Thursday, August 27, 2015

आरक्षण आंदोलन से निकले सवाल

सलीम अख्तर सिद्दीकी                                                                                                                                 जिस तरह की भाषा का प्रयोग हार्दिक पटेल ने 25 अगस्त को अपने भाषण में किया था, उससे तभी आशंका हो गई थी कि आरक्षण की मांग करने वाला यह आंदोलन हिंसक हो सकता है। लेकिन इतनी जल्दी हो जाएगा, ऐसा नहीं सोचा गया था। इस आंदोलन की शुरुआत से ही ये सवाल शिद्दत से उभरने शुरू हो गए थे कि आखिर जब सबको मालूम है कि आरक्षण की एक सीमा है, इसलिए अब किसी जाति को ओबीसी में शामिल नहीं किया जा सकता, तो फिर लाखों लोग ऐसी मांग के लिए क्यों जुटे, जिसका पूरा होना नामुमकिन है? आजादी के बाद 22 साल के एक युवा के नेतृत्व में तुरत-फुरत बड़ा आंदोलन खड़ा होना मिसाल तो है, लेकिन सवाल भी पैदा करता है कि आखिर उसके पीछे कौन लोग हैं? हार्दिक पटेल ने अन्ना आंदोलन को अपना रोल मॉडल माना है, और कहा कि हम अन्ना और केजरीवाल से भी बड़ा आंदोलन खड़ा करेंगे।  हार्दिक पटेल के बारे में कहा जा रहा है कि वह आम आदमी से प्रभावित रहे हैं और उसके लिए काम कर चुके हैं। उनके सबसे करीबी उस चिराग पटेल को माना जाता है, जो 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) के टिकट पर मौजूदा सीएम आनंदीबेन पटेल के खिलाफ खड़े हुए थे।
अन्ना आंदोलन जन लोकपाल की मांग को लेकर शुरू हुआ था। जनलोकपाल की मांग की जगह अन्ना आंदोलन की कोख से ‘आम आदमी पार्टी’ का जन्म हुआ था, जो आज प्रचंड बहुमत से सत्ता का आनंद ले रही है और जनलोकपाल की मांग कहीं डस्टबिन में पड़ी होगी। हार्दिक पटेल के पास आरक्षण ऐसा मुद्दा था, जिसे भुनाकर वह दूसरा अरविंद केजरीवाल बनना चाहते हैं शायद। हो सकता है कि एक-दो साल के अंदर गुजरात में हम ‘आप’ जैसी किसी क्षेत्रीय पार्टी का उदय देखें,  जिसका नेतृत्व हार्दिक पटेल करते नजर आएं। बहाना वही होगा, जब तक पटेल सत्ता में नहीं होंगे, हमें हमारा हक नहीं मिल सकता। ये अलग बात है कि गुजरात की मुख्यमंत्री पटेल हैं, तो गुजरात विधानसभा के 120 विधायकों में से 40 पटेल जाति से आते हैं। ज्यादतर मंत्री भी पटेल हैं। गुजरात में पटेलों की आबादी 20 प्रतिशत है। लेकिन सत्ता में उनकी भागीदारी लगभग 33 प्रतिशत है। आबादी के प्रतिशत से ज्यादा सत्ता में भागीदारी के बाद भी पटेलों को आरक्षण की क्यों दरकार है?
हार्दिक पटेल ने रैली में जो भाषण दिया, उसमें उनके निशाने पर भाजपा के साथ मोदी भी निशाने पर रहे। गुजरात में राजनीति करनी होगी, तो सत्ताधारी दल को ही निशाने पर लिया जाएगा। कांग्रेस वहां इस हालत में हैै भी नहीं कि उसे निशाने पर लेकर राजनीति की जाए। जरा गौर कीजिए, अरविंद केजरीवाल ने अपना आंदोलन कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू किया था, लेकिन केंद्र में भाजपा की सरकार आते ही वह भाजपा के धुर विरोधी हो गए थे। दिल्ली विधानसभा चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल बनकर रह गया था। हार्दिक पटेल भी इसी रास्ते पर जाते लग रहे हैं। ऐसे में सवाल खड़ा हो जाता है कि क्या आरक्षण एक बहाना है, निशाना कहीं ओर है?
इस सवाल पर गौर किया जाए तो ऐसा ही लगता है कि हार्दिक पटेल एक कठपुतली हैं, जिसकी डोर किसी और के हाथ में है। 25 अगस्त को अहमदाबाद की रैली में जो जनसैलाब उमड़ा, उसे नियंत्रित करना आसान काम नहीं था। उसमें ऐसे तत्व भी रहे होंगे, जिन्होंने मौके का फायदा उठाया और पूरे गुजरात को हिंसा की आग में धकेल दिया। यह नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात में विश्व हिंदू परिषद और नरेंद्र मोदी के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है। तोगड़िया खुद पटेल जाति से आते हैं। संभव है कि विहिप के कार्यकर्ताओं ने हिंसा को अंजाम दिया हो। इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात में जो कुछ हुआ, उसका सीधा असर नरेंद्र मोदी पर पड़ेगा। भले ही आज नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं हैं, लेकिन माना यही जाता है कि गुजरात में उनकी दिलचस्पी कभी खत्म नहीं हुई है। तो क्या विहिप पटेल आरक्षण की आड़ में मोदी ेसे अपना हिसाब-किताब बराबर करना चाहती है?
अब जरा हार्दिक पटेल के इन शब्दों पर गौर करिए। ‘1998 में हमने कांग्रेस को उखाड़ फेंका था। अब 2017 आने वाला है। चुनाव फिर होंगे। जो हमारी बात नहीं मानेगा, उसे उखाड़ फेकेंगे। साफ है कि 2017 में हम कमल को भी उखाड़ सकते हैं...गुजरात में हम सिर्फ एक करोड़ 20 लाख हैं, लेकिन हिंदुस्तान में हमारी तादाद 50 करोड़ है। हम 25 अगस्त को क्रांति दिवस बना देंगे।’ इन शब्दों पर गौर करने के साथ ही ये सवाल कौंधते हैं कि क्या पटेल आरक्षण आंदोलन और बिहार विधानसभा चुनाव के बीच भी कोई कनेक्शन है? केजरीवाल का नीतीश को समर्थन, 25 अगस्त को विशाल पटेल आरक्षण रैली, हार्दिक पटेल का ‘आप’ से जुड़ा अतीत, उनका यह कहना कि चंद्र नायडू बाबू और नीतीश कुमार भी हमारे हैं और हिंदुस्तान में हमारी तादाद 50 करोड़ है, ये सब संयोग हैं, या एक ऐसी सोची-समझी रणनीति? क्या नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए उनके विरोधी एकजुट हो गए हैं। यदि पटेल आरक्षण आंदोलन लंबा चला और आंदोलनकारियों पर दमनात्मक कार्रवाई हुई, तो इसका फायदा बिहार में महागठबंधन उठा सकता है। बिहार का पटेल समुदाय, जिसे वहां कुर्मी कहा जाता है, एकमुश्त महागठबंधन की ओर जा सकता है।
गौर इस पर भी किया जाना चाहिए कि भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह का कहना है कि हम सेक्युलर वोटों को डिवाइड करके बिहार और उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करेंगे। अमित शाह अपनी इस रणनीति को बिहार में लागू करें, क्या उससे पहले नीतीश और केजरीवाल ने उनकी इस रणनीति को भाजपा पर अमल कर दिया है? बिहार चुनाव न सिर्फ भाजपा के लिए, बल्कि राजद, जदयू और कांग्रेस से मिलकर बने महागठबंधन के लिए भी प्रतिष्ठा का बन चुका है। इसलिए इसमें कहां से कौन कब क्या चाल चलेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए गुजरात से उठा पटेल आरक्षण का तूफान क्या गुल खिलाएगा, यह देखना दिलचस्प होगा। इस बीच गुजरात में हिंसा जारी है। गुजरात से शुरू हुआ शह और मात का खेल किसके फेवर में जाएगा, इसका सिर्फ इंतजार ही किया जा सकता है।
(लेखक दैनिक जनवाणी से जुड़े हैं)

Monday, August 3, 2015

भागलपुर दंगों की रिपोर्ट का सच सबकी पोल खोलेगा

सच नये स्वरुप में बिहार और पूरे देश के समक्ष आने वाला है। वही दंगे जिसे भारतीय इतिहास में सबसे अधिक दिनों तक चलने वाला दंगे के रूप में जाना जाता है और जिसमें सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1000 लोग मारे गए जबकि घायलों की संख्या के बारे में सरकार के पास आज तक कोई ठोस आंकड़ा उपलब्‍ध नहीं हो पाया। ये अलग बात है कि आज भी स्वयंसेवी संगठनों के मुताबिक इन दंगों में कम से पांच हजार लोगों के मारे जाने की बात कही जाती है।
सबसे अधिक दिलचस्प यह है कि नीतीश कुमार ने जब इस दंगे की जांच के लिए वर्ष 2006 में जस्टिस एनएन सिंह की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन किया था, तब वे एनडीए के हिस्सा थे और उनकी मंशा भागलपुर दंगा के सहारे सूबे में मुसलमानों के बीच साख बना चुके लालू प्रसाद को कमजोर करने की थी। यही वजह रही कि इस दंगे के लिए कामेश्वर यादव को जिम्मेवार ठहराया गया और कामेश्वर यादव के बहाने लालू प्रसाद पर वार किया गया। वजह यह रही थी कि अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक कार्यक्रम के दौरान लालू प्रसाद ने कामेश्वर यादव के साथ मंच साझा किया था, जबकि तब राजद ने इस तथ्य को उजागर कर भाजपा समर्थित नीतीश कुमार के मंसूबों पर पानी फ़ेर दिया था कि वर्ष 1995 के चुनाव में कामेश्वर यादव ने शिवसेना के उम्मीदवार के रुप में नाथनगर से चुनाव लड़ा था!
खैर, करीब 9 वर्षों के बाद इस वर्ष 28 फ़रवरी को आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी। इस रिपोर्ट के आलोक में राज्य सरकार ने कार्रवाईयां भी की, जिनमें दंगा पीड़ितों की नये सिरे से पहचान के साथ ही उन्हें मुआवजा दिया जाना शामिल है। अब यह पूरी रिपोर्ट और राज्य सरकार द्वारा की गई  कार्रवाईयों का चिट्ठा मॉनसून सत्र के दौरान बिहार विधान मंडल के दोनों मंडलों में रखी जाएगी। यह फ़ैसला नीतीश मंत्रिमंडल ने विधानसभा चुनाव के ठीक पहले लिया है। जाहिर तौर पर इसके राजनीतिक मायने हैं और यह रिपोर्ट चुनाव को प्रभावित करेगी।
अब थोड़ा भागलपुर दंगे के काले इतिहास पर नजर डालते हैं। दंगे की शुरुआत 25 अक्टूबर 1989 को हुई थी। उस समय आरएसएस पूरे देश में अयोध्या विवाद को हवा देने के इरादे से रामशिला पूजन करवा रही थी। भागलपुर में आरएसएस पहले से मजबूत स्थिति में था। इसकी कई वजहें रही थीं। तनाव पूरे देश में था और भागलपुर भी अपवाद नहीं था। अक्टूबर महीने में शिलापूजन का जुलूस निकाला जाना था और उसके पहले अगस्त में ही जोर-शोर से तैयारी शुरू हो गईं थीं। इसी दरम्यान मुहर्रम और विषहरी पूजा का आयोजन होना था। यह आरएसएस की खतरनाक रणनीति का हिस्सा थी कि पारंपरिक विषहरी पूजा व्यापक बन चुकी थी। जब भागलपुर में विषहरी पूजा शुरू हुई तब संघ समर्थकों ने मुसलमानों के इलाके खासकर नाथनगर और चंपानगर में तनाव बढ़ाने का भरसक प्रयास किया। परिणाम यह हुआ कि तत्कालीन एसपी के एस द्विवेदी के नेतृत्व में जिला प्रशासन ने स्थिति को संभाल लिया। शांति समिति की बैठक कराई गई और मुहर्रम के जुलूस को स्थगित करा दिया गया।
यह वह दौर था जब कांग्रेस अंतर्कलह से टूटने के कगार पर थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद के बीच छत्तीस का आंकड़ा था। इसके अलावा तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष शिवचंद्र झा जो भागलपुर के ही थे, उनका संबंध भी तत्कालीन मुख्यमंत्री से मधुर नहीं था। आपसी राजनीतिक गुटबंदी और अंतर्कलह के बीच जब रामशिला पूजा की तैयारी की खबर तत्कालीन मुख्यमंत्री तक पहुंची तब विचार-विमर्श के बाद उन्होंने इसकी इजाजत इस हिदायत के साथ दी कि जुलूस में किसी तरह के हथियार का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा और किसी प्रकार का नारा नहीं लगाया जाएगा। लेकिन स्थानीय राजनीति और आरएसएस के उन्मादी रवैये के कारण ऐसा न हो सका।
24 अक्‍टूबर 1989  को भागलपुर के परवती इलाके से रामशिला पूजन का एक जुलूस तातरपुर मोहल्ले की ओर बढ़ा। यह जुलूस किसी तरह गुजर गया, लेकिन, तभी एक विशाल जुलूस नाथनगर की ओर से आ गया। जुलूस मुस्लिम मोहल्ले के बीचो-बीच चौराहे पर पहुंचा था कि तभी भीड़ में शामिल लोगों ने मुसलमानों के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी। जब यह सब हो रहा था, तब भागलपुर के तत्कालीन एसपी केएस द्विवेदी और जिलाधिकारी अरुण झा वहां मौजूद थे। जुलूस के नारे बढ़ते गए, आवाज भी तेज होती गई। इसकी प्रतिक्रिया में दूसरी ओर से पत्थरबाजी शुरू हो गई। अभी डीएम कुछ समझने या संभालने की कोशिश करते कि तभी वहां बम का धमाका हो गया। हालांकि इससे किसी की जान हानि नहीं हुई, लेकिन पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। बताया जाता है कि पुलिस के द्वारा इसी फ़ायरिंग ने दंगे की शुरुआत कर दी। इसकी वजह यह है कि इसमें मारे गए दोनों लोग मुसलमान थे।
उधर, शिलापूजन का जुलूस उन्मादी भीड़ में बदल गया। जंगल में आग की तरह अफवाहें फैलने लगीं कि संस्कृत विद्यालय में 40 हिंदू छात्रों को मुसलमानों ने मार दिया है। ऐसी ही अफ़वाह शहर के हर कोने से आने लगीं। इन अफ़वाहों का परिणाम यह हुआ कि समूचा भागलपुर दंगे की चपेट में आ गया। एक ऐसा दंगा जो आजाद भारत में चलने वाला सबसे बड़ा दंगा था।
इसके बाद भागलपुर मुर्दों के शहर में बदल गया। अकेले परवती में 40 मुसलमानों की हत्या कर दी गई। आसानंदपुर में भी दंगा जोर पकड़ चुका था। इस दंगे की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही कि यह केवल शहर तक ही सीमित नहीं रहा। गांवों तक दंगे की आग में जलने लग गए थे। हालांकि उस दौरान भी हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल गढ़ने वाले लोग थे। सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक भागलपुर के जमुना कोठी में हिन्दुओं ने करीब चालीस मुसलमानों को शरण दे रखी थी। लेकिन दंगाइयों ने जमुना कोठी पर हमला बोलकर 18 मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया। इनमें 11 मासूम बच्चे थे।
भागलपुर के स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चलता है कि कामेश्वर यादव, महादेव सिंह, सल्लन मियां और अंसारी जैसे लोग राजनीतिक पार्टियों के मोहरे थे और वे ही पूरे दंगे को आगे बढ़ा रहे थे। इसके लंबा खिंचने के पीछे इन्हीं अपराधियों-राजनेताओं का गठजोड़ था। इसके अलावा तत्कालीन एसपी के एस द्विवेदी की भूमिका भी संदिग्ध थी। बताया जाता है कि वे आरएसएस के एजेंट के रूप में काम कर थे और उनके इशारे पर पूरी भागलपुर पुलिस भी हिन्दू-मुसलमान में बंट चुकी थी। इस क्रम में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने केएस द्विवेदी को हटाने का निर्देश दिया। इसका प्रतिरोध भागलपुर में पुलिस के जवानों ने इस कदर किया कि जब राजीव गांधी दंगे का जायजा लेने पहुंचे तब उन्हें भागलपुर शहर में घुसने तक नहीं दिया गया।
बहरहाल, दंगे के शांत होने में करीब छह महीने लगे और इस छह महीने में पूरा भागलपुर तबाह हो चुका था। इसके बाद जब 1990 में लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने अपने स्तर से पूरे मामले की जांच कराने का निर्देश दिया और पीड़ितों को मुआवजा दिया गया। लेकिन यह बेहद दिलचस्प रहा कि दंगों के लिए जिम्मेवार एसपी के एस द्विवेदी को लालू प्रसाद ने सजा देने की बजाय विभागीय प्रोन्नति दे दी। बाद में जब लालू प्रसाद का राज खत्म हुआ और नीतीश कुमार सत्तासीन हुए तब उन्होंने लालू प्रसाद को सत्ता से उखाड़ फ़ेंकने के लिए भाजपा के साथ मिलकर ब्रह्मास्त्र चलाया। अब इसके असर की बारी है। अनुमान लगाया जाना चाहिए कि भागलपुर दंगे के लिए कौन असल में जिम्मेवार था, रिपोर्ट के सार्वजनिक होने पर इसका खुलासा होगा। साथ ही इसका भी खुलासा होगा कि इसके पीछे की राजनीति क्या थी। वैसे सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अतीत के काले दाग से बचेगा कोई नहीं। न आरएसएस न भाजपा और न जदयू, कांग्रेस और राजद। सबकी सच्चाई सामने आएगी।