Sunday, August 25, 2013

ये जो नवाजुद्दीन है

मुजफ्फरनगर से 40 किलोमीटर की दूरी पर हिंडन नदी के किनारे पर बसा है ऐतिहासिक कस्बा बुढ़ाना। यह कभी बेगम समरू की रियासत भी रहा है। नदी के तट से थोड़ी ऊंचाई पर बसे बुढ़ाना की ऊंची-नीची गलियां किसी पहाड़ी सरीखे कस्बे का एहसास कराती हैं। इस कस्बे से मशहूर शायर तमन्ना जमाली, अकमल राही, हकीम जलील अहमद, लक्ष्मी चंद त्यागी चैयरमेन, निवर्तमान चैयरमेन मुन्नन। 80-90 के दशक में देश के तमाम समाचार पत्रों में संपादक के नाम पत्र लिखकर बुढ़ाना को पहचान देने वाले शाहिद सिद्दीकी जैसी कई अजीम शख्सियतें वाबस्ता हैं। यहां की सावरिया की बालूशाही भी दूर-दूर तक मशहूर है। अब यह कस्बा उस शख्सियत के नाम से भी जाना जाने लगा है, जिसका नाम नवाजुद्दीन सिद्दीकी है। नवाज ने बुढ़ाना को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान देने का काम किया है। आजकल नवाज बुढ़ाना आए हुए हैं। उनसे मिलने आने वालों का तांता लगा है। लोग देखना चाहते हैं, उस नवाज को, जो उनके बीच से निकलकर इतनी दूर निकल गया, जिसका लोग सिर्फ तसव्वुर कर सकते हैं। हालांकि जब वह फिल्मों में छोटे-छोटे रोल कर रहे थे, तो लोगों ने उनका खास नोटिस नहीं किया था। लेकिन पिछले साल आई ‘गैंग्स आॅफ वासेपुर’ ने लोगों को उनकी प्रतिभा को मानने के लिए मजबूर कर दिया। ‘गैंग्स आॅफ वासेपुर’ ने सब कुछ बदल दिया। आमिर खान के साथ आई ‘तलाश’ ने उन्हें आम दर्शकों में पहचान दिलाई। हालांकि इन फिल्मों से पहले आशिम अहुलवालिया की फिल्म ऐसी थी, जिसमें नवाज लीड रोल में थे, लेकिन वह रिलीज नहीं हो पाई।
कड़े संघर्ष का दौर
ऐसा नहीं है कि उनको कामयाबी आसानी से मिल गई। यहां तक पहुंचने में उन्हें लगभग 20 साल तक कड़ा संघर्ष करना पड़ा। जब मैं उनके संघर्ष के बारे में पूछता हूं, तो जैसे माजी की किताब के पन्ने पलटने शुरू हो जाते हैं। उनकी आंखें सोच की मुद्रा में सिकुड़ जाती हैं। वह कहना शुरू करते हैं, ‘अगर मैं कहूं कि एक्टिंग करना मेरा बचपन का सपना था, जो पूरा हो गया, तो यह कहना गलत होगा। बुढ़ाना से इंटर करने के बाद बीएससी की। नौकरी की तलाश में लगा तो पता चला कि बिना किसी टेक्निकल जानकारी के नौकरी भी मिलना मुश्किल है। सड़कों पर आवारगी करने के सिवा कोई काम नहीं था। भटकते हुए दिल्ली पहुंचा। वहां एक दोस्त के साथ मंडी हाउस में नाटक देखा। वहीं लगा कि एक्टिंग ही ऐसा काम है, जिसमें कुछ किया जा सकता है। एनएसडी में दाखिला ले लिया। थिएटर करने लगा। रंगकर्मियों के बीच रहकर एक्टिंग की बारीकियां सीखने लगा। पहले छोटे-छोटे रोल मिले। बाद में बड़े और लीड रोल भी किए। उसके बाद लगा कि अब मुंबई ट्राई करनी चाहिए। मैंने मुंबई का रुख कर लिया।’ 
ऐसा नहीं है कि मुंबई बांहें फैलाकर नवाज का इंतजार कर रही थी। इम्तहान अभी बाकी थे। नवाज एक बार फिर फ्लैशबैक में चले जाते हैं, ‘मुंबई ने मुझे लगभग पांच साल तक इंतजार कराया। मैं टीवी प्रोडक्शन हाउसों में भटकता। अपना फोटो दिखाता। वह मुझे देखते और कहते, यार तुम हीरो मटीरियल नहीं हो। कोई रोल देने को तैयार ही नहीं था। उन्हें लगता ही नहीं था कि पांच फुट और छह इंच का एक ऐसा आदमी, जिसका रंग भी गोरा न हो, एक्टिंग भी कर सकता है। उन्हें भिखारी के रोल के लिए भी छह फुट के जवान की दरकार रहती थी।’
आखिरकार 1999 में आमिर खान ने ‘सरफरोश’ में उन्हें एक छोटा-सा रोल दिया। इतना छोटा कि नवाज को बताना पड़ा कि मैं कहां हूं। लेकिन यह भी ऐसी शुरुआत थी, जिसने उनके कॅरियर की नींव रखी। संघर्ष जारी था। उनके ही शब्दों में, ‘संघर्ष का अंत नजर नहीं आ रहा था। एक वक्त ऐसा भी आया था, जब एक वक्त खाना खाकर गुजारा करना पड़ता था। कई बार हिम्मत टूटी। सोचा सब छोड़कर बुढ़ाना वापस चला जाऊं, लेकिन फिर यह सोचकर कदम रोक लेता कि वापस जाऊंगा तो सब मजाक उड़ाएंगे कि गया था हीरो बनने, वापस आ गया। वैसे भी कोई और काम मुझे आता नहीं था। फिर इरादा कर लिया कि अब जीना है, तो मुंबई में और मरना है तो मुंबई में।’
‘सरफरोश’ के छोटे रोल का भले ही आम दर्शकों ने नोटिस न लिया हो, लेकिन डायरेक्टर अनुराग कश्यप ने जरूर लिया। कश्यप ने नवाज को एक नाटक दिल्ली में भी देखा था। अनुराग ने अपनी फिल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’ में थोड़ा बड़ा रोल दिया, लेकिन इतना बड़ा नहीं कि उनकी पहचान बने। हां, इतना जरूर हुआ कि नवाज को अपनी क्षमता दिखाने का मौका मिल गया। उसके बाद ‘फिराक’, ‘न्यूयॉर्क’ और ‘देव डी’ जैसी फिल्मों में काम मिला, लेकिन इन फिल्मों का खास दर्शक वर्ग है, इसलिए नवाज अभी उस लोकप्रियता से दूर थे, जो उन्हें आज मिली है। अब नवाज को काम तो मिलने लगा था, लेकिन वह टाइप्ड होने लगे थे। ‘न्यूयॉर्क’ के बाद उन्हें जितने भी रोल आॅफर हुए, वे सब गुंडे या आतंकवादी के थे। यहां उन्होंने जोखिम लेते हुए ऐसे रोल करने से इंकार कर दिया।
सफलता की शुरुआत
नवाज कहते हैं, ‘पीपली लाइव’ में मुझे थोड़ी अच्छी भूमिका मिली, तो सुजोय घोष की ‘कहानी’ में मेरे काम से लोगों को लगा कि पांव फुट और छह इंच का सांवला-सा यह आदमी वाकई एक्टिंग करता है।’ ‘गैंग्स आॅफ वासेपुर’, ‘आत्मा’ और ‘बांबे टाकीज’ ने नवाज को उन अदाकारों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया, जो जब अदाकारी करते हैं, तो उनका खुद का वजूद गायब हो जाता है और उस चरित्र में ढल जाता है, जिसको वह निभा रहा होता है। नवाज कहते हैं, पिछले लगभग दस सालों में फिल्मों का ट्रेंड बदला है। नए निर्देशकों में रियलिस्टिक सिनेमा की ओर रुझान बढ़ा है, इसलिए चेहरे के बजाय एक्टिंग अहम हो गई है। यही वजह है कि मुझ जैसे चेहरे-मोहरे वाले एक्टरों को नए निर्देशक तवज्जो देने लगे हैं।’ शायद यही वजह है कि नवाज नए निर्देशकों के साथ ज्यादा सहज रहते हैं। वह कहते हैं, ‘नए और युवा निर्देशकों के साथ काम करना आसान रहता है, क्योंकि उनके साथ आप रोल के बारे में डिस्कस कर सकते हैं।’    
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बनी पहचान
‘पतंग’, ‘लायर डाइस’, ‘मानसून शूटआउट’, ‘देख इंडियन सर्कस’ जैसी जैसी फिल्मों में उनके किए काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा जा चुका है। 2012 में रिलीज हुई निर्देशक प्रशांत भार्गव की ‘पतंग’ को दुनिया के नामचीन फिल्म समीक्षर रोजर एबर्ट ने चार स्टार दिए। इस फिल्म को दुनियाभर में होने वाले फिल्म फेस्टिवलों में दिखाया गया। ‘देख इंडियन सर्कस’ को छह नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिल चुके हैं। उनकी नई फिल्म ‘लंच बॉक्स’ को कान फिल्म महोत्सव में स्पेशल आॅडियन्स च्वाइस अवॉर्ड मिल चुका है। ‘लंच बॉक्स’ जल्दी ही भारत में रिलीज होने वाली है। फिलहाल नवाज केतन मेहता की ‘माउंटेन मैन’ में व्यस्त हैं। 
रियल एक्टर
दरअसल, नवाज की खासियत ही यह है कि वह आॅफ स्क्रीन जितने वास्तविक नजर आते हैं, आॅन स्क्रीन भी उतने ही रियल लगते हैं। नवाजुद्दीन कितनी रियल एक्टिंग करते हैं, इसका अंदाजा एक घटना से लगाया जा सकता है। जब इम्तियाज अली की फिल्म ‘देख इंडियन सर्कस’ के एक रोल के लिए नवाज तैयार होकर सैट पर आए, तो वहां मौजूद स्टाफ उन्हें पहचान ही नहीं पाया था। लंच के दौरान स्टाफ सदस्यों ने समझा कि कोई गांव वाला सैट पर आ गया है। स्टॉफ ने उन्हें खाना देने से भी मना कर दिया और सैट से बाहर जाने का हुक्म सुना दिया।
हर अदाकार किसी ने किसी अदाकार से प्रभावित होता है, लेकिन नवाज के साथ ऐसा नहीं है। वह कहते हैं कि मेरी प्रेरणा मैं खुद हूं। हां, वह नसीरुद्दीन शाह के कायल हो गए, जब उन्होंने नसीर की ‘स्पर्श’ देखी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि वह उनसे इतने प्रभावित हो गए हों कि उनकी एक्टिंग में नसीर की झलक दिखाई दे। एक अर्से बाद नवाज के रूप में ऐसा एक्टर सामने आया है, जिसके के बारे में यह नहीं कहा जाता कि यह फलां एक्टर की नकल करता है।

बुÑद्धदेव को मिला उनका ‘अनवर’
बांग्ला फिल्मों के निर्देशक बुद्धदेब दासगुप्ता ‘अनवर का अजब किस्सा’ बना रहे हैं। उनकी समस्या थी कि फिल्म के लीड कैरेक्टर अनवर के लिए कोई एक्टर उन्हें नहीं भा रहा था। जब उन्होंने नवाज की ‘गैंग्स आॅफ वासेपुर’ और ‘कहानी’ देखी, तो उनमें उन्हें अपना अनवर नजर आ गया। अनवर के लिए जिस तरह के चेहरे, मैनरिज्म की जरूरत थी, वह उन्हें नवाजुद्दीन में मिला।
गालियां और आइटम सॉन्ग
आजकल की फिल्मों में गालियों के बढ़ते चलन पर नवाज कहते हैं कि गालियां समाज का हिस्सा हैं और कहानी के मुताबिक गालियों की जरूरत है, तो इसमें कोई बुराई नहीं है। गालियों से ज्यादा खतरनाक आइटम सॉन्ग हैं। आइटम गर्ल की भाव-भंगिमाएं। गाने के द्वि
युवाओं को सलाह
नवाजुद्दीन सिद्दीकी के पास ऐसे युवा आ रहे हैं, जो चाहते हैं कि वह उन्हें फिल्मों में काम दिलाने में मदद करें। दरअसल, ऐसे युवा नवाज का आज देख रहे हैं, अतीत नहीं। ऐसे युवाओं को नवाज सलाह दे रहे हैं कि अगर एक्टिंग करनी है, तो पहले थियेटर करें। इसके बाद मुंबई का रुख करें। उनका कहना है कि एक्टिंग करना बहुत मुश्किल काम है। यहां शॉर्ट कट नहीं चलता। कड़ा संघर्ष ही मंजिल तक पहुंचाता है।
अर्थी बोल समाज में जहर घोल रहे हैं। जिस फिल्म में गालियां होती हैं, वह टीवी पर नहीं दिखाई जाती, लेकिन भद्दे आइटम सॉन्ग टीवी पर रात दिन दिखाए जाते हैं। इनका हमारी युवा पीढ़ी पर क्या असर होता है, यह किसी से छिपा नहीं है।

Monday, August 5, 2013

आरएसएस भड़काती है दंगे


राम पुनियानी
मेरे एक मित्र, आसानी से हार मानना जिनके स्वभाव का हिस्सा नहीं है, अपनी वक्तृत्व कला का उपयोग कर मुझे यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि साम्प्रदायिक हिंसा के लिये भाजपा से कहीं ज्यादा कांग्रेस जिम्मेदार है। उन्होंने देश में हुये प्रमुख साम्प्रदायिक दंगों को गिनाया और यह बताया कि जब ये भीषण घटनाक्रम हुये तब कांग्रेस, सम्बन्धित क्षेत्र में सत्ता में थी। वे पूछते हैं कि हम गुजरात हिंसा की एक घटना को इतना अधिक महत्व क्यों दे रहे हैं और उसे नरेन्द्र मोदी व भाजपा के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा क्यों बना रहे हैं? कुछ अन्य लोग भी अक्सर कहते हैं कि मोदी की सरकार की सन् 2002 के कत्लेआम में जो भूमिका थी, लगभग वही भूमिका कांग्रेस की सन् 1984 के सिक्ख-विरोधी दंगों में थी। अगर मोदी ने यह कहकर गुजरात को सही ठहराया था कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है तो राजीव गांधी ने भी सिक्खों की मारकाट को औचित्यपूर्ण बताते हुये कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती काँपती है; तो फिर मोदी और भाजपा को हम किस तरह साम्प्रदायिक दंगों के लिये अधिक जिम्मेदार ठहरा सकते हैं?
भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत हुयी अंग्रेजों द्वारा फूट डालो और राज करो की नीति लागू किये जाने के साथ। इस नीति के अन्तर्गत ही उन्होंने इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया और शासकों को धर्म के चश्मे से देखना शुरू किया। इसी सोच को जमींदारों और राजाओं-नवाबों के अस्त होते वर्ग ने अपना लिया। इन्हीं अस्त होते वर्गों ने मुस्लिम और हिन्दू झ्र दोनों ब्रांडों की साम्प्रदायिकता की नींव रखी। हिन्दू साम्प्रदायिक तत्व मुस्लिम राजाओं पर मंदिर ढहाने और जबरन धर्मांतरण करवाने का आरोप लगाते थे जबकि मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्व यह दावा करते थे कि वे देश के शासक हैं।
इतिहास के इस तोड़े-मरोड़े गये संस्करण के कारण, हिन्दुओं और मुसलमानों में आपसी घृणा बढ़ती गयी। शनै:-शनै: साम्प्रदायिक पार्टियाँ उभर आईं, जिनमें मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा शामिल हैं। विभिन्न साम्प्रदायिक दलों ने समाज में नफरत फैलाने में तो कामयाबी हासिल कर ली परंतु चुनाव के मैदान में उन्हें कभी सफलता न मिल सकी। ब्रिटिश दौर में एक समुदाय को दूसरे समुदाय का शत्रु बनाने में अंग्रेजों द्वारा तैयार किये गये इतिहास के साम्प्रदायिक संस्करण की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अंग्रेजों ने एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी परंतु उस वक्त भी सड़कों और चौराहों पर हिंसा करने वाले लोग तो साम्प्रदायिक संगठनों के सदस्य ही हुआ करते थे। उस समय पुलिस और प्रशासन तटस्थ प्रेक्षक की भूमिका निभाता था। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि हिन्दू-मुस्लिम हिंसा के लम्बी त्रासद सिलसिले के पीछे कई कारक थे, जिन्होंने अलग-अलग भूमिकाएं निभाईं। अंग्रेजों के दौर में साम्प्रदायिक दंगों के लिये ब्रिटिश सरकार की नीतियां (इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण और फूट डालो और राज करो की नीति) व साम्प्रदायिक तत्व जिम्मेदार थे। तत्कालीन पुलिस और प्रशासन को इस सिलसिले में कतई दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
धीरे-धीरे समय बदलने लगा। स्वाधीनता के बाद प्रशासन और पुलिस तटस्थ नहीं रह गये। वे पक्षपात करने लगे। एक जाने-माने पुलिस अधिकार डाक्टर व्ही. एन. राय द्वारा किये गये अनुसंधान से यह सामने आया है कि कोई भी साम्प्रदायिक हिंसा तब तक जारी नहीं रह सकती जब तक कि प्रशासन और राजनैतिक नेतृत्व ऐसा न चाहे। इसके लिये मुख्यत: दोषी हैं साम्प्रदायिक ताकतें, जो न केवल अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में दुष्प्रचार करती रहीं बल्कि उनके कुछ साथियों ने साम्प्रदायिक हिंसा का इस्तेमाल, समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करने के लिये किया। धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण से साम्प्रदायिक ताकतों को सामाजिक, राजनैतिक और चुनावी क्षेत्र में लाभ हुआ। अन्य पार्टियों के राजनेताओं ने भी कबजब हिंसा का इस्तेमाल सत्ता में आने या उसमें बने रहने के लिये किया। उस समय हुये दंगों की जांच करने वाले विभिन्न आयोगों ने साम्प्रदायिक ताकतों की भूमिका को रेखांकित किया है। अहमदाबाद के 1969 के दंगों की जगमोहन रेड्डी न्यायिक आयोग द्वारा की गयी जाँच की रपट स्पष्ट कहती है कि दंगों के पीछे आरएसएस और जनसंघ के नेताओं की भूमिका थी। इस तरह, स्वतंत्रता के तुरंत बाद के वर्षों में, साम्प्रदायिक ताकतों ने सत्ता में न रहते हुये भी, दंगे भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
सन् 1970 के भिवंडी-जलगांव दंगों की जाँच करने वाले न्यायमूर्ति डी. पी. मादौन आयोग की रपट कहती है कि हिन्दू समुदाय के कुछ सदस्य, विशेषकर आरएसएस व पीएसपी के कार्यकर्ता, गड़बड़ी फैलाने के लिये आतुर थे और उन्हें इसमें सफलता इसलिये मिली क्योंकि पुलिस तटस्थ बनी रही। सन् 1971 के तेल्लीचेरी दंगों की न्यायमूर्ति जोसफ विथ्याथिल ने जाँच की थी। इस रपट में यह कहा गया है कि मुस्लिम-विरोधी प्रचार की शुरूआत आरएसएस व जनसंघ ने की थी। इस सबसे सामाजिक वातावरण बिगड़ गया और समाज धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत हो गया। सन् 1979 के जमशेदपुर दंगों की जाँच करने वाले न्यायिक आयोग ने कहा कि हिंसा की शुरूआत संयुक्त बजरंगबली अखाड़ा समिति झ्र जो कि आरएसएस से जुड़ा संगठन था झ्र ने की। इस संगठन ने जानबूझकर जुलूस के रास्ते को लेकर विवाद खड़ा किया और इसके सदस्यों ने मुस्लिम विरोधी नारे लगाए।
कन्याकुमारी के 1982 के दंगों की जस्टिस वेणु गोपाल आयोग की जाँच रपट उन अफवाहों को फैलाने में आरएसएस की भूमिका की चर्चा करती है, जिनके चलते हिंसा भड़की। जस्टिस श्रीकृष्ण जांच आयोग ने यह साफ कर दिया है कि मुंबई के दंगों में भाजपा के साथी दल शिवसेना की अत्यंत कुत्सित भूमिका थी।
प्रश्न यह है कि क्या दंगों के लिये केवल शासक दल को दोषी ठहराया जाना उचित है? साम्प्रदायिक हिंसा, समाज को बाँटने वाले साम्प्रदायिक  प्रचार, पुलिस की भूमिका और शासक दल के दृष्टिकोण का मिलाजुला नतीजा होती है। अत: इन सभी को इस हिंसा के लिये दोषी ठहराया जा सकता है और ठहराया जाना चाहिए। शासक दल, जो कि अधिकांश दंगों के समय कांग्रेस रही है, को हिंसा से अपेक्षित कड़ाई से न निपटने, कई मौकों पर हिंसा को नजरअंदाज करने और कभी-कभी हिंसा को भड़काने झ्र उदाहरणार्थ दिल्ली में झ्र का दोषी ठहराया जा सकता है। इस सिलसिले में पुलिस की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। ब्रिटिश राज में साम्प्रदायिक दंगों में पुलिस पूरी तरह तटस्थ रहती थी। परंतु आज वह दंगों में भाग लेती है। जैसा कि महाराष्ट्र के धुले में सन् 2012 में हुये दंगों से जाहिर है। यहाँ हिन्दू दंगाईयों की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि पुलिस ने खुद ही मुसलमानों पर गोली चालन कर कई निर्दोष व्यक्तियों की जान ले ली।
तो साम्प्रदायिक हिंसा के मसले पर हम भाजपा और कांग्रेस की तुलना किस रूप में कर सकते हैं? भाजपा, दरअसल, आरएसएस की राजनैतिक शाखा है। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार, अफवाहें फैलाने, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने, भड़काऊ भाषणबाजी और हिंसा करने का आरएसएस का कई दशकों का अनुभव है। उसने इस कौशल से अपने अनुषांगिक संगठनों और अपनी विभिन्न शाखाओं को भी लैस कर दिया है। गुजरात के कत्लेआम में संघ ने ये सभी भूमिकाएं निभाईं। परंतु बाकी दंगों में भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सत्ता में न रहने का अर्थ यह नहीं है कि आरएसएस ने दंगे भड़काने में प्रमुख भूमिका अदा नहीं की। यह तर्क कि चूंकि अधिकांश दंगे कांग्रेस के राज में हुये इसलिये दंगों के लिये कांग्रेस ही दोषी है, दरअसल, साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा कुटिलतापूर्वक गढ़े गये कई मिथकों में से एक है। यद्यपि साम्प्रदायिक हिंसा के संदर्भ में कांग्रेस का दामन पूरी तरह पाकसाफ नहीं है परंतु उसकी भूमिका की तुलना भाजपा की भूमिका से करना घोर अनुचित होगा। सिक्ख-विरोधी दंगों को छोड़कर, कांग्रेस ने कभी दंगे करवाने में केन्द्रीय भूमिका नहीं निभाई। हाँ, उसने अपने कर्तव्यपालन में कोताही अवश्य बरती। परंतु भाजपा की तो अधिकांश दंगे भड़काने में केन्द्रीय भूमिका रही है।
सन् 1984 के सिक्ख कत्लेआम में कांग्रेस की भूमिका उसकी बहुवादी व धर्मनिरपेक्ष विरासत पर एक बदनुमा दाग है। उसने इस दाग को मिटाने की काफी कोशिशें की हैं। कांग्रेस ने दंगों के लिये माफी माँगी है और उसकी सरकार का प्रधानमंत्री एक सिक्ख है, जो पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद सबसे लम्बे समय तक लगातार इस पद पर आसीन रहने वाले व्यक्ति है। भाजपा की किसी और पार्टी से इसलिये भी तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि भाजपा, आरएसएस की राजनैतिक संतान है और आरएसएस का लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र का निर्माण है। समाजविज्ञानियों ने कांग्रेस और भाजपा की राजनीति के बीच के विरोधाभास को स्पष्ट किया है।
एजाज अहमद कहते हैं कि जहाँ भाजपा का कार्यक्रम ही साम्प्रदायिक है वहीं कांग्रेस की साम्प्रदायिकता, अवसरवादी है। मुकुल केसवन ने अपने एक हालिया लेख में कहा कि कांग्रेस मूलत: बहुवादी और मौका पड़ने पर साम्प्रदायिक है जबकि भाजपा विचारधारा के स्तर पर साम्प्रदायिक और मौका पड़ने पर धर्मनिरपेक्ष है।
इस तथ्य के बावजूद कि साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे कई कारक होते हैं, दो गलत चीजें मिलकर एक सही नहीं बन सकतीं। कांग्रेस को ऊपर से नीचे तक व्यापक सुधार लाने होंगे ताकि साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पाया जा सके। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार का प्रभावी खण्डन होना चाहिए और कानूनों में इस तरह के परिवर्तन होने चाहिए की न केवल दंगाई बल्कि दंगों को रोकने के अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले अधिकारियों को भी सजा मिल सके। जहां तक आरएसएस और उसके साथियों का सवाल है, उनसे यह उम्मीद करना बेकार है कि वे साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पाने में देश की कोई मदद करेंगे।