Friday, July 24, 2009

अदने से पत्रकार की इतनी हिम्मत अमिताभ को आइना दिखाने की जुर्रत करे!

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
मुंबई के अंग्रेजी टेब्लायड अखबार मिड-डे में अमिताभ बच्चन के परिवार के द्वारा पर्यावरण को हानि पहुंचानी वाली स्पोर्ट्स यूटिलिटी वेन के इस्तेमाल करने, जो कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन अन्य गाड़ियों की तुलना में अधिक करती है, की आलोचना के जवाब में मिड-डे के संवाददाता तुषार जोशी पर अपने ब्लॉग पर सवालों की झड़ी लगा दी है। अमिताभ ने जो सवाल किए हैं, वे बचकाना ही नहीं, बेमतलब भी हैं। मसलन उनका यह कहना कि 'अखबारी कागज पेड़ों की छाल से तैयार किया जाता है, जिसके लिए हरे पेड़ों को काटकर पर्यावरण को बिगाड़ा जा रहा है, इसलिए अखबार छपने बन्द होने चाहिए।' उन्होंने तुषार जोशी को मोबाइल इस्तेमाल नहीं करने की सलाह दी है, क्योंकि मोबाइल के इस्तेमाल से सेहत पर गलत असर पड़ता है।
अमिताभ बच्चन को क्या यह नहीं पता कि कागज पर सिर्फ अखबार ही नहीं छपता, किताबें और कापियां भी छपती हैं। क्या पढ़ना-लिखना बन्द कर देना चाहिए ? स्कूलों में ताले डाल देने चाहिए ? अमिताभ बच्चन साहब अखबार अभी तक आज की जरुरत है। इनका विकल्प नहीं है। ठीक है। न्यूज चैनल हैं। इंटरनेट है। लेकिन ये कभी भी अखबार का विकल्प नहीं हो सकते। मोबाइल से समय और पैसे की भारी बचत होती है। इसका फिलहाल विकल्प नहीं है। हां, यूएसवी का विकल्प है।
अमिताभ ने मिड-डे को अपने ब्लॉग माध्यम से जो जवाब दिए हैं, उनमें अपनी गलती को मानने की मंशा कम मुंहजोरी ज्यादा दिखाई दे रही है। उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा है कि 'चलिए मैं मान लेता हुं मेरी गलती है। भूल हो गयी मैं अपनी भूल को सुधारुंगा भी।' यदि अमिताभ यही कहकर अपनी बात खत्म कर देते तो ठीक था। लेकिन वे अमिताभ बच्चन हैं। इस सदी के महानायक कहलाते हैं। उन्हें भला ये कैसे गंवारा होता कि एक अदना सा पत्रकार उन्हें नसीहत देने की जुर्रत करे। लिहाजा उनका 'दीवार' वाला कैरेक्टर उभर कर सामने आ गया और उन्होंने उसी अंदाज में लिख मारा कि 'जाओ पहले अखबार छापना बन्द करो। पहले मोबाइल का इस्तेमाल बन्द करो। पहले एसी गाड़ियों को आग लगा दो। इसके बाद तुषार में भी यूएसवी का इस्तेमाल बंद कर दूंगा।' दीवार फिल्म का एक डायलॉग अमिताभ भूल गए लगते हैं, इसे हम याद दिला दिलाते हैं। डायलॉग कूछ यूं है। 'दूसरों के गुनाह गिनाने से अपने गुनाह कम नहीं हो जाते'
दरअसल, अमिताभ बच्चन एक खुदगर्ज, एहसान फरामोश और कमजोर इंसान हैं। वे नायक सिर्फ रील तक ही हैं। रियल में वह कमजोर हैं। वह 1984 में इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव जीते थे। बोफोर्स कांड में अपना नाम आने के आरोप मात्र से ही वह बौखला कर अपने बाल सखा राजीव गांधी को अकेला छोड़कर इस्तीफा देकर मैदान छोड़ भागे थे। यदि आज की बात करें तो मुंबई में जब मनसे के गुंडों ने उत्तर भारतीयों पर अपना कहर बरपाया तो वह न केवल मूकदर्शक बने रहे, बल्कि कहीं राज ठाकरे नाराज न हो जाएं, उनकी चापलूसी करते रहे और अपनी पत्नि जया से माफी मंगवाते रहे। उत्तर भारतीयों की हमदर्दी में उनके मुंह से एक बोल नहीं फूटा था। जब भी मुंबई में भयंकर बारिश होती है तो उनके बंगले 'प्रतीक्षा' और 'जलसा' में पानी भर जाता है। इस बात का जिक्र वह अपने ब्लॉग पर करते हैं कि कैसे बंगलों में पानी घुसने से उनका परिवार परेशान हो जाता है। लेकिन उनके बंगले से मात्र एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर एक झोपड़ पट्टी आबाद है। उस झोपड़ पट्टी के लोग अपने मुख्तसर सामान को अपने सिर पर रखकर घंटों पानी में ख्ड़े होकर पानी के उतरने का इंतजार करते हैं। अमिताभ बच्चन ने कभी अपने ब्लॉग पर उन झोपड़ पट्टी वालों की तकलीफों का जिक्र भूले से भी नहीं किया ? वो जिक्र करें भी क्यों ? क्योंकि कभी सुनने में भी नहीं आया कि राज बब्बर, आमिर खान, सुनील दत्त, शबाना आजमी जैसे अनेक अभिनेताओं की तरह अमिताभ बच्चन का सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता रहा है। उन्होंने अपने आप को एक मिथक के रुप में गढ़ा, जो सिर्फ अपने ही खोल में सिमटा रहता है। ये उस तथाकथित नायक की हरकतें है, जो सत्तर और अस्सी के दशक में पर्दे पर गरीबों, मजलूमों और वंचितों की हक की बात करता था और जिसके बदले में देश की जनता ने उन्हें नायक बनाया तो मीडिया ने उन्हें सदी का महानायक घोषित किया। हालांकि यह बात समझ से परे है कि उनसे बेहतर कई अभिनेताओं के रहते मीडिया उन्हें सदी का महानायक क्यों कहता है ?
जब अमिताभ बच्चन मुंबई में संघर्ष कर रहे थे तो महमूद, अनवर (महमूद के भाई), शत्रुघन सिन्हा, नवीन निश्चल आदि कलाकारों ने उनका तन-मन-धन से साथ दिया था। लेकिन यह अमिताभ बच्चन की एहसान फरामोशी ही कही जाएगी कि सफलता मिलने के साथ ही उन्होंने अपने मोहसिनों को भूला दिया। यहां तक कि अपने बेटे अभिषेक की शादी में बुलाया तक नहीं। सिर्फ इतना ही नहीं उन्होंने इलाहाबाद में रह रहे अपने खानदान के करीबी लोगों तक को भी शादी में बुलाना मुनासिब नहीं समझा। कहा तो यह भी जाता है कि परवीन बॉबी की बरबादी के पीछे भी अमिताभ बच्चन का ही हाथ था। ये सब वे बातें हैं, जिनका जिक्र समय-समय पर मीडिया में होता रहता है। मीडिया से दूर रहने वाले अमिताभ बच्चन की और क्या-क्या कारगुजारियां रही होंगी, कौन जानता है ?

4 comments:

  1. बाकी पर नो कमेंट, बस यू एस वी को एस यू वी कर लें पूरे आलेख में.

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  2. बहुत खूब। किस किस पर कमेंत करूं बस, बहुत खूब

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  3. तुषार जोशी का लेख महामूर्खता पूर्ण था, अमित का यूएसवी में चलना आम आदमी के भले के लिये ही है. यदि अमित सामान्य गाड़ी में चलें तो किसी भी ट्रेफिक के चौराहे पर रुकने पर कैसी टैरीफिक हालात होंगे क्या इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है.

    अमित को खुदगर्ज और अहसान फरामोश कहने वाले खुद सबसे बड़े मक्कार हरामखोर और कमज़र्फ हैं तुषार जोशी और उसके लग्गू भग्गू अखबार वाले कमअक्ल लोग अपनी हीनता की ग्रन्थि के शिकार हैं अमित की ऊंचाई से चिढ़कर अपने न जाने कहां कहां के बाल नौंच रहे हैं

    अमित को महानायक जनता ने बनाया है, किसी मिडडे या तुषारजोशियों के हैं हैं फैं फैं ठें ठें ने नहीं बनाया
    वैसे लिखते रहिये, आप लोग उचक उचक कर क्या उखाड़ लेंगे

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  4. सैंकडों हजारों गाड़ियों में कहीं इक्का-दुक्का एक SUV होती है और वो भी विदेशी और उत्सर्जन मानकों को कड़ाई से पूरा करने वाली. यदि अमिताभ ऐसी गाडी में चलते हैं तो इसमें पर्यावरण को कोई खतरा नहीं है.

    और यह ठीक है की अखबार छापना कुछ कम होना चाहिए. बहुत से लोग स्वयं को पत्रकार दिखने और सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए अखबार निकालने लगते हैं, जिनके पाठक भी नहीं होते.

    और सरकारी कार्यालयों में बेवजह मंहगे कागज़ पर निकलनेवाली पत्रिकाएं भी छापना बंद होना चाहिए. उन्हें कोई नहीं पढता.

    आपके हिसाब से SUV का विकल्प क्या है, ठेला या तांगा?

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