Saturday, August 28, 2010

मुसलमान ही सुलझाएं अयोध्या

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी

अयोध्या विवाद के संभावित फैसले पर मुझे झटका तब लगा, जब मेरे एक दोस्त की पन्द्रह साल की बेटी का एक एसएमएस मिला। एसएमएस में लिखा था- 'बाबरी मस्जिद का फैसला आने वाला है। दुआ कीजिए कि फैसला मुसलमानों के हक में हो। इस एसएमएस को अपने मुसलिम भाईयों को फॉरवर्ड करें।' इस बात का मतलब यह है कि अयोध्या फैसले की सुरसराहट उन बच्चों में भी हो गयी है, जिन्होंने 1992 के बाद दुनिया देखी है।
सन 1949 में जब एक साजिश के तहत अयोध्या बाबरी मसजिद में राम लला की मूर्तियां रख दी गयीं थीं, तब से लेकर 1 फरवरी 1986 तक इसके मालिकाना हक का मुकदमा फैजाबाद की अदालत में चल रहा था। कुछ इक्का-दुक्का लोगों को ही इस बारे में पता था कि इस तरह का कोई मुकदमा भी चल रहा है। लेकिन जब राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में अचानक फैजाबाद की अदालत ने 1 फरवरी 1986 को सन 1949 से ताले में बंद विवादित स्थल का ताला खोलकर पूजा पाठ करने की इजाजत दी तो पूरे देश में साम्प्रदायिक तनाव फैल गया था। तब पूरे देश का पता चला था कि ऐसा भी कोई मामला है। एक अदालती विवाद को संघ परिवार ने इतनी हवा दी थी कि पूरा देश साम्प्रदायिकता की आग में झुलस गया था। इस विवाद के चलते कितने लोग मारे गए। कितनी सम्पत्ति को जला डाला गया, इसका लेखा-जोखा शायद ही किसी के पास हो। इस नुकसान के अलावा जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ था, वह देश का धर्मनिरपेक्ष ढांचे का चरमरा जाना था। इस विवाद की आग में केवल संघ परिवार ने ही रोटियां नहीं सेंकी थीं, बल्कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सपा जैसे कुछ क्षेत्रीय दलों ने भी इस विवाद को सत्ता पाने की सीढ़ी बनाया था। इस विवाद के चलते भाजपा देश पर 6 साल शासन कर गयी तो मुलायम सिंह यादव तथा लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं ने भी सत्ता का मजा लूटा। इस विवाद ने देश की राजनीति की दशा और दिशा बदल दी थी लेकिन विवाद आज भी ज्यों का त्यों है।
बाबरी मसजिद विध्वंस को बीस साल होने को आए हैं, नई पीढ़ी को नहीं पता था कि फैजाबाद की अदालत में बाबरी मसजिद बनाम राममंदिर के मालिकाना हक का भी कोई मुकदमा चल रहा है। पिछले पखवाड़े से अखबारों में अयोध्या के सम्भावित फैसले की खबरें छपने लगी हैं, तब से हमारे बच्चे पूछने लगे हैं कि यह अयोध्या विवाद क्या है? क्या फैसला आने वाला है? हम उनको सारी बातें उसी तरह बताते हैं, जिस तरह हमारे बुजुर्ग विभाजन की त्रासदी सुनाया करते थे। जिन लोगों ने विभाजन की त्रासदी झेली है, वे उस वक्त कहा करते थे कि ऐसा कभी न हो, जैसा अब हुआ है। अस्सी और नब्बे के दशक में हम यह कहते थे कि अल्लाह कभी ऐसी त्रासदी देश में फिर कभी न हो। अब, जब अयोध्या विवाद का फैसला आने वाला है तो अस्सी और नब्बे के दशक की त्रासदी की दुखद यादें ताजा हो रही हैं। फैसला किसके हक में आएगा यह अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन फैसला जिसके भी खिलाफ आएगा, क्या वह उसे सहजता से स्वीकार कर लेगा ? दुर्भाग्य से इस सवाल का जवाब नहीं में है। संघ परिवार तो पहले ही यह ऐलान कर चुका है कि उसे किसी भी हालत में बाबरी मसजिद के हक में फैसला स्वीकार्य नहीं होगा। हालांकि मुसलिम पक्ष के कुछ नेता यह कहते रहे हैं कि उन्हें अदालत का कोई भी फैसला मंजूर होगा, लेकिन मुसलिम वोटों के सौदागर क्या कुछ कर दें, कुछ नहीं कहा जा सकता है। अब तो वैसे भी मुसलिम वोटों के लिए गला काट प्रतिस्पर्धा हो रही है। इस बात से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले दिन कितने दुरुह हो सकते हैं।
कुछ मुसलिम नेता अनौपचारिक बातचीत में यह कहते रहे हैं कि बाबरी मसजिद पर अपना दावा छोड़ दें। लेकिन दिक्क्त यह है कि ये नेता सार्वजनिक रुप से इसके उलट बात करते हैं। इसका कारण यह है कि उन्हें अपनी सियासत डूबती नजर आने लगती है। कुछ लोगों का यह मानना है कि बाबरी मसजिद से दावा छोड़ने का मतलब संघ परिवार का हौसला बढ़ाने वाला काम होगा। उनकी राय में संघ परिवार मथुरा और काशी में वितंडा खड़ा कर देगा। उनका मानना है कि अयोध्या पर डटकर खड़ा रहने से संघ परिवार पर अंकुश लगेगा। ऐसा सोचने वालों की बात सही हो सकती है। लेकिन अब तो इतनी हद हो गयी है कि इस विवाद का कोई तो हल निकालना ही पड़ेगा। क्या देश की जनता हर दस-बीस साल बाद इस विवाद के भय के साए में रहने को अभिशप्त रहे ? सच तो यह है कि इस विवाद को सिर्फ और सिर्फ मुसलमान ही हल कर सकते हैं। इस विवाद के हल के लिए मुसलिमों का वह नेतृत्व सामने आए, जो वोटों की राजनीति से दूर हो और उदार हो। मेरा मानना है कि यदि फैसला बाबरी मसजिद के विपक्ष में आए तो मुसलिम नेतृत्व उसे सहर्ष स्वीकार करे और फैसले को चैलेन्ज नहीं करे। यदि फैसला बाबरी मसजिद के हक में भी आए तो मुसलमान बाबरी मसजिद से अपना दावा छोड़ने के लिए कवायद करें। मुसलमानों को इसके लिए मानसिक रुप से तैयार करें। मुसलिम उलेमा इसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। यदि मुसलमान ऐसा कर पाए तो यह साम्प्रदायिक सद्भाव की नायाब मिसाल होगी और साम्प्रदायिक ताकतों के मुंह पर करारा तमाचा होगा।

Monday, August 23, 2010

दिल्ली के रोहिणी इलाके में मुसलमानों को धार्मिक आज़ादी नहीं

शेष नारायण सिंह

आज़ादी की लड़ाई की एक और विरासत को दिल्ली के रोहिणी इलाके में दफ़न किया जा रहा है . जंगे-आज़ादी के दौरान हमारे नेताओं ने कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि वे हिन्दुओं की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि वे भारत की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे . अंगेजों की पूरी कोशिश थी के भारत को हन्दू और मुसलमान के बीच खाई के ज़रिये अलग कर दिया जाए लेकिन वे कामयाब नहीं हुए. कोशिश पूरी की लेकिन सफलता हाथ नहीं आई. उस काम के लिए उन्होंने दो संगठन खड़े किये . कभी कांगेस का ही हिस्सा रही मुस्लिम लीग को जिन्ना और लियाक़त अली के नेतृत्व में झाड़ पोछ कर भारत की आज़ादी के खिलाफ मैदान में उतारा और अंग्रेजों से माफी मांग चुके वी डी सावरकर का इस्तेमाल करके हिन्दू धर्म से अलग एक नयी विचारधारा को जन्म दिया जिसे हिंदुत्व कहा गया . सावरकर ने खुद बार बार कहा है कि हिंदुत्व वास्तव में एक राजनीतिक विचारधारा है . बहरहाल १९२४ में सावरकर की किताब , हिंदुत्व छप कर आई और १९२५ में अंग्रेजों ने नागपुर के एक डाक्टर को आगे करके आर एस एस की स्थापना करवा दी. . मुस्लिम लीग तो अपने मकसद में कामयाब हो गयी . जब वह भारत की आज़ादी को नहीं रोक पाई तो उसने भारत का बँटवारा ही करवा दिया और पाकिस्तान की स्थपाना हो गयी. आज जब पाकिस्तान की दुर्दशा देखते हैं तो समझ में आता है कि कितनी बड़ी गलती मुहम्मद अली जिन्ना ने की थी. लगता है कि मुसलमानों को नुकसान पंहुचाने वाला यह सबसे बड़ा राजनीतिक फैसला था. आर एस एस वाले कोशिश करते रहे लेकिन अँगरेज़ उन्हें कुछ नहीं दे सका . बाद में उनके साथियों ने की महात्मा गांधी को मारा लेकिन उसके बाद वे पूरी तरह से राजनीतिक हाशिये पर आ गए. आज़ादी के आन्दोलन के नेताओं के उत्तराधिकारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों में आबाद हो गए लेकिन वे आज़ादी की लड़ाई वाले कांग्रेसियों जैसे मज़बूत नहीं थे लिहाजा बाद के वक़्त में आर एस एस और उस से जुड़े संगठन ताक़तवर होते गए और अब उनकी ताक़त का खामियाजा हर जगह राष्ट्र को ही झेलना पड़ रहा है .कहीं आर एस एस लोग वाले महिलाओं को पीट रहे हैं तो कहीं और कुछ कारस्तानी कर रहे हैं . आर एस एस की ताज़ा दादागीरी का मामला दिल्ली का है . उत्तरी दिल्ली के छोर पर बसे उप नगर रोहिणी में कोई मस्जिद नहीं थी . वहां रहने वालों ने डी डी ए में दरखास्त देकर करीब ३६० वर्ग मीटर का एक प्लाट ले लिया .जून २००९ में डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को प्लाट पर क़ब्ज़ा दे दिया . सरकारी चिट्ठी में साफ़ लिखा था कि ज़मीन मस्जिद के निर्माण के लिए दी जा रही है लेकिन जब २६ जून २००९ को मस्जिद के निर्माण का काम शुरू हुआ तो भगवा ब्रिगेड के लोग वहां पंहुच गए और मार पीट शुरू कर दी. वे माइक लेकर आये थे और पूरे जोर शोर से मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे . शुक्रवार का दिन था और वहां नमाज़ पढ़ कर काम शुरू होना था लेकिन हिन्दुत्ववादी गुंडों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया. एक मजदूर का गला काट दिया . बाद में उसे अस्पताल ले जाया गया जहां उसकी जान बचा ली गयी . दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को आर एस एस के इरादों की भनक लग गयी थी इसलिए उन्होंने पहले ही पुलिस वालों को चौकन्ना कर दिया था लेकिन मामूली संख्या में मौजूद पुलिस वालों को भी भीड़ ने मारा पीटा और काम रुक गया. तुर्रा यह कि पुलिस ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी की ओर से एफ आई आर तक नहीं लिखा . जब इन लोगों ने कहा तो साफ़ मना कर दिया और कहा कि पुलिस ने अपनी तरफ से ही रिपोर्ट लिख ली है . वह रिपोर्ट हल्की थी , उसमें मजदूर के गले पर धारदार हथिआर से वार करने की बात का ज़िक्र तक नहीं किया गया था. लेकिन इसके बाद जो हुआ वह बहुत ही शर्मनाक है. डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को सूचित किया कि मुकामी रेज़ीडेंट वेलफेयर अशोसिशन के विरोध के कारण मस्जिद निर्माण के लिए किया गया अलाटमेंट रद्द किया जाता है . यह नौकरशाही में भगवा ब्रिगेड की घुसपैठ का एक मामूली उदाहरण है . बहर हाल मामला माइनारिटी कमीशन में ले जाया गया और उनके आदेश पर एक बार फिर प्लाट तो मिल गया है लेकिन आगे क्या होगा कोई नहीं जानता . अब बात अखबारों में छप गयी है तो मुसलमानों के वोट के चक्कर में राजनीतिक पार्टियों के नेता लोग हल्ला गुला तो ज़रूर करेगें लेकिन नतीजा क्या होगा कोई नहीं जानता . आर एस एस के लोगों की कोशिश है कि ऐसे मुद्दे उठाये जाएँ जिस से साम्प्रदायिकता का ज़हर फैले और हिन्दू उनकी तरफ एकजुट हों . यह देश का दुर्भाग्य है कि आज देश में धर्म निरपेक्षता की लड़ाई लड़ने वाला कोई संगठन नहीं है . आर एस एस की रणनीति है कि इस तरह के मुद्दों को उठाकर वे अपने आपको हिन्दुओं का नेता साबित कर दें . ठीक उसी तरह जैसे जिन्ना ने १९४६ में किया था. हुआ यह था कि जिन्ना ने मांग की कि देश की आज़ादी के बारे में फैसला लेने के लिए जो कमेटी बन रही है ,उसमें मुसलमानों का नामांकन करने का अधिकार केवल जिन्ना को होना चाहिए . महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेहरू ने साफ़ मना कर दिया . नतीजा यह हुआ कि अपने कोटे के चार मुसलमानों को जिन्ना ने नामांकित किया जबकि कांग्रेस ने अपने कोटे से ३ मुसलमानों को नामांकित कर दिया . और जिन्ना का मुसलमानों का खैरख्वाह बनने का सपना धरा का धरा रह गया. बहरहाल जिस तरह से संघी ताक़तें लामबंद हो रही हैं वह बहुत ही खतरनाक है और देश की एकता को उस से ख़तरा है . कांग्रेस समेत सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को चाहिए उसे फ़ौरन लगाम देने के लिए जागरूकता अभियान चलायें. भारत के संविधान में भी लिखा है कि इस देश में हर आदमी को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी है. और अगर रोहिणी के मुसलमान अपने धर्म का पालन न कर सके तो संविधान के अनुच्छेद २५ का सीधे तौर पर उन्लंघन होगा . अनुच्छेद २५ में साफ़ लिखा है कि भारत के हर नागरिक को अपने धर्म के पालन की पूरी आज़ादी है . इसलिए देश की आबादी के बीस फीसदी को हम उनके अधिकारों से वंचित नहीं रख सकते.

इंसानियत के खिलाफ है कॉमनवेल्‍थ गेम

सलीम अख्तर सिद्दीकी
कॉमनवेल्थ गेम की तैयारियों में हुए भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के लिए भावुकता और देशभक्ति का सहारा लिया जा रहा है। कांग्रेसी नेता राजीव शुक्ला कहते हैं, 'भ्रष्टाचार की बात करने से पहले सबसे ज्यादा जरुरी है कि सब मिल जुल कर खेलों को कामयाब बनाने के लिए जुट जाएं। कॉमन वेल्थ गेम देश की इज्जत का सवाल है। खेल कामयाबी के साथ सम्पन्न हो जाएं तो फिर भ्रष्टाचार की बात भी होगी'। इस तरह की बात करने वाले राजीव शुक्ला अकेले नहीं है। दरअसल, राजीव शुक्ला जैसे लोग चाहते यह हैं कि किसी तरह से खेल बिना किसी बाधा के सम्पन्न हो जाएं, फिर भ्रष्टाचार का मामला नेपथ्य में चला जाएगा। पूरा देश और मीडिया भ्रष्टाचार को भूलकर खेलों के भव्य आयोजन के लिए सरकार के हक में कसीदे पढ़ेगा। लेकिन यहां सवाल भ्रष्टाचार का ही नहीं है। सवाल बहुत सारे हैं।
क्या उस देश में, जहां 64 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से जीने के लिए मजबूर हों, 46 प्रतिशत बच्चे और 55 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हों, चिकित्सा का सर्वथा अभाव हो, स्कूल खंडहरनुमा इमारतों और टेंटों में चलते हों, पीने का साफ पीना मुहैया न हो, वहां पैंतीस हजार करोड़ का खजाना कॉमन वेल्थ गेम पर लुटा देना कहां की इंसानियत है? कॉमनवेल्थ गेम का बजट 1, 899 करोड़ रुपए का था, जो बढ़कर पैंतीस हजार करोड़ हो गया है यानि सीधे-सीधे 1800 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पैंतीस हजार करोड़ रुपए से न जाने कितने अस्पताल, स्कूल और कालेज खोले जा सकते थे। कॉमनवेल्थ गेम के आयोजन से सबसे बड़ी मार गरीबों पर ही पड़ रही है। सड़क पर खाना बेचने वाले और वहां खाना खाने वाले दोनों ही गरीब होते है। सड़क पर बने स्थायी और अस्थायी ढाबों को बंद किया जा रहा है। एक गरीब आदमी का रोजगार बंद हो गया, दूसरे के हाथ से सस्ता खाना चला गया। दस से बीस रुपए में अपना पेट भरने वाला आदमी कैसे अपना पेट भरेगा?
कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर का यह कहना कहीं से भी गलत नहीं है कि कॉमनवेल्थ गेम छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में क्यों नहीं कराए गए जहां, खेलों के साथ ही वहां का विकास भी हो जाता? मणिशंकर इंग्‍लैंड के मानचेस्टर का उदाहरण देकर कहते हैं, 'ईस्ट मानचेस्टर जैसे पिछड़े इलाके में 2002 में कॉमन वेल्थ गेम कराए गए। इसका नतीजा यह हुआ कि इस बहाने वहां का विकास हुआ और रोजगार बढ़ा।' दंतेवाड़ा तो एक उदाहरण भर है। कह सकते हैं कि वहां नक्सल समस्या के चलते ऐसा सम्भव नहीं था। लेकिन देश में ऐसे बहुत से इलाके हैं, जो आजादी के बाद से ही विकास को तरस रहे हैं। ऐसे की किसी इलाके में खेल कराकर वहां का विकास किया जा सकता था। लेकिन सरकार का अभिजात्य वर्ग कब यह चाहता है कि वो देश के दूर दराज के पिछड़े इलाके में जाकर धूल फांके? हां, विकास के नाम पर पूरी दिल्ली को को खोद डालना उन्हें मंजूर है।
दिल्ली में भी उन्हीं इलाकों को और ज्यादा चमकाया जा रहा है, जो पहले से चमकते रहे हैं, जहां आभिजात्य वर्ग निवास करता है। मलिन बस्तियों की सुध नहीं ली जा रही है।दिल्ली में ही खेल कराने की मजबूरी थी तो समय से पहले ही तैयारी पूरी क्यों नहीं की गईं? तैयारी इतनी अधूरी है कि शक होता है कि खेल हो भी पाएंगे या नहीं? भ्रष्टाचार के कीचड़ को नजरअंदाज करने की बात कहने वाले लोग पता नहीं दिल्ली के उन इलाकों में जाते हैं की नहीं, जहां विकास के नाम पर सड़कों को खोद डाला गया है। वे लोग कभी उधर से गुजरें तो अपनी आंखों से दिल्ली में फैली धूल और कीचड़ देखने की जहमत करें। कनॉट प्लेस की सूरत बिगाड़ दी गयी है। मैं पूरे दो साल से हर हफ्ते देखता हूं कि कनॉट प्लेस को चमकाने की कोशिश की जा रही है। लेकिन काम पूरा नहीं हुआ। ऐसा लगता भी नहीं कि अक्टूबर तक पूरा हो जाएगा। शिवाजी स्टेडियम की निर्माण प्रगति देखकर कोई यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि ये पचास दिन में पूरा जो जाएगा। दिल्ली को 'इंटरनेशनल लुक' देने के नाम पर उसका वास्तविक स्वरुप भी बिगाड़ा जा रहा है।
काम इतनी धीमी गति से हो रहा है कि देखकर कोफ्त होती है। सच तो यह है कि कॉमन वेल्थ गेम के लिए दिल्ली को समय से लगभग छह महीने पहले तैयार हो जाना चाहिए था। यह तय है कि आधी-अधूरी तैयारियों के बीच खेल सम्पन्न होने के बाद अधूरे काम कभी पूरे नहीं होंगे। यह जरुर होगा कि ठेकेदार अपना पैसा वसूल कर लेगा। यह कहकर नहीं बचा जा सकता कि बारिश की वजह से काम बाधित हुआ। सबको पता है कि उत्तर भारत में जुलाई से लेकर अक्टूबर मध्य तक बरसात का मौसम होता है। दुनिया को यह भी पता है कि मात्र दो घंटे की बारिश से दिल्ली की सड़कें तालाब में तब्दील हो जाती हैं। भयंकर जाम लग जाता है। ट्रैफिक सिगनल काम करना बंद कर देते हैं। कॉमनवेल्थ गेम का समय भी ऐसा है, जिसमें बारिश हो सकती है। जरा सोचिए यदि उस समय दो-चार घंटे बारिश हो गयी तो तब देश की इज्जत का क्या होगा? इससे इतर, इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि दिल्ली में गुरबत दिखाई न दे। इसके लिए गरीबों को दिल्ली से बाहर खदेड़ा जा रहा है। भिखारियों को उठा कर बंद किया जा रहा है। क्या कीचड़ पर कालीन बिछा देने से कीचड़ का वजूद खत्म हो जाएगा? क्या दुनिया को नहीं पता कि भारत में कितनी गुरबत है ?
क्या दुनिया को यह नहीं पता कि भारत जैसे गरीब देश में अभी तक अनाज भंडारण की भी सही व्यवस्था नहीं है? कॉमन वेल्थ गेम पर पानी की तरह पैसा बहाने वाली सरकार को यह सुध क्यों नहीं आती कि अनाज को सुरक्षित रखना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए? विडम्बना देखिए कि अनाज के सुरक्षित भंडारण का ख्याल एक मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल को आता है। संगठन सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करता है। सुप्रीम कोर्ट सरकारों को अनाज के सुरक्षित भंडारण के लिए नए गोदाम बनाने की सलाह के साथ ही खुले में सड़ रहे अनाज को गरीबों में बांट देने की सलाह देता है। इस देश में कॉमन वेल्थ गेम कराना ऐसे ही है, जैसे एक मजदूर शाम को अपनी मजदूरी को जुए और शराब में उड़ा दे और उसके बच्चे भूखे ही सो जाएं।

Friday, August 13, 2010

उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक दंगों की आहट

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
बहुत दिनों की खामोशी के बाद संघ परिवार राख हो चुके राममंदिर मुद्दे में आग लगाने की कोशिश करेगा। अब आरएसएस ने मंदिर निर्माण की जिम्मेदारी ली है। इसी 16 अगस्त से संघ परिवार पूरे देश में बड़े पैमाने पर कार्यक्रम शुरु करने का ऐलान किया है। सवाल यह है कि आखिर संघ ने अभी क्यों मंदिर निर्माण का राग अलापना शुरु किया है ? बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्म भूमि विवाद का फैसला सितम्बर के मध्य में आ सकता है। इसी के मद्देनजर संघ परिवार ने अपना कार्यक्रम तय किया है। संघ परिवार एक माह तक इस मुद्दे को गर्माएगा। इस बीच अदालत का जो भी फैसला आएगा, उसकी रोशनी में संघ परिवार अपनी उग्र हरकतें शुरु करेगा। उदाहरण के लिए, मान लीजिए फैसला संघ परिवार के हक में आया तो वह उसको सहज नहीं लेगा, बल्कि उसको 'हिन्दुत्व' की जीत के रुप में प्रचारित करेगा। गली-गली विजयी जलूस निकाले जाएंगे। मुसलमानों को चिढ़ाने और उकसाने वाले नारे लगाए जाएंगे। जबरदस्त आतिश बाजी की जाएगी। इन हरकतों का क्या परिणाम होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। यदि फैसला बाबरी मस्जिद के हक में आया तो संघ परिवार उग्र आन्दोलन शुरु करेगा। इसका नतीजा क्या होगा इसका अंदाजा लगाना और भी ज्यादा आसान है। संघ परिवार यही कहता रहा है कि आस्था का फैसला अदालत नहीं कर सकती। उत्तर प्रदेश सरकार को भी साम्प्रदायिक दंगों की आहट लग रही है। इसीलिए उसने सभी जिला प्रशासन को एलर्ट रहने के लिए कहा है।
उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था बिगड़ने का अंदेशा सिर्फ उग्र हिन्दु साम्प्रदायिक संगठनों से ही नहीं है। यह अंदेशा मुसलमानों के नाम पर राजनीति करने वाले उन राजनैतिक दलों से भी है, जो आजकल मुसलमानों के नाराजगी चलते मुस्लिम समर्थन पाने के लिए छटपटा रहे हैं। हालांकि आरएसएस ने कहा है कि 16 अगस्त से शुरु होने वाले कार्यक्रमों में भाजपा की कोई भूमिका नहीं होगी, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा संघ परिवार का अभिन्न अंग है। कहने के लिए संघ परिवार में कई तरह के संगठन हैं, लेकिन सबका एजेण्डा समान ही है। इसलिए यह महज कहने की ही बात है कि भाजपा कार्यक्रमों से दूर रहेगी। क्योंकि भाजपा को आज भी यही लगता है कि राममंदिर ही उसकी नैया को दोबारा पार लगा सकता है।
'बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी', इस हालत में नहीं है कि वह कोई बड़ा आंदोलन खड़ा कर सके। उसका वजूद अब लगभग खत्म हो चुका है। शायद इसीलिए 'बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी' के संयोजक और अदालत में बाहैसियत एक वकील मुसलमानों की तरफ से पैरवी कर रहे जफरयाब जिलानी कहते हैं कि 'हम बाबरी मस्जिद पर मामले पर मुकदमा लड़ रहे हैं। हमें आंदोलन चलाने की कोई जरुरत नहीं है'। 'बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी' के संस्थापक चैयरमैन रह चुके जावेद हबीब का भी जफरयाब जिलानी की तरह यही कहना है कि 'विहिप के प्रस्तावित आंदोलन के जवाब में कोई आंदोलन चलाने का हमारा कोई इरादा नहीं है'। जावेद हबीब तो एक कदम आगे जाकर मसले का हल अदालत से बाहर जाकर बातचीत से करने पर जोर देते हैं। इस तरह से कहा जा सकता है कि आज की तारीख में बाबरी मस्जिद के नाम पर आंदोलन करने के लिए मुसलमानों की न तो इच्छा है और न ही उनके पास कोई संगठन है। उत्तर प्रदेश का मुसलमान फिलहाल चुप है। जो भी मुस्लिम नेतृत्व है, वह अदालत का फैसला, चाहे जो भी हो, मानने की बात करता है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अब मुसलमान बाबरी मस्जिद से आगे की सोचने लगा है। राममंदिर-बाबरी मस्जिद आन्दोलन के चलते मुसलमानों ने बहुत कुछ खोया है। उन्हें एहसास हो गया है कि किसी भी सूरत में नुकसान उनका ही होता है। धर्मनिरपेक्षता और मुसलमानों का हमदर्द होने का स्वांग रचने वाले राजनैतिक दलों को फायदा होता है। इधर, अब संघ परिवार से मुसलमानों ने डरना छोड़ दिया है। मुसलमानों ने देख लिया है कि भाजपा भी उनके वोटों के लिए ऐसे ही लार टपकाती है, जैसे अन्य राजनैतिक दल टपकाते हैं। हिन्दुओं का एक बहुत बड़ा वर्ग भाजपा के साथ इसलिए लगा था कि वह अपने आप को एक अलग तरह की पार्टी बताती थी। लेकिन उस वर्ग ने भी देखा कि भाजपा के नेता भी उतने ही भ्रष्ट और नाकरा है, जितने अन्य दलों के नेता हैं।
इन हालात में भी यदि संघ परिवार सोचता है कि राममंदिर मुद्दे में फिर से जान डाली जा सकती है तो यही का जाएगा कि वह मूर्खों की जन्न्त में रहते हैं। सवाल यही है कि क्या राख के ढेर में आग लगायी जा सकती है ? हालात तो यह कह रहे हैं कि संघ परिवार को को मुंह की खानी पड़ेगी। अभी पिछले पखवाड़े विहिप के फायर ब्रांड कहे जाने वाले प्रवीण भाई तोगड़िया मेरठ आए थे। नब्बे के दशक में प्रवीण भाई तोगड़िया के बयानों से आग लग जाती थी। लेकिन 2010 में मेरठ के लोगों ने उन्हें बुरी तरह से नकार दिया। उनके कार्यक्रम में मुट्ठी भर लोग ही जमा थे। जो वक्ता थे, वो ही श्रोता भी थे। इन हालात में अंदाजा लगाया जा सकता है कि राममंदिर मुद्दे में जान डालना कितना टेढ़ा काम है। लेकिन यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि भले ही संघ परिवार के पास आज की तारीख में मंदिर मुद्दे को गरमाने के लिए जन समर्थन न हो लेकिन संघ परिवार मुद्दे को गर्माने की पूरी कोशिश करेगा। इस कोशिश में उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था को खतरा तो हो ही सकता है। ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार यदि फूंक-फुंक रख रही है तो वह सही कर रही है। उसे पता है कि इस मुद्दे पर उसके किसी भी गलत फैसले से उसका हश्र भी भाजपा और कांग्रेस जैसा हो सकता है।

Friday, August 6, 2010

बहुत हुआ, अब वीएन राय को गरियाना बंद करें

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
वीएन राय के माफी मांगने के बाद उन पर कीचड़ उछालना बंद होना चाहिए। पिछले कुछ दिनों से देखा जा रहा है कि किसी न किसी बहाने वीएन राय पर कीचड़ उछाली जा रही है। वीएन राय ने सभी लेखिकाओं को छिनाल नहीं कहा था। जरा उनके शब्दों पर ध्यान दीजिए – ‘हिंदी में लेखिकाओं का एक वर्ग ऐसा है, जो अपने आप को बड़ा छिनाल साबित करने में लगा है’। उनके इस वक्तव्य के बाद यह पता लगाना बेहद मुश्किल है कि उनका इशारा किस ओर था। कुछ लेखिकाओं ने उनके बयान पर तल्ख टिप्पणियां की हैं। मैत्रेयी पुष्पा ने तो उन्हें सीधे-सीधे ‘लफंगा’ ही कह दिया है। वीएन राय ने तो किसी का नाम लेकर कुछ नहीं कहा था, लेकिन मैत्रेयी पुष्पा ने उन्हें लफंगा कहकर यह साबित कर दिया है कि साहित्यकारों में कहीं न कहीं संयम खोने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। वीएन राय ने लेखिकाओं के एक वर्ग को छिनाल कहा तो कयामत आ गयी, लेकिन किसी को लफंगा कहना कहां तक सही है।
मैत्रेयी पुष्पा ने ही नहीं, बल्कि हर वह आदमी, जो प्रगतिशील और स्त्रियों का पैरोकार होने का दम भरता है, वीएन राय को गरियाने में लगा है। बात यहीं खत्म नहीं होती। आलोक तोमर जैसे वरिष्ठ पत्रकार, जिनकी मैं बहुत इज्जत करता हूं, ने भी बहती गंगा में हाथ धो लिये। उन्होंने तो वीएन राय लिखित उपन्यास “शहर में कर्फ्यू” पर ही सवालिया निशान लगा दिया। आलोक तोमर ने यह कह कर कि ‘वीएन राय हिंदी साहित्य के आईएस जौहर साबित हुए हैं, इधर दंगा खत्म हुआ, उधर उपन्यास बाजार में आ गया’ यह साबित करने की कोशिश की है कि वीएन राय का उपन्यास ‘शहर में कर्फ्यू’ मौलिक नहीं था। इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि वीएन राय ने ‘शहर में कर्फ्यू’ लिख कर उस मिथक को तोड़ने का काम किया था, जिसमें यह कहा जाता रहा है कि हर दंगे के लिए मुसलमान ही जिम्मेदार होते हैं। आलोक तोमर की नजर में ‘वीएन राय धर्म विरोधी होने की हद तक धर्मनिरपेक्ष हैं’। मेरा मानना है कि धर्म आदमी का निजी मामला होता है। वह किसी धर्म को माने या नहीं इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए।
याद कीजिए 1987 का मेरठ का हाशिमपुरा कांड। यह वह दौर था, जब मेरठ में मुसलमानों का कत्लेआम किया जा रहा था। मुसलमानों की सुनने वाला कोई नहीं था। यहां तक की मेरठ का तथाकथित मुस्लिम नेतृत्व भी बेहद खौफजदा था। इसी दौर में पीएसी कुछ ट्रकों में मुस्लिम युवकों को भरकर ले गयी थी। पीएसी ने उन मुस्लिम युवकों को गोली मारकर मुरादनगर (गाजियाबाद) की गंग नहर में बहा दिया था। उस वक्त वीएन राय गाजियाबाद के एसएसपी थे। उन्होंने ही पूरे केस को मीडिया को बताया था। पीएसी के खिलाफ मामला दर्ज हुआ था। ‘छिनाल’ प्रकरण से कुछ दिन पहले ही वीएन राय ने दिल्ली की अदालत में चल रहे हाशिमपुरा कांड केस में गवाही दी है। मेरा मानना है कि किसी इंसान के अच्छे कामों को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
इसमें दो राय नहीं, इधर जब से बंगलादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने अपने जीवन के कुछ अंतरंग क्षणों को कागज पर उतारा है और उन्हें शोहरत हासिल हुई है, तब से हमारी हिंदी की कुछ लेखिकाएं भी तस्लीमा नसरीन के रास्ते पर चलती नजर आ रही हैं। उपन्यासों, कहानियों अथवा आत्मकथाओं में लेखिकाएं किसी न किसी बहाने यौन संबंधों का जमकर उल्लेख कर रही हैं। लेखिकाओं में यह प्रवृत्ति नयी नहीं है। तस्लीमा नसरीन की देखा-देखी और ज्यादा बढ़ी है।
इस प्रकरण में वीएन राय से ज्यादा दोषी ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक रवींद्र कालिया हैं। उन्होंने एक संपादक का सही ढंग से या तो निर्वहन नहीं किया अथवा उन्होंने जाबूझकर ‘छिनाल’ शब्द को छपने दिया। शायद वह साक्षात्कार को विवादस्पद बनाकर ‘नया ज्ञानोदय’ के अंक को चर्चा में लाना चाहते हों। इधर हमारे नेताओं ने भी अपना संयम खोया है। लेकिन प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कहे गये शब्दों को संपादित करके अपनी जिम्मेदार का सही निर्वहन किया है। रवींद्र कालिया भी ऐसा कर सकते थे।

Thursday, August 5, 2010

फिर डराया 'चौथी दुनिया' ने

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
जब मैंने न्यूज पोर्टल 'भड़ास फॉर डाट कॉम' पर यह खबर देखी थी कि 'चौथी दुनिया' का दोबारा प्रकाशन होने जा रहा है तो मुझे बहुत खुशी हुई थी। इसी खुशी में मैंने 'भड़ास' की उस खबर को कॉपी करके अपने ब्लॉग पर डाल दिया था। थोड़ी देर बाद ही भाई यशवंत ने मेरे ब्लॉग पर कमेंट किया कि भाई यह तो भड़ास का माल है, कम से कम साभार तो लिख दिया होता। बहरहाल, 'चौथी दुनिया' का प्रकाशन हुआ। अबकी बार भी सम्पादक वही संतोष भारतीय थे, जो 1986 वाले 'चौथी दुनिया' के सम्पादक थे। पहला अंक देखा तो बहुत मायूसी हुई। नये 'चौथी दुनिया' पर उस संतोष भारतीय की छाप नहीं थी, जिसका में प्रशंसक रहा हूं। मेरे जेहन में तो 1986 वाला 'चौथी दुनिया' बसा हुआ था। लेकिन 1986 के मुकाबले 21वीं सदी का अखबार फुल कलर तो था, लेकिन 1986 वाले तेवर नदारद थे। उस पर तुर्रा यह कि बीस पेज का अखबार बीस रुपए की कीमत में था। पता नहीं अखबार के कर्ता-धर्ताओं को किसने यह समझा दिया था कि अब भारत का हर नागरिक लखपति हो गया है, जो हर हफ्ते बीस रुपए खर्च करने में नहीं हिचकिचाएगा। उस पर भी यह दावा कि अखबार जन सरोकार की पत्रकारिता के लिए प्रतिबद्ध होगा। पहला अंक खरीदने के बाद दूसरा अंक खरीदने की हिम्मत नहीं हुई। मेरी तरह और लोगों की भी हिम्मत नहीं हुई होगी। तभी तो हमारे मेरठ के एक बुक स्टॉल पर जितने अखबार आते थे, उतने ही वापस चले जाते थे। फिर एक दिन पता चला कि 'चौथी दुनिया' सोलह पेज का हो गया है, लेकिन कीमत पांच रुपए हो गयी है। तब से 'चौथी दुनिया' लगातार लिया जाने लगा। बुक स्टॉल पर भी अखबार जल्दी ही खत्म होने लगा।
1986 का 'चौथी दुनिया' अपने आप में एक मुकम्मल अखबार था। पूरा ब्लैक एण्ड व्हाइट था। लगभग हर राज्य से खबरें होती थीं, भले ही वह छोटी होती थी। अब तो ऐसा लगता है, जैसे-तैसे अखबार पूरा करना है। घपलों-घोटालों और जनता को डराने वाली खबरों को ही ज्यादा अहमियत दी जाती है। जबरदस्ती पेज पूरा किया जाता है, उसके लिए भले ही हैडिंग का साइज बहुत बड़ा करना पड़े या तस्वीरों को बड़ा करके लगाना पड़े। एक बात और जो समझ नहीं आती आखिर शिरडी के सांई बाबा को हर हफ्ते पूरा एक पेज क्यों दिया जाता है ? यह ठीक है कि अखबार के मालिक या सम्पादक की अपनी आस्था हो सकती है, लेकिन उस आस्था को पाठकों पर थोपना कहां तक सही है ? जो एक पेज सांई बाबा को समर्पित किया जाता है, उस पेज का सदुपयोग किसी अच्छी स्टोरी के लिए भी तो किया जा सकता है।
अखबार में ऐसी-ऐसी रिपोर्ट छापी जा रही हैं, जिनका कोई सिर पैर नहीं होता। बहुत सी रिपोर्टें तो ऐसी छपी हैं, जो कम शब्दों में पूरी की जा सकती थीं, लेकिन जबरदस्ती खींचतान करके दो पेज की बना दी गयीं। किसी-किसी रिपोर्ट में तो सिवाए लफ्फाजी के कुछ नहीं होता। उदाहरण के लिए 2 से 8 अगस्त के अंक देखा जा सकता है। पहले पेज की स्टोरी है- 'एक बम दिल्ली खत्म'। इस स्टोरी में खोजी पत्रकारिता के नाम पर जो कुछ छापा गया है, वह हॉलीवुड की कई फिल्मों का विषय रहा है। अनेक समाचार-पत्र और पत्रिकाएं भी इस बात को लिख चुकी हैं कि एटमी वार कैसी होगी। इस बात पर भी बार-बार चिंता जताई जा चुकी है कि पाकिस्तान के एटम बम सिरफिरे आतंकवादियों के हाथ लग गए तो क्या होगा। यही बात इस स्टोरी में भी उठायी गयी है। स्टोरी पढ़कर ऐसा लगा जैसे, 'इंडिया टीवी' सरीखे किसी चैनल की स्क्रिप्ट में कुछ फेर बदल करके छाप दिया गया हो। पूरी स्टोरी की थीम इस बात पर टिकी है कि यदि कभी पाकिस्तान या आतंकवादियों ने दिल्ली या मुंबई पर एटम गिराया जो क्या होगा। यह भी सवाल उठाया गया है कि क्या भारत सरकार के पास ऐसे संकट से निपटने के साधन मौजूद हैं ?
'चौथी दुनिया' के सवाल सही हो सकते हैं। लेकिन क्या 'चौथी दुनिया' के सम्पादक यह नहीं जानते की जिस देश की सरकार हर साल बाढ़ आने से होने वाले नुकसान को रोकने के उपाए आज तक नहीं कर पायी, वह उस हादसे से होने वाले नुकसान को रोकने के उपाए कैसे कर सकती है, जो सिर्फ कल्पना पर ही आधारित हो। भारत ही क्यों, एटमी वार की त्रासदी को झेलने के लिए तो अमेरिका सरीखे विकसित देश भी अभिशप्त होंगे। अमेरिका भी अपने उन शहरों की हिफाजत के लिए कुछ नहीं कर पाया है, जहां अक्सर तूफान आते रहते हैं। कुल मिलाकर स्टोरी से एक बार फिर जनता को डराने की कोशिश की गयी है। ऐसे ही जैसे कुछ टीवी चैनल यह बताकर डराते आ रहे हैं कि 2012 में कयामत आ जाएगी। कभी-कभी तो लगता है कि अखबार अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने के फेर में अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मार रहा है।

Tuesday, August 3, 2010

मुलायम को माफ नहीं करेगा मुसलमान

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
मुलायम सिंह यादव ने अपनी 'सल्तनत' बचाने के लिए मुसलमानों से माफी मांगी है। लेकिन अब इतनी देर हो गयी है कि मुसलमानों से माफी मांगने से काम नहीं चलने वाला है। हालांकि माफी के बाद मुलायम सिंह यादव के बंगले पर कुछ उलेमाओं ने 'हाजिरी' देकर मुलायम सिंह यादव की माफी की कद्र की और उनकी शान में 'कसीदे' जरूर पढ़े हैं। पता नहीं इस देश के सियासतदां यह कब समझेंगे कि मुसलमान सियासत में उलेमाओं की हर बात नहीं मानता।
और उलेमा भी कब इस बात को समझेंगे कि यह जरुरी नहीं है कि उलेमाओं की हर बात पर मुसलमान 'लब्बेक' कहें। सियासत के मामले में मुसलमानों की अपनी पसंद और सोच है। इसी तरह किसी उलेमा की सोच और पसंद भी अलग-अलग सियासी पार्टी की बाबत अलग-अलग हो सकती है। इसलिए कुछ उलेमाओं द्वारा माफी को 'काफी' मान लेना जल्दबाजी होगी। सवाल यह है कि आम मुसलमान मुलायम सिंह यादव के बारे में क्या राय रखता है ? वह मुलायम की माफी को 'काफी' मानता है या 'नाकाफी' मानता है ? यह ठीक है कि अक्टूबर 1990 में जब पूरा संंघ परिवार कारसेवा के नाम पर बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिए अयोध्या में जमा हो गया था तो उन्होंने कानून का सहारा लेकन एक बड़े हादसे को टाल दिया था। उस एहसान का बदला भी मुसलमानों उन्हें भरपूर समर्थन देकर अदा किया था। लेकिन दिक्क्त तब पैदा हुई, जब मुलायम सिंह ने मुसलमानों को केवल एक वोट बैंक के रुप में देखा। वोट के बदले मुसलमनों को सत्ता में भागीदारी के नाम पर एक दो मुसलमान को मंत्री बनाना ही काफी समझ लिया। सरकारी नौकरियों में केवल यादवों को तरजीह दी गयी। मुलायम सिंह यादव की सरकार एक तरह से यादवों की सरकार रही। मुसलमान केवल वोट देकर सरकार बनवाने तक ही सीमित रहे।समाजवादी पार्टी में पार्टी की बुनियाद के पत्थर कहे जाने वाले आजम खान, राजबब्बर, सलीम शेरावानी, शफीर्कुरहमान बर्क और बेनी प्रसाद वर्मा सरीखे लोगों को हाशिए पर डाल दिया गया। मुलायम सिंह यादव परिवार मोह में ऐसे फंसे कि फिरोजाबाद उपचुनाव में अपनी बहु डिम्पल को उतार दिया। मुलायम सिंह यादव का यह कदम आत्मघाती था। प्रदेश के सभी वर्ग के लोगों को यह लगा कि मुलायम सिंह यादव का परिवार ही सत्ता का सुख भोगना चाहता है.
समाजवादी पार्टी में समाजवाद खत्म किया गया। मुसलामन भी यह देखकर दुखी होते थे कि सपा में पूंजीपतियों का राज कायम हो गया था। अमर सिंह ने सपा को समाजवाद के रास्ते से भटका कर पूंजीवादी पार्टी बनाने के साथ ही उसे पूंजीपतियों और फिल्मों सितारों से सजाकर ग्लैमरस कर दिया था। मुलायम सिंह के परिवार के कुछ सदस्य पथभ्रष्ट हुए। पूरा परिवार पैसा बनाने में जुट गया था। सैफई में फिल्मी अभिनेत्रियों को नचाया गया। इन्हीं सब बातों से खफा पार्टी का एक वर्ग समाजवाद से भटक कर पूंजीवाद को थामने का विरोध करता आ रहा था। इसमें मुसलमान भी शामिल थे। जैसे इतना ही काफी नहीं था। मुलायम सिहं यादव ने यह समझ लिया था कि मुसलमान समाजवादी पार्टी का 'अंध भक्त' है, इसलिए कुछ भी किया जा सकता है। इसलिए सपा से उस साक्षी महाराज को राज्यसभा में भेजा गया, जिसने गर्व से कहा था कि बाबरी मस्जिद पर सबसे पहला फावड़ा उसने चलाया था। मुसलमानों ने इसे भी बर्दाश्त किया। फिर कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह को मंत्री बनाया। मुसलमानों ने इसे भी सहा। लेकिन जब 2009 लोकसभा चुनाव में कल्याण सिंह के जिन्दाबाद के नारे लगवाए गए तो मुसलमानों के सब्र का बांध टूट गया। मुसलमान पहले से ही सपा से खफा चल रहा था। कल्याण सिंह की आमद ने नाराजगी को चरम पर पहुंचा दिया। यही वजह रही कि उत्तर प्रदेश में हाशिए पर पड़ी कांग्रेस फिर से 20 सीटें जीतकर मुख्य धारा में आ गयी। मुसलमान इस बात को नहीं पचा पाए कि जिस कल्याण सिंह को मुसलमान अपना दुश्मन मानते रहे हैं, उस आदमी को कैसे समाजवादी पार्टी में बर्दाश्त किया जा सकता है।अब आजम खान की बात करते हैं। आजम खान सपा का तेजतर्रार मुस्लिम चेहरा रहे हैं। उन्होंने मुसलमानों के लिए कुछ किया हो, याद नहीं पड़ता। जब 1987 में मलियाना कांड हुआ था तो उनके दिल में मलियाना के लोगों के लिए बहुत दर्द था। उन पर मेरठ में घुसने की पाबंदी थी। वह बार-बार पाबंदी तोड़कर छुपकर मलियाना आते थे। मेरठ स्टेशन पर कई बार मैंने उन्हें रिसीव किया। मलियाना का दौरा कराया। बड़ी-बड़ी बातें करते थे। कहते थे कि उत्तर प्रदेश में जनता दल की सरकार आयी तो मलियाना कांड की दोषी पीएसी और पुलिस को सजा दिलवाएंगे। 1989 को उत्तर प्रदेश में जनता दल की सरकार बन गयी। आजम खान श्रम मंत्री बने। उसके बाद से उनकी शक्ल मलियाना के लोगों ने नहीं देखी। मेरठ बहुत बार आए, लेकिन मलियाना आना गंवारा नहीं किया। आजम खान अपने भाषणों में मलियाना और हाशिमपुरा का जिक्र करके राजनैतिक लाभ जरुर लेते रहे। मलियाना कांड की न्यायिक जांच रिपोर्ट सरकार के पास है, मुलायम सिंह यादव की तीन बार प्रदेश में सरकार बनी। हर सरकार में आजम खान मंत्री बने, लेकिन जांच रिपोर्ट अलमारी रखी धूल फांकती रही। सच यह भी है कि आजम खान को इस बात पर नाराजगी नहीं थी कि कल्याण सिंह को सपा में ले लिया गया। उनकी असली नाराजगी तो इस बात पर थी कि रामपुर से जया प्रदा को टिकट क्यों दिया गया। यदि रामपुर सीट मामले में मुलायम सिंह यादव आजम खान की मान लेते तो यकीन जानिए उन्हें कल्याण सिंह कबूल थे। कल्याण सिंह को तो उन्होंने केवल ढाल बनाया था। इस बात का सबूत यह है की जब सपा ने साक्षी महाराज को राज्यसभा में भेजा था और कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह को मंत्रीमंडल में शामिल किया था तो आजम खान ने आपत्ति नहीं की थी।मुलायम सिंह यादव की माफी का अब इसलिए भी महत्व नहीं है कि भाजपा और सपा बाबरी मस्जिद बनाम राममंदिर की पैदाइश थीं। राममंदिर मुद्दा अब राख में तबदील हो चुका है। भाजपा और सपा एक दूसरे को ताकत देने का काम करती थीं। भाजपा खत्म हुई है तो सपा को भी खत्म होना ही था। ऐसे में मुलायम सिंह यादव की माफी सपा को फिर से खड़ा कर सकेगी, इसमें संदेह है। उत्तर प्रदेश में अब दो राजनैतिक ताकतें रह गयी हैं। भाजपा को रोकने के लिए मुसलमानों के पास अब कांग्रेस और बसपा के रुप में दो विकल्प हैं।

मुलायम को माफ नहीं करेगा मुसलमान

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
मुलायम सिंह यादव ने अपनी 'सल्तनत' बचाने के लिए मुसलमानों से माफी मांगी है। लेकिन अब इतनी देर हो गयी है कि मुसलमानों से माफी मांगने से काम नहीं चलने वाला है। हालांकि माफी के बाद मुलायम सिंह यादव के बंगले पर कुछ उलेमाओं ने 'हाजिरी' देकर मुलायम सिंह यादव की माफी की कद्र की और उनकी शान में 'कसीदे' जरूर पढ़े हैं। पता नहीं इस देश के सियासतदां यह कब समझेंगे कि मुसलमान सियासत में उलेमाओं की हर बात नहीं मानता।
और उलेमा भी कब इस बात को समझेंगे कि यह जरुरी नहीं है कि उलेमाओं की हर बात पर मुसलमान 'लब्बेक' कहें। सियासत के मामले में मुसलमानों की अपनी पसंद और सोच है। इसी तरह किसी उलेमा की सोच और पसंद भी अलग-अलग सियासी पार्टी की बाबत अलग-अलग हो सकती है। इसलिए कुछ उलेमाओं द्वारा माफी को 'काफी' मान लेना जल्दबाजी होगी। सवाल यह है कि आम मुसलमान मुलायम सिंह यादव के बारे में क्या राय रखता है ? वह मुलायम की माफी को 'काफी' मानता है या 'नाकाफी' मानता है ? यह ठीक है कि अक्टूबर 1990 में जब पूरा संंघ परिवार कारसेवा के नाम पर बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिए अयोध्या में जमा हो गया था तो उन्होंने कानून का सहारा लेकन एक बड़े हादसे को टाल दिया था। उस एहसान का बदला भी मुसलमानों उन्हें भरपूर समर्थन देकर अदा किया था। लेकिन दिक्क्त तब पैदा हुई, जब मुलायम सिंह ने मुसलमानों को केवल एक वोट बैंक के रुप में देखा। वोट के बदले मुसलमनों को सत्ता में भागीदारी के नाम पर एक दो मुसलमान को मंत्री बनाना ही काफी समझ लिया। सरकारी नौकरियों में केवल यादवों को तरजीह दी गयी। मुलायम सिंह यादव की सरकार एक तरह से यादवों की सरकार रही। मुसलमान केवल वोट देकर सरकार बनवाने तक ही सीमित रहे।समाजवादी पार्टी में पार्टी की बुनियाद के पत्थर कहे जाने वाले आजम खान, राजबब्बर, सलीम शेरावानी, शफीर्कुरहमान बर्क और बेनी प्रसाद वर्मा सरीखे लोगों को हाशिए पर डाल दिया गया। मुलायम सिंह यादव परिवार मोह में ऐसे फंसे कि फिरोजाबाद उपचुनाव में अपनी बहु डिम्पल को उतार दिया। मुलायम सिंह यादव का यह कदम आत्मघाती था। प्रदेश के सभी वर्ग के लोगों को यह लगा कि मुलायम सिंह यादव का परिवार ही सत्ता का सुख भोगना चाहता है.
समाजवादी पार्टी में समाजवाद खत्म किया गया। मुसलामन भी यह देखकर दुखी होते थे कि सपा में पूंजीपतियों का राज कायम हो गया था। अमर सिंह ने सपा को समाजवाद के रास्ते से भटका कर पूंजीवादी पार्टी बनाने के साथ ही उसे पूंजीपतियों और फिल्मों सितारों से सजाकर ग्लैमरस कर दिया था। मुलायम सिंह के परिवार के कुछ सदस्य पथभ्रष्ट हुए। पूरा परिवार पैसा बनाने में जुट गया था। सैफई में फिल्मी अभिनेत्रियों को नचाया गया। इन्हीं सब बातों से खफा पार्टी का एक वर्ग समाजवाद से भटक कर पूंजीवाद को थामने का विरोध करता आ रहा था। इसमें मुसलमान भी शामिल थे। जैसे इतना ही काफी नहीं था। मुलायम सिहं यादव ने यह समझ लिया था कि मुसलमान समाजवादी पार्टी का 'अंध भक्त' है, इसलिए कुछ भी किया जा सकता है। इसलिए सपा से उस साक्षी महाराज को राज्यसभा में भेजा गया, जिसने गर्व से कहा था कि बाबरी मस्जिद पर सबसे पहला फावड़ा उसने चलाया था। मुसलमानों ने इसे भी बर्दाश्त किया। फिर कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह को मंत्री बनाया। मुसलमानों ने इसे भी सहा। लेकिन जब 2009 लोकसभा चुनाव में कल्याण सिंह के जिन्दाबाद के नारे लगवाए गए तो मुसलमानों के सब्र का बांध टूट गया। मुसलमान पहले से ही सपा से खफा चल रहा था। कल्याण सिंह की आमद ने नाराजगी को चरम पर पहुंचा दिया। यही वजह रही कि उत्तर प्रदेश में हाशिए पर पड़ी कांग्रेस फिर से 20 सीटें जीतकर मुख्य धारा में आ गयी। मुसलमान इस बात को नहीं पचा पाए कि जिस कल्याण सिंह को मुसलमान अपना दुश्मन मानते रहे हैं, उस आदमी को कैसे समाजवादी पार्टी में बर्दाश्त किया जा सकता है।अब आजम खान की बात करते हैं। आजम खान सपा का तेजतर्रार मुस्लिम चेहरा रहे हैं। उन्होंने मुसलमानों के लिए कुछ किया हो, याद नहीं पड़ता। जब 1987 में मलियाना कांड हुआ था तो उनके दिल में मलियाना के लोगों के लिए बहुत दर्द था। उन पर मेरठ में घुसने की पाबंदी थी। वह बार-बार पाबंदी तोड़कर छुपकर मलियाना आते थे। मेरठ स्टेशन पर कई बार मैंने उन्हें रिसीव किया। मलियाना का दौरा कराया। बड़ी-बड़ी बातें करते थे। कहते थे कि उत्तर प्रदेश में जनता दल की सरकार आयी तो मलियाना कांड की दोषी पीएसी और पुलिस को सजा दिलवाएंगे। 1989 को उत्तर प्रदेश में जनता दल की सरकार बन गयी। आजम खान श्रम मंत्री बने। उसके बाद से उनकी शक्ल मलियाना के लोगों ने नहीं देखी। मेरठ बहुत बार आए, लेकिन मलियाना आना गंवारा नहीं किया। आजम खान अपने भाषणों में मलियाना और हाशिमपुरा का जिक्र करके राजनैतिक लाभ जरुर लेते रहे। मलियाना कांड की न्यायिक जांच रिपोर्ट सरकार के पास है, मुलायम सिंह यादव की तीन बार प्रदेश में सरकार बनी। हर सरकार में आजम खान मंत्री बने, लेकिन जांच रिपोर्ट अलमारी रखी धूल फांकती रही। सच यह भी है कि आजम खान को इस बात पर नाराजगी नहीं थी कि कल्याण सिंह को सपा में ले लिया गया। उनकी असली नाराजगी तो इस बात पर थी कि रामपुर से जया प्रदा को टिकट क्यों दिया गया। यदि रामपुर सीट मामले में मुलायम सिंह यादव आजम खान की मान लेते तो यकीन जानिए उन्हें कल्याण सिंह कबूल थे। कल्याण सिंह को तो उन्होंने केवल ढाल बनाया था। इस बात का सबूत यह है की जब सपा ने साक्षी महाराज को राज्यसभा में भेजा था और कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह को मंत्रीमंडल में शामिल किया था तो आजम खान ने आपत्ति नहीं की थी।मुलायम सिंह यादव की माफी का अब इसलिए भी महत्व नहीं है कि भाजपा और सपा बाबरी मस्जिद बनाम राममंदिर की पैदाइश थीं। राममंदिर मुद्दा अब राख में तबदील हो चुका है। भाजपा और सपा एक दूसरे को ताकत देने का काम करती थीं। भाजपा खत्म हुई है तो सपा को भी खत्म होना ही था। ऐसे में मुलायम सिंह यादव की माफी सपा को फिर से खड़ा कर सकेगी, इसमें संदेह है। उत्तर प्रदेश में अब दो राजनैतिक ताकतें रह गयी हैं। भाजपा को रोकने के लिए मुसलमानों के पास अब कांग्रेस और बसपा के रुप में दो विकल्प हैं।