Sunday, March 21, 2010

सत्ता में भागीदारी का कड़वा सच

सलीम अख्तर सिद्दीकी
सत्ता में सबको भागीदारी चाहिए। महिलाओं को भी सत्ता में भागीदारी देने के लिए महिला विधेयक राज्यसभा में पास करा लिया गया। सब कुछ ठीक रहा तो सत्ता में महिलाओं की तैंतींस प्रतिशत भागीदारी निश्चित हो जाएगी। हालांकि सपा, राजद और कुछ मुस्लिम नेताओं की राय है कि जो तैंतीस प्रतिशम महिलाएं चुनकर आएंगी, वे केवल 'इलीट' क्लास की होंगी। दलित, पिछड़ी और अल्पसंख्यक महिलाओं की भागीदारी नहीं के बराबर होगी। इसलिए इन राजनैतिक दलों का तर्क है कि दलित, पिछड़ी और अल्पसंख्यक महिलाओं को भी आरक्षण दिया जाए। इन दलों की बात सही है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। मान लिया कि दलित, पिछड़ी और अल्पसंख्यक महिलाओं को आरक्षण दे भी दिया गया तो इससे फायदा क्या होगा ? क्या इन तबकों से भी केवल वहीं महिलाएं ही जीत कर नहीं आएंगी, जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनैतिक रही है ? जिनका पति, भाई या कोई और रिश्तेदार पहले से ही सांसद या विधायक है, या रह चुका है ? समस्या यह है कि जो एक बार सांसद या विधायक बन जाता है, वह और उसका परिवार यह समझने लगता है कि जीती हुई सीट उसके और उसके परिवार के नाम पर आरक्षित हो चुकी है। लालू यादव से प्रश्न है कि आपकी गैरमौजूदगी में आपकी पत्नि ही क्यों बिहार की मुख्यमंत्री बनीं थीं ? मुलायम सिंह यादव के के परिवार के सभी सदस्यों को क्यों सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बनना चाहिए ? जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला परिवार से ही क्यों बनता है ? इस तरह के उदाहरण बहुत सारे हैं। संसद और विधानसभाओं में पिता-पुत्र, चाचा-भतीता, माता-पुत्री की भरमार हो गयी है। एक बात और इन नेताओं के बच्चे विदेशों में पढ़कर डाक्टर, इन्जीनियर या किसी विषय में डिग्री लेकर भले ही आ जाएं, लेकिन अंत में अपना 'कैरियर' राजनीति को ही बनाते हैं।
मुसलमानों को भी आबादी के हिसाब से सत्ता में भागीदारी चाहिए। मुसलमानों में भी प्रत्येक जाति को सत्ता में भागीदारी की दरकार है। हिन्दुओं की भी प्रत्येक जाति को सत्ता में भागीदारी की चाहत है। लेकिन सवाल यही है कि सभी को तो सत्ता में भागीदारी कैसे दी जा सकती है ? प्रत्येक जाति के कुछ लोगों को संसद या विधानसभाओं में भेजा जा सकता है। लेकिन सत्ता में भागीदारी में जीत कर गया किसी भी जाति का सांसद या विधायक अपनी जाति का कितना भला आज तक कर पाया है ? सत्ता में भागीदारी का मतलब यह होना चाहिए कि जिस जाति का सांसद या विधायक जीता है, वह अपनी जाति के कमजोर और दबे-कुचले लोगों की मदद करे। उनकी बस्तियों में अच्छी सड़कों का निर्माण कराए। इलाज की समुचित व्यवस्था कराए। स्कूल कालेज खुलवाए। लेकिन क्या ऐसा होता है ? सच तो यह है कि जीतने वाला सांसद और विधायक इन्हीं लोगों से इतना दूर हो जाता है कि पूरे पांच साल तब ही नजर आता है, जब उसे दोबारा से वोट लेने होते हैं। जब वह पांच साल बाद अपनी जाति के लोगों के सामने जाता है तो लोगों को पता चलता है कि उनकी हालत तो बदला या नहीं बदली, सांसद या विधायक की हालत में जरुर परिर्वतन आ गया है। इस तरह से सत्ता में भागीदारी केवल व्यक्ति और उसके परिवार को तो मिलती है, उसको जिताने वाली उसकी जाति को नहीं। विद्रूप यह कि उसकी जाति के लोग फिर से जाति के नाम पर उसी व्यक्ति को सांसद या विधायक बना देते हैं, जो उनके किसी काम नहीं आया है।
बात यदि मुसलमानों की करें तो हालात और भी ज्यादा खराब हैं। मुस्लिम नेता सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट को लागू करवाने के लिए बहुत बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। ये बातें भी इसलिए की जाती हैं, ताकि अपने आपको मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैषी बनकर उनके वोट लिए जा सकें। सच जो यह है कि कुछ मुस्लिम नेता तो ऐसे हैं, जिन्हें यही नहीं पता कि सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट में लिखा क्या है। इसकी वजह यह है कि वे कभी स्कूल गए ही नहीं है। मैं अपने क्षेत्र मेरठ की ही बात करता हूं। यहां के मेयर और सांसद रहे शाहिद अखलाक लगभग अनपढ़ हैं। मौजूदा शहर विधायक की हालत भी यही है। शायद इसीलिए मुस्लिम क्षेत्रों का विकास नहीं के बराबर हुआ है। शायद इसीलिए ये लोग लगभग पांच लाख की मुस्लिम आबादी में कोई इंटर या डिग्री कालेज तो दूर एक सरकारी स्कूल नहीं खुलवा पाएं हैं। किसी सरकारी या गैर सरकारी बैंक की शाखा नहीं खुली। कोई सरकारी अस्पताल नहीं खुला। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं तक मुहैया नहीं हो सकी हैं। सड़कों की हालत खराब है। सफाई नियमित रुप से नहीं होती है। क्या इन सब कामों का कराने का फर्ज इन मुस्लिम मेयर, सांसद और विधायक का नहीं था। हां, इतना जरुर हुआ है कि मुस्लिम आबादी में सांसद महोदय का एक आलीशान पब्लिक स्कूल जरुर खुल गया है। इतना भी हुआ कि इनके कारोबार में कोई रुकावट नहीं आयी।
इस तरह से सत्ता में भागीदारी के नाम पर कुछ सौ लोगों और उनके परिवार को ही सत्ता में भागीदारी मिलती है। यह भागीदारी भी उन परिवारों को मिलती है, जो नामचीन हैं और अरबपति हैं। जमीन से जुड़े लोगों के लिए अब कोई गुंजाइश नहीं बची है। बात सत्ता में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत की भागीदारी देने की कवायद से शुरु हुई थी। इसमें मेरा मत है कि जो लोग जिस आधार पर महिला आरक्षण बिल का विरोध कर रहे हैं, वे सही तो हैं, लेकिन उनकी नीयत भी सही नहीं है। वे यदि दलित, पिछड़ी और अल्पसंख्यक महिलाओं को भी आरक्षण देने की मांग कर रहे हैं तो उन्हें सबसे पहले अपने अन्दर से परिवारवाद खत्म करना होगा। उन दलित, पिछ+ड़ी और अल्पसंख्यक महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत टिकट देने की शुरुआत करें, जिनकी पृष्ठभूमि अराजनैतिक है। आरक्षण के बगैर ही अपने आपको आरक्षित समझने वालों के लिए भी संविधान में एक संशोधन यह करना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति लगातार दो बार जीतने के बाद तीसरी बार चुनाव नहीं लड़ सकता। यह भी कि परिवार में एक व्यक्ति के सांसद या विधायक रहते उसकी पत्नि, बेटा या बेटी चुनाव नहीं लड़ सकते। यदि संसद और विधानसभाओं को कुछ परिवारों की बपौती बनने से रोकना है और वास्तव में सभी को सत्ता में भागीदारी देनी है तो यह करना बहुत जरुरी है। जनता को भी इतना जागरुक होना चाहिए कि उनकी जाति या धर्म के नाम पर सत्ता की मलाई खाने वाला सांसद या विधायक उनके लिए क्या कर रहा है ?

Friday, March 12, 2010

नरेन्द्र मोदी को शर्म नहीं आती

सलीम अख्तर सिद्दीकी

फरवरी 2002 के गोधरा कांड के बाद भड़के गुजरात दंगों के दौरान अहमदाबाद की गुलबर्गा सोसासटी में हुए नरसंहार के सिलसिले में विशेष जांच दल ने पूछताछ के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को 21 मार्च को विशेष जांच दल के सामने पेश होने के लिए समन जारी किया है। भारत के इतिहास में यह पहला मामला है, जिसमें किसी सिटिंग मुख्यमंत्री को किसी आपराधिक मामले में पुलिस ने समन जारी किया है।
इस समन के जारी होने के बाद नरेन्द्र मोदी को शर्म आनी चाहिए थी। अच्छा होगा कि वे अपना पद छोड़कर विशेष जांच दल के सामने जाएं। लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं, क्योंकि अतीत में यही होता आया है कि जब भी किसी सरकारी या गैर सरकारी संस्था ने उनकी आलोचना की, उसे हिन्दू विरोधी कहकर अपना जनाधार मजबूत किया। यहां तक हुआ कि हिन्दुओं के वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए उन्होंने मुसलमानों को हर तरीके से सताया। राहत शिविरों को बहुत जल्दी बंद कर दिया था। दंगा पीड़ितों को कुछ सौ रुपए की मुआवजा राशि देकर उनके जले पर नमक छिड़का गया था। गुजरात में एक अलिखित कानून बना दिया गया कि कोई भी मुसलमान सरकारी सहायता की उम्मीद न करे। बैंकों ने लोन देना बंद कर दिया। और बाहर यह प्रचारित किया जाता है कि गुजरात में मुसलनमानों की स्थिति बहुत अच्छी है. गुजरात हिंसा के बाद देश के अधिकतर उदारवादियों हिन्दुओं, सामाजिक संगठनों, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और चुनाव आयोग ने जब नरेन्द्र मोदी को फटकार लगाई थी तो उन्होंने सब का मखौल उड़ाते हुए सबको हिन्दू विरोधी करार दे दिया था। बेस्ट बेकरी कांड पर सुप्रीम कोर्ट की मोदी सरकार विरोधी टिप्पणियों का भी नरेन्द्र मोदी पर कोई असर नहीं हुआ था। जब सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाते हुए दंगों की कुछ घटनाओं के मुकदमों को गुजरात से बाहर चलाए जाने के आदेश दिए थे, तब भी नरेन्द्र मोदी को शर्म नहीं आयी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जब मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी, तब मोदी वाजपेयी को तो हिन्दू विरोधी नहीं कह सकते थे, लेकिन मुस्कराए तो जरुर होंगे। अभी भी ऐसा नहीं लगता कि विशेष जांच दल के समन के बाद भी मोदी को शर्म आएगी। क्योंकि नरेन्द्र मोदी में शर्म नाम की चीज ना कभी थी और न ही भविष्य में होने की उम्मीद है। हो सकता है कि नरेन्द्र मोदी इस समन को भी बहुत ही बेशर्मी के साथ अपनी हिन्दू हितैषी की छवि को और मजबूत करने के लिए करें और विशेष जांच दल को ही हिन्दू विरोधी करार दे दें।
नरसंहार को आधार बनाकर हिन्दुत्व के पुरोधा बने नरेन्द्र मोदी संभवत: जानते हैं कि आलोचनाओं और विरोध से उनकी राजनीति निखरेगी इसलिए वे ऐसी आलोचनाओं को कभी महत्व नहीं देते हैं जो उनकी खिलाफत करती हो. गुजरात नरसंहार के बाद नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर न तो कभी प्रायश्चित के भाव दिखाई दिये और न ही उन्होंने भारत के मुसलमान समाज से कभी माफी मांगी. मोदी ने संभवत: ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे जानते हैं कि वे जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं उसका आधार मुसलमानों का ही विरोध है. एक ऐसे देश में जो स्वभाव से सेकुलर है मोदी जैसे नेताओं को समन न केवल न्याय प्रणाली की फिरकापरस्त ताकतों पर विजय है बल्कि उन सभी को यह संदेश भी कि मजहब को आधार बनाकर लोगों को काटा-बांटा नहीं जा सकता. मोदी प्रशासन कह रहा है कि वह न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करेगा और समन का जवाब देगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या मोदी कभी सम्मन का सही जवाब दे पायेंगे?

Monday, March 8, 2010

तस्लीमा, रुश्दी और फिदा हुसैन

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मुझे पेंटिंग समझ में नहीं आती हैं। आड़ी-तिरछी लकीरों के बीच चित्रकार क्या कहना चाहता है, इसे आज तक नहीं समझ सका हूं। और जो लोग, मकबूल फिदा हुसैन पर रोज तीर चला रहे हैं, उनमें से अधिकतर की हालत भी शायद मेरी जैसी ही हो। सब कुछ सही चल रहा था। हुसैन की पेंटिंग महंगी से महंगी बिक रही थी। लेकिन 'विचार मीमांसा' नाम की हद दर्जे की एक घटिया पत्रिका ने एक बार कवर स्टोरी छापी थी, 'यह चित्रकार है या कसाई' बस इस स्टोरी के छपने के बाद फिदा हुसैन द्वारा खींची गईं आड़ी-तिरछी लकीरों में कुछ लोगों को भारत माता की नंगी तस्वीर दिखाई दे गयी तो कुछ लोगों को मां सरस्वती का नग्न अक्स नजर आ गया था। उसके बाद से फिदा हुसैन हिन्दूवादी संगठनों के निशाने पर आ गए थे। हालांकि यही वे लोग हैं, जो तस्लीमा नसरीन और सलमान रुश्दी पर मुस्लिम कट्टरपंथियों के हमले को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला मानते थे। यही लोग तस्लीमा नसरीन को भारत की नागरिकता दिलाने की पुरजोर मांग करते थे। लेकिन इसके विपरीत यही हिन्दूवादी संगठन एमएफ हुसैन की कलाकृतियों को आग के हवाले करके उन पर ताबड़तोड़ मुकदमे करने से भी बाज नहीं आए थे। यहां पर उनके लिए अभिव्यक्ति की आजादी कोई मायने नहीं रखती थी। सवाल यह है कि तस्लीमा का समर्थन और हुसैन का विरोध क्यों ? क्या तस्लीमा का समर्थन इसलिए किया जाता है, क्योंकि वे इस्लाम और मुसलमानों को कठघरे में खड़ा करती रही हैं। क्या एमएफ हुसैन का विरोध इसलिए, क्योंकि हिन्दूवादी संगठनों को लगता है कि हुसैन हिन्दू देवी-देवताओं की नग्न तस्वीरें अपने कैनवास पर उकेर रहे हैं। बात अगर अभिव्यक्ति की आजादी की है तो तस्लीमा के साथ ही हुसैन का समर्थन भी किया जाना चाहिए। दरअसल, हिन्दूवादी संगठन हर उस आदमी को अपना स्वाभाविक मित्र मान लेते हैं, जो इस्लाम पर प्रहार करता है। इसीलिए वे तस्लीमा नसरीन, सलमान रुश्दी और डेनमार्क के कार्टूनिस्ट की हिमायत में खड़े नजर आते हैं और इन्हें अभिव्यक्ति की आजादी की चिंता सताने लगती है।
एमएफ हुसैन की कतर की नागरिकता लेने के बाद जो बहस फिदा हुसैन को लेकर चलाई जा रही है, उसमें कुछ बातें ऐसी हैं, जिन्हें पढ़कर हंसी आती है। मसलन, इस बात को बार-बार उठाया जा रहा है कि हुसैन में हिम्मत है तो हजरत मौहम्मद साहब की तस्वीर बना कर दिखाएं। इस तर्क पर हंसी आती है। सब जानते हैं कि इस्लाम में तस्वीर बनाने की मनाही है, पैगम्बरों की तो किसी भी सूरत में तस्वीर नहीं बनायी जा सकती। इसके पीछे शायद कारण यह है कि इस्लाम ने बुतपरस्ती को सख्ती से मना किया है। लेकिन हिन्दू धर्म में तस्वीर बनाना न केवल जायज है, बल्कि सभी देवी देवताओं की तस्वीरें, मौजूद हैं, जिनके सामने खड़े होकर पूजा की जाती है। ऐसे में यह कहना कि हुसैन किसी पैगम्बर की तस्वीर बनाकर दिखाएं, कुतर्क के अलावा कुछ नहीं है। चलो मान लिया यदि हुसैन ऐसा कर सकें तो क्या हुसैन के विरोधी उनके समर्थक हो जाएंगे ? क्या हुसैन का सरस्वती को नंगा चित्र बनाना जायज ठहरा दिया जाएगा ?
जब कोई चित्रकार कोई चित्र बनाता है तो उसके दिमाग में यह तो होता ही होगा कि वह चित्र के माध्यम के क्या कहना चाहते है। इस सारे विवाद के बाद भी सम्भवतः हुसैन से किसी ने यह सवाल नहीं किया कि आखिर जिस तरह की चित्रकारी वे करते हैं, उसके पीछे उनकी क्या भावना रहती है ? विवाद के दौरान हुसैन की तरफ से भी आज तक यह नहीं कहा गया कि जिन विवादित पेंटिंगों पर बवाल किया जा रहा है, उन्हें बनाने के पीछे उनकी अपनी क्या सोच रही थी ? मसलन, मां सरस्वती का कथित चित्र उन्होंने क्या सोच कर बनाया था। इस प्रकार का कोई स्पष्टीकरण आ जाता तो शायद इतना बखेड़ा खड़ा नहीं होता। मैं यहां यह भी स्पष्ट कर दूं कि मैं न तो एमएफ हुसैन का समर्थक हूं और न ही तस्लीमा नसरीन का। क्योंकि मेरा मानना रहा है कि कला के नाम पर किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना सही बात नहीं है। भारत बहुधर्मी और विविधताओं से भरा देश है। यहां धर्म और आस्था के नाम दंगा-फसाद आम बात है। जिस देश में मात्र अफवाह से पूरे देश में गणेश जी दूध पीने लगते हों, दुल्हेंडी के दिन दोबारा से होली का पूजन किया जाता हो, किसी जीव के विचित्र बच्चा पैदा होने पर उसे पूजा जाने लगता हो, वहां पर धार्मिक प्रतीकों से छेड़छाड़ बवाल का कारण तो बनता ही है। और फिर अफवाह को आग में तब्दील करने वाले कट्टरपंथियों की पूरी फौज भी तो मौजूद है। एक बात और। तस्लीमा नसरीन, सलमान रुश्दी और एमएफ हुसैन जैसे कलाकारों पर विवाद इनकी मार्कीट वैल्यू बढ़ाने में मदद करता है। तस्लीमा नसरीन के 'लज्जा' और सलमान रुश्दी के 'द सैटेनिक वर्सेज' पर कट्टपंथी बवाल नहीं करते तो ये दोनों कृतियां कूड़े में फेंकने लायक हैं। जरा बताइए तो इन दोनों का और कौनसी किताब कितने लोगों को याद है, और कितने लोगों ने पढ़ी है ?

Friday, March 5, 2010

बड़े बेआबरु होकर 'हमारी अन्जुमन' से हम निकलें

सलीम अख्तर सिद्दीकी
'हमारी अन्जुमन' नाम के एक कम्यूनिटी ब्लॉग की सदस्यता मुझे भी फराहम की गयी थी। पिछले दिनों कई पोस्ट उस पर डालीं। अच्छा रेस्पॉन्स मिला। अभी पिछले दिनों इस ब्लॉग मैंने एक पोस्ट 'पाकिस्तान में सिखों की हत्याओं का विरोध करें भारतीय मुसलमान' शीर्षक से डाली थी। उस पोस्ट के बाद पता नहीं क्या हुआ कि अपने आप को ब्लॉग का 'सलाहकार' बताने वाले मौहम्मद उमर कैरानवी साहब ने मेरी पोस्ट पर कमेंट करने वालों को सलाह दे डाली कि 'हमारी अन्जुमन' के बजाय सलीम साहब के ब्लॉग 'हकबात' पर ही कमेंट करें। यह भी लिखा गया कि क्योंकि सलीम अख्तर सिददीकी एक ही पोस्ट को कई ब्लॉग पर पब्लिश कर देते हैं, इससे ब्लॉग एग्रीग्रेटर नाराज हो जाते हैं, जिससे हमारी अन्जुमन की सदस्यता को ब्लॉग एग्रीग्रेटर खत्म कर सकते हैं। कैरानवी साहब ने मेरी गलती की माफी भी 'चिट्ठा जगत' और 'ब्लॉगवाणी' से मांग डाली। इसी के साथ मुझे बेआबरु करके 'हमारी अन्जुमन' से निकाल दिया गया। कैरानवी साहब से कुछ सवाल हैं। पहला तो यह कि क्या किसी पूर्व सूचना के किसी सदस्य की सदस्यता खत्म करना सही है ? दूसरा यह कि उन्हें यह किसने बता दिया कि एक से अधिक ब्लॉग पर एक ही पोस्ट को डालना गलत है ? यदि ऐसा है भी तो एग्रीग्रेटर मेरी सदस्यता से खत्म करेंगे, उस ब्लॉग की क्यों करेंगे, जिस पर मैंने पोस्ट डाली है ? मेरे पास किसी एग्रीग्रेटर की कोई चेतावनी आज तक नहीं आयी है। मेरे पास 'मौहल्ला', 'भड़ास', 'हिन्दुस्तान का दर्द' आदि कई ब्लॉग की सदस्यता है। पूर्व में इन सभी ब्लॉगों पर एक साथ पोस्ट डाली है। यानि अपने समेत चार ब्लॉग पर एक साथ एक ही पोस्ट डाली है। अक्सर ऐसा भी होता है कि कोई ब्लॉगर मेरी पोस्ट को मेरे ब्लॉग या किसी न्यूज पोर्टल से लेकर अपने ब्लॉग पर डालते हैं। कैरानवी साहब यह भी जान लें कि मैं 'हमारी अन्जुमन' जैसे ब्लॉग का मोहताज नहीं हूं। मैं 'विस्फोट', 'बी4एम', 'मौहल्ला लाइव', 'स्टार न्यूज एजेंसी', 'डेटलाइन इंडिया', 'मीडिया मंच', 'दैटस हिन्दी' और 'प्रवक्ता' जैसे न्यूज पोर्टलों सहित देश कई समाचार-पत्रों में भी लगातार लिखता रहता हूं और प्रमुखता के साथ छपता भी हूं। कैरानवी साहब ने लिखा है कि मैं कमेंट का जवाब नहीं देता। पहली बात तो यह है कि हर कमेंट का जवाब दिया जाए, यह जरुरी नहीं है। दूसरी यह कि यदि हर कमेंट का जवाब देने बैठ जाएंगे तो रोजी-रोटी का जुगाड़ कैसे होगा ? क्योंकि ब्लॉगिंग पैसे के नाम पर कुछ देती नहीं, बल्कि कुछ ले ही लेती है। शायद उमर कैरानवी साहब किसी ऐसी जगह जॉब करते हैं, जहां पर काम कम और ब्लॉगिंग करने का ज्यादा मौका फराहम हो जाता होगा। बंदे के साथ ऐसा नहीं है। उमर साहब ने कहा है कि 'आपकी पोस्ट 'हमारी अन्जुमन' के मिजाज की नहीं होती।' यदि मेरी पोस्ट आपके मिजाज की नहीं होती तो यह पहले साफ करना था कि किस 'मिजाज' का लेखन आप अपने ब्लॉग पर पब्लिश करेंगे ? सबसे अहम सवाल यह है कि 'पाकिस्तान में सिखों की हत्याओं का विरोध करें भारतीय मुसलमान' शीर्षक वाली पोस्ट के बाद ही उमर साहब को यह क्यों लगा कि मेरी पोस्ट 'हमारी अन्जुमन' के मिजाज की नहीं होती ? उस पोस्ट में ऐसा क्या गलत था, जिसका बहाना बनाकर मेरी सदस्यता खत्म की गयी ? क्या इससे पहले की मेरी सभी पोस्ट 'हमारी अन्जुमन' के 'मिजाज' की थीं ? उमर साहब को मैं यह बताना चाहता हूं कि मैं हमेशा ही मजलूमों के पक्ष में लिखता रहा हूं। मजलूम गुजरात का मुसलमान है या पाकिस्तान का हिन्दू या सिख हैं, सिंगूर और नन्दीग्राम के किसान हैं, या मनसे और बाल ठाकरे के सताए हुए बिहारी हैं, इससे मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता। शायद इसीलिए संघ परिवार के हमेशा निशाने पर रहता हूं तो मेरे वामपंथी दोस्त भी नाराज हो जाते हैं। अब उमर कैरानवी जैसे लोगों को भी लगता है कि में उनके 'मिजाज' का नहीं हूं।