Tuesday, May 25, 2010

26/11 और मलियाना-हाशिमपुरा नरसंहार का अन्तर

सलीम अख्तर सिद्दीकी
26/11 यानि मुंबई पर देश का सबसे बड़ा आतंकी हमला। एक आतंकवादी अजमल कसाब जिन्दा बचा था। मुकदमा चला और डेढ़ साल के भीतर ही उसे सजा-ए-मौत सुना दी गयी। कसाब सजा-ए-मौत का ही हकदार था। संसद पर हुए हमले के आरोपी अफजल गुरु को भी फांसी लगने का इंतजार किया जा रहा है। मासूम और बेकसूरों की जान लेने वालों को फांसी की सजा भी कम है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि इससे बड़ी सजा कोई नहीं है। यदि दूसरे देश के कुछ आतंकवादी हमारे देश में धुसकर लोगों को गोलियों से भून दें या बमों से उड़ा दें तो निःसंदेह देश के बच्चे-बच्चे को उसका अफसोस ही नहीं होता, बल्कि आतंकवादियों के खिलाफ दिलों में नफरत भी घर कर जाती है। ऐसा होना स्वाभाविक है। आतंकवादियों का मकसद ही लोगों की जान लेकर दहशत फैलाना होता है। लेकिन जब अपने ही देश के सुरक्षा बल, जिनकी जिम्मेदारी नागरिकों को सुरक्षा देने की होती है, स्वयं ही अपने ही देश के नागरिकों को गोलियों से भून दें, उसे किस आतंकवाद की श्रेणी में रखा जाना चाहिए ? उस पर भी मारने वालों का बचाव और मरने वालों को इंसाफ न देना किस नीयत को दर्शाता है ? यूं तो देश में ऐसे बहुत से नरसंहार हुए हैं, जिनमें सीधे-सीधे सरकारों का हाथ रहा है, लेकिन 22 मई और 23 मई 1987 को हुए हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहार ऐसे हैं, जो आजाद भारत की बदतरीन मिसालें हैं और देश के नाम पर कलंक की तरह हैं। यह कलंक और तब बढ़ जाता है, जब नरसंहार के चौबीस साल भी पीड़ितों को न्याय तो दूर, दोषियों को बचाने की कोशिश की जाती है।
मई 1987 को मेरठ में एक दिन के अंतराल पर दो ऐसे नरसंहार हुए थे, जिनकी गूंज आज भी सुनाई देती है। 22 मई 1987 मेरठ के हाशिमपुरा से उत्तर प्रदेश के प्रांतीय सशस्त्र बल ( पीएसी ) ने 44 मुसलमान नौजवानों को अपने ट्रकों में भरा और उन्हें मुराद नगर (गाजियाबाद) की गंग नहर पर ले जाकर गोलियों से भूना और लाशों को नहर में बहा दिया था। क्या यह नरसंहार ऐसा ही नहीं था, जैसे मुंबई में पाकिस्तानी आतंकवादियों ने किया था ? सवाल यह है कसाब को क्यों डेढ़ साल में फांसी की सजा दे दी गयी और हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहार के दोषी क्यों आजाद घूम रहे हैं ? सवाल यह है कि 26/11 और मलियाना-हाशिमपुरा के नरसंहार में क्या अन्तर है ? क्या मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहार में मरने वाले भारतीय नागरिक नहीं थे ?
22 मई को हाशिमपुरा में क्या हो गया था इसका पता बाकी मेरठ को नहीं था। 23 मई 1987 को पीएसी ने एक और ऐसे नरसंहार को अंजाम दिया, जो क्रूरता की मिसाल बन गयी। मेरठ से लगभग पांच किलाोमीटरा दूर है मलियाना। लगभग दस हजार की इस आबादी में मुसलमानों की संख्या दस प्रतिशत भी नहीं है। मेरठ शहर में दंगे होते रहते थे, लेकिन मलियाना साम्प्रदायिक हिंसा में कभी नहीं झुलसा था। भले ही 18/19 मई की रात से पूरे मेरठ में भयानक दंगा भड़का हूआ था, लेकिन मलियाना शांत था और यहां पर कफ्ूर्य भी नहीं लगाया गया था। यहां कभी हिन्दू-मुस्लिम दंगा तो दूर तनाव तक नहीं हूआ था। हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ सुख चैन से रहते आ रहे थे। लेकिन कुछ साम्प्रदायिक शक्तियों, पुलिस और पीएसी ने मलियाना को वो जख्म दिए, जिसकी पीड़ा उन्हें आज भी होती है। पूरे परिवार खत्म कर दिए गए थे। उस मंजर को याद करके यहां के लोग आज भी कांप उठते हैं। लगभग दोपहर बारह बजे से पुलिस और पीएसी ने मलियाना की मुस्लिम आबादी को चारों ओर से घेरना शुरु किया। यह घेरे बंदी लगभग ढाई बजे खत्म हुई। घेरेबंदी कुछ इस तरह की जा रही थी मानो दुष्मन देष के सैनिकों पर हमला करने के लिए उनके अड्डों को घेर रही हो। पूरे इलाके को घेरने के बाद कुछ पुलिस और पीएसी वालों ने घरों के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरु कर दी। दरवाजा नहीं खुलने पर उन्हें तोड़ दिया गया। घरों में लूट और मारपीट शुरु कर दी नौजवानों को पकड़कर एक खाली पड़े प्लाट में लाकर बुरी तरह से मारा-पीट कर ट्रकों में फेंकना शुरु कर दिया गया। दरअसल, पीएसी हाशिमपुरा की तर्ज पर ही मलियाना के मुस्लिम नौजवानों को कहीं और ले जाकर मारने की योजना पर काम रहे थे, लेकिन पीएसी की फायरिंग से इतने ज्यादा लोग मरे और घायल हुए थे कि पीएसी की योजना फेल हो गयी थी। पुलिस और पीएसी लगभग ढाई घंटे तक फायरिंग करती रही। इस ढाई घंटे की फायरिंग में में 73 लोग मारे गए थे।
23 साल बाद इस 23 मई को मलियाना के लोगों ने मरने वालों की याद में एक कार्यक्रम किया था। सब के पास सुनाने के लिए कुछ न कुछ था। मौहम्मद यामीन के वालिद अकबर को दंगाईयों ने पुलिस और पीएसी के सामने ही मार डाला था। नवाबुद्दीन ने उस हादसे में अपने वालिद अब्दुल रशीद और वालिदा इदो को पुलिस और पीएसी के संरक्षण में अपने सामने मरते देखा। आला पुलिस अधिकारियों के सामने ही दंगाईयों ने महमूद के परिवार के 6 लोगों को जिन्दा जला दिया। शकील सैफी के वालिद यामीन सैफी की लाश भी नहीं मिली थी। प्रशासन यामीन सैफी को 'लापता' की श्रेणी में रखता है। आज भी उस मंजर को याद करके लोगों की आंखें नम हो जाती हैं। जब कभी उस हादसे का जिक्र होता है तो लोग देर-देर तक अपनी बदकिस्मती की कहानी सुनाते रहते है। मलियाना के लोगों को राजनैतिक दलों से भी बहुत शिकायतें हैं। उनका कहना है कि सभी राजनैतिक दलों ने मलियाना कांड पर सियासत की, लेकिन इस बात की किसी भी दल ने कोशिश् नहीं की कि मलियाना नरसंहार के लिए गठित जीएल श्रीवास्तव जांच आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करके दोषियों को सजा दिलाए। मलियाना के लोगों का यह भी लगता है कि सरकार ने मृतक आश्रितों को मुआवजा राशि देने में भी भेदभाव से काम लिया। उनका कहना है कि उन्हें केवल 40-40 हजार रुपयों का मुआवजा दिया गया था, जो अपर्याप्त था। पीड़ितों की मांग है कि उन्हें भी उसी तरह का राहत पैकेज दिया जाए, जिस तरह से सिखों को दिया गया है। विपक्ष और मीडिया के तीखे तेचरों के चलते इस नरसंहार एक सदस्यीय जांच आयोग से जांच कराने का ऐलान किया गया था। आयोग के अध्यक्ष जीएल श्रीवास्तव ने एक साल में ही जांच पूरी करके सरकार को रिपोर्ट सौप दी थी। लेकिन इस रिपोर्ट का हश्र भी ऐसा ही हूआ, जैसा कि अन्य आयोगों की रिपोर्टां का अब तक होता आया है। कहा जाता है कि जांच आयोग की रिपोर्ट में पुलिस और पीएसी को दोषी ठहराया गया है।
इस अति चर्चित नरसंहार सुनवाई यूं तो फास्ट ट्रेक अदालत में चल रही है, लेकिन अभी भी उसकी चाल बेहद सुस्त है। फास्ट ट्रेक अदालतों का गठन ही इसलिए किया गया था ताकि मलियाना जैसे जघन्य मामलों की सुनवाई जल्दी से जल्दी हो सके। मुख्य गवाहों को धमकाया जा रहा है। बयान बदलने के लिए पैसों का लालच दिया जा रहा है।
मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहार पर वरिष्ठ पत्रकार हरि शंकर जोशी की टिप्पणी
मैं भी एक ऐसा ही इंसान हूं, जिसने मेरठ के दंगों के सच को भुगता है। दिनमान के रिपोर्टर जसवीर उर्फ जस्सी जो दुर्भाग्य से इस दुनिया में नहीं हैं और मैं सबसे पहले मलियाना पहुंचे थे। जहां पीएसी ने अंधाधुंध गोलियां चलाकर ग्रामीणों का नरसंहार किया था। रात ग्यारह बजे वहां से लौटकर दंगे के इस सच को जस्सी ने बीबीसी में फ्लैष कराया था। मैने उसे अमर उजाला में लिखा था। लेकिन खबर प्रकाषन के लिए तमाम जद्दोजहद के बाद तभी जा सकी थी, जब बीबीसी ने उसे प्रसारित कर दिया था। उसके बाद कुछ संगठनों ने अमर उजाला की प्रतियां जलाईं थीं। पत्रकारों को भुगतने की धमकी दी थी। हाषिमपुरा तो पीएसी की इंतहा थी। मैं जानता हं कि यदि विभूति गाजियाबाद के एसएसपी न होते और 'चौथी दुनिया' न होता तो हाषिमपुरा का नंगा सच कभी सामने न आता। मैं दंगे के दौरान हाषिमपुरा की घटना का काफी हद तक साक्षी रहा हूं। मैने नहर पर नरसंहार की घटना से पहले हाषिमपुरा की फायरिंग भी देखी है, जब एक तरफ से पुलिस गोलियां चला रही थी तो दूसरी तरफ से दंगाई छतों पर चढ़कर बराबर का मुकाबला कर रहे थे, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि आप चंद सिरफिरे बदमाषों के लिए सामुहिक नरसंहार कर दो। मुझे याद है कि वीरेंद्र सेंगर किस तरह जान हथेली पर रखकर काम कर रहे थे। मैं जिस गली में घुसता वहां वीरेंद्र मिल जाते और पूछते तुम्हें पुलिस व पीएसी नहीं रोकती। लेकिन अफसोस कि आज तक हाषिमपुरा को इंसाफ नहीं मिला और न उन दंगाईयों को सजा जिन्होंने दंगे में निर्दोषों का खून बहाया।

Monday, May 10, 2010

स्वामी रामदेव स्विस बैंकों से पैसा कैसे वापस लाएंगे ?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
जब कभी किसी आदमी के किसी वजह से कुछ हजार या कुछ लाख प्रशंसक बन जाते हैं तो उसे यह गलतफहमी हो जाती है कि वह देश को चलाने में भी सक्षम है और यदि वह राजनीति में आएगा तो देश की जनता उसे सर-माथे पर बैठाकर देश की बागडोर सौंप देगी। इस प्रकार की गलतफहमी कई लोगों को हो चुकी है। लेकिन जनता ने उन्हें कबूल नहीं किया। अब योग के सहारे टीवी पर दिखाई देने लगे स्वामी रामदेव को शायद कुछ लोगों ने समझा दिया है कि देश की जनता बहुत बेसब्री से इस बात का इंतजार कर रही है कि कब स्वामी रामदेव राजनीति में पदार्पण करें और उन्हें देश की बागडोर सौंप दें। तभी शायद स्वामी रामदेव यह कहते हैं कि 'अब मेरे पास इतनी शक्ति है कि मैं सरकार को उखाड़ सकता हूं।' स्वामी देव की इस बात से उनका बड़बोलापन ही झलकता है। उन्होंने 'भारत स्वाभिमान ट्रस्ट' का गठन कर लिया है। इस ट्रस्ट की राजनैतिक शाखा 'भारत स्वाभिमान जवान' बनायी है। वह 2014 को होने वाले लोकसभा चुनाव में सभी 543 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की योजना पर अमल कर रहे हैं। जब चुनाव लड़ा जाएगा तो जनता को भरमाने के लिए कोई मुद्दा भी चाहिए। स्वामी रामदेव देश की जनता को यह ख्वाब दिखा रहे हैं कि वह स्विस बैंकों में देश का जमा 300 लाख करोड़ रुपया भारत में लाएंगे। देश का पैसा देश में वापस आए यह अच्छी बात है। लेकिन क्या स्विस बैंकों से पैसा वापस लेना इतना ही आसान है, जैसे एटीएम से पैसा निकाल लेना ? क्या स्विस बैंकों से भारत सरकार या किसी भी देश की सरकार यह कहेगी कि हमारे भ्रष्ट लोगों का जो पैसा आपके यहां जमा है, उसे वापस कर दो और स्विस बैंक वापस कर देगा ? यदि स्विस बैंकों से पैसा वापस लाना इतना ही आसान होता तो भ्रष्टाचारी लोग अपना पैसा स्विस बैंक में ही क्यों रखते ? स्विस बैंकों से पैसा वापस लाना तो छोड़िए, स्वामी रामदेव यही पता लगा लें कि इन बैंकों भारत के कितने लोगों का और कितना काला पैसा जमा है ? स्वामी रामदेव को देश की जनता को यह तो हर हाल में बताना ही चाहिए कि वह स्विस बैंकों से पैसे को वापस कैसे लाएंगे ? ऐसा करने के लिए उनके पास क्या रणनीति है ?
स्विस बैंकों से पैसा वापस लाने की बात करने वाले स्वामी रामदेव खुद इंग्लैंड में एक आईलेंड और अमेरिका के ह्‌यूस्टन शहर में लगभग तीन सौ एकड़ जमीन खरीदते हैं। विदशों में सम्पत्ति खरीदना क्या भारत के पैसे को विदेशों में ले जाना नहीं है ? स्वामी रामदेव को देश की जनता को भी बताना चाहिए कि उन्होंने कुछ ही सालों में साठ-सत्तर हजार करोड़ का विशाल सामा्रज्य कैसे खड़ा कर लिया ? यदि अतीत की बात करें तो साइकिल पर चलने वाले स्वामी रामदेव हरिद्वार में गुरु शंकर देव के शिष्य थे। उनके वह गुरु आजकल कहां हैं, क्या कर रहे हैं, इसका किसी को पता नहीं है। खुद स्वामी रामदेव भी उनके बारे में कुछ नहीं कहते हैं। कहा जाता है कि लोगों की नजरों से दूर होने से पहले गुरु शंकर देव बहुत ज्यादा व्यथित थे।
स्वामी रामदेव की बातों से पता चलता है कि उन्होंने वह सब गुर सीख लिए हैं, जो भारत की मौजूदा राजनीति करने के लिए बहुत जरुरी है। मसलन, देश के सबसे बड़े वोट बैंक समझे जाने वाले मुसलमानों पर उन्होंने डोरे डालने शुरु कर दिए हैं। इस बात को वह भी समझते हैं कि बगैर मुसलमानों को साथ लिए देश की सत्ता पर काबिज नहीं हुआ जा सकता है। तभी वो वह देवबंद में होने वाले जमीअत उलेमा हिन्द के अधिवेशन में हिस्सा लेते हैं। वह यह भी जानते हैं कि भारत का मुसलमान आरएसएस से दूरी बना कर चलता है। इसलिए उन्होंने अभी से इस प्रकार की बातें करनी शुरु कर दी हैं, जिससे यह आभास हो कि वे आरएसएस को पसंद नहीं करते हैं। एक पाक्षिक पत्रिका से साक्षात्कार में वे कहते हैं-'भाजपा के साथ दिक्कत यह है कि भाजपा युवाओं को हिन्दुत्व का विचार नहीं समझा पा रही है। युवा हिन्दुत्व का अर्थ सिर्फ राम मंदिर समझते हैं।' आरएसएस के बारे में वह कहते हैं-'आरएसएस कारसेवकों का हिन्दुत्व के प्रति अपना विचार है लेकिन वे भी आम आदमी को इसका अर्थ नहीं समझा पा रहे हैं।' हालांकि स्वामी रामदेव का हिन्दुत्व कौनसा है, इसको वह नहीं बताते।
राजनीति का सबसे बड़ा गुर भी स्वामी रामदेव ने सीखा है। उन्होंने घोषणा की है कि वह न तो चुनाव लड़ेंगे न ही प्रधानमंत्री का पद लेंगे। वह इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि यदि उनकी पार्टी चुना जीत गयी तो देश की जनता उन्हें जबरदस्ती गद्दी पर बैठा देगी। और स्वामी रामदेव किसी सूरत में देश की जनता का आग्रह नहीं ठुकरा पाएंगे। ऐसा भी नहीं है कि स्वामी रामदेव अकेले ही इतना बड़ा दांव अकेले ही खेलने निकले हैं। दरअसल, योग की वजह से बड़ी-बड़ी हस्तियां उनके साथ नजर आने लगी हैं। शायद इन्हीं हस्तियों ने स्वामी रामदेव को चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया है। यह भी हो सकता है कि स्वामी रामदेव को कुछ लोग 'मोहरा' बनाकर अपना हित साधने का खेल, खेल रहे हों।

Thursday, May 6, 2010

कोडरमा की “निरुपमा” और मेरठ की “श्रुति” के सबक

सलीम अख्तर सिद्दीकी
गैर जाति के लड़के के साथ प्यार की पींगे बढ़ाना निरुपमा का गुनाह बन गया। वो प्रेग्नेंट भी थी। किसी लड़की को मारने के लिए ये कारण पर्याप्त होते हैं, उनके लिए जो पढ़े-लिखे होने का दम भर भरने के बावजूद दकियानूसी विचारधारा के होते हैं। निरुपमा का परिवार ऐसा ही था। सच तो यह है कि हम सब के अंदर कहीं न कहीं जातिवाद और धर्म इतना गहरे पैठ चुका है कि उससे बाहर आना नहीं चाहते। जो बाहर आना चाहता है, उसका हश्र निरुपमा जैसा होता है। निरुपमा के मां-बाप जैसे लोग कहने को तो आधुनिक और प्रगातिशील बनते हैं, लेकिन इनकी विचारधारा तालिबान से ज्यादा बुरी है। लेकिन यही लोग तालिबान को दकियानूसी बताने में हिचकते नहीं हैं। ये लोग जीवन शैली तो पाश्चात्य अपनाते हैं, लेकिन प्रेम और विवाह के मामले में घोर परंपरावादी और पक्के भारतीय संस्कृति के रखवाले बन जाते हैं।
यह इक्कसवीं सदी चल रही है। इस सदी में वह सब कुछ हो रहा है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। मीडिया ने समाज को पचास साल आगे कर दिया है। भारत में मल्टीनेशनल कंपनियों की बाढ़ आयी हुई है। इन मल्टीनेशनल कंपनियों में सभी जातियों और धर्मों की लड़कियां और लड़के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं। सहशिक्षा ले रहे हैं। साथ-साथ कोचिंग कर रहे हैं। इस बीच अंतरधार्मिक, अंतरजातीय और एक गोत्र के होते हुए भी प्रेम होना अस्वाभाविक नहीं है। प्रेम होगा तो शादियां भी होंगी। समाज और परिवार से बगावत करके भी होंगी। अब कोई लड़की किसी गैर जाति लड़के से प्रेम कर बैठे तो उसकी जान ले लेना तालिबानी मानसिकता ही कही जाएगी।
याद रखिए संकीर्णता और आधुनिकता एक साथ नहीं चल सकतीं। आजकल चल यह रहा है कि आधुनिकता की होड़ में पहले तो लड़कियों को पूरी आजादी दी जाती है। लड़कियों से यह नहीं पूछा जाता कि उन्होंने भारतीय लिबास को छोड़कर टाइट जींस और स्लीवलेस टॉप क्यों पहनना शुरू कर दिया है। आप ऐसे लिबास पहनने वाली किसी लड़की के मां-बाप से यह कह कर देखिए कि आपकी लड़की का यह लिबास ठीक नहीं है तो वे आपको एकदम से रूढ़ीवादी और दकियानूसी विचारधारा का ठहरा देंगे। मां-बाप कभी अपनी बेटी का मोबाइल भी चैक नहीं करते कि वह घंटों-घंटों किससे बतियाती रहती है। उसके पास महंगे कपड़े और गैजट कहां से आते हैं। जब इन्हीं मां-बाप को एक दिन पता चलता है कि उनकी लड़की किसी से प्रेम और वह भी दूसरे धर्म या जाति के लड़के से करती है तो उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसकती नजर आती है। उन्हें फौरन ही अपनी धार्मिक और जातिगत पहचान याद आ जाती है। भारतीय परंपराओं की दुहाई देने लगते है। जैसे निरुपमा का मामले में हुआ।
निरुपमा के मां-बाप उसको आला तालीम लेने दिल्ली भेजते हैं। निरुपमा एक प्रतिष्ठित अखबार में नौकरी करती है। लेकिन उसको किसी गैर जातीय लड़के से प्रेम करने की सजा इसी प्रकार दी जाती है, जैसे अफगानिस्तान में तालिबान देते हैं। उसे मार दिया जाता है।
इंटरनेट ने दुनिया को छोटा किया है। सोशल नेटवर्किंग के जरिये भी प्यार की पींगें बढ़ रही है। कल का वाकया है। मेरठ के एक प्रतिष्ठित (भारत में पैसों वालों को ही प्रतिष्ठित कहा जाता है) की एक लड़की श्रुति लखनऊ में आर्किटेक्ट का कोर्स कर रही थी। उसका आखिरी साल था। ऑरकुट के जरिये इंदौर के एक लड़के से प्यार की पींगें बढ़ीं। लड़का गाहे-बगाहे लखनऊ आने लगा। कल दोनों में किसी बात को लेकर नोंक-झोंक हुई। लड़की ने मॉल की चौथी मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली। लड़के को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। श्रुति के मां-बाप को क्या पता था कि उनकी लड़की पढ़ाई के साथ और कौन सी ‘पढ़ाई’ कर रही है। उन्हें तो उसकी दूसरी ‘पढ़ाई’ का पता उसकी मौत की खबर के साथ ही लगा। जानते हैं श्रुति का प्रेमी कितना पढ़ा-लिखा था। मात्र बारहवीं फेल। बेराजगार।
यहां यह सब कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि लड़कियों को शिक्षा या नौकरी के बाहर भेजने पर पाबंदी आयद कर दी जाए। उन्हें कैद करके रखा जाए। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि जमाना तेजी के साथ बदल रहा है। लड़कियां आत्मनिर्भर हुई हैं तो उन्हें अपने अधिकार भी पता चले हैं। उदारीकरण के इस दौर में प्रेम और शादी के मामले में युवा उदार हुए हैं। लेकिन मां-बाप और भाई (भाई किसी दूसरे की बहन के साथ डेटिंग करने में बहुत उदार होते हैं) उदार होने को तैयार नहीं हैं। कितनी ही निरुपमाओं या बबलियों को मार दीजिए – युवाओं में परिवर्तन की इस आंधी को नहीं रोका जा सकता है। वक्त बदल रहा है। सभी को वक्त के साथ बदलना ही पड़ेगा। वरना फिर मान लीजिए कि अफगानिस्तान में तालिबान और भारत में खाप पंचायतें जो कुछ भी कर रही हैं, ठीक कर रही हैं। दरअसल, भारत का समाज संकीर्णता और आधुनिकता के बीच झूल रहा है। वह यह ही तय नहीं कर पा रहा है कि उसे किधर जाना है।

Monday, May 3, 2010

मुसलमानों के फोन सुनती हैं खुफिया एजेंसियां


सलीम अख्तर सिद्दीकी
मुसलमानों के लिए आंसू बहाने वाली सरकार की खुफिया एजेंसियों को मुसलमानों के चरित्र पर संदेह है। शायद इसीलिए वे मुसलमानों पर नजर रखने के लिए उनके फोन सुनती है, वह भी बगैर किसी इजाजत के। इस काम के लिए वह भारी भरकम रकम भी खर्च करती है। पिछले दिनों कुछ सत्ताधारी और विपक्षी नेताओं के फोन टेप होने की खबरें आयीं थी। इन खबरों पर खूब हंगामा हुआ। इसे लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन बताया गया। लेकिन सच किसी ने नहीं बताया। सच यह है कि फोन टेप करने के सिस्टम मुस्लिम बाहुल्य शहरों में लगाने के लिए खरीदे गए थे। यह बात नहीं भी खुलती अगर कुछ नेताओं के फोन टेप होने की बात सामने नहीं आई होती। दरअसल, कारगिल युद्ध के बाद एक खुफिया संस्था 'नेशनल टैक्निकल रिसर्च ऑर्गनाईजेशन' (एनटीआरओ) 14 अप्रैल 2006 को वजूद में लायी गयी थी। इस खुफिया संस्था का मुख्य कार्य खुफिया जानकारी जुटाने के लिए तकनीकी सहायता करना है। यह खुफिया संस्था ऑफ-द-एयर जीएसएम मॉनीटरिंग उपकरण के जरिए फोन टेप करती है। यह उपरण दो किलोमीटर के दायरे में किसी भी मोबाइल फोन को टेप कर सकता है। इस उपकरण का कहीं भी प्रयोग किया जा सकता है। इस अनैतिक फोन टेप प्रणाली की खूबी यह है कि इसमें किसी की इजाजत लेने की जरुरत नहीं पड़ती। इस प्रणाली से एक्सचेन्ज को दरकिनार करके मोबाइल और टॉवर के बीच के सिगनल पकड़ कर फोन टेपिंग की जा सकती है। 7 करोड़ रुपए की लागत वाला यह सिस्टम केवल आवाज के नमून के आधार वार्तालाप को पकड़ने की क्षमता रखता है। अब क्योंकि खुफिया एजेंसियां बिना किसी अनुमति के फोन टेप करती हैं, इसलिए वे किसी के प्रति जवाबदेह भी नहीं है। हाय-हल्ला होने पर टेप किए गए फोन को डिलीट कर सकती हैं।
भारत में फोन टेप करने के इस तरह के उपकरण खरीदने की शुरुआत 2005-2006 में हुई थी। आज की तारीख में एनटीआरओ के पास कम से कम 6 ऐसे उपकरण मौजूद हैं, जिन्हें उसने दिल्ली में लगाया हुआ है। केन्द्रीय खुफिया एजेंसी (आईबी) के पास भी इस तरह के 8 उपकरण हैं। सवाल यह है कि क्या एक लोकतांत्रिक सरकार में किसी की बातचीत को सुनना मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है ? सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट के बहाने मुसलमानों को बहलाने वाली सरकार जवाब दे कि क्यों मुसलमानों के फोन सुने जा रहे हैं ? क्या यूपीए सरकार भी सभी मुसलमानों के चरित्र को संदिग्ध मानती है ? हमारा संविधान लोगों की आजादी और जिंदगी में हस्तक्षेप करने की बिल्कुल भी इजाजत नहीं देता। लेकिन हमारी खुफिया एजेंसियों को इससे कोई मतलब नहीं है। यहां तो खुफिया एजेंसियां धड़ल्ले से पूरे समुदाय को ही संदेह के घेरे में लेकर उनके फोन टेप कर रही है। हैरत की बात तो यह है कि मुसलमानों के फोन टेप एनटीआरओ नाम की वह संस्था कर रही है, जिसका स्वयं का चरित्र संदेहों के घेरे में है। एनटीआरओ पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के कई गंभीर आरोप है। सम्भवतः एनटीआरओ भारत की पहली खुफिया संस्था है, जिस पर लगे आरोपों की जांच महालेखा नियंत्रक वित्तीय अंकेक्षण कर रहा है।