Wednesday, October 29, 2008

यह हिन्दु आतंकवाद का चेहरा नहीं है

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मालेगांव और मोदासा बम विस्फोट में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और उसके कुछ साथियों की संलिप्तता के बाद जो लोग इसे हिन्दू आतंकवाद कह रहे हैं, वह गलत कह रहे हैं। इस बात को बार-बार दोहराया जा चुका है कि आतंकवाद को धर्म से जोड़ना गलत ही नहीं, खतरनाक भी है। सिमी, इंडियन मुजाहिदीन, हुजी या लश्कर-ए-तोयबा के लोग न तो सभी मुसलमानों के नुमाइन्दा हैं और न ही संघ परिवार और उससे सम्बन्ध रखने वाली साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर सभी हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करती है। विडम्बना यह है कि जो लोग आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ने का विरोध कर रहे थे, वही अब हिन्दू आतंकवाद की रट लगा रहे हैं। और जो आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ रहे थे, वे अब सफाई देने की मुद्रा में कह रहे हैं कि हिन्दुत्व में आतंकवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। अपने गुलाम से भी बराबरी का सलूक करने की सीख देने वाला इस्लाम, दया और सहिष्णुता को प्राथमिकता देने वाला हिन्दुत्व आतंकवाद की पैरवी नहीं कर सकता। समस्या न तो इस्लाम है और न ही हिन्दुत्व। समस्या वे कट्टरपंथी हैं, जो अपनी दुकानदारी चलाने के लिए अपने-अपने धर्मों के कुछ लोगों को गुमराह करके बम धमाकों में मासूम और बेगुनाह लोगों की जान लेने के लिए उकसाते हैं।
संघ परिवार ने हिटलर के सहयोगी गोएबल्स की तर्ज पर इस्लामी आतंकवाद का प्रचार करके आतंकवाद को इस्लाम और मुसलमानों से जोड़कर जहरीला प्रचार किया। जब मुसलमानों और धर्मनिरपेक्ष लोगों की तरफ से यह कहा गया कि कुछ सिरफिरे लोगों की हरकत के लिए इस्लाम और देश के सभी मुसलमानों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता तो शब्दों का मायाजाल बुनने में माहिर संघ परिवार ने यह कहना आरम्भ किया कि 'ठीक है सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन सभी पकड़े गये आतंकवादी मुसलमान ही क्यो हैं ?÷ क्या संघ परिवार प्रज्ञा सिंह के पकड़े जाने के भी यही कहना जारी रख सकेगा ? क्या अब यह नहीं कहा जा सकता कि मालेगांव और मोदासा के बम धमाकों में लिप्त पाए गए सभी लोगों का सम्बन्ध संघ परिवार से ही क्यों है ? संघ परिवार अपनी स्थापना (१९२५) से ही किसी भी बहाने मुसलमानों और ईसाईयों को निशाना बनाता चला आ रहा है। उसने गुजरात नरसंहार को गोधरा की स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताया तो कंधमाल में धर्मांतरण को मुद्दा बनाकर ईसाईयों के पीछे पड़ा हुआ है। संघ परिवार की हरकतों की आलोचना करने वालों को पूरा संघ परिवार एक स्वर में छदम धर्म निरपेक्षवादी प्रचारित करता है।
संघ परिवार की रोजी-रोटी मुसलमानों और ईसाईयों के अस्तित्व पर ही चलती है। दिल्ली से प्रकाशित एक हिन्दी दैनिक की एक रिपोर्ट के मुताबिक खुफिया संगठनों ने प्रज्ञा सिंह ठाकुर की गिरफतारी के बाद सरकार को एक साल पहले दी गयी अपनी एक रिपोर्ट की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। रिपोर्ठ में खुलासा किया था कि देश में दस से अधिक ऐसे हिन्दु कट्टरपंथी संगठन चल रहे हैं, जिनके द्वारा संचालित स्वयंसेवी संस्थाओं को अमेरिका, कनाडा और अन्य यूरोपीय देशों से लोक कल्याण के नाम पर भारी आर्थिक मदद मिल रही है। लोक कल्याण और सेवा कार्यो के लिए प्राप्त किए गए इस धन का प्रयोग देश में साम्प्रदायिक तनाव भड़काने और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है। रिपोर्ट में गुजरात की तरह ही कर्नाटक और उड़ीसा में भी हिंसा होने की आशंका व्यक्त की गयी थी। ख्ुफिया संगठनों ने सरकार को यह रिपोर्ट एक साल पहले ही दे दी थी।
यह सही है कि देश में गुजरात हुआ। बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। और भी बहुत कुछ हुआ। इसके लिए देश के सभी हिन्दु जिम्मेदार नहीं हैं। न्याय नहीं मिला, यह भी सही है। सच यह भी है कि गुजरात मुद्दे पर हर्षमन्दर और तीस्ता तलवार जैसे हिन्दु संघ परिवार के सामने सीना तान के खड़े हो जाते हैं। सैकुलर मीडिया भी गुजरात नरसंहार पर मजलूमों के साथ खड़ा था। यही लोग मजलूम मुसलमानों की पैरवी करते रहे हैं। हर्षमंदर वो शख्स हैं, जिन्होंने गुजरात दंगों के विरोध में अहमदाबाद शहर के जिलाधिकारी के पद से इस्तीफा दे दिया था। याद करें, क्या कभी किसी मुस्लिम सांसद या विधायक ने बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों के विरोध में इस्तीफा दिया था ? सिमी, इंडियन मुजाहिदीन और लश्करे तोयबा जैसे संगठनों द्वारा किया गया प्रत्येक बम धमाका संघ परिवार को मजबूती प्रदान करता है तो संघ परिवार की कारगुजारियां सिमी जैसे संगठनों के कृत्यों को तर्क प्रदान करती हैं। दोनों को एक दूसरे का पूरक कहना सही होगा।

Friday, October 24, 2008

ईदी अमीन बनने की कोशिश कर रहे हैं राज ठाकरे

सलीम अख्तर सिददीकी
एक बार फिर उत्तर भारतीय राज ठाकरे के निशाने पर हैं। रेलवे में भर्ती के लिए होने वाली परीक्षा देने गये उत्तर भारतीय छात्रों को मनसे के कार्यकर्ताओं ने जिस तरह से दौड़ा-दौड़ा कर पीटा है, उसे देखकर लगता है कि जैसे उत्तर भारत के लोगों के लिए महाराष्ट्र युगाण्डा है, जहां के तानाशाह इदी अमीन ने भारतीयों के साथ इसी तरह का सलूक किया था, जैसा कि राज ठाकरे कर रहे हैं। इदी अमीन का तर्क भी यही था कि भारतीय मूल के लोगों ने स्थानीय लोगों के रोजगार पर कब्जा कर लिया है। इदी अमीन तो एक देश का तानाशाह था। एक तानाशाह के कुकृत्यों को नजरअंदाज किया जा सकता है। लेकिन राज ठाकरे एक जनतान्त्रिक देश में ही ईदी अमीन बनने की कोशिश कर रहे हैं। वह अपने आपको कानून, सरकार और संविधान से बड़ा समझने लगे हैं। उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होती इसलिए उनका दुस्साहस बढ़ता जा रहा है। मुम्बई हाईकोर्ट राज ठाकरे के उत्पात को आतंकवादी सरीखी हरकत कह चुका है। लेकिन लगता है कि महराष्ट्र सरकार के साथ ही केन्द्र सरकार भी राज ठाकरे के सामने नतमस्तक हो गयी है। रेल मन्त्री लालू प्रसाद ने राज ठाकरे को मानसिक रोगी कहा है। सवाल यह है कि इस मानसिक रोगी को केन्द्र सरकार इलाज के लिए किसी अस्पताल में भर्ती क्यों नहीं कर रही है। किसी मानसिक रोगी को समाज में खुला छोड़ने से वह लोगों पर ऐसे ही र्इ्रंट-पत्थर बरसाता है, जैसे आजकल राज ठाकरे के गुंडे उत्तर भारतीयों पर बरसा रहे हैं। राज ठाकरे नाम के इस मानसिक रोगी का यह नहीं पता चलता कि यह किस पर टूट पड़ेगा। कभी वह जया बच्चन के हिन्दी में बोलने पर बिफर जाता है तो कभी बिहारियों को छट पूजा करने से रोकता है। विद्रुप यह है कि अमिताभ बच्चन जैसी शख्सियत, जो परदे पर नाइंसाफी से लड़ने का नाटक करती है, वह एक मानसिक रोगी से न केवल खुद माफी मांगता है, बल्कि जया बच्चन से भी माफी मंगवाकर उत्तर भारतीयों के मनोबल को सिर्फ इसलिए तोड़ता है कि राज ठाकरे महाराष्ट्र में उनकी और उनके परिवार के सदस्यों की फिल्मों के बहिष्कार की धमकी देते हैं। राज ठाकरे को मानसिक रोगी बताने वाले लालू प्रसाद से भी सवाल किया जाना चाहिए कि उनके पन्द्रह सालों के शासन के बाद भी बिहारियों की एक बड़ी संख्या को क्यों दूसरे प्रदेशों में रोटी-रोजी की तलाश में जाना पड़ता है ? बिहार में ही रोजगार के क्यों अवसर पैदा नहीं किए गए ? महराष्ट्र में ही नहीं उत्तर भारत के अन्य पा्रंतों में भी बिहारियों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है। खुद को 'सम्भ्रांत' और 'कुलीन' कहने वाले लोग अक्सर बिहारियों के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते देखे जा सकते हैं। बिहारियों की इस दुर्दशा के लिए बिहार में शासन कर चुके वे राजनैतिक दल जिम्मेदार हैं, जिन्होंने बिहारियों को केवल वोट समझा, उनकी तरक्की के लिए कुछ नहीं किया। उन्हीं के कारण आज बिहारी शब्द एक गाली बन गया है। विडम्बना यह है कि महराष्ट्र में भी बिहारी राजनैतिक हित साधने का औजार बन कर रह गये हैं।
लोगों को अपने परिवार से दूर जाकर दूसरे प्रदेश में रोजी-रोटी तलाशने का किसी को शौक नहीं होता। जब किसी को अपने देश-प्रदेश में रोजी-रोटी का सहारा नहीं होता, तभी वह अपने घर को छोड़ता है। भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को देश में कहीं भी जाकर अपना कारोबार करने तथा निवास करने का अधिकार देता है। देश के नागरिक का यह संवैधानिक हक छीनने का अधिकार किसी बाल ठकारे या राज ठकारे को नहीं हो सकता। यदि बाल ठाकरे या राज ठाकरे यह कहते हैं कि महराष्ट्र मराठों का है तो कल तमिल भी यह कह सकते हैं कि तमिलनाडु तमिलों का है। कल प्रत्येक प्रदेश से यही आवाज उठेगी तो देश की एकता और अखंडता का क्या होगा। यदि अन्य प्रांतों में बिहारियों को ऐसे ही जलील किया जाता रहा तो बिहार और झारखंड के लोग अपने खनिज पदार्थों को अपने प्रदेश से बाहर जाने पर रोक के लिए अभियान भी चला सकते हैं। यदि बिहारी ऐसा कोई आन्दोलन चलाने लगें तो तब राज ठाकरे और बाल ठाकरे यही दुहाई देते नजर आयेंगे कि देश की सम्पदा पर सभी भारतीयों का अधिकार है।
धर्म, प्रांत और जातिवाद की राजनीति इस देश के लिए नई नहीं है। सभी ने राजनीति के इस 'शॉर्टकट' को अपनाया है। बाल ठाकरे ने 1966 में दक्षिण भारतीयों को निशाना बनाकर यह शॉर्ट कट अपनाया था। केवल इन्होंने ही नहीं कमोबेश सभी राजनैतिक पार्टियों ने इसी प्रकार के शॉर्टकट अपनायें हैं। भाजपा ने हिन्दुओं और राम को राजनीति का मोहरा बनाकर 6 साल तक सत्ता का सुख भोगा था। राम मन्दिर तो बना नहीं। अब आतंकवाद को खत्म करने का वादा लेकर सत्ता में आना चाहती है। नरेन्द्र मोदी गुजरातियों की अस्मिता को बचाने के नाम पर गुजरात की सत्ता पर काबिज हैं। मायावती दलितों के कंधों पर सवार होकर देश का प्रधनमन्त्री बनना चाहती हैं। मुलायम सिंह बटला हाउस मुठभेड़ के नाम पर मुसलमानों को रिझाने में लगे हैं। सब के अपने-अपने टारगेट हैं। भारतीय हाशिए पर हैं। सभी राजनैतिक दलों ने मिलकर भारतीयों को धर्मवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद में में बांट दिया है। क्या कभी ऐसा समय भी आयेगा, जब भारतीयों की बात होगी।