Saturday, June 19, 2010

भोपाल गैस त्रासदी और फैसले के बीच

सलीम अख्तर सिद्दीकी
भोपाल गैस त्रासदी जैसे भूले-बिसरे मौत के तांडव को एक फैसले ने इतनी शिद्दत से याद दिला दिया है कि इस की जद में आने से कोई नहीं बच सकता है। राजनैतिक पार्टियां, मीडिया और नौकरशाही भी कठघरे में खड़ा हो गयी है। पच्चीस साल का वक्फा कम नहीं होता। सब कुछ बदल गया है। यदि नहीं बदला तो गैस त्रासदी में मारे गए लोगों के परिजनो का दर्द और हताशा। सबसे बडे+ लोकतान्त्रिक देश का दम भरने वाले भारत में अनेकों सरकार आई और चली गयीं, लेकिन भोपाल गैस त्रासदी को सबने भुला दिया। पच्चीस साल बाद जब एक फैसले में भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदारों को महज दो-दो साल की सजा सुनाई जाती है तो चारों और विधवा विलाप शुरु हो जाता है। मीडिया बहुत ही बेशर्मी के साथ वॉरेन एण्डरसन पर हमलावर हो जाता है। अचानक मीडिया पता लगा लेता है कि एण्डरसन कैसे भागा ? उसको भागने में किसने मदद की ? भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी की अन्तरआत्मा भी जाग गयी। मीडिया ने वे पायलट भी ढूंढ निकाले, जो एण्डरसन को भोपाल से दिल्ली ले गए थे। यहां बहुत सारे ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब मीडिया, राजनैतिक दलों और नौकरशाहों को देना चाहिए। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि सब की जबान तभी क्यों खुल रही है, जब सब कुछ खत्म हो गया ? मीडिया के पास एण्डरसन के भागने वक्त का वह विजुअल भी मीडिया के हाथ अभी क्यों लगा ? पिछले पच्चीस सालों से जब हर दो दिसम्बर को गैस पीड़ित अपने-अपने तरीके से इंसाफ की गुहार लगाने सड़कों पर आते थे, तब किसी की आंख क्यों नहीं खुली ? यदि उस वक्त के नौकरशाहों ने सरकारों के इशारे पर एण्डरसन को भगाया तो यह मानना ही पड़ेगा कि नौकरशाह सरकार के गुलाम ज्यादा है, जनता के हितेषी कम हैं। भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदार लोग नेताओं और सरकार के जरखरीद गुलाम नौकरशाहों की वजह से कम सजा पाने से बच गए। अब खबर आयी है कि सरकार गैस पीड़ितों को भारी मुअवाजा देने का इरादा कर रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार गैस पीड़ितों की वास्तव में मदद करेगी।
2 दिसम्बर 1984 और 7 जून 2010 के बीच बहुत कुछ घटा। कई सरकारें आईं। जब भोपाल गैस त्रासदी हुई थी तो उस वक्त इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश नाजुक दौर से गुजर रहा था। लोकसभा के चुनाव घोषित हो चुके थे। चुनाव प्रचार चल रहा था। इसी प्रचार के दौरान एण्डरसन को भगाया गया। इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति को वोट में तब्दील करने की कोशिश हुई, जो कामयाब रही। कांग्रेस को 425 सीटें हासिल हुईं। राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी को खयाल नहीं रहा कि भोपाल के लोगों का हत्यारा देश को छोड़कर भाग गया है। 1986 में देश में राम मंदिर और बाबरी मस्जिद का बखेड़ा शुरु हो गया। मंदिर और मस्जिद की बात करने वालों को गैस से मरने वाले हजारों लोगों की लाशें नजर नहीं आईं बल्कि और ज्यादा लाशें बिछाने में मशगूल हो गए। इसी दौरान देश पर बोफार्स तोप दलाली का भूत सवार हो गया। विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस से अलग होकर कांग्रेस को जड़ से उखाड़ फेंकने की मुहिम में जुट गए। वह हर सभा में कहते थे कि बौफोर्स तोप में दलाली खाने वालों के नाम की लिस्ट मेरी जेब में पड़ी है, वक्त आने पर देश को बताउंगा। वीपी सिंह प्रधानंत्री बन गए। लेकिन बौफोर्स तोप में दलाली खाने वालों के नाम सामने नहीं आए। वीपी सिंह को भी, जिन्हें गरीबों का मसीहा कहा जाता था, भोपाल के गैस पीड़ित याद नहीं आए। भाजपा ने देश को राममंदिर के नाम पर आग में झोंक दिया। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दीवार खड़ी करने का काम किया। राम के नाम पर सत्ता का सुख भोगा। भोपाल गैस पीड़ितों को भाजपा ने भी भुला दिया। जानते हैं ऐसा क्यों हुआ। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भोपाल गैस त्रासदी में मरने वाले गरीब-गुरबे लोग थे। उनकी लाशों पर राजनीति करने से वोट नहीं मिल सकते थे। उस वक्त इंदिरा गांधी की हत्या में वोट थे। बौफोर्स तोप दलाली में वोट थे। राममंदिर और बाबरी मस्जिद में वोट थे। इसलिए भोपाल गैस से मरने वालों की चीत्कारों का असर किसी पर भी नहीं हुआ था।
अब इस बात पर आते हैं कि क्या भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोगों को ही इस देश में इंसाफ नहीं मिला है ? जरा दिमाग पर जोर देकर सोचिए कि लगभग पच्चीस साल पहले ही हुए अनेक सामूहिक नरसंहारों के शिकार लोगों को कितना इंसाफ मिला है ? यह भी याद रखिए कि देश में हुए सामूहिक नरसंहारों के दोषी एण्डरसन की तरह विदेशी नहीं थे, यहीं के लोग थे और एण्डरसन की तरह भागे भी नहीं है, बल्कि देश में ही रह कर शासक रह चुके हैं और आज भी हैं। सामूहिक नरसंहारों को भी नेताओं के इशारे पर उन नौकरशाहों की देख-रेख में किया गया था, जिन नौकरशाहों ने एण्डरसन को भगाने में मदद की थी। जब भोपाल गैस त्रासदी हुई थी तो उससे ठीक एक महीना पहले इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में सिखों का कत्लेआम किया गया था। क्या आज तक इंसाफ मिला ? कत्लेआम को आयोग-दर-आयोग बैठाकर भुला दिया गया। राम मंदिर आंदोलन के बहाने पूरे देश में कई सामूहिक नरसंहार हुए, आयोग बैठे। नतीजा सिफर। मलियाना, हाशिमपुरा, कानपुर, मुंबई, भागलपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़ और भिवंडी। कहां तक नाम लें। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया। उसके अपराधी तो देश पर छह साल तक देश पर शासन ही करके चले गए। सत्रह साल बाद लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट आयी। क्या हुआ ? कुछ दिन बहस हुई और फिर सब कुछ शांत हो गया। फरवरी 2002 में गुजरात में जो हुआ, वह तो इतना हौलनाक था कि सोच कर भी रुह कांप जाए। जब कातिल ही मुंसिफ हो तो इंसाफ की उम्मीद कैसे की जाए ? मुंबई दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट को डस्टबिन में डाल दिया गया। गुजरात दंगों की जांच कई आयोग कर चुके हैं लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। दरअसल, सामूहिक नरसंहारों के दोषियों को सजा मिले यह कोई नहीं चाहता। सरकार भी नहीं और न्याय पालिका भी नहीं। मामले को लम्बा लटका कर भुलाने की कोशिश की जाती है। कोशिश कामयाब भी हो जाती है। इससे पहले कि किसी सामूहिक नरसंहार के दोषियों को अदालतें बाइज्जत बरी कर दें, मीडिया को इधर भी ध्यान देना चाहिए। वैसे मीडिया तभी हाय-तौबा मचाता है, जब कुछ ऐसा हो जाए, जिससे उसकी टीआरपी बढ़े।

Wednesday, June 16, 2010

कब तक केवल मुसलमान पकड़े जाते रहेंगे?

शेष नारायण सिंह
पुणे की जर्मन बेकरी के विस्फोट के मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने मुंह की खाई है। राज्य के पुलिस महानिदेशक डी शिवनंदन ने बयान दे दिया है कि जर्मन बेकरी केस में पुलिस का काम बिलकुल गलत ढर्रे पर चल रहा था और अब तक जो कुछ भी जांच हुई है, उसका केस से कोई मतलब नहीं है। जांच फिर से करनी होगी। जांच का काम एटीएस को दिया गया था। राज्य के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी ने ऐलानिया कहा है कि अब तक की जांच को कूड़ेदान के हवाले करके नये सिरे से तफ्तीश होगी। उन्होंने अखबार वालों को बताया कि एटीएस को केस का ठीक से अध्ययन करना पड़ेगा, वैज्ञानिक तरीके से सबूत हटाना पड़ेगा और तब उन लोगों के पहचान करनी पड़ेगी जो जर्मन बेकरी कांड के लिए वास्तव में जिम्मेदार हैं। यानी अब तक पुलिस ने जो भी किया, उसमें पेशागत ईमानदारी बिलकुल नहीं है। इस बात की जांच की जानी चाहिए कि जिन लोगों को भी पुलिस ने पकड़ रखा था, उनके खिलाफ केस क्यों बनाया गया।
वैसे भी महाराष्ट्र पुलिस आजकल तरह तरह के गैरकानूनी काम के सिलसिले में खबरों में है। उनके एक इंसपेक्टर को गिरफ्तार किया गया है क्योंकि उसने सुपारी लेकर एक बिल्डर को जान से मारने की कोशिश की थी। ऐसे और भी बहुत से मामले सामने आ चुके हैं, जिसमें पुलिस के तथाकथित इनकाउंटर स्पेशलिस्टों ने निरीह लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। जर्मन बेकरी का मामला थोड़ा पेचीदा है। जिस आदमी के बारे में सर्वोच्च पुलिस अधिकारी ने बताया है कि उसके खिलाफ कोई मामला नहीं है, जब उसे एटीएस वालों ने पकड़ा था तो क्या माहौल था, उस पर नजर डाल लेने से पुलिस की मानसिकता ठीक से समझ में आ जाएगी।
पुणे की जर्मन बेकरी में करीब 4 महीने पहले हुए धमाके में 17 लोग मारे गये थे। पुलिस ने अब्दुल समद उर्फ भटकल नाम के एक आदमी को 24 मई को कर्नाटक से गिरफ्तार किया था। बताया गया कि समद इंडियन मुजाहिदीन के सदस्य यासीन भटकल नाम के आदमी का भाई है। तो क्या पुलिस किसी प्रतिबंधित संगठन के सदस्य के भाई को बिना किसी बुनियाद के गिरफ्तार करने के लिए आजाद है? अब्दुल समद की गिरफ्तारी के बाद तो माहौल ही बदल गया। पुलिस ने दावा किया कि जर्मन बेकरी में लगे क्लोज सर्किट टीवी की तस्वीरें देखने के बाद यह गिरफ्तारी हुई थी और वास्तव में जो आदमी बेकरी के अंदर बम रख रहा था, वह भटकल ही है और उसे गिरफ्तार करके एटीएस वालों ने बड़ी वाहवाही बटोरी थी। हद तो तब हो गयी जब केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने महाराष्ट्र एटीएस को सार्वजनिक रूप से बधाई दी और कहा कि समद जर्मन बेकरी धमाके का एक प्रमुख संदिग्ध है और उसको पकड़ कर पुलिस ने बहुत बड़ा काम किया है। आज जब पुलिस ने खुद यह स्वीकार कर लिया है कि उसके खिलाफ कोई केस नहीं है, तो समद के नागरिक अधिकारों का मलीदा बनाने वालों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए?
किसी भी आतंकवादी मामले में किसी भी मुसलमान को पकड़ लेने की पुलिस की मानसिकता का इलाज किये जाने की जरूरत है। समद को गलत तरीके से हिरासत में ले लेने का यह कोई इकलौता मामला नहीं है। मुंबई में ही ऐसे कई नौजवान बंद हैं, जनके ऊपर पोटा का केस बनाकर पुलिस ने पकड़ लिया था लेकिन बाद में पता चला कि उन पर कोई मामला ही नहीं था। इन हालात को दुरुस्त करने की जरूरत है। जब से गुजरात में नरेंद्र मोदी का राज आया है, वहां की पुलिस अपने राजनीतिक आका को खुश करने के लिए किसी भी मुसलमान को पकड़ लेती है और उसे प्रताड़ना देकर छोड़ देती है। गुजरात पुलिस ने मुंबई की लड़की इशरत जहां को भी इसी तरह के मामले में पकड़ा था और बाद में फर्जी मुठभेड़ दिखा कर मारा डाला था। उसी मामले में पुलिस वाले आजकल जेल की हवा खा रहे हैं। लेकिन वह तब संभव हुआ, जब मामला सुप्रीम कोर्ट तक पंहुचा।
जरूरत इस बात की है कि शक की बिना पर लोगों को गिरफ्तार करने की पुलिस की ताकत की कानूनी समीक्षा की जाए। वरना मुंबई और गुजरात की जेलों में ऐसे सैकड़ों मुसलमान बंद हैं, जिनके ऊपर जो दफाएं लगायी गयी हैं, उनमें कहीं तीन साल, तो कहीं सात साल की सजा होती है लेकिन ये लड़के पिछले 8-10 सालों से बंद हैं और बाद में उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया जाएगा। यह न्याय व्यवस्था की एक बड़ी कमी है और इस पर फौरन सिविल सोसाइटी, मीडिया और राजनीतिक बिरादरी की नजर पड़नी चाहिए और अंग्रेजों के वक्त की नजरबंदी की पुलिस की ताकत को कम करके देश को एक सभ्य प्रशासन देने की कोशिश करनी चाहिए।
(शेष नारायण सिंह। मूलतः इतिहास के विद्यार्थी। पत्रकार। प्रिंट, रेडियो और टेलिविज़न में काम किया। 1992 से अब तक तेज़ी से बदल रहे राजनीतिक व्यवहार पर अध्ययन करने के साथ साथ विभिन्न मीडिया संस्थानों में नौकरी की। महात्‍मा गांधी पर काम किया। अब स्‍वतंत्र रूप से लिखने-पढ़ने के काम में लगे हैं। उनसे sheshji@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

Wednesday, June 9, 2010

फतवों को दरकिनार करता मुस्लिम युवा

सलीम अख्तर सिद्दीकी
इस्लाम में फतवे की बहुत मान्यता है। फतवा मुफ्ती से तब मांगा जाता है, जब कोई ऐसा मसला आ जाए जिसका हल कुरआन और हदीस की रोशनी में किया जाना हो। लेकिन पिछले कुछ सालों में ऐसा हुआ है कि फतवों की बाढ़ आ गयी है। इससे एक तो इस्लाम के बारे में गलतफहमियां पैदा हो रही हैं, दूसरे फतवे बेअसर होते जा रहे हैं। दिक्कत यह भी आ रही है कि जब से फतवा ऑन लाइन दिया जाने लगा है, तब से मीडिया का एक वर्ग खबरें क्रिएट करने की नीयत से फतवा मांगता है और फिर उस पर एक बहस चलाता है। ऑन लाइन फतवा देने वाले मुफ्ती को यह पता नहीं चल पाता कि फतवा मांगने वाला दरअसल कोन है ? फतवा मांगने के पीछे उसकी नीयत क्या है ? मसला किस तरह का है ? उसके पीछे जमीनी हकीकत क्या है ? ताजा उदाहरण सहारनपुर का है। सहारनपुर की देवी बालासुदंरी मंदिर मेला कमेटी में एक मुस्लिम प्रतिनिधि भी रखा गया है। इस पर यहां के एक एडवोकेट राघवेन्द्र कंसल ने दारुल उलूम देवबंद के मुफ्तियों से एक लिखित सवाल में यह पूछा कि क्या देवी बालासुंदरी मंदिर कमेटी में किसी मुस्लिम का प्रतिनिधि होना शरई ऐतबार से जायज है अथवा नाजायज ? यहां सवाल पूछने वाले की नीयत का पता चलता हैं। यदि इस सवाल पर दारुल उलूम कुछ भी राय देता, विवाद होना तय बात थी। यह तो अच्छा हुआ कि मुफ्तियों ने इसका जवाब यह कह कर नहीं दिया कि इस तरह का सवाल सम्बन्धित आदमी को ही पूछना चाहिए। इस सवाल पर अपनी राय देने से बचना यह दर्शाता है कि पिछले दिनों कुछ फतवों पर विवाद होने के बाद दारुल उलूम देवबंद ने फतवे देने में एहतियात बरतना शुरु कर दिया है।
अभी पिछले कुछ दिन पहले कुछ ऐसे फतवे आए हैं, जिससे यह संदेश गया है कि इस्लाम में औरतों को कतई आजादी नहीं है। यहां तक कि वह अपने भरण-पोषण के लिए बाहर काम नहीं कर सकती है। एक फतवे में कहा गया है कि मुस्लिम औरतों को मर्दो के साथ काम नहीं करना चाहिए और न ही अपने साथ काम करने वाले पुरुषों से बातचीत करनी चाहिए। सवाल यह है कि जिस औरत के घर में कोई मर्द कमाने वाला न हो तो वह औरत क्या करे ? क्या अपने आप को और अपने बच्चों को भूखा रखे ? यदि उसे काम ही ऐसी जगह मिले जहां पुरुष भी काम करते हों तो वह उसकी मजबूरी है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मुसलमानों में कोई ऐसा संगठन है, जो बेसहारा औरतों के भरण-पोषण के लिए फंड रखता हो ? जब हमारे पास बेसहारा औरतों के परिवार के भरण-पोषण के लिए कोई व्यवस्था नहीं है तो फिर हम किस तरह से किसी मुस्लिम औरत को काम करने से रोक सकते हैं ? यदि परिवार की कोई औरत इतनी काबिल है कि वह कहीं नौकरी कर सके तो इसमें भी क्यों किसी को आपत्ति होनी चाहिए ? मंहगाई के इस दौर में लोगों को खर्च चलाना भारी पड़ रहा है। यदि कोई औरत अपने परिवार की आर्थिक जरुरतों को पूरा करने के लिए बाहर बाहर नौकरी करने जाती है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। इस्लाम आदमी को जिन्दा रहने का पूरा हक देता है। कहा गया है कि यदि रसद पहुंचने के सभी रास्ते बंद हो जाएं तो जिन्दा रहने के लिए हराम समझी जाने वाली चीज को भी खाया जा सकता है। यहां तो पुरुषों के साथ काम करने की ही बात है।
एक फतवे में कहा गया कि मुसलमानों को बैंक की नौकरी नहीं करनी चाहिए। एक और फतवे में कहा गया कि मुसलमानों को शराब से सम्बन्धित विभागों में काम नहीं करना चाहिए। इस तरह कि फतवे देकर पता नहीं हमारे मुफ्ती और उलेमा क्या संदेश देना चाहते हैं। एक तो वैसे ही मुसलमानों के पास रोजगार के अवसर नहीं है, दूसरे उस पर यह पाबंदी भी लगा दो कि यहां नौकरी मत करो वहां नौकरी मत करो। कभी कहते हैं कि तस्वीर मत खिंचवाओ। टीवी मत देखो। इंटरनेट से दूर रहो। मजे की बात यह है कि यही उलेमा और मुफ्ती इंटरनेट पर फतवे जारी करते हैं। टीवी चैनलों पर बैठकर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। लेकिन आम मुसलमान को इन सब चीजों से दूर रहने की हिदायत देते हैं। यह तो कहा जा सकता है कि टीवी पर अच्छी चीजें देखिए। इंटरनेट से अच्छी जानकारियां हासिल कीजिए। यह ठीक है कि फिल्म, टीवी और इंटरनेट से बेहयाई और बेशर्मी फैली है। लेकिन इन चीजों से फायदे भी तो नुकसान से ज्यादा हैं। एक चाकू आदमी की अहम जरुरत है। लेकिन कुछ लोग उसी चाकू से किसी की जान भी ले लेते हैं। लेकिन क्या चाकू बनाना बन्द कर देना चाहिए ? वक्त के साथ-साथ बदलाव आते हैं। यह अलग बात है कि पिछले बीस सालों में बहुत तेजी के साथ बदलाव हुए है। दिक्कत यही है कि बदलाव के साथ समाज बदलने को तैयार नहीं है। यदि हमारे उलेमा और तथाकथित खाप पंचायतें यह सोचती हैं कि कई सौ साल पहले की सोच, रीति-रिवाज और परम्पराएं आज भी लागू करवा सकते हैं तो वह गलत सोचते हैं। आज का मुस्लिम युवा फतवों से ज्यादा अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ज्यादा ध्यान दे रहा। दिल्ली के कुछ युवाओं ने जिसमें युवतियां भी शामिल हैं, एक साप्ताहिक अखबार से बातचीत में फतवों को तरक्की की राह में रोड़ा बताते हुए दरकिनार कर दिया है। यह अच्छा हो रहा है कि आज का मुस्लिम युवा फतवों को दरकिनार करके जमाने के साथ चलने की कोशिश कर रहा है। कभी-कभी तो लगता है कि हमारे मुफ्तियों को क्योंकि रोजगार की चिंता नहीं है, इसलिए वे एसी कमरों में बैठकर इस तरह के फतवे जारी कर देते हैं, जो जमीनी हकीकत से कोसों दूर होते हैं। जिनका आज के जमाने में कोई औचित्य नहीं है। आज मुसलमानों को फतवों की नहीं, शिक्षा की जरुरत है। रोजगार की जरुरत है।

Monday, June 7, 2010

गुजरात में मुसलमान का जिंदा रहना उतना ही मुश्किल है जितना कि पाकिस्तान में हिन्दू का

शेष नारायण सिंह

गुजरात में एक दलित नेता और उनकी पत्नी को पकड़ लिया गया है . पुलिस की कहानी में बताया गया है कि वे दोनों नक्सलवादी हैं और उनसे राज्य के अमन चैन को ख़तरा है . शंकर नाम के यह व्यक्ति मूलतः आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं लेकिन अब वर्षों से गुजरात को ही अपना घर बना लिया है . गुजरात में साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो चंद आवाजें बच गयी हैं , वे भी उसी में शामिल हैं. विरोधियों को परेशान करने की सरकारी नीति के खिलाफ वे विरोध कर रहे हैं और लोगों को एक जुट करने की कोशिश कर रहे हैं .उनकी पत्नी, हंसाबेन भी इला भट के संगठन सेवा में काम करती हैं , वे गुजराती मूल की हैं लेकिन उनको गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस ने जो कहानी दी है ,उसके अनुसार वे अपने पति के साथ आंध्र प्रदेश से ही आई हैं और वहीं से नक्सलवाद की ट्रेनिंग लेकर आई हैं . ज़ाहिर है पुलिस ने सिविल सोसाइटी के इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने के पहले होम वर्क नहीं किया था. इसके पहले डांग्स जिले के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ,अविनाश कुलकर्णी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था . किसी को कुछ पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन वे अभी तक जेल में ही हैं .गुजरात में सक्रिय सभी मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को चुप कराने की गुजरात पुलिस की नीति पर काम शुरू हो चुका है और आने वाले वक़्त में किसी को भी नक्सलवादी बता कर धर लिया जाएगा और उसक अभी वही हाल होगा जो पिछले १० साल से गुजराती मुसलमानों का हो रहा है .नक्सलवादी बता कर किसी को पकड़ लेना बहुत आसान होता है क्योंकि किसी भी पढ़े लिखे आदमी के घर में मार्क्सवाद की एकाध किताब तो मिल ही जायेगी. और मोदी क एपुलिस वालों के लिए इतना ही काफी है . वैसे भी मुसलमानों को पूरी तरह से चुप करा देने के बाद , राज्य में मोदी का विरोध करने वाले कुछ मानवाधिकार संगठन ही बचे हैं . अगर उनको भी दमन का शिकार बना कर निष्क्रिय कर दिया गया तो उनकी बिरादराना राजनीतिक पार्टी , राष्ट्रवादी सोशलिस्ट पार्टी और उसके नेता , एडोल्फ हिटलर की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री का भी अपने राज्य में एकछत्र निरंकुश राज कायम हो जाएगा .अहमदाबाद में जारी के बयान में मानवाधिकार संस्था,दर्शन के निदेशक हीरेन गाँधी ने कहा है कि 'गुजरात सरकार और उसकी पुलिस विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने के उद्देश्य से मानवाधिकार संगठनो , दलितों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी के अन्य कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बताकर पकड़ रही है ' लेकिन विरोध के स्वर भी अभी दबने वाले नहीं है . शहर के एक मोहल्ले गोमतीपुर में पुलिस का सबसे ज़्यादा आतंक है, . वहां के लोगों ने तय किया है कि अपने घरों के सामने बोर्ड लगा देंगें जिसमें लिखा होगा कि उस घर में रहने वाले लोग नक्सलवादी हैं और पुलिस के सामने ऐसी हालात पैदा की जायेगीं कि वे लोगों को गिरफ्तार करें . ज़ाहिर है इस तरीके से जेलों में ज्यादा से ज्यादा लोग बंद होंगें और मोदी की दमनकारी नीतियों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया जाएगा.वैसे भी अगर सभ्य समाज के लोग बर्बरता के खिलाफ लामबंद नहीं हुए तो बहुत देर हो चुकी होगी और कम से कम गुजरात में तो हिटलरी जनतंत्र का स्वाद जनता को चखना ही पड़ जाएगा. वैसे गुजरात में अब मुसलमानों में कोई अशांति नहीं है , सब अमन चैन से हैं . गुजरात के कई मुसलमानों से सूरत और वड़ोदरा में बात करने का मौक़ा लगा . सब ने बताया कि अब बिलकुल शान्ति है , कहीं किसी तरह के दंगे की कोई आशंका नहीं है . उन लोगों का कहना था कि शान्ति के माहौल में कारोबार भी ठीक तरह से होता है और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही बाकी सुरक्षा आती है.बड़ा अच्छा लगा कि चलो १० साल बाद गुजरात में ऐसी शान्ति आई है .लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि जो कुछ मैं सुन रहा था वह सच्चाई नहीं थी. वही लोग जो ग्रुप में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे , जब अलग से मिले तो बताया कि हालात बहुत खराब हैं . गुजरात में मुसलमान का जिंदा रहना उतना ही मुश्किल है जितना कि पाकिस्तान में हिन्दू का . गुजरात के शहरों के ज़्यादातर मुहल्लों में पुलिस ने कुछ मुसलमानों को मुखबिर बना रखा है , पता नहीं चलता कि कौन मुखबिर है और कौन नहीं है . अगर पुलिस या सरकार के खिलाफ कहीं कुछ कह दिया गया तो अगले ही दिन पुलिस का अत्याचार शुरू हो जाता है. मोदी के इस आतंक को देख कर समझ में आया कि अपने राजनीतिक पूर्वजों की लाइन को कितनी खूबी से वे लागू कर रहे हैं . लेकिन यह सफलता उन्हें एक दिन में नहीं मिली . इसके लिए वे पिछले दस वर्षों से काम कर रहे हैं . गोधरा में हुए ट्रेन हादसे के बहाने मुसलमानों को हलाल करना इसी रणनीति का हिस्सा था . उसके बाद मुसलमानों को फर्जी इनकाउंटर में मारा गया, इशरत जहां और शोहराबुद्दीन की हत्या इस योजना का उदाहरण है . उसके बाद मुस्लिम बस्तियों में उन लड़कों को पकड़ लिया जाता था जिनके ऊपर कभी कोई मामूली आपराधिक मामला दर्ज किया गया हो . पाकेटमारी, दफा १५१ , चोरी आदि अपराधों के रिकार्ड वाले लोगों को पुलिस वाले पकड़ कर ले जाते थे , उन्हें गिरफ्तार नहीं दिखाते थे, किसी प्राइवेट फार्म हाउस में ले जा कर प्रताड़ित करते थे और अपंग बनाकर उनके मुहल्लों में छोड़ देते थे . पड़ोसियों में दहशत फैल जाती थी और मुसलमानों को चुप रहने के लिए बहाना मिल जाता था .लोग कहते थे कि हमारा बच्चा तो कभी किसी केस में पकड़ा नहीं गया इसलिए उसे कोई ख़तरा नहीं था . ज़ाहिर है इन लोगों ने अपने पड़ोसियों की मदद नहीं की ..इसके बाद पुलिस ने अपने खेल का नया चरण शुरू किया . इस चरण में मुस्लिम मुहल्लों से उन लड़कों को पकड़ा जाता था जिनके खिलाफ कभी कोई मामला न दर्ज किया गया हो . उनको भी उसी तरह से प्रताड़ित करके छोड़ दिया जाता था . इस अभियान की सफलता के बाद राज्य के मुसलमानों में पूरी तरह से दहशत पैदा की जा सकी. और अब गुजरात का कोई मुसलमान मोदी या उनकी सरकार के खिलाफ नहीं बोलता ..डर के मारे सभी नरेन्द्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं. अब राज्य में विरोध का स्वर कहीं नहीं है . कांग्रेस नाम की पार्टी के लोग पहले से ही निष्क्रिय हैं . वैसे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि विपक्ष का अभिनय करने के लिए उनकी ज़रूरत है .यह मानवाधिकार संगठन वाले आज के मोदी के लिए एक मामूली चुनौती हैं और अब उनको भी नक्सलवादी बताकर दुरुस्त कर दिया जाएगा. फिर मोदी को किसी से कोई ख़तरा नहीं रह जाएगा. हमारी राजनीति और लोकशाही के लिए यह बहुत ही खतरनाक संकेत हैं क्योंकि मोदी की मौजूदा पार्टी बी जे पी ने अपने बाकी मुख्यमंत्रियों को भी सलाह दी है कि नरेन्द्र मोदी की तरह ही राज काज चलाना उनके हित में होगा

Friday, June 4, 2010

राजनीति का घिनोना चेहरा दिखाती है 'राजनीति'

सलीम अख्तर सिद्दीकी
सत्ता हासिल करने के लिए क्या कुछ नहीं होता, इसे देखने के लिए प्रकाश झा की 'राजनीति' जरुर देखनी चाहिए। सत्ता हासिल करने के लिए घात-प्रतिघात और विश्वासघात का घिनौना खेल कैसे खेला जाता है, इसकी बानगी 'राजनीति' में देखी जा सकती है। फिल्म यह भी बताती है कि कैसे परिवार पर आधारित राजनैतिक दल केवल परिवार के बपौती बनकर रह जाते हैं। परिवार के लोग सत्ता हथियाने के लिए एक दूसरे का खून बहाने से भी गुरेज नहीं करते। फिल्म को रोचक बनाने के लिए फिल्म में कुछ घटनाएं ऐसी दिखयी गयी हैं, जिन्हें दिल और दिमाग मानने के लिए तैयार नहीं होता। लेकिन प्रकाश झा यह बताने में कामयाब रहे हैं कि राजनीतिज्ञों के दिलों में आम आदमी केवल वोट अलावा कुछ नहीं है। सत्ता के आगे भावनाएं गौण हो जाती हैं। तभी तो एक अरबपति बाप पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए पैसा देने के एवज में अपनी लड़की की शादी उस लड़के से करता है, जिसे प्रदेश का भावी मुख्यमंत्री माना जाता है। लड़की किसे अपना जीवन साथी बनाना चाहती है, बाप के लिए इसकी अहमियत नहीं है। फिल्म यह भी बताती है कि टिकट ही नहीं बिकते है, बल्कि चुनाव जीत ती दिखने वाली पार्टी से गठबंधन करने वाली पार्टी को कुछ सीटें लेने के लिए भी पैसा देना पड़ता है। फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि हालात उस आदमी को सत्ता के शीर्ष पर ले जाते हैं, जिसने कभी राजनीति में आने की सोची भी नहीं थी। यहां प्रकाश झा ने उन हालात को क्रियेट किया, जिन हालात के तहत इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बन गए थे।
फिल्म के प्रोमो में दिखाया जा रहा वह सीन, जिसमें कैटरीना कैफ सोनिया गांधी स्टाइल में भाषण देती है, फिल्म के अंत में केवल दो मिनट का है। यह अच्छी बात रही कि फिल्म में गाने नहीं है, वरना फिल्म की गति में बाधा आती। इसमे कोई शक नहीं कि फिल्म के प्रत्येक फ्रेम में प्रकाश झा की मेहनत झलकती है। बात अगर करें फिल्म के कलाकारों की तो इतना ही कहा जा सकता है कि नसीरुद्दीन शाह, मनोज वाजपेयी, नाना पाटेकर, अर्जुन रामपाल, अजय देवगन जैसे मंझे हुए कलाकारों ने फिल्म को शानदार बना दिया है। प्रकाश झा का निर्देशन कमाल का है। कैटरीना कैफ दिन प्रतिदिन अदाकारी के नए आयाम बना रही हैं। रणबीर कपूर ने भी अपने किरदार के साथ न्याय किया है। सिर्फ एक बात की खलिश आखिर तक रही। नसीरुद्दीन शाह को बहुत छोटा से किरदार दिया गया है, वह भी फिल्म की शुरुआत में। हॉल में देर से पहुंचने वाले दर्शकों को तो उनका रोल देखने को ही नहीं मिला। दर्शक फिल्म के अंत तक नसीरुद्दीन शाह की रि-एन्ट्री का इंतजार ही करते रहे।
जब मैं अपने मित्र धर्मवीर कटोच के साथ फिल्म देखने निकला था तो मैंने कहा था कि देख लेना हॉल में बीस-पच्चीस से ज्यादा दर्शक नहीं होगे। लेकिन मैं गलत साबित हुआ। पहला शो ही हाउसफुल गया। और जब दर्शक फिल्म देखकर हॉल से बाहर निकले तो सबके चेहरे बता रहे थे कि उनके पैसे जाया नहीं हुए। एक खास बात और थी, दर्शकों में उनकी संख्या ज्यादा थी, जो परिपक्व थे। मल्टीप्लेक्सों में हाथ में हाथ डाले फिल्म देखने जाने वाले लड़के-लड़कियों की संख्या नगण्य थी। इससे पता चलता है कि उन लोगों की संख्या भी बहुत ज्यादा है, जो गम्भीर फिल्म देखना पसंद करते हैं।