Thursday, June 2, 2016

69 लोगों के कातिल सिर्फ 24 लोग?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
2002 के दंगों में अहमदाबाद की गुलबर्गा सोसायटी में हुए अभूतपूर्व हत्याकांड का फैसला आ गया है। अक्सर ही दंगों के मुकदमों को खुद पीड़ित संजीदगी से नहीं लड़ते हैं। इसलिए हाशिमपुरा के कातिल बरी हो जाते हैं, तो मलियाना हत्याकांड का केस ऐड़ियां रगड़ता हुआ चलता है। मलियाना हत्याकांड का केस चलता हुए 26 साल हो चुके हैं। जो हालात हैं, उनसे लगता है कि 73 आदमियों के कातिल बरी ही हो जाएंगे। ऐसे ही जैसे हाशिमपुरा के कातिल बरी हो गए। लेकिन गुलबर्गा सोसायटी का मामला अलग है। एहसान जाफरी के बेवा जकिया जाफरी ने जिस जीवटता के साथ दंगाइयों का मुकाबला अदालत में किया है, उसकी मिसाल आजाद हिंदुस्तान में शायद ही मिले। लेकिन वह भी अकेले ही ऐसा नहीं कर पातीं अगर उनके साथ तीस्ता तलवाड़, हर्षमंदर और रूपा मोदी जैसे लोग साथ खड़े नहीं होते। अजीब विडंबना है कि एक मोदी वह थे, जिन पर ये आरोप लगे कि उन्होंने हिंदुओं को गुस्सा निकालने की पूरी छूट दी थी, तो दूसरी ओर एक रूपा मोदी हैं, जिन्होंने दंगाइयों को उनके अंजाम तक पहुंचाने के लिए दिन रात एक कर दिया और सांप्रदायिक ताकतों से बिल्कुल नहीं डरीं। रूपा मोदी दरअसल एक पारसी परिवार से हैं। गुलबर्गा सोसाएटी में उनका अकेला परिवार पारसी था। उनका एक बेटा भी लापता हुआ था, जो आज तक नहीं मिला है। यूं अदालत के फैसलों पर उंगली नहीं उठाई जा सकती है। लेकिन कुछ सवाल तो किए ही जा सकते हैं। आखिर क्या वजह है कि अदालत यह कह रही है कि गुलबर्गा सोसायटी की घटना में कोई साजिश नहीं थी? क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि दोषियों को उतनी कड़ी सजा नहीं मिल पाएगी, जैसी उम्मीद की जा रही है? साजिश थी या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन इस सच से कैसे इंकार किया जा सकता है कि 69 लोगों को बेरहमी से मार डाला गया? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या महज 24 लोगों ने इतने बड़े हत्याकांड को अंजाम दे दिया? ऐसा लगता है कि अदालतें भी कभी-कभी निष्पक्षता से काम नहीं ले पातीं। इसमें शक नहीं कि अदालतों पर दंगाइयों के साथ नरम रवैया अपनाने का दबाव अक्सर डाला जाता रहा है। 61 आरोपियों में से महज 24 लोगों को दोषी मानना भी के पीछे भी क्या सत्ता का दबाव है?

Wednesday, June 1, 2016

देश के कोने-कोने में बिखरी हैं जिंदा लाशें

सलीम अख्तर सिद्दीकी
23 साल बाद निसार रिहा हो गया। जिंदगी के 23 साल गर्क हो गए जेल की सीखचों के पीछे। सुरक्षा एजेंसियों ने झूठ-फरेब का सहारा लेकर न जाने कितने ह्यनिसारोंह्ण को दर-बदर कर दिया। उन्हें जिंदा लाश में तब्दील कर दिया। उनके परिवार को खत्म कर दिया। आर्थिक रूप से भी और सामाजिक रूप से भी। 90 के दशक में एक हवा चली थी। देखने निकलेंगे तो देश के कोने में कोने में निसार जैसी जिंदा लाशें मिल जाएंगी। आतंकवाद की। कहीं भी कोई आतंकवादी घटना घटी नहीं कि मुसलिम लड़कों को उठाकर जेल में ठूंसा जाने लगा। यह जांच किए बगैर कि वह उसमें शामिल था भी या नहीं? भयानक अत्याचार करके उनसे उस इकबालिया बयान पर साइन कराए जाते रहे, जो उसने दिया ही नहीं। निसार के साथ भी ऐसा ही किया गया। अदालतें आंख बंद करे इकबालिया बयान के आधार पर सजाएं देती रहीं। सुनवाई दर सुनवाई होती रहीं। आखिर में कई लोग 10, 15, 20 और 23 साल बाद जिंदा लाश बनकर रिहा होते रहे। उनकी रिहाई पर किसी ने प्राइम टाइम नहीं किया। एनडीटीवी करे तो वह वामपंथी हो जाता है। देशद्रोही हो जाता है। कई बदनसीब ऐसे भी रहे जो बेकसूर थे, लेकिन उन पर आतंकवादी का ठप्पा लगाकर दुनिया से रुखसत कर दिया गया। पुलिस को पता चल जाता था उनकी गढ़ी गई झूठी कहानी अदालत में नहीं टिक रही है। इसलिए उसे मार दिया गया। कहानी गढ़ ली जाती कि पुलिस हिरासत से भागने की कोशिश कर रहा था, मुठभेड़ में मारा गया। इस झूठ फरेब के बीच कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि आतंकवाद का कोई दूसरा रंग भी हो सकता है। कई संघ कार्यकर्ता देश के विभिन्न शहरों में बम बनाने में चूक होने पर हुए धमाकों में मारे गए। शिनाख्त भी हो गई। उनके ठिकानों से मुसलिम वेशभूषा और नकली दाढ़ियां बरामद की गर्इं। लेकिन बात दबा ली गई। लेकिन जब साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित जैसे लोग मालेगाव धमाके में पकड़े गए, तो मालूम चला कि धमाके कोई हुजी, कोई इंडियन मुजाहिदीन या लश्कर नहीं कर रहा है। अभिनव भारत संस्था के अतिवादी लोग कर रहे हैं। वे आरएसएस से भी ज्यादा खतरनाक लोग हैं। इतने कि वे संघ परिवार को भी ह्यउदारह्ण मानते हैं। उनके इरादे खतरनाक थे। यह इत्तेफाक नहीं है कि जब से अभिनव भारत की पोल खुली है, तब से देश में धमाके नहीं होते। अब अभिनव भारत के लोगों पर भी एनआईए मेहरबान हो गई है। देर सवेर उनके अच्छे दिन भी आ ही जाएंगे।