Monday, August 5, 2013

आरएसएस भड़काती है दंगे


राम पुनियानी
मेरे एक मित्र, आसानी से हार मानना जिनके स्वभाव का हिस्सा नहीं है, अपनी वक्तृत्व कला का उपयोग कर मुझे यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि साम्प्रदायिक हिंसा के लिये भाजपा से कहीं ज्यादा कांग्रेस जिम्मेदार है। उन्होंने देश में हुये प्रमुख साम्प्रदायिक दंगों को गिनाया और यह बताया कि जब ये भीषण घटनाक्रम हुये तब कांग्रेस, सम्बन्धित क्षेत्र में सत्ता में थी। वे पूछते हैं कि हम गुजरात हिंसा की एक घटना को इतना अधिक महत्व क्यों दे रहे हैं और उसे नरेन्द्र मोदी व भाजपा के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा क्यों बना रहे हैं? कुछ अन्य लोग भी अक्सर कहते हैं कि मोदी की सरकार की सन् 2002 के कत्लेआम में जो भूमिका थी, लगभग वही भूमिका कांग्रेस की सन् 1984 के सिक्ख-विरोधी दंगों में थी। अगर मोदी ने यह कहकर गुजरात को सही ठहराया था कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है तो राजीव गांधी ने भी सिक्खों की मारकाट को औचित्यपूर्ण बताते हुये कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती काँपती है; तो फिर मोदी और भाजपा को हम किस तरह साम्प्रदायिक दंगों के लिये अधिक जिम्मेदार ठहरा सकते हैं?
भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत हुयी अंग्रेजों द्वारा फूट डालो और राज करो की नीति लागू किये जाने के साथ। इस नीति के अन्तर्गत ही उन्होंने इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया और शासकों को धर्म के चश्मे से देखना शुरू किया। इसी सोच को जमींदारों और राजाओं-नवाबों के अस्त होते वर्ग ने अपना लिया। इन्हीं अस्त होते वर्गों ने मुस्लिम और हिन्दू झ्र दोनों ब्रांडों की साम्प्रदायिकता की नींव रखी। हिन्दू साम्प्रदायिक तत्व मुस्लिम राजाओं पर मंदिर ढहाने और जबरन धर्मांतरण करवाने का आरोप लगाते थे जबकि मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्व यह दावा करते थे कि वे देश के शासक हैं।
इतिहास के इस तोड़े-मरोड़े गये संस्करण के कारण, हिन्दुओं और मुसलमानों में आपसी घृणा बढ़ती गयी। शनै:-शनै: साम्प्रदायिक पार्टियाँ उभर आईं, जिनमें मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा शामिल हैं। विभिन्न साम्प्रदायिक दलों ने समाज में नफरत फैलाने में तो कामयाबी हासिल कर ली परंतु चुनाव के मैदान में उन्हें कभी सफलता न मिल सकी। ब्रिटिश दौर में एक समुदाय को दूसरे समुदाय का शत्रु बनाने में अंग्रेजों द्वारा तैयार किये गये इतिहास के साम्प्रदायिक संस्करण की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अंग्रेजों ने एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी परंतु उस वक्त भी सड़कों और चौराहों पर हिंसा करने वाले लोग तो साम्प्रदायिक संगठनों के सदस्य ही हुआ करते थे। उस समय पुलिस और प्रशासन तटस्थ प्रेक्षक की भूमिका निभाता था। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि हिन्दू-मुस्लिम हिंसा के लम्बी त्रासद सिलसिले के पीछे कई कारक थे, जिन्होंने अलग-अलग भूमिकाएं निभाईं। अंग्रेजों के दौर में साम्प्रदायिक दंगों के लिये ब्रिटिश सरकार की नीतियां (इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण और फूट डालो और राज करो की नीति) व साम्प्रदायिक तत्व जिम्मेदार थे। तत्कालीन पुलिस और प्रशासन को इस सिलसिले में कतई दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
धीरे-धीरे समय बदलने लगा। स्वाधीनता के बाद प्रशासन और पुलिस तटस्थ नहीं रह गये। वे पक्षपात करने लगे। एक जाने-माने पुलिस अधिकार डाक्टर व्ही. एन. राय द्वारा किये गये अनुसंधान से यह सामने आया है कि कोई भी साम्प्रदायिक हिंसा तब तक जारी नहीं रह सकती जब तक कि प्रशासन और राजनैतिक नेतृत्व ऐसा न चाहे। इसके लिये मुख्यत: दोषी हैं साम्प्रदायिक ताकतें, जो न केवल अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में दुष्प्रचार करती रहीं बल्कि उनके कुछ साथियों ने साम्प्रदायिक हिंसा का इस्तेमाल, समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करने के लिये किया। धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण से साम्प्रदायिक ताकतों को सामाजिक, राजनैतिक और चुनावी क्षेत्र में लाभ हुआ। अन्य पार्टियों के राजनेताओं ने भी कबजब हिंसा का इस्तेमाल सत्ता में आने या उसमें बने रहने के लिये किया। उस समय हुये दंगों की जांच करने वाले विभिन्न आयोगों ने साम्प्रदायिक ताकतों की भूमिका को रेखांकित किया है। अहमदाबाद के 1969 के दंगों की जगमोहन रेड्डी न्यायिक आयोग द्वारा की गयी जाँच की रपट स्पष्ट कहती है कि दंगों के पीछे आरएसएस और जनसंघ के नेताओं की भूमिका थी। इस तरह, स्वतंत्रता के तुरंत बाद के वर्षों में, साम्प्रदायिक ताकतों ने सत्ता में न रहते हुये भी, दंगे भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
सन् 1970 के भिवंडी-जलगांव दंगों की जाँच करने वाले न्यायमूर्ति डी. पी. मादौन आयोग की रपट कहती है कि हिन्दू समुदाय के कुछ सदस्य, विशेषकर आरएसएस व पीएसपी के कार्यकर्ता, गड़बड़ी फैलाने के लिये आतुर थे और उन्हें इसमें सफलता इसलिये मिली क्योंकि पुलिस तटस्थ बनी रही। सन् 1971 के तेल्लीचेरी दंगों की न्यायमूर्ति जोसफ विथ्याथिल ने जाँच की थी। इस रपट में यह कहा गया है कि मुस्लिम-विरोधी प्रचार की शुरूआत आरएसएस व जनसंघ ने की थी। इस सबसे सामाजिक वातावरण बिगड़ गया और समाज धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत हो गया। सन् 1979 के जमशेदपुर दंगों की जाँच करने वाले न्यायिक आयोग ने कहा कि हिंसा की शुरूआत संयुक्त बजरंगबली अखाड़ा समिति झ्र जो कि आरएसएस से जुड़ा संगठन था झ्र ने की। इस संगठन ने जानबूझकर जुलूस के रास्ते को लेकर विवाद खड़ा किया और इसके सदस्यों ने मुस्लिम विरोधी नारे लगाए।
कन्याकुमारी के 1982 के दंगों की जस्टिस वेणु गोपाल आयोग की जाँच रपट उन अफवाहों को फैलाने में आरएसएस की भूमिका की चर्चा करती है, जिनके चलते हिंसा भड़की। जस्टिस श्रीकृष्ण जांच आयोग ने यह साफ कर दिया है कि मुंबई के दंगों में भाजपा के साथी दल शिवसेना की अत्यंत कुत्सित भूमिका थी।
प्रश्न यह है कि क्या दंगों के लिये केवल शासक दल को दोषी ठहराया जाना उचित है? साम्प्रदायिक हिंसा, समाज को बाँटने वाले साम्प्रदायिक  प्रचार, पुलिस की भूमिका और शासक दल के दृष्टिकोण का मिलाजुला नतीजा होती है। अत: इन सभी को इस हिंसा के लिये दोषी ठहराया जा सकता है और ठहराया जाना चाहिए। शासक दल, जो कि अधिकांश दंगों के समय कांग्रेस रही है, को हिंसा से अपेक्षित कड़ाई से न निपटने, कई मौकों पर हिंसा को नजरअंदाज करने और कभी-कभी हिंसा को भड़काने झ्र उदाहरणार्थ दिल्ली में झ्र का दोषी ठहराया जा सकता है। इस सिलसिले में पुलिस की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। ब्रिटिश राज में साम्प्रदायिक दंगों में पुलिस पूरी तरह तटस्थ रहती थी। परंतु आज वह दंगों में भाग लेती है। जैसा कि महाराष्ट्र के धुले में सन् 2012 में हुये दंगों से जाहिर है। यहाँ हिन्दू दंगाईयों की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि पुलिस ने खुद ही मुसलमानों पर गोली चालन कर कई निर्दोष व्यक्तियों की जान ले ली।
तो साम्प्रदायिक हिंसा के मसले पर हम भाजपा और कांग्रेस की तुलना किस रूप में कर सकते हैं? भाजपा, दरअसल, आरएसएस की राजनैतिक शाखा है। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार, अफवाहें फैलाने, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने, भड़काऊ भाषणबाजी और हिंसा करने का आरएसएस का कई दशकों का अनुभव है। उसने इस कौशल से अपने अनुषांगिक संगठनों और अपनी विभिन्न शाखाओं को भी लैस कर दिया है। गुजरात के कत्लेआम में संघ ने ये सभी भूमिकाएं निभाईं। परंतु बाकी दंगों में भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सत्ता में न रहने का अर्थ यह नहीं है कि आरएसएस ने दंगे भड़काने में प्रमुख भूमिका अदा नहीं की। यह तर्क कि चूंकि अधिकांश दंगे कांग्रेस के राज में हुये इसलिये दंगों के लिये कांग्रेस ही दोषी है, दरअसल, साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा कुटिलतापूर्वक गढ़े गये कई मिथकों में से एक है। यद्यपि साम्प्रदायिक हिंसा के संदर्भ में कांग्रेस का दामन पूरी तरह पाकसाफ नहीं है परंतु उसकी भूमिका की तुलना भाजपा की भूमिका से करना घोर अनुचित होगा। सिक्ख-विरोधी दंगों को छोड़कर, कांग्रेस ने कभी दंगे करवाने में केन्द्रीय भूमिका नहीं निभाई। हाँ, उसने अपने कर्तव्यपालन में कोताही अवश्य बरती। परंतु भाजपा की तो अधिकांश दंगे भड़काने में केन्द्रीय भूमिका रही है।
सन् 1984 के सिक्ख कत्लेआम में कांग्रेस की भूमिका उसकी बहुवादी व धर्मनिरपेक्ष विरासत पर एक बदनुमा दाग है। उसने इस दाग को मिटाने की काफी कोशिशें की हैं। कांग्रेस ने दंगों के लिये माफी माँगी है और उसकी सरकार का प्रधानमंत्री एक सिक्ख है, जो पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद सबसे लम्बे समय तक लगातार इस पद पर आसीन रहने वाले व्यक्ति है। भाजपा की किसी और पार्टी से इसलिये भी तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि भाजपा, आरएसएस की राजनैतिक संतान है और आरएसएस का लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र का निर्माण है। समाजविज्ञानियों ने कांग्रेस और भाजपा की राजनीति के बीच के विरोधाभास को स्पष्ट किया है।
एजाज अहमद कहते हैं कि जहाँ भाजपा का कार्यक्रम ही साम्प्रदायिक है वहीं कांग्रेस की साम्प्रदायिकता, अवसरवादी है। मुकुल केसवन ने अपने एक हालिया लेख में कहा कि कांग्रेस मूलत: बहुवादी और मौका पड़ने पर साम्प्रदायिक है जबकि भाजपा विचारधारा के स्तर पर साम्प्रदायिक और मौका पड़ने पर धर्मनिरपेक्ष है।
इस तथ्य के बावजूद कि साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे कई कारक होते हैं, दो गलत चीजें मिलकर एक सही नहीं बन सकतीं। कांग्रेस को ऊपर से नीचे तक व्यापक सुधार लाने होंगे ताकि साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पाया जा सके। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार का प्रभावी खण्डन होना चाहिए और कानूनों में इस तरह के परिवर्तन होने चाहिए की न केवल दंगाई बल्कि दंगों को रोकने के अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले अधिकारियों को भी सजा मिल सके। जहां तक आरएसएस और उसके साथियों का सवाल है, उनसे यह उम्मीद करना बेकार है कि वे साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पाने में देश की कोई मदद करेंगे।

1 comment:

  1. सभी मुस्लिम पाठको को स्पष्ट कर दू की राम पुनियानी जी जेसे अच्छे लोग जब ऐसे लेख लिखते हे तो वो अपना फ़र्ज़ निभा रहे होते हे वो हिन्दू हे और हिन्दू उग्र और हिन्दू कठ्मुल्ल्वादी ताकतो से लड़ रहे होते हे उसी परकार हमें भी भारतीय उप्महादिप के ६० करोड़ मुस्लिमो के बीच मौजूद हर उग्रवादी और कठमुल्लावादी तत्वों से लड़ना ही हे राम पुनियानी जी अपना काम कर रहे हे हमें अपना करना ही हे

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