे अलग होते जा रहे हैं।

मतभेदों, बयानबाजियों और आर्थिक विवादों में घिरने से अन्ना टीम की साख पर सवालिया निशान लगे हैं। टीम अन्ना के दो सदस्यों राजेंद्र सिंह और पीवी राजगोपाल ने अन्ना की कोर कमेटी से अलग होकर यह बता दिया कि वे आंदोलन के राजनीतिक होने के खिलाफ हैं। किरण बेदी का छूट के टिकट पर हवाई यात्राएं करना और आयोजकों से टिकट का पूरा पैसा वसूलना भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है? इस पर उनका मासूमियत भरा यह जवाब भी गला नहीं उतरता कि वे पूरा किराया वसूल करके गरीबों के लिए चल रहे एनजीओ में लगाती थीं। यह ऐसा ही हुआ, जैसे लुटेरा यह कहे कि मैं तो अमीरों को लूटकर गरीबों की मदद करता हूं। अरविंद केजरीवाल पर आरोप लगे हैं कि उन्होंने आंदोलन के लिए मिले चंदे का पैसा अपनी निजी संस्था के खाते में जमा किया है। कुमार विश्वास का का ‘विश्वास’ भी कठघरे में आ गया है।

सवाल यही है कि जो लोग भ्रष्टाचार खत्म करने का लक्ष्य मैदान में उतरें और उन्हीं का अतीत और वर्तमान काला नजर आने लगे तो जनता की उम्मीदें क्यों नहीं टूटेगीं? दरअसल, अन्ना ‘दूसरे जेपी’ बनने का सपना पाल बैठे थे, तो उनके सिपहासालार अन्ना के कंधों पर बैठकर 1977 दोहराने की कल्पना करने लगे थे। लेकिन अन्ना टीम कुछ ज्यादा ही जल्दी में थी। इसीलिए हिसार में वह ऐतिहासिक गलती कर बैठी। वह यह भी भूल गई कि 1977 और 2011 में बहुत अंतर आ गया है।

1977 का आंदोलन भ्रष्टाचार को लेकर नहीं था। वह इमरजैंसी में हुई ज्यादतियों के खिलाफ ऐसा जनआंदोलन था, अन्ना आंदोलन जिसके आसपास भी नहीं ठहरता है। जेपी आंदोलन का ‘हिडन एजेंडा’ भी नहीं था यानी पूर्ण रूप से राजनीतिक था। जेपी आंदोलन में भी एकदम विपरीत विचारधाराओं के लोग थे, जिनका कम से कम आंदोलन के दौरान टकराव नहीं हुआ था। लक्ष्य पूरा हो जाने के बाद जरूर विचारधाराओं का टकराव हुआ, जिसकी परिणति जनता पार्टी के टूटने के रूप में हुई। अन्ना टीम लक्ष्य प्राप्त करने से पहले टूटने के कगार पर है। भले ही अन्ना टीम की कोर कमेटी को भंग न करने का फैसला लेकर एकजुटता दिखाने की कोशिश की गई हो, लेकिन आंदोलन की दरकती दीवारों को गिरने से रोकना मुश्किल नजर आ रहा है।
(1 नवंबर को जनवाणी में प्रकाशित)