Sunday, September 22, 2013

ऐसे बनी चिंगारी शोला


सलीम अख्तर सिद्दीकी
मुजफ्फरनगर के कवाल में 27 अगस्त को हुई मामूली घटना पर एक युवक की हत्या और उसके बाद दो युवकों को मार देने की घटना इतनी बड़ी नहीं थी कि पुलिस और प्रशासन उससे नहीं निपट सकता था। न जानें क्यों धीरे-धीरे सुलगती आग को शोला बनने का इंतजार किया गया। जिसका नतीजा यह है कि मुजफ्फरनगर जंग का मैदान बन गया । पूरे घटनाक्रम को देखने पर पता चलता है कि कुछ ताकतें हर हाल में चाहती थीं कि ऐसा ही हो, जैसा हुआ है।
इसमें न गलती आम हिंदुओं की है, न मुसलमानों की और न ही उन जाटों की, जिन्हें राजनीतिक दलों ने इस्तेमाल किया और वे हो गए। इस पूरे प्रकरण का शर्मनाक पहलू यह है कि सभी राजनीतिक दलों के नेता, जो धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा लगाए घूमते हैं, हिंदू और मुसलमान में बंट गए। दुखद तो यह भी है कि मुजफ्फरनगर में वे अमन पसंद घरों में दुबके रहे, जो गोष्ठियों में सांप्रदायिक सद्भाव में बड़े-बडेÞ भाषण देते हैं। सवाल यह है कि हिंदुओं और मुसलमानों की पंचायत से इतर तीसरी पंचायत अमन पसंद लोगों की क्यों नहीं हुई? क्या इससे यह पता नहीं चलता कि हिंदुओं और मुसलमानों में कट्टर लोगों का प्रभाव ज्यादा हो गया है और अमन पसंद ताकतें कमजोर हो गई हैं?
किसी कांग्रेस, सपा, बसपा और रालोद के नेता को क्यों किसी ऐसी पंचायत का हिस्सा बनना चाहिए, जो विशुद्ध रूप से सांप्रदायिक आधार पर बुलाई गई हो? कवाल में जिस मुसलिम युवा की हत्या हुई थी, उसके हत्यारों को कानून सजा देता। हत्या का बदला लेने के लिए खुद कानून हाथ में लेकर दो भाइयों के हत्यारों को भी सजा देने का हक कानून को ही है। खुद ही इंसाफ करने के लिए हत्याओं का दौर चलेगा, तो फिर कानून नाम की चीज का मतलब ही क्या रह जाता है। 30 अगस्त को मुजफ्फरनगर के मीनाक्षी चौक पर राजनीतिक विचारधारा से ऊपर उठकर मुसलमानों की भीड़ जुटती है। प्रशासन मूकदर्शक बना रहता है। हद यह है कि पंचायत में अधिकारी खुद ज्ञापन लेने आते हैं। उसके अगले दिन ही भाजपा नंगला मंदोड़ में 36 बिरादरियों की पंचायत करती है, इसमें भी विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता जुड़ते हैं।
5 सितंबर को हुआ मुजफ्फरनगर बंद आग को थोड़ा और सुलगा देता है। उसके बाद देहात में जगह-जगह होती वारदातें हालात को संगीन बनाती जाती हैं, लेकिन पुलिस-प्रशासन की नींद नहीं टूटती। 7 सितंबर को नंगला मंदोड़ में फिर 36 बिरादरियों की पंचायत का ऐलान होता है। हैरत होती है यह देखकर कि चौरासी कोसी परिक्रमा को हर हाल में न होने देने का संकल्प पूरा करने वाली उत्तर प्रदेश सरकार नंगला मंदोड़ की पंचायत रोकने के लिए ठोस कदम उठाती नजर नहीं आती। नतीजा यह होता है कि एक लाख के लगभग लोग, नंगला मंदोड़ पहुंच जाते हैं। बहुत लोगों के हाथों में हथियार भी होते हैं। क्या पुलिस-प्रशासन को पंचायत में जाते लोगों के हाथों में वे हथियार नजर नहीं आए, जिन्हें मीडिया ने अपने कैमरों में कैद किया? पंचायत के बाद जो कुछ होता है, वह हमारे सामने है।
पंचायत से लौटते लोगों पर हमले होते हैं। सांप्रदायिकता की आग देहात में पहुंच जाती है। पूरे घटनाक्रम को देखने पर एहसास होता है कि सब कुछ जानबूझकर होने दिया गया। ऐसा लगता है, जैसे सब कुछ सोची-समझी साजिश के तहत अंजाम दिया गया हो।  देहात में सिर उठाती सांप्रदायिकता का उभार कुछ संकेत देता है, जिसे समझना बहुत जरूरी है। भले ही कुछ लोग कहें कि मुजफ्फरनगर के हालात को 2014 के चुनाव से जोड़कर नहीं देखना चाहिए, लेकिन उससे जुड़ाव से इंकार भी नहीं किया जा सकता। राजनीतिक दलों की तमाम कोशिशों के बाद भी हमारे देहात हमेशा सांप्रदायिक धु्रवीकरण से बचे रहे हैं। जब भी शहरों में दंगा हुआ, देहात शांत रहे हैं। दंगा होने पर शहरों में जा बसे लोग अपने-अपने गांवों में शरण लेते रहे हैं। देहात का यह सांप्रदायिक सद्भाव उन राजनीतिक दलों को रास नहीं आता, जो चुनाव में शहरी क्षेत्र से जीतते हैं, लेकिन देहात में हारते रहे हैं। संभवत: उन दलों की कोशिश है कि अबकी बार देहात में भी सांप्रदायिक धु्रवीकरण करा दिया जाए, जिससे देहात में शिकस्त न खानी पड़े।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत ने हिंदुओं और मुसलिमों के बीच एक नया रिश्ता कायम किया था, जो उनके जीते-जी जारी रहा। मेरठ में 1987 के दंगों के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई बन चुकी थी। ऐसे में 1988 में भारतीय किसान यूनियन ने मेरठ में किसानों की मांगों को लेकर लंबा धरना दिया था। उस धरने में मुसलिम किसानों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उस दौर में एक बार फिर सांप्रदायिक सद्भाव का दौर शुरू हुआ था। अफसोस की बात है कि चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत के वारिस अपने बुजुर्गों की विरासत संभाल कर नहीं रख पाए।
7 सितंबर की नंगलामोड़ की पंचायत भारतीय किसान यूनियन की विचारधारा के एकदम विपरीत थी। टिकैत बंधु उत्तेजित भीड़ का मिजाज भांपने में नाकाम रहे। टिकैत बंधुओं के आंसू जो कहते हैं, उसका मर्म भी बहुत गहरा है। इस पंचायत के बाद हालात विकट होते गए। इसे वक्त का तकाजा कह लें या पश्चाताप, अब अमन पसंद लोगों और वास्तविक धर्मनिरपेक्ष लोगों को इस हिंसा को बढ़ने से रोकने के लिए आगे आना चाहिए। चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत की विरासत को बचाना बहुत जरूरी है। सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन इस बीच हम जो कुछ खो देंगे, उसकी वापसी बहुत मुश्किल से होगी।

राहत कैंपों के मजलूम


सलीम अख्तर सिद्दीकी
मुजफ्फरनगर के राहत कैंपों में रहे लोगों के नाम कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन उनमें एक बात समान हैं कि सब ‘मजलूम’ हैं। जिले में जगह-जगह राहत कैंप हैं। उनमें मौजूद हर आदमी की अपनी कहानी है। बस सुनने वाला चाहिए। मुजफ्फरनगर से लगभग 15 किलोमीटर दूर कस्बे शाहपुर को देखकर लगता है, जैसे सब कुछ सामान्य है, लेकिन शाहपुर से एक किलोमीटर दूर बसी कलां गांव के एक मदरसे में बने राहत कैंप में कुछ भी सामान्य नहीं है। कैंप में खेलती लगभग पांच साल की रानिया को नहीं पता कि वह रातोरात यहां क्यों है? लेकिन उसकी मां का चेहरा बता रहा है कि वह यहां क्यों है। चेहरे पर अपने गांव कुटबा के उजड़ने का दर्द साफ झलकता है। बसी कलां के इस कैंप का दौरा प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कर चुके हैं, लेकिन विभिन्न गांवों से उजड़कर आए हजारों लोगों को उनसे पुनर्वास का आश्वासन नहीं मिला। पंद्रह दिन गुजर गए, लेकिन दंगों का खौफ लोगों को अपने-अपने गांव जाने नहीं देता। यहां सरकारी इमदाद ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है। स्वयं सेवी संगठन हर तरह की मदद कर रहे हैं। अलग-अलग शहरों से रसद के ट्रक लगातार आ रहे हैं। सामूहिक खाना बन रहा है। तंदूर जारी है। कपड़ों के ढेर लगे हैं। इस सबके बावजूद जिंदगी बेनूर है, लेकिन इसमें रंग भरने की कोशिशें जारी हैं। जिनकी शादियां पहले से तय थीं, कार्ड बंट चुके थे, उनकी शादियां हो रही हैं। राहत शिविरों के लोग ही बाराती भी हैं और घराती भी। इस कैंप में आज ही तीन निकाह पढ़ाए गए। नवजात बच्चों की किलकारियां भी गूंज रही हैं।
बुढ़ाना के सामुदायिक केंद्र में लगभग चार हजार लोग पनाह लिए हुए हैं। दोपहर के भोजन का वक्त हुआ तो खाने लेने वालों की लंबी लाइन लगी है। दो आदमी बारी-बारी से खाना दे रहे हैं। लगभग 15 साल की लड़की की प्लेट में खाना डाला जाता है, तो वह जार-जार रोने लगती है। बादल उमड़े तो अब सबको डर है कि बारिश हो गई, तो क्या होगा?
बुढ़ाना से पांच किलोमीटर कांधला रोड पर 40 हजार की आबादी वाला गांव है जौला। यहां बड़े मैदान पर बड़ा टैंट लगा है। टैंट के बीच में एक स्टेज बना है। हाजी गुलाम मोहम्मद माइक से व्यवस्था संभाल रहे हैं। उनके पास इमदाद देने आए लोग बैठे हैं। यहां भी सामूहिक खाना बन रहा है। जब उनसे पूछा जाता है कि सरकार की मदद कितनी आ रही है, तो उनके चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान आ जाती है। वह कहते हैं, जितनी इमदाद सरकार कर रही है, उससे तो एक हजार लोगों का भी भला नहीं हो सकता। आप देख ही रहे हैं कि यहां कितने आदमी हैं। अचानक बारिश आई तो दिखा चारों तरफ पानी ही पानी। मुश्किलों में और इजाफा हो जाता है।