Wednesday, January 21, 2009

महामानव नहीं हैं ओबामा

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
जब जार्ज डब्ल्यू बुश अपने दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे थे, उस वक्त दुनिया भर के मुसलमानों और युद्व विरोधी संगठनों में उनके लिए भारी गुस्सा और नफरत थी। मुसलमानों ने अल्लाह से बुश को हराने की दुआएं मांगी थीं। लेकिन बुश जीते। तब कुछ लोगों ने व्यंग्य किया था कि अल्लाह बुश के साथ था, मुसलमानों के नहीं। लेकिन सच यह था कि अल्लाह मुसलमानों और मानवतावादी लोगों के साथ था। दरअसल, बुश को अल्लाह इस हालत में पुहंचाना चाहता था कि उनसे दुनिया के ही नहीं अमेरिका के लोग भी नफरत करने लगे। ऐसा हुआ भी। एक ताजा सर्वे के अनुसार 75 फीसदी अमेरिकियों ने जार्ज बुश की विदाई पर खुशी का इजहार किया है। जिस जिल्लत के साथ बुश की विदाई हुई है शायद किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की हुई हो। शायद हिटलर और इदी अमीन जैसे तानाशाह के बाद जार्ज बुश ऐसे लोकतांत्रिक राष्ट्रपति हुऐ हैं, जिनसे इतनी ज्यादा नफरत की गयी है। यहां तक की उन्हें आखिरी लम्हों में इराक के एक पत्रकार के हाथों जूते भी खाने पड़ गए। जार्ज बुश का हश्र यही होना था। उन्होंने झूठ और फरेब के बल पर इराक को तबाह किया। वैसे भी दूसरे विश्व युद्व के बाद अमेरिका की भूमिका दमन की ही रही है। क्यूबा, कंबोडिया, वियतनाम, निकारगुआ, सूडान, सोमालिया, अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका ने किसी न किसी बहाने खून की होली खेली है। अमेरिका ने अब तक 40 देशों की सरकारों का तख्ता पलट किया है। 20 देशों पर हमला किया है। 30 लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुचलने में अहम भूमिका निभायी है। 25 देशों पर बम बरसाए है।
दुनिया के लिए नफरत के प्रतीक बने अमेरिका के नए राष्ट्रपति के रुप में ओबामा हुसैन बराक के शपथ लेने पर पूरी दुनिया खुश है। मुसलमान इस बात को लेकर ही मगन हैं कि उनके नाम के बीच में ÷हुसैन' आता है। हिन्दू इसलिए खुश हैं कि वे अपनी जेब में बजरंग बली की मूर्ति रखते हैं। दुनिया भर के अश्वेत लोगों को तो लगता है कि अब दुनिया से गोरों का वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। अमेरिकी इसलिए खुशी से नाच रहे हैं कि बुश ने अमेरिका को जिस आर्थिक मंदी की अंधी सुरंग में धकेल दिया है, उससे ओबामा निकाल लेंगे। उनके चुनाव अभियान से लेकर शपथ लेने तक उनके विचारों से तो लगता है उन्हें अमेरिका के साथ ही दुनिया की समस्याओं की सही समझ है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ओबामा लोगों की कसौटी पर खरा उतर सकेंगे ? यह भी हो सकता है कि ओबामा से अधिक अपेक्षाएं ही कहीं उनके राह का रोड़ा न बन जाएं। ओबामा महामानव नहीं हैं, एक आम इंसान हैं। जार्ज बुश विरासत में इतनी समस्याएं छोड़ गए हैं कि उन्हें सही करने में समय लगेगा। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अमेरिका को आर्थिक मंदी की दलदल से बाहर निकालने की है। कोई कुछ भी कहे अमेरिका के आर्थिक बदहाली के पीछे इराक युद्व एक बड़ा कारण रहा है, जिसमें अब तक तीन करोड़ खरब डालर खर्च हो चुके हैं। ऐसे में ओबामा को इराक में फंसी अमेरिकी टांग को निकालने को प्राथमिकता देना जरुरी है। उन्होंने विभिन्न चरणों में इराक से अमेरिकी फौजों की वापसी की बात कही है, जो यह उम्मीद देती है कि इराक से अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद इराक में शांति स्थापित हो जाएगी। अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा का फिर से बढ़ता प्रभाव ओबामा के लिए सिरदर्दी है इसलिए फिलहाल ओबामा भी आतंक के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान को ही अपना स्वाभाविक मित्र बनाए रखेंगे।
उन्होंने इसराइल और फलस्तीन समस्या को जल्द ही निबटाने की बात कही है। लेकिन उनके शपथ लेने से दो दिन पहले तक इसराइल 1300 फलस्तीनियों की जान ले चुका था, जिनमें 40 प्रतिशत बच्चे और औरतें थीं। जब इसराइल ने गाजा पर बमबारी की थी तो इन्हीं ओबामा ने इसराइली कार्यवाई को यह कहकर जायज ठहराया था कि हर किसी को अपनी आत्मरक्षा का अधिकार है। ऐसे में यही लगता है कि इसराइल और फलस्तीन पर ओबामा की पॉलिसी भी वही रहने वाली है, जो जार्ज बुश समेत सभी अमेरिकी राष्ट्रपतियों की रही है। वैसे भी भयानक आर्थिक मंदी से जूझ रहे अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए उन अमेरिकी यहूदियों को नजरअंदाज करना मुश्किल होगा, जिनका अमेरिकी अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान है। सवाल यही है कि ऐसे में ओबामा कैसे इसराइल और फलस्तीन की समस्या को खत्म करेंगे ? जो लोग ओबामा के आने से फूले नहीं समा रहे हैं, वे इस मुगालते में न रहें कि अब शेर और मेमना एक घाट पर पानी पी सकेंगे। यह बात हमेशा याद रखी जानी चाहिए कि अमेरिका का राष्ट्रपति कोई भी हो, उसकी नीतियों में बहुत अधिक बदलाव कभी नहीं आता।

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Saturday, January 10, 2009

गाजा पर इजराइल का बर्बर हमला शर्मनाक

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
एक बार फिर इजराइल गाजा में आतंकवाद के सफाए के नाम पर बेकसूर फलस्तीनियों का खून बहा रहा है। इजराइली हमलों में फलस्तीनी नागरिकों की मौतों में इजाफा होता जा रहा है। इजराइली हमलों को लेकर दुनिया की चुप्पी शर्मनाक है। हमले रोकने की अपीलों को इजराइल अनसुनी करके मनमानी कर रहा है। हद यह है कि हमास के कथित आतंकवादियों पर हमले की आड़ में स्कूलों और रिहायशी बस्तियों पर बम गिराये जा रहे हैं। अखबारों में हमलों से दहशतजदा तथा मारे गए मासूम बच्चों की छपी तस्वीरें इजराइली हैवानियत को दर्शाने के लिए काफी हैं। क्या दुनिया में इतनी ताकत नहीं बची है कि इजराइली बर्बरता को रोक सके ? उस सुरक्षा परिषद का क्या फायदा है, जो इजराइल पर अंकुश नहीं लगा सकता ? क्या संयुक्त राष्ट्र संघ की हैसियत अमेरिका की तान पर नाचने की ही रह गयी है ? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस बार हमास की तरफ से शुरुआत हुई है। पिछले तीन साल से दोनों की बीच कोई युद्व नहीं हुआ था और जून 2008 से युद्व विराम लागू था, जिसे दिसम्बर 08 में हमास ने ही तोड़ा है। लेकिन यह भी समझना चाहिए कि हमास ने युद्व विराम क्यों तोड़ा ? दरअसल, हमास 2006 के चुनाव में मरहूम यासर अराफात की फतह पार्टी को हराकर सत्ता में आयी थी। फतह पार्टी के महमूद अब्बास पहले से ही राष्ट्रपति थे। हमास के चुनाव के जीतने के बाद स्थिति यह बनी कि राष्ट्रपति तो फतह पार्टी के महमूद अब्बास ही रहे प्रधानमंत्री हमास के इस्माइल हनिए हो गए। लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में आयी हमास को अमेरिका और इजरायल ने कभी मान्यता नहीं दी। वे हमास को आतंकवादी संगठन बताते रहे। इसलिए अमेरिका और इजराइल फतह पार्टी के राष्ट्रपति महमूद अब्बास को ही अहमियत देते रहे। हमास को दोनों ही देशों ने कोई अहमयित नहीं दी। सत्ता में आने के बाद हमास ने इजराइल के प्रति जो रुख अपनाया, वह इजरायल को पसंद नहीं आया। हमास का कहना था कि वह जब तक इजराइल से बात नहीं करेगा, जब तक फलस्तीन को आजादी और संप्रभुता नहीं मिल जाती। हमास को इजराइल से यह भी शिकायत रही कि गाजा को खाली करने के बाद भी इजराइल गाजा में हस्तेक्षप करने से बाज नहीं आ रहा है। हमास की शिकायत गलत नहीं थी। इजराइल ने गाजा की रसद बंद करने से लेकर गाजा के हिस्से के टैक्स को खुद ही हड़प लिया। रसद बंद होने से फलस्तीनी भुखमरी के कगार पर आ गए। जब किसी ओर से बस नहीं चला तो राष्ट्रपति महमूद अब्बास के हाथों हमास की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करा दिया। यानि हमास और फतह पार्टी को आपस में लड़ा दिया। यहां ध्यान देने वाली बात है कि लोकतन्त्र का हिमायती होने का दम भरने वाले अमेरिका को हमास की चुनी हुई सरकार की बर्खास्तगी पर कोई ऐतराज नहीं हुआ। हमास ने जून 2007 में सरकार का तख्ता पलटकर सत्ता पर कब्जा कर लिया। अब इजराइल और ज्यादा आक्रामक हो गया। गाजा में उसका हस्तेक्षप अधिक को गया। गाजा में बढ़ते हस्तेक्षप के चलते हमास ने इजराइल पर वे राकेट दागने शुरु कर दिए, जो उसे ईरान से मिले थे। इजराइल ने हमास को कुचलने के नाम पर पन्द्रह लाख फलस्तीनियों को बम बरसाने शुरु कर दिए। अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालीजा राइस और जल्दी ही अमेरिका के राष्ट्रपति की शपथ लेने वाले ओबामा बराक ने हमलों को जायज ठहराते हुऐ कहा कि हर किसी को आत्मरक्षा का अधिकार है। यहां सवाल यह उठता है कि हमलों में बेकसूर नागरिकों खासकर बच्चों के स्कूलों को निशाना बनाना किस आत्मरक्षा की श्रेणी में आता है ? यह याद रखा जाना चाहिए कि सभी पन्द्रह लाख फलस्तीनी हमास के समर्थक नहीं हैं। यह क्यों भूला जा रहा है कि गाजा में चल रही कार्यवार्इ्र से शांत होते जा रहे पशिम एशिया में फिर से आग लग सकती है। खबरें है कि ईरान से हजारों युवक आत्मघाती दस्तों के रुप में गाजा पहुंचने शुरु हो गए हैं। पता नहीं अमेरिका की यह कौनसी नीति है कि वह एक ओर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर दो मुल्कों को खत्म कर देता है तो दूसरी ओर भारत पर हुऐ हमलों पर भारत से संयम बरतने की सीख देता है। क्या यह माना जाए कि आतंकवाद से सुरक्षित रहने का अधिकार केवल अमेरिका और इजराइल हो ही है ? इजराइल का गाजा पर हमला बर्बर है। हमलों को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को सख्ती से पहल करनी चाहिए। यदि इजराइल यह सोच रहा है कि वह हमास को खत्म कर सकेगा तो वह गलत सोच रहा है। गाजा में इजरायली हमला आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला तथा पश्चिम एशिया को अस्थिर करने वाली हरकत है।

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Monday, January 5, 2009

अगले महीने 'चौथी दुनिया' का होगा पुनर्जन्म

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का पहला साप्ताहिक ब्राडशीट अखबार 'चौथी दुनिया' फिर से शुरू होने जा रहा है। इस अखबार को नए साल के पहले महीने के आखिर तक मार्केट में लाने की तैयारी है। इसे दुबारा लाने का जिम्मा 'गैनन डंकरली' की सहायक कंपनी 'अंकुश पब्लिकेशन' ने उठाया है। कमल मोरारका इसके मालिक हैं। अखबार 20 पन्नों का होगा और अपने चिर-परिचित अंदाज में हिंदी क्षेत्र के ओपिनियन मेकर्स और डिसीजन मेकर्स को टारगेट करेगा। कंपनी ने नोएडा और दिल्ली (कनाट प्लेस) में आफिस भी ले लिया है। सूत्रों का कहना है कि चौथी दुनिया के पुनर्जन्म का प्रोजेक्ट 35 करोड़ रुपये का है। शुरुआत में इसकी एक लाख कापियां प्रकाशित होंगी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1986 में यह साप्ताहिक अखबार तब शुरू हुआ था, जब 'दिनमान' बंद हो गया था।

'रविवार' के एक्सटेंशन 'चौथी दुनिया' ने उससे हुए खालीपन को न सिर्फ भरा बल्कि कई नए कीर्तिमान भी स्थापित किए। जब मेरठ में 'मलियाना-हाशिमपुरा' दंगे हुए और 60 लोगों को गोली मार दी गई तब चौथी दुनिया ने साहस के साथ इस मामले को उठाया। कई किसान आंदोलनों का नेतृत्व करने का श्रेय भी इसी अखबार को जाता है। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में कलर सप्लीमेंट निकालने का आइडिया भी बाकी अखबारों ने इसी से लिया। छह साल तक लगातार प्रकाशन और पत्रकारिता के इतिहास में कई 'मानक' दर्ज करने के बाद यह अखबार 1992 में बंद हो गया था। इस अखबार से जितने भी लोग जुड़े रहे वे आज मीडिया के बड़े नाम बन गए हैं। इनमें संतोष भारतीय, रामकृपाल सिंह, कमर वहीद नकवी, अजीत अंजुम, अरविंद कुमार सिंह, आलोक पुराणिक आदि प्रमुख हैं।

चौथी दुनिया की नई पारी शुरू कराने से जुड़े एक उच्च पदस्थ सूत्र ने बताया कि पत्रकारिता की जो जरूरत है वह आज भी पूरी नहीं हो पा रही है। फिजूल की खबरों के बीच आम लोगों की खबरें, उनके दुख-दर्द, उनकी समस्याएं, उनके अधिकार सब दब के रह गए हैं। इसी को देखते हुए हमने इसे दुबारा शुरू करने का फैसला किया है। हम प्री-पीपुल जर्नलिज्म करेंगे। 16 साल बाद बदले हुए बाजार के सवाल पर उनका कहना था कि बाजार यह कभी नहीं कहता कि सही खबर मत दिखाओ। आज लोगों ने खुद ही बाजार को अपने ऊपर ओढ़ लिया है। चौथी दुनिया का पीआर जर्नलिजम से कतई कोई नाता नहीं रहेगा।

उन्होंने कहा कि हम वहीं से अपनी बात शुरू करेंगे, जहां से छोड़ा था। इसके लिए हम ऐसे युवा पत्रकारों की तलाश कर रहे हैं जिनके पास सामाजिक दृष्टि एवं खबरों का विश्लेषण करने की क्षमता हो, जो सार्थक पत्रकारिता करने का माद्दा रखते हों। अगर आपको लगता है कि आप इस मानक पर खरे उतरेंगे तो अपना बायोडाटा hr.chauthiduniya@gmail.comThis e-mail address is being protected from spambots, you need JavaScript enabled to view it पर भेज सकते हैं।

इस बीच, खबर यह भी है कि 'चौथी दुनिया' के मालिक कमल मोरारका का मुंबई में जो अंग्रेजी अखबार 'आफ्टरनून' नाम से प्रकाशित होता है, उसे भी दिल्ली से लांच किए जाने की तैयारी है। सूत्रों का कहना है कि आफ्टरनून का प्रकाश चौथी दुनिया की लांचिंग के छह महीने बाद शुरू होगा।