Friday, July 26, 2013

लोकतांत्रिक तानाशाही की आहट


सलीम अख्तर सिद्दीकी
अब लगभग यह तय हो गया है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का दिल्ली फतह करना बहुत मुश्किल है। कांग्रेस से दो-दो हाथ करने से पहले मोदी को भाजपा में मौजूद अपने ही लोगों से लड़ना होगा। यानी एक महाभारत होगा, जिसमें यह तय करना मुश्किल होगा कि कौन कौरव हैं और कौन पांडव? यह भी तय नहीं है कि श्रीकृष्ण की भूमिका में कौन होगा? कह सकते हैं कि आरएसएस यह भूमिका निभा लेगा, लेकिन अभी तक तो लग रहा है कि वह भी इस समय बेबस है। हां, यह पक्का है कि बेबसी के आलम में भी वह नरेंद्र मोदी को अपनों से युद्ध करने की प्रेरणा देने से नहीं चूकेगा।
यह बहुत दिलचस्प है कि हिंदुत्व के पुराने योद्धा लालकृष्ण आडवाणी को उन नरेंद्र मोदी से लोहा लेना पड़ रहा है, जिन्हें उन्होंने कभी युद्ध के दांवपेंच सिखाए थे। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की यात्रा के दौरान लगाए गए पोस्टर और होर्डिंग्स से नरेंद्र मोदी की तस्वीर गायब होने के बाद शॉटगन कहे जाने वाले शत्रुघ्न सिन्हा के बाणों ने एक बार फिर यह साबित किया है कि भले ही भाजपा नेतृत्व यह दिखाने की कोशिश कर रहा हो कि मोदी पर सबकी ह्यसहमतिह्ण है, लेकिन गाहे-बगाहे ह्यअसहमतिह्ण का जिन्न बाहर आ ही जाता है। यदि कोई यह समझ रहा है कि लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ह्यमिशन प्रधानमंत्रीह्ण को ठंडे बस्ते में डाल दिया है, तो वह ख्वाबों की दुनिया में जी रहा है। मध्य प्रदेश में नरेंद्र मोदी का ह्यब्लैक आउटह्ण बहुत कुछ कह देता है। यह बताने की जरूरत भी नहीं है कि शिवराज सिंह चौहान को आडवाणी की शह है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा के जो नेता आज नमो-नमो करके उनके आगे पीछे घूम रहे हैं, वे ही भाजपा को 180-200 सीटें मिलने के बाद ह्यमीर जाफरह्ण और ह्यजयचंदह्ण के रूप में उनके सामने आ जाएं।
दरअसल, असली संकट तभी शुरू होगा, जब यह लगेगा कि भाजपा सरकार बना सकती है। तब भाजपा में प्रधानमंत्री के इतने दावेदार पैदा हो जाएंगे कि भाजपा का मातृ संगठन आरएसएस भी भौंचक्का होकर देखता रहेगा और उसको यह समझ में नहीं आएगस कि इस ह्यभाजपाई महाभारतह्ण पर कैसे रोक लगाई जाए। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह आज की तारीख में नरेंद्र मोदी में संभावनाएं देख रहे हैं, तो इसमें भी उनका अपना स्वार्थ है। वह जानते हैँ कि चुनाव के बाद हालात ऐसे बन सकते हैं कि नरेंद्र मोदी को ह्यमाइनसह्ण करने की शर्त पर राजग का कुनबा बढ़े और राजनाथ सिंह के भाग्य से छींका टूटे और वह इंद्रकुमार गुजराल और एचडी देवगौड़ा की तरह प्रधानमंत्री पद पर पहुंच जाएं। ऐसे ही जैसे, लालकृष्ण आडवाणी की मेहनत अटल बिहारी वाजपेयी ले उड़े थे, जिसकी टीस आज तक आडवाणी का सालती है। हालांकि ये सब बातें अभी दूर की कौड़ी कही जा सकती हैं। लेकिन इतना तो है कि भाजपा के नेता ही नरेंद्र मोदी को ह्यचक्रव्यूहह्ण में फांसने की कवायद कर रहे हैं। हालांकि भाजपा कार्यकतार्ओं में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हो चुके मोदी ने चक्रव्यूह में फंसने की नींव खुद ही रखी है। गुजरात में हैट्रिक लगाने के बाद वह खुद को ह्यअजेयह्ण समझने लगे हैं। इसी के चलते उन्होंने भाजपा को हाशिए पर डालकर खुद ही सब कुछ होने का भ्रम पाल लिया। उनका यह भ्रम तब और ज्यादा मजबूत हुआ, जब उन्होंने तमाम भाजपा नेताओं को किनारे लगाकर गुजरात का तीसरा चुनाव भी जीत लिया। इसी चक्कर में पार्टी में उनके दोस्त कम, दुश्मन ज्यादा पैदा हो गए हैं। शत्रुघ्न सिंहा का दर्द भी यही है कि भाजपा में सब कुछ मोदी ही होते जा रहे हैं और यह अकेले शॉटगन की पीड़ा नहीं है।
सोशल मीडिया में उनके चाहने वालों की बढ़ती तादाद ने भी उनके अंदर अहंकार का भाव जगाया है। सोशल मीडिया में उनके चाहने वाले कितने हैं, यह इससे पता चलता है कि एक अखबार की वेबसाइट पर जब उनके खिलाफ एक लेख प्रकाशित हुआ, तो उस पर दो सौ से ज्यादा कमेंट आए, जिनमें 99.9 प्रतिशत लेख के विरोध में थे। यानी अगर सोशल मीडिया को आधार माना जाए, तो नरेंद्र मोदी बहुमत से भी बहुत ज्यादा सीटें ले रहे हैं। हालांकि घर में बैठकर माउस चलाकर उनका समर्थन कर देना और मतदान केंद्रों पर घंटों लाइन में खड़ा होकर वोट देना दोनों अलग-अलग बातें हैं। असली फैसला तो मतदान केंद्रों पर ही होता है। मतदान केंद्रों पर जो लोग जाते हैं, वे क्षेत्रियता, जातिवाद और धर्म के आधार पर बंटे होते हैं। हिंदुत्व दोयम दर्जे की चीज हो जाती है। लेकिन आरएसएस को लगता है कि हिंदुत्व और गुजरात के विकास मॉडल को आगे करके भाजपा की झोली वोटों से भरी जा सकती है। आज की तारीख में विकास पुरुष का चेहरा लगाए हिंदुत्व का सबसे बड़ा पुरोधा नरेंद्र मोदी के अलावा पूरी भाजपा में कोई नहीं है। हालांकि हिंदुत्व का मुद्दा राख का वह ढेर है, जिसमें शोला तो क्या, चिंगारी भी नहीं बची है, जिसे भड़काकर शोला बनाया जा सके। राख में फूंक मारेंगे, तो वह उड़कर चेहरा ही खराब करेगी।
बहरहाल, शह और मात के इस खेल में कौन किसको मात देगा, यह तो चुनाव होने के बाद ही पता चलेगा, लेकिन भाजपा कार्यकतार्ओं में जिस तरह नरेंद्र मोदी के प्रति दीवानगी है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि चुनाव आते-आते भाजपा के कई बड़े नेताओं को हाशिए पर डाल दिया जाएगा और कुछ खुद किनारे हो जाएंगे। कुछ ऐसे भी होंगे, जो ह्यअपमानह्ण सहकर भी तेल की धार देखने के लिए रुके रहेंगे। हो सकता है कि 2014 का आगामी लोकसभा चुनाव सीधे प्रधानमंत्री चुनने सरीखा चुनाव बन जाए। नरेंद्र मोदी की रणनीति से तो अब तक यही लग रहा है कि वह ऐसा ही करना भी चाहते हैं। नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात का चुनाव मोदी ने अकेले अपने दम पर लड़ा था। भाजपा के कुछ क्षत्रपों ने अंदरुनी तौर पर, तो कुछ ने खुलेआम मोदी को शिकस्त देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या देश उस तानाशाही और बढ़ रहा है, जिस पर लोकतांत्रिक होने का लेबल चस्पा होगा, जैसा हम गुजरात में देख रहे हैं? इस आशंका से ही सिहरन होने लगती है।

Monday, July 15, 2013

कितना ताकतवर सोशल मीडिया?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
11 जुलाई को दिल्ली में प्रख्यात पत्रकार उदयन शर्मा की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में देश के कई जाने-माने पत्रकारों और केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने ‘क्या सोशल मीडिया देश का एजेंडा बदल रहा है?’ विषयक सेमिनार में पर अपने विचार रखते हुए सोशल मीडिया की ताकत को आंका। पत्रकार राजदीप देसाई का मानना था कि देश का एजेंडा सोशल मीडिया तो क्या कोई भी राजनीतिक दल तय नहीं कर सकता। देश का एजेंडा यहां की जनता तय करती है और करती करेगी। राजदीप देसाई की इस बात में दम था कि सोशल मीडिया पर अधिकतर देश का मध्यम वर्ग हावी है, जो इस हैसियत में नहीं है कि देश का एजेंडा तय कर सके। वह बहुत चंचल है। इसलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। उनकी इस राय से सभी को इत्तेफाक था। देसाई का कहना था कि सोशल मीडिया की ताकत को कुछ ज्यादा करके आंका जा रहा है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी सोशल मीडिया पर दो सौ करोड़, तो कांगे्रस सौ करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है। हालांकि मनीष तिवारी ने अपने विचार रखते हुए देसाई की इस बात का यह कहते हुए खंडन किया कि पता नहीं देसाई को किस स्रोत से ऐसी जानकारी है, लेकिन कम से कम कांग्रेस सोशल मीडिया पर सौ करोड़ तो क्या दो करोड़ रुपये भी खर्च करने का इरादा नहीं रखती।
बहरहाल, इसमें दो राय नहीं कि आज की तारीख में देश में ही नहीं, दुनिया में सोशल मीडिया ताकत बना है, लेकिन इतना नहीं कि वह देश का एजेंडा तय करने लगे। मिस्र की क्रांति और खाड़ी के अन्य देशों में हुए राजनीतिक बदलावों में सोशल मीडिया के योगदान का बहुत उदाहरण दिया जाता है। जो लोग मिस्र आदि का उदाहरण देते हैं, वे भूल जाते हैं कि भारत उन देशों से कई मामलों में अलग है। वे बहुत छोटे देश हैं। दूसरे, वहां का मीडिया इतना आजाद नहीं है। तीसरे, सोशल मीडिया की पहुंच अधिकांश लोगों तक है। इसलिए पूरी तरह से आजाद सोशल मीडिया वहां अपना असर दिखाता है। भारत में मीडिया पूरी तरह से आजाद है, शायद जरूरत से ज्यादा। भारत में अभी इंटरनेट की पहुंच एक चौथाई आबादी तक भी नहीं है। वह भी शहरों में बसती है, जहां हमारा अधिकांश मध्यम वर्ग निवास करता है। यही वजह है कि जब अन्ना का आंदोलन होता है, तो उसमें सोशल मीडिया अपनी भूमिका तो निभाता है, लेकिन उसका दायरा सीमित रहता है। उसमें भागीदारी भी मध्यम वर्ग की ही होती है। दिल्ली से बाहर उसकी धमक सुनाई नहीं देती। देश के अन्य शहरों में ‘जंतर मंतर’ नहीं बनते।
भारत में 15-20 करोड़ जो लोग तथाकथित रूप से सोशल मीडिया से जुड़े हैं, उनमें कई करोड़ तो ऐेसे होंगे, जिन्होंने अपना एकाउंट बनाने के बाद उसे अपडेट भी नहीं किया होगा। हजारों ब्लॉग ऐसे हैं, जो बना दिए गए, लेकिन उन पर एक भी पोस्ट नहीं डाली गई। यही हाल फेसबुक का भी है।  बच्चों ने फेसबुक पर अपने साथ ही अपने माता-पिता और दादा-दादी के भी एकाउंट बना दिए, जो नियमित रूप से संचालित नहीं होते। सिर्फ संख्या के आधार पर तय नहीं किया जा सकता कि सोशल मीडिया ताकतवर हो गया है। यह भी जरूरी नहीं कि सोशल मीडिया से जुड़ा हर आदमी राजनीतिक समझ रखता है या उसकी उसमें दिलचस्पी हो। हजारों ब्लॉगों में चंद ही ऐसे हैं, जिन पर राजनीतिक पोस्ट लिखी जाती हैं या उन पर बहस होती है। ज्यादातर ब्लॉग कविताओं और किस्से-कहानियों से भरे हुए हैं। यही हाल फेसबुक और ट्विटर का भी है। जब यह हाल है, तो पता नहीं यह कैसे कहा जा रहा है कि भारत में सोशल मीडिया बहुत ताकतवर हो गया है। हैरत की बात यह है कि देश की राजनीतिक पार्टियां भी सोशल मीडिया के पीछे इतनी दीवानी हो गर्इं कि उस पर सौ-दौ सौ करोड़ रुपये खर्च करने के लिए तैयार हैं? वैसे देखा जाए, तो भाजपा सोशल मीडिया के पीछे कुछ ज्यादा ही दीवानी है। इसकी शायद वजह यह है कि नरेंद्र मोदी हर समय सोशल मीडिया में छाए रहते हैं। उनके फॉलोवर भी ज्यादा संख्या में हैं। जब फेसबुक  पर कोई भाजपा या नरेंद्र मोदी के खिलाफ कुछ लिखता है, तो उसका विरोध करने वालों का तांता लग जाता है। यही हाल ब्लॉग और इंटरनेट न्यूज पोर्टलों और अखबारों की वेबसाइटों का भी है। ऐसा क्यों होता है? इसकी दो वजह हो सकती हैं। एक, सोशल साइटों पर हिंदुत्व मानसिकता के लोग हावी हैं, जो शहरी वर्ग से आते हैं और उसी मध्यम वर्ग का हिस्सा हैं, जिसकी पहुुंच सोशल मीडिया तक ज्यादा है। दो, यह बात सच है कि भाजपा सुनियोजित तरीके से उसका इस्तेमाल कर रही है।
भाजपा सोशल मीडिया के माध्यम से भ्रम फैलाने पर तुली है कि देश अब बदलाव चाहता है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि यह भ्रम उन्हीं लोगों में फैल रहा है, जो इसको फैला रहे हैं। सोशल मीडिया के बारे में अक्सर कहा भी जाता है कि इस पर लिखने और पढ़ने वाले एक ही हैं। भारतीय जनता पार्टी यह भूल रही है या इससे जानबूझकर अनजान बन रही है कि देश की 80 प्रतिशत आबादी आज भी गांवों में निवास करती है, जहां उसके फैलाए जा रहे भ्रम को देखने वाले बहुत कम लोग हैं और यही वे लोग हैं, जो देश का एजेंडा तय करते  हैं। अगर वह यह सोच रही है कि चंद करोड़ लोगों तक पहुंचकर वह देश का एजेंडा तय करेगी, तो वह भ्रम में है। मनीष तिवारी भले ही कहें कि कांग्रेस का सोशल मीडिया पर कुछ भी खर्च करने का इरादा नहीं है, लेकिन कांग्रेस भी इसे आज के दौर की ताकत मानकर चल रही है। कांग्रेस को समझ लेना चाहिए कि देश का एजेंडा देश की वह जनता तय करेगी, जो सोशल मीडिया से तो नहीं जुड़ी है, लेकिन सरकार से अपेक्षा रखती है कि वह उसकी उसकी समस्याओं को हल करेगी। फिलहाल तो देश की जनता इस पशोपेश में लगती है कि आखिर उसे अपनी समस्याओं से कब छुटकारा मिलेगा।
 हां, पारस्परिक विद्वेष और घृणा फैलाने के मामले में सोशल मीडिया जरूर ताकतवर बन गया है। इसकी बानगी हम पिछले साल उत्तर-पूर्व के लोगों के बारे में फैलाई गई अफवाह के परिणास्वरूप दक्षिण भारत से उत्तर-पूर्व के लोगों के पलायन में रूप में देख चुके हैं। सांप्रदायिक घृणा फैलाने में भी उसका योगदान रहा है। शायद यही वजह है कि सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी सोशल मीडिया को ‘नियंत्रण’ करने की तो नहीं, लेकिन उस पर ‘अंकुश’ लगाने की बात जरूर करते हैं। यह भी बहस का विषय है कि क्या सोशल मीडिया पर अंकुश लगना चाहिए

Sunday, July 7, 2013

चिता पर नहीं मजार पर मेले

डॉ. महर उद्दीन खां
शहीदों के मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

शहीद अशफाक उल्लाह खां की एक कविता की ये पंक्तियां काफी प्रसिद्ध हैं। जब भी शहीदों की चर्चा होती है, ये पंक्तियां लोगों की जुबां पर बरबस ही आ जाती हैं। अफसोस कि इन पंक्तियों को दोहराते समय ‘मजारों’ की जगह ‘चिता’ कर दिया जाता है और ‘जुड़ेंगे’ की जगह ‘लगेंगे’ कर दिया जाता है। क्रांतिकारी अशफाक उल्लाह खां को 19 दिसंबर 1927 को फैजाबाद जेल में फांसी हुई थी। कम लोग जानते हैं कि अशफाक अपने अजीज मित्र रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की तरह ही बहुत अच्छे शायर भी थे। 16 दिसंबर 1927 को उन्होंने देशवासियों के नाम एक खत लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए थे। बाद में पता नहीं कब और किसने इस कविता में संशोधन कर दिया। पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी द्वारा संपादित अशफाक उल्लाह खां की जीवनी में उन्होंने लिखा है-‘किसी मनचले हिन्दी प्रेमी ने ‘मजार’ की जगह ‘चिता’ बना दी। बिना यह ख्याल किए कि चिताओं पर मेले नहीं जुड़ा करते।’
एक सोची-समझी साजिश
जब ध्यान देते हैं, तो यह किसी मनचले हिन्दी पे्रमी की हरकत नहीं लगती, बल्कि एक सोची समझी योजना के चलते ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ किया गया है। अगर किसी एक की हरकत होती, तो इसका सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर इतने व्यापक पैमाने पर प्रचार नहीं होता कि हर व्यक्ति की जबान पर ‘चिता’ शब्द चढ़ जाता। हद तो यह है कि कई सरकारी अभिलेखों में भी ‘चिता’ लिखा जा रहा है। इतना ही नहीं विभिन्न शहरों में लगी शहीदों की प्रतिमाओं पर भी ‘चिता’ ही लिखा जा रहा है। गाजियाबाद में घंटाघर पर शहीद भगत सिंह की प्रतिमा लगी है, उस पर भी ‘चिता’ शब्द ही लिखा है। यह सब देखकर कहा जा सकता है कि इस कविता में ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ शब्द का प्रयोग संगठित तरीके से किया गया है। हमारे देश में एक वर्ग ऐसा है, जो हर मामले को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखता है। ‘मजार‘ के स्थान पर ‘चिता’ करना भी इसी वर्ग की कारस्तानी लगती है। चूंकि, ‘मजार’ शब्द से शहीद के मुसलमान होने का आभास होता है और ‘चिता’ से हिंदू होने का, इसलिए इस वर्ग ने अपनी अलगाववादी मानसिकता के चलते शहीदों को हिंदू-मुसलमान बना दिया। चिता के बारे में हम सभी जानते हैं कि उस पर अंतिम संस्कार के बाद अस्थियां चुनने की एक क्रिया होती है। उस के बाद चिता स्थल पर कोई नहीं जाता।
‘चिता पर नहीं मजार पर मेले’
हिंदी में मजार के लिए समाधि का प्रयोग किया जा सकता है, स्मारक भी चल सकता है, मगर स्मारक और समाधि से हिंदू-मुसलमान दोनों शहीदों का आभास होता है। इसलिए ऐसा लगता है कि एक सोची-समझी योजनानुसार और जानबूझ कर अशफाक की शायरी में ‘मजार’ की जगह पर ‘चिता’ शब्द का प्रयोग किया। चिता का संबंध केवल हिंदू से है, हिंदू के अलावा अन्य किसी भी धर्म में चिता पर अंतिम संस्कार नहीं किया जाता। ऐसा भी होता है कि जहां चिता जलती है, उसी के आसपास समाधि भी बना दी जाती है। राजघाट, शांतिवन, किसान घाट आदि ऐसे ही स्थल हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं। कई मामलों में ऐसा भी होता है कि चिता कहीं और जलती है और समाधि या स्मारक कहीं और बनाया जाता है। जगजीवन राम की चिता सासाराम, बिहार में जली, लेकिन उनका स्मारक दिल्ली में बनाया गया है। उनके चिता स्थल पर अंतिम संस्कार के बाद कोई नहीं गया होगा, लेकिन उनकी जन्म तिथि और पुण्य तिथि पर हर साल लोग उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करने समता स्थल पर जाते हैं। इस प्रकार ‘मेले’ ‘चिता’ पर नहीं समाधि पर ही लगते हंै।
शहीद अशफाक का अपमान
आज अनेक बुद्धिजीवी भी ‘मजार’ के स्थान पर बिना सोचे-समझे ‘चिता’ का ही प्रयाग करते हैं। क्या यह शहीद अशफाक उल्ला खां का अपमान नहीं है? ऐसे लोगों को एक शहीद की कविता में व्यक्त की गई भावनाओं में संशोधन का अधिकार किसने दिया? बहरहाल भले ही वे ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ लिखकर प्रसन्न होते रहें, मगर मेले तो मजारों पर ही जुटते रहे हैं और हमेशा जुटते भी रहेंगे। अब करना यह चाहिए कि हमें जहां भी किसी शहीद स्मारक पर ‘चिता’ लिखा हो, वहां स्थानीय प्रशासन से यह आग्रह किया जाए कि वे इस गलती को सुधारें। यही शहीद अशफाक उल्लाह खां को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
शहीद अशफाक उल्ला खां की
पूरी कविता
उरुजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा
रिहा सैयाद के हाथों अपना आशियां होगा।
चखाएंगे मजा बरबादी-ए-गुलशन का गुलचीं को,
बहार आएगी उस दिन जब अपना बागबां होगा।
जुदा मत हो मिरे पहलू से ये दर्दे वतन हरगिज,
न जाने बादे मुरदन मैं कहां और तू कहां होगा?
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है?
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तेहां होगा।
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ये खंजरे कातिल,
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा।
शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

संपर्क : Maheruddin.khan@gmail.com,                  मो. 09312076949
जनवाणी के 7 जुलाई के अंक में प्रकाशित