Friday, August 14, 2009

देश को दूसरी आजादी की सख्त जरुरत है

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
15 अगस्त। आजादी का दिन। आज के ही दिन ब्रिटिशों की गुलामी से देश आजाद हुआ था। आज के दिन सरकारी और गैर सरकारी लोग जश्न-ए-आजादी को मनाते हैं। लम्बे-लम्बे और उबाउ भाषण दिए जाते हैं। कुछ लोगों के लिए यह महज छुटृटी का दिन होता है। इत्तेफाक से 15 अगस्त शनिवार की हो तो बल्ले-बल्ले हो जाती है। लगातार दो छुटिृटयां मिलती है। अबकी बार तो और भी ज्यादा मजा आएगा। तीन लगातार छुटिृटयां मिल रही हैं क्योंकि देश आजादी की तारीख से एक दिन पहले श्रीकृष्ण का भी जन्मदिन है। यानि छुट्टियों का पूरा पैकेज। तीन दिन की मौज-मस्ती। मौज-मस्ती करने वाला वही वर्ग है, जिसका कभी आजादी की लड़ाई से कोई ताल्लुक नही रहा यानि पूंजीपति वर्ग। यह वर्ग मुगल दौर में भी सत्ता के साथ था। अंग्रेजों के दौर-ए-हुकूमत में भी अ्रंग्रेजों के साथ खड़ा था। यही वर्ग देश आजाद होने के बाद सत्ता पक्ष के साथ ही खड़ा नजर आता है। विडम्बना यह है कि यही वर्ग आज अपने आप को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी और देशभक्त कहता है। 15 अगस्त को होने वाले कार्यक्रम के प्रायोजक इसी वर्ग के होते हैं। जिन्होंने देश की आजादी की खातिर जानें कुरबान कीं, उनके वारिसान कहीं किसी गंदी गली में मर-खप गए। जो कुछ बचे होंगे वे भी कहीं नारकीय जीवन बिता रहे होंगे।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने कहा था कि 'आजादी का मतलब यह नहीं है कि सत्ता गोरे अंग्रेजों के हाथों से निकलकर काले अंग्रेजों के हाथों में चली जाए।' भगत सिंह ने कितना सही कहा था। ऐसा ही हुआ भी। आज भले ही गोरे अंग्रेज हमारे देश पर राज नहीं कर रहे हों, लेकिन ये काले अंग्रेज गोरे अंग्रेजों से कम निर्दयी नहीं हैं। सत्ता में वहीं लोग आते हैं, जो कभी अंग्रेजों के चापलूस और जरखरीद गुलाम थे। जिन्होंने आजादी की दीवानों की मुखबरी करके 'सर' और 'रायबहादुर' का खिताब हासिल किया। जिन लोगों ने अंग्रेजों कोेे 'माफीनामा' देकर रिहाई पायी, वही लोग 'सत्ता' की सबसे बड़ी कुर्सी पर विराजमान हुए।
सही मायनों में 15 अगस्त 1947 को देश की सत्ता एक जालिम ने दूसरे जालिम के हाथों में सौंपी थी। देश की जनता इसी भ्रम मे जश्न मना रही थी कि अब देश आजाद है। एक ऐसी सरकार होगी, जो जनता की सरकार होगी। सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होगी। सबको भरपेट रोटी मिलेगी। सबको काम मिलेगा। सबकी इज्जत महफूज रहेगी। सबको न्याय मिलेगा। अन्याय का खात्मा होगा। जनता को क्या पता था कि वह मृगमरीचिका की शिकार हो गयी है। जनता मृगमरीचिका से उबरी तो उसे सबसे बड़ा झटका तो यही लगा कि देश के सभी कानून कायदे तो वहीं हैं, जो अंग्रेजों के थे। आजाद देश की पुलिस भी वही थी, जो अंग्रेजों का हुक्म बजाती थी। यहां तक की जनता की पीठ पर कोड़े बरसाने वाला कारिन्दा भी तो वही कम्बख्त था, जो अंग्रेजों के हुक्म से देश की निरीह जनता की पीठ पर कोडे+ बरसाता था।
मुनाफाखोर, जमाखोर और मिलावटखोर भी वही थे, जो अंग्रेज साहब बहादुर की तिजोरियां नोटों से भर देते थे। देश आजाद होने के बाद यही लोग नेताओं की तिजोरियां भरने लगे। देश की जनता को मुनाफाखोरों, जमाखोरों और मिलावटखोरों के हाल पर छोड़ दिया गया। रही सही कसर देश की जनता को धर्मवाद, जातिवाद, भाषावाद और क्षेत्रवाद में बांटकर पूरी कर दी गयी। हद यहां तक हो गयी कि देश को आजादी दिलाने वाले योद्वाओं को भी धर्म और जाति में बांट दिया गया। भगत सिंह को ही लीजिए। कम्यूनिस्टों और आरएसएस में बहस होती रहती है कि भगत सिंह कम्यूनिस्ट थे या धार्मिक थे। यह दोनों यह नहीं जानते कि महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि भगत सिंह किस विचाारधारा को मानते थे, महत्वपूर्ण बात यह है कि भगतसिंह की पहचान उनके किस कर्म से है। सच यह है कि उनकी पहचान सिर्फ और सिर्फ भारत की आजादी दीवाने के रुप में होती है, जो मात्र 23 साल की उम्र में देश की खातिर शहीद हो्र गया। यह अलग बात है कि वे यदि जिन्दा रहते तो किस विचारधारा को आत्मसात करते। इतना जरुर कयास लगाया जा सकता है कि भगतसिंह का रुझान कम्यूनिस्ट विचारधारा की ओर तो हो सकता था, संघी विचारधारा की ओर कतई नहीं, क्योंकि भगतसिंह ने हमेशा ही साम्प्रदायिकता को देश के लिए घातक बताया था। वे हिन्दु-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। यह भी सच है कि कम्यूनिस्टों और आरएसएस का आजादी की लड़ाई में कभी कोई योगदान नहीं रहा। अब दोनों ही यह साबित करने में लगे रहते हैं कि जंग-ए-आजादी के सिपाही उनकी विचारधारा को मानने वाले थे।
बहरहाल, कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि देश तो आजाद हुआ, लेकिन जनता आज भी गुलाम है। वह गुलाम है, भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की। लोकतन्त्र के नाम पर नीम तानाशाहों की जनता एक सरकार से तंग आकर दूसरी सरकार को चुनती है, लेकिन शासक तो बदलता है, निजाम नहीं बदलता। यानि सत्ता एक जालिम के हाथ से निकलकर दूसरे जालिम के हाथों में चली जाती है। इस देश का प्रधानमन्त्री जब यह कहता है कि सूखे की वजह से आने वाले दिनों में महंगाई बढ़ सकती है, तब प्रधानमंत्री मुनाफाखोरों और जमाखोरों की मदद करते नजर आते हैं। तभी तो प्रधानमंत्री के बयान के एक दिन बाद ही खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ जाते हैं। ऐसे में देश की जनता अपने आप को असहाय और यतीम समझने लगती है, खासकर कमजोर वर्ग के लोग चिंताग्रस्त हो जाते हैं। मुनाफाखोरों और जमाखोरों को केन्द्र और राज्य सरकारों की चेतावनी के बाद जमाखोर और मुनाफाखोर महज मुस्कराकर रह जाते होंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि सरकारों के अहलकारों को चांदी का जूता मारकर अपना पालतू कुत्ता बनाया जा सकता है। अब ऐसे में देश की जनता देशभक्ति के गीत गुनगुनाए तो भी कैसे ? आजाद देश की हालत देखकर एक पूरी पीढ़ी यही कहते हुए इस दुनिया से विदा हो गयी कि इससे तो अं्रग्रेजों का राज अच्छा था। यदि सरकारें नहीं चेतीं तो वह दिन दूर नहीं, जब खुद जनता मुनाफाखोरों और जमाखोरों से सड़कों पर निपटेगी। यदि ऐसा हुआ तो इन्हीं सरकारों की पुलिस जनता की सीनों पर गोलियां चलाने से नहीं चूकेंगे। क्या अब वक्त नहीं आ गया है देश को दूसरी आजादी की सख्त जरुरत है ? सरकारें इस मुगालते में न रहें कि जनता के सब्र का प्याला नहीं छलकेगा ? मत भूलिए कि रोटियां आदमी को दीवाना बना देती हैं और दीवाना कुछ भी कर सकता है।

Wednesday, August 5, 2009

'हां, भारत में मुसलमानों के साथ पक्षपात होता है

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
इमरान हाशमी का आरोप है कि की मुंबई की एक हाउसिंग सोसायटी ने उसे इसलिए मकान नहीं दिया कि वह मुसलमान हैं। इस पर तर्रा यह कि अब इमरान हाशमी के खिलाफ ही कानूनी कार्यवाई की जा रही है। इमरान हाशमी प्रकरण के बहाने इस बहस को फिर से चर्चा में ला दिया है कि क्या भारत में मुसलमानों के साथ पक्षपात होता है। अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हां, भारत में मुसलमानों के साथ पक्षपात होता है। मैं खुद इसका भुक्तभोगी हूं। अब से लगभग चार साल पहले मेरठ के एक कॉम्प्लेक्स में मुझे ऑफिस बनाने के लिए दुकान किराए पर इसलिए नहीं दी गयी थी क्योंकि मेरा नाम सलीम अख्तर सिददीकी था। हालांकि दुकान मालिक से सभी बातें तय हो गयीं थी, लेकिन जब एग्रीमेंट के लिए नाम और पता लिखा जाने लगा तो दुकान मालिक के रवैये में फौरन बदलाव आ गया। वह कहने लगा कि मैं अपने बेटे से सलाह कर लूं हो सकता है कि उसने किसी और से बात कर ली हो। मैं समझ चुका था क्या हो गया है। मैं दोबारा पलट कर वहां नहीं गया। लेकिन सुखद बात यह रही कि दूसरी जगह एक हिन्दू ने यह कहकर मुझे अपनी दुकान फौरन दे दी कि मुझे हिन्दु-मुसलमान से कोई फर्क नहीं पड़ता। हालांकि यह छोटी -छोटी बातें हैं, लेकिन दिल का ठेस तो पहुंचाती ही हैं। बात सिर्फ मकान या दुकान की ही नहीं है। सरकारी नौकरियों में पक्षपात किया जाता है। सरकारी विभागों में मुसलमानों का काम जल्दी से नहीं हो पाता। हां, रिश्वत देकर जरुर हो जाता है। कई बैंकों ने अलिखित रुप से नियम बना रखा है कि मुसलमानों को कर्ज नहीं देना है। देहरादून में गांधी रोड पर एक जैन धर्मशाला है। उसके नोटिस बोर्ड पर साफ लिखा है कि किसी गैर हिन्दू को कमरा नहीं दिया जाएगा।
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का क्रिकेट मैच चल रहा था। मैं अपने कुछ हिन्दु दोस्तों के साथ मैच देख रहा था। मैच बहुत ही रोमांचक हो चला था। पाकिस्तान को हिन्दुस्तान ने शिकस्त दे दी थी। हिन्दुस्तान के मैच जीतते ही सभी के साथ मैं भी उछल पड़ा। सभी ने मुझे ऐसे देखा, जैसे अजूबे हो गया हो। एक ने कटाक्ष किया सलीम तुझे तो इस बात का गम मनाना चाहिए कि पाकिस्तान हार गया है। यानि ऐसा मान लिया गया है कि हिन्दुस्तान का हर मुसलमान पाकिस्तान परस्त ही हो सकता है। देश में कुछ फिरकापरस्त लोगों ने खेल के मैदान को भी जंग का मैदान बना दिया है। मुसलमान से यह उम्मीद रखी जाती है कि सचिन के आउट होने पर उन्हें अपनी रोनी सूरत ही बनानी है। आफरीदी की जिस उम्दा गेंद पर सचिन आउट हुआ है, उस गेंद की तारीफ करना मुसलमान के लिए देशद्रोह से कम नहीं है। आखिर ऐसा क्यों है कि एक भारतीय मुसलमान एक अच्छे खेलने वाले पाकिस्तानी खिलाड़ी की तारीफ नहीं कर सकता ?
आजादी के बाद बदतरीन मुसलिम विरोधी दंगों के जिम्मेदारों को आज तक सजा नहीं दी गयी। दंगों के दौरान मरता भी मुसलमान है। मुसलमानों के घरों को आग लगा दी जाती है। उसके बाद गिरफतार भी मुसलमानों को ही किया जाता है। शोर शराबा होने पर इतना जरुर होता है कि न्यायिक जांच आयोग का झुनझुना मुसलमानों को पकड़ा दिया जाता है। सालों साल जांच के नाम पर ड्रामा होता है। रिपोर्ट आती है तो उस पर कभी अमल नहीं होता । 1993 के मुंबई बम धमाकों के कसूर वारों को तो सजा सुना दी गयी, लेकिन बाबरी मस्जिद का ध्वस्त होने के बाद मुंबई के मुस्लिम विरोधी दंगों के कसूरवार आज भी खुलेआम घूम रहे हैं। क्या ये मुसलमानों के साथ ज्यादती नहीं है ? 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा से 44 मुसलमानों को एक ट्रक में भरकर मुरादनगर की गंगनहर पर ले जाकर गोलियों से भून कर नहर में बहा दिया जाता है। लेकिन जिम्मेदार पीएसी के अफसर न सिर्फ आराम के नौकरी करते हैं, बल्कि उनका प्रमोशन भी कर दिया जाता है। गुजरात में एक मुख्यमंत्री की शह पर मुसलमानों का कत्लेआम होता है और वह मुख्यमंत्री बना रहकर पीड़ितों को धमका कर जांच को प्रभावित भी करता है। ये तो मात्र कुछ उहारण हैं, वरना मुसलमानों के कत्लेआम का सिलसिला बहुत लम्बा है।
बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। मुसलमानों के बारे में ऐसे-ऐसे मिथक गढ़ दिए गए हैं, जो सच लगने लगे हैं। मसलन, मुसलमान गंदे होते हैं। जालिम होते हैं, आतंकवादी होते हैं। इनके मौहल्लों में नहीं जाना चाहिए, ये लोग हिन्दुओं को काटकर फेंक देते हैं। मुसलमान बिजली की चोरी करते हैं। चोर उच्चके होते हैं। क्या वास्तव में ऐसा है ? यह सही है कि मुसलिम मौहल्ले गंदे होते हैं। लेकिन इसका कसूरवार कौन है ? कसूरवार वे नगर निकाय हैं, जिनके सफाई कर्मचारी सालों साल भी मुस्लिम मौहल्लों की सुध नहीं लेते। वे जाना भी नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें पता है कि मुसलमानों की सुनता कौन है। और फिर उनके दिल में यह बैठा रखा है कि मुसलमान जालिम होते हैं, काट कर फेंक देते हैं। कर्मचारी यही बहाना बना कर ऐश की काटते हैं। पाश कालोनियां, जो अधिकतर हिन्दुओं की होती हैं, चमचमाती रहती हैं। उन कालोनियों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। अच्छी भली सड़क को दोबारा बना दिया जाता है। मुसलिम मौहल्लों की सड़कों की हालत हमेशा ही खस्ता रहती है। पॉश कही जानी वाली कालोनियों में भले ही चोरी की बिजली से एसी चलाए जाते हों, लेकिन बिजली चोर का तमगा मुसलमानों पर लगा दिया गया है।
चोर उच्च्के किस धर्म या जाति में नहीं होते हैं। अधिकतर चेन लुटेरे मुसलमान नहीं, दूसरे लोग होते हैं। यदि कोई मुसलमाना साइकिल चुराता हुआ पकड़ा जाता है तो उसकी जमकर पिटाई होती है। यदि चोर हिन्दू है तो उसको दो-चार थप्पड़ मारकर छोड़ दिया जाता है। नकली घी और दवाईयां, बनाने वाले, बड़े घोटाले करने वाले, मिलावटी सामान बेचने वालों की संख्या मुसलमानों से कहीं ज्यादा गैर मुंस्लिमों की होती है। पकड़े जाने पर इनको कोई कुछ नहीं कहता क्योंकि उस पर व्यापारी होने का लाइसेंस होता है। यह तो अच्छा है कि पक्षपात के चलते सरकारी नौकरियों में मुसलमानों का प्रतिशत नगण्य है, वरना भ्रष्टाचार का ठीकरा भी मुसलामानों के सिर पर ही फोड़ा जाता।
अब सवाल है कि पक्षपात कहां नहीं होता ? भारत में ही दलितों को हमेशा हाशिए पर डाले रखा गया। मुंबई में उत्तर भारतीयों को हिकारत की नजर से देखा जाता है। बाल ठाकरे की शिवसेना तो मुसलमानों को हरे सांप कहती है। शहरों में कई कालोनियां ऐसी होती हैं, जो विशेष जाति की होती हैं। मसलन, वैश्यों की कालोनी में किसी गैर वैश्य को प्लॉट या मकान नहीं दिया जाता। सरकारी नौकरियों में हमेशा से ही अलिखित रुप से ब्र्राहमणों का आरक्षण रहा। जिस गांव में जिस जाति का प्रभाव होता है, उस गांव में दूसरी जातियों के साथ भेदभाव होता है। हिन्दुस्तान का तो मुझे पता नहीं, पाकिस्तान में शिया सुन्नियों को मकान किराए पर नहीं देते तो सुन्नी शियाओं को। पाकिस्तान के शहर कराची के एफबी एरिया में ब्लॉक 20 शिया बहुल है तो उसके सामने ब्लॉक 17 सुन्नी बहुल है। दोनों ब्लॉकों को एक सड़क अलग करती है। वो सड़क जैसे सरहद का काम करती है। मैंने कुछ वक्त कराची में गुजारा है। ब्लॉक 17 में मेरे मामू रहते हैं। वहां रहते हुए कुछ शिया मेरे बहुत अजीत दोस्त बन गए थे। मेरे रिश्तेदारों को इस बात पर ही ऐतराज होने लगा था कि मेरे दोस्त शिया क्यों है। मुझे कहा गया कि श्यिा लोग अच्छे नहीं होते। सुन्न्यिों को जो कुछ खाने को देते हैं, उसमें पहले थूक देते हैं। मुझे शियाओं से कभी कोई परेशानी नहीं हुई। पाकिस्तान में महाजिरों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। इराक में कुर्दों के साथ क्या कुछ नहीं हुआ। अपने आप को सभ्य कहने वाले यूरोपियन मुल्कों में अश्वेत लोगों के साथ भेदभाव आम बात है। आस्टे्रलिया मे तो भारतीय छात्रों के साथ ज्यादती कल की ही बात है। इसलिए इमरान हाशमी साहब ऐसा होता है। ऐसी बातों को दिल पर नहीं लेना चाहिए। कहीं न कहीं कोई न कोई भेदभाव का शिकार हो रहा है और होता रहेगा।

Monday, August 3, 2009

'सच का सामना' के पैरोकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलाल हैं

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
बेहद बेहुदा और अश्लील रियलिटी शो 'सच का सामना' में करोड़ों लोगों के सामने आदमी की बहुत ही निजि समझी जाने वाली चीज सैक्स के बारे में ऐसे-ऐसे सवाल किए जा रहे हैं कि आंखें शर्म से पानी-पानी हो जाती हैं। यह तो पूछा ही जाने लगा है कि क्या आपने अपनी साली के साथ सम्बन्ध बनाए हैं या सम्बन्ध बनाने की सोची है ? हो सकता है कल यह भी पूछा जाए कि क्या आपने कभी अपनी बेटी भतीजी या भांजी के साथ भी जिस्मानी सम्बन्ध बनाए है ? 'सच का सामना' की पैरोकारी करने वालों से सवाल किया जा सकता है कि क्या केवल सैक्स के बारे में सच बोलने से ही आदमी हिम्मत वाला हो जाता है ? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुदरत ने हमें अभिव्यक्ति के लिए जबान दी है तो सोचने के लिए दिमाग दिया है। सामने वाले इंसान के बारे में दूसरा इंसान क्या सोच रहा है, इसका पता सामने वाले इंसान को नहीं चलता। जरा कल्पना कीजिए कि यदि ऐसा होता कि एक इंसान दूसरे इंसान के दिमाग को पढ़ने की क्षमता रखता तो क्या स्थिति होती ? कुदरत ने हमें जैसा बनाया है, वह सर्वोत्तम है। बहुत पहले दूरदर्शन पर सीरियल आया था। जिसमें एक बहुत सुखी परिवार दिखया गया था। परिवार के लोग घर के मुखिया की सब बातों का पालन करते थे। एक दिन घर के मुखिया को एक जादुई चश्मा हाथ लग जाता है। उस चश्मे को लगाकर घर के मुखिया में सामने वाले के विचारों को पढ़ने की शक्ति आ आ जाती थी। उस चश्मे की वजह से उसकी और परिवार की जिन्दगी नरक बन जाती है। उस सीरियल से यह सबक मिला था कि सच हमेशा अच्डा ही नहीं होता। कभी-कभी सच को छिपाकर विकट स्थितियों से बचा जा सकता है। यदि किसी सच से बेकसूर इंसानों की जान जाने का खतरा हो तो उस सच को छिपाना ही बेहतर होता है।
'सच का सामना' जैसे रियलिटी शो सच बुलवाकर इंसानों की जिन्दगी नरक बना रहा है। सचिन तेंदुलकर और विनोद काम्बली की दोस्ती में कथित दरार सच बोलने से ही आयी है। हर इंसान की अपनी पर्सनल लाइफ होती है। सैक्स भी उसकी पर्सनल लाइफ है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि सैक्स इंसान की अहम जरुरत है। इस जरुरत को आदमी पर्दे में रहकर ही पूरी करता है। क्या 'सच का सामना' के पैरोकार यह भी चाहते हैं कि पर्दे में किए जाने वाले कार्य भी सार्वजनिक रुप से किए जाएं ? सच तो यह भी है कि इंसान इस दुनिया में नंगा ही आता है। क्या आदमी को नंगा ही रहना चाहिए, क्योंकि सच तो यही है ? अब 'सच का सामना' के पैरोकार यह दलील देने की कोशिश नहीं करें कि सभ्य समाज आदमी को नंगा रहने की इजाजत नहीं देता। इसी तर्क पर यह भी कहा जा सकता है कि सभ्य समाज अपने सैक्स सम्बन्धों को सार्वजनिक करने की इजाजत भी नहीं देता।
'सच का सामना' जैसे रियलिटी शो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की देश की युवा पीढ़ी को भटकाने और गुमराह करने की साजिश के अलावा कुछ नहीं है और जो लोग इस शो की पैरवी कर रह हैं, वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलाल हैं। दरअसल, देश की जनता को सिर्फ और सिर्फ सैक्स के बारे में ही सोचने के लिए मजबूर किया जा रहा है। जब से निजी चैनलों का प्रसार बढ़ा है, तब से देश की जनता को सैक्स रुपी धीमा जहर दिया जा रहा है। यह जहर पीते-पीते एक पीढ़ी जवान हो गयी है। इस पीढ़ी में यह जहर इतना भर चुका है कि एक तरह से अराजकता की स्थिति हो गयी है। मां-बाप को हमेशा डर सताता रहता है कि पता नहीं कब बेटी घर से भागकर शादी कर ले या बेटा एक दिन आकर कहे कि 'मां ये आपकी बहु है, इसे आशीर्वाद दीजिए।' मां-बाप शर्मिंदा हो रहे है। युवा पीढ़ी अपनी सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं की परवाह न करते हुए प्रेम की पींगें बढ़ा रहे रही हे। 'ऑनर किलिंग' और प्रेम में जान देने या लेने की घटनाएं खतरनाक हद तक बढ़ रही हैं। मीडिया कह रहा है कि समाज प्यार का दुश्मन हो गया है। लेकिन मीडिया यह क्यों नहीं सोचता कि दिल्ली, चंडीगढ़, मुबंई और बंगलौर जैसे शहर पूरा हिन्दुस्तान नहीं है। देश की अस्सी प्रतिशत आबादी गांव, कस्बों और मंझोले शहरों में रहती है, जहां का समाज अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि प्रेम विवाह और वह भी अन्तरजातीय और अन्तरधार्मिक विवाह को मान्यता दे। हां, मीडिया ने गांव-गांव और गली-गली में यह संदेश जरुर पहुंचा दिया है कि आप खुलकर प्यार करिए हम आपके साथ हैं।
हिन्दुस्तान को कई तरह के विदेशी कचरे को डम्प करने का ठिकाना बना दिया गया है। 'सच का सामना' जैसे रियलिटी शो भी ऐसा ही विदेशी कचरा है। इस कचरे को बेचकर कुछ लोग पैसे से अपनी झोली भर रहे हैं। हमारी सरकार कुछ करती नजर नहीं आती। संसद में सच का समाना को लेकर चर्चा तो जरुर हुई, लेकिन लगता है कि सरकार भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने बेबस और लाचार है।