Friday, May 23, 2014

आज के दिन बरसा था मलियाना में पीएसी का कहर


सलीम अख्तर सिद्दीकी
23 मई 1987 को मेरठ के मलियाना कांड हुए 27 साल हो गए हैं। एक पीढ़ी बुढ़ापे में कदम रख चुकी है तो एक पीढ़ी जवान हो गयी है। लेकिन मलियाना के लोग आज भी उस दिन का टेरर भूले नहीं है। और न ही पीड़ितों को अब तक न्याय और उचित मुआवजा मिल सका है। 23 मई 1987 की सुबह बहुत अजीब और बैचेनी भरी थी। रमजान की 25वीं तारीख थी। दिल कह रहा था कि आज सब कुछ ठीक नहीं रहेगा। तभी लगभग सात बजे मलियाना में एक खबर आयी कि आज मलियाना में घर-घर तलाशी होगी और गिरफ्तारियां होंगी। वो भी सिर्फ मुस्लिम इलाके की। कोई भी इसकी वजह नहीं समझ पा रहा था। भले ही 18/19 की रात से पूरे मेरठ में भयानाक दंगा भड़का हुआ था, लेकिन मलियाना शांत था और यहां पर कफ्ूर्य भी नहीं लगाया गया था। यहां कभी हिन्दू-मुस्लिम दंगा तो दूर तनाव तक नहीं हुआ था। हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ सुख चैन से रहते आ रहे थे। तलाशियों और गिरफ्तारियों की बात से नौजवानो में कुछ ज्यादा ही बैचेनी थी। इसी बैचेनी में बारह बज गए। इसी बीच मैंने अपने घर की छत से देखा कि मलियाना से जुड़ी संजय कालोनी में गहमागहमी हो रही है। ध्यान से देखा तो एक देसी शराब के ठेके से शराब लूटी जा रही थी। पुलिस और पीएसी शराब लुटेरों का साथ दे रही थी। और बहुत से लोगों ने यह नजारा देखा तो माहौल में दहशत तारी हो गयी। कुछ लोगों ने यह कहकर तसल्ली दी कि शायद कुछ लोगों को शराब की तलब बर्दाश्त नहीं हो रही होगी, इसलिए शराब को लूटा जा रहा है। यह सब चल ही रहा था कि पुलिस और पीएसी ने मलियाना की मुस्लिम आबादी को चारों ओर से घेरना शुरू कर दिया। घेरेबंदी कुछ इस तरह की जा रही थी मानो दुश्मन देश के सैनिकों पर हमला करने के लिए उनके अड्डों को घेर रही हो। यह देखकर, जिसे जहां जगह मिली जाकर छुप गया। इसी बीच ज+ौहर की अजान हुई और बहुत सारे लोग हिम्मत करके नमाज अदा करने मस्जिद में चले गए। नमाज अभी हो ही रही थी कि पुलिस और पीएसी ने घरों के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरू कर दी। दरवाजा नहीं खुलने पर उन्हें तोड़ दिया गया। घरों में लूट और मारपीट शुरू कर दी नौजवानों को पकड़कर एक खाली पड़े प्लाट में लाकर बुरी तरह से मारा-पीटा गया। उन्हीं नौजवानों में मौहम्म्द याकूब थी था, जो इस कांड का मुख्य गवाह है। तभी पूरा मलियाना गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज गया। गोलियां चलने की आवाज जैसे एक सिगनल था। दंगाइयों, जिनमें विहिप और बजरंग दल जैसे साम्प्रदायिक दलों के कार्यकर्ता अधिक थे, ने मुसलमानों के घरों को लूटना और जलाना शुरू कर दिया। तेजधार हथियारों से औरतों और बच्चों पर हमले हुए। पुलिस और पीएसी ने उन दंगाइयों की ओर से मुंह फेर लिया। शराब का ठेका लूटने का रहस्य भी पता चला। दंगाई नशे में घुत थे। यह सब दोपहर ढाई बजे से शाम पांच बजे तक चलता रहा। पांच बजे के बाद कुछ लोग बदहवासी के आलम में सड़कों पर निकल आए। कुछ लोगों की हालत तो पागलों जैसी हो रही थी। वह अपने जुनूं में कुछ का कुछ बोल रहे थे। कुछ की ये हालत दहशत की वजह से थी, तो कुछ ने अपने सामने ही अपने को मरते या गम्भीर से रुप से घायल होते देखा था, इसलिए उनकी हालत पागलों जैसी हो गयी थी। जो लोग घरों में दुबके पड़े हुऐ थे, उन्हें लग रहा था कि शायद वे ही जिंदा हैं, बाकी सब को मार दिया गया है। शोर शराबा सुनकर मलियाना के सभी लोग सड़कों पर निकल आए। बहुत लोग कराह रहे थ। कुछ गम्भीर घायल थे, जिन्हें सहारा देकर लाया जा रहा था। सड़कों पर हूजूम देखकर पुलिस और पीएसी ने गोलियां चलाना बंद कर दिया। इसी बीच एक युवक ने एक पीएसी वाले को कुछ बोल दिया। पीएसी के जवान ने निशाना साधकर युवक पर फायर झोंक दिया। गोली युवक के तो नहीं लगी, लेकिन उसके साथ चल रही शाहजहां नाम की एक बारह साल की बच्ची की आंख में जा लगी। यह देखकर पीएसी के जवान को भी शायद आत्मग्लानि हुई और वह सिर झुकाकर चुपचाप एक गली में चला गया।
अब तक मलियाना के सभी मुसलमान, जिनमें बच्चे और औरतें भी शामिल थीं, मलियाना से बाहर जाने वाले रास्ते पर इकट्ठा हो चुके थे। वहीं पर मेरठ के आला पुलिस अफसर खड़े थे। शायद जायजा ले रहे थे कि ‘आॅप्रेशन मुस्लिम मर्डर’ ठीक से मुक्कमल हुआ या नहीं। घायलों की तरफ उनकी तवज्जो बिल्कुल नहीं थी। इसी बीच आला पुलिस अफसरों की पीठ पीछे कुछ दंगाई एक घर में आग लगा रहे थे। एक अफसर का ध्यान उस ओर दिलाया गया तो वह मुस्करा बोला-‘तुम लोग इमरान खाने के छक्कों पर बहुत तालियां बजाते हो, ये इसका इनाम है।‘ बाद में पता चला कि उस घर में पति-पत्नि सहित 6 लोग जिन्दा जलकर मर गए। जब उनकी लाशें बाहर निकाली गयीं तो मां-बाप ने अपने वारों बच्चों को अपने सीने से चिपकाया हुआ था। इस बीच रोजा खोलने का वक्त हो चुका था। लेकिन रोजा खोलने के लिए कुछ खाने को तो दूर पानी भी मयस्सर नहीं था। जब पुलिस अफसरो से पानी की मांग की गयी तो उन्होंने यह कहकर मांग ठुकरा दी कि आप सब अपने-अपने घरों में जाकर रोजा खोलें। लेकिन दशहत की वजह से कोई भी अपने घर जाने को तैयार नहीं हुआ। रात के बारह बज गए। अब तक किसी भी प्रकार की राहत का दूर-दूर तक पता नहीं था। मीडिया को मलियाना में आने नहीं दिया जा रहा था। किसी प्रकार बीबीसी का एक नुमाइन्दा जसविन्दर सिंह छुपते-छुपाते मलियाना पहुंचा। उसके साथ अमर उजाला का फोटोग्राफर मुन्ना भी था। जसिवन्दर ने पूरी जानकारी ली। पता नहीं कैसे पुलिस और पीएसी को दोनों पत्रकारों की उपस्थिति का इल्म हो गया। पीएसी से फोटोग्राफर का कैमरा छीनकर उसकी रील नष्ट कर दी। दोनों पत्रकारों को फौरन मलियाना छोड़कर जाने का आदेश दिया। सुबह होते-होते मलियाना को फौज के हवाले कर दिया गया। फौज के सहयोग से हम लोगों ने लाशों की तलाश का काम शुरू हुआ, जो कई दिन तक चलता रहा। हौली चौक पर सत्तार के परिवार के 11 सदस्यों के शव उसके घर के बाहर स्थित एक कुए से बरामद किए गए। कुल 73 लोग मारे गए थे। मारे गए लोगों में केवल 36 लोगों की शिनाख्त हो सकी। बाकी लोगों को प्रशासन अभी भी लापता मानता है। हालांकि उनके वारिसान को यह कहकर 20-20 हजार का मुआवजा दिया गया था कि यदि ये लोग लौट कर आ गए तो मुआवजा राशि वापस ले ली जाएगी। ये अलग बात है कि आज तक कोई ‘लापता’ वापस नहीं लौटा है। शासन प्रशासन ने इस कांड को हिन्दू-मुस्लिम दंगा प्रचारित किया था। लेकिन यहां पर किसी एक गैरमुस्लिम को खरोंच तक नहीं आयी थी।
कत्लेआम के बाद मलियाना नेताओं का रुतीर्थस्थ्लरु हो गया था। शायद ही कोई ऐसा नेता बचा हो, जो मलियाना न आया है। भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी ने भी मलियाना का दौरा करके कहा था कि मलियाना में पुलिस और पीएसी ने ज्यादती की है। विपक्ष और मीडिया के तीखे तेचरों के चलते चलते इस कांड की एक सदस्यीय जांच आयोग से जांच कराने का ऐलान किया गया था। आयोग के अध्यक्ष जीएल श्रीवास्तव ने एक साल में ही जांच पूरी करके सरकार को रिपोर्ट सौंप दी थी। लेकिन इस रिपोर्ट का हश्र भी ऐसा ही हुआ, जैसा कि अन्य आयोगों की रिपोर्टां का अब तक होता आया है। मुसलमानों का हितैषी होने का दम भरने वाले मुलायम सिंह हों, मायावाती हों या आजम खान हों, किसी ने भी अपने शासनकाल में रिपोर्ट को सार्वजनिक करके दोषियों को सजा दिलाने की कोशिश नहीं की। हां इतना जरुर हुआ कि समय-समय पर मलियाना कांड का जिक्र करके राजनैतिक लाभ जरुर उठाया गया। कहा जाता है कि जांच आयोग की रिपोर्ट में पुलिस और पीएसी को दोषी ठहराया गया है। अफसोस इस बात का है कि मलियाना कांड में मुख्य भूमिका निभाने वाले पुलिस और पीएसी के अधिकारी इज्जत के साथ न केवल नौकरी पर कायम रहें, बल्कि तरक्की भी करते रहे। उस समय दोषी पुलिस और पीएसी अधिकारियों को सस्पेंड करना तो दूर उनका तबादला तक भी नहीं किया गया था। ये अधिकारी एक लम्बे अरसे तक मलियाना कांड के पीड़ीतों की मदद करने वालों को धमकाते रहे। पुलिस ने इन पंक्तियों के लेखक को भी उस समय मीडिया से दूर रहने के लिए कहा था, क्योंकि उस समय दुनिया भर के मीडिया में मेरे माध्यम से खबरें आ रहीं थीं। ऐसा नहीं करने पर रासुका में बन्द करने की धमकी दी थी।
इस अति चर्चित कांड की सुनवाई यूं तो फास्ट ट्रेक अदालत में चल रही है, लेकिन अभी भी उसकी चाल बेहद सुस्त है। आरोपियों के वकील कार्यवाही को बाधित करने का हर संभव हथकंडा अपना रहे हैं। फास्ट ट्रेक अदालतों का गठन ही इसलिए किया गया था ताकि मलियाना जैसे जघन्य मामलों की सुनवाई जल्दी से जल्दी हो सके। लेकिन लगता नहीं कि जल्दी इंसाफ मिल पाएगा। इस लड़ाई में मलियाना के मुसलमान अकेले हैं। उन्हें केस लड़ने के लिए कहीं से भी किसी प्रकार की मदद नहीं मिल रही है। मुख्य गवाहों को धमकाया जा रहा है। बयान बदलने के लिए पैसों का लालच दिया जा रहा है। ऐसे में इस केस का क्या हश्र होगा अल्लाह ही जानता है। क्या वे नेता जिन्होंने मलियाना कांड पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकी हैं, मलियाना कांड केस को लड़वाने में किसी प्रकार की मदद करेंगे ? आज तक किसी भी नेता ने यह कोशिश भी नहीं की कि मलियाना के पीडितों को भी 1984 के सिख विराधी दंगों की तरह आर्थिक पैकेज मिले। हाशिमपुरा कांड के पीड़ितों को सरकार 5-5 लाख रुपए का मुआवजा दे चुकी है।

Wednesday, May 21, 2014

‘ऐतिहासिक जीत’ के बीच

जब 16 मई को पूरा देश मोदीमय हो रहा था, तब देश का सुप्रीम कोर्ट 2002 में अहमदाबाद के अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमलों के आरोपियों को गुजरात सरकार को फटकार लगाते हुए बाइज्जत बरी कर रहा था। मोदीमय माहौल में यह खबर कहीं नजर नहीं आई। सुभाष गाताडे ने अपने लेख ‘ऐतिहासिक जीत के बीच’ में इस संबंध में सभी तथ्य रखे, जो दैनिक जनवाणी के 21 मई के अंक में प्रकाशित हुआ।
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सुभाष गाताडे

सोलह साल का शाहवान, जो अहमदाबाद के कालुपुर का रहनेवाला है और अभी भी दसवीं कक्षा के रिजल्ट का इन्तजार कर रहा है, वह उस दिन बहुत खुश था, जब भारत के मतदाताओं ने अपना फैसला सुनाया। उसने अपनी अम्मी को पकड़ कर हवा में उठाने की कोशिश की और अपने भाई अलमास के साथ मोहल्ले में दौड़ गया। ‘हम जीत गए,’ ‘हम जीत गए’। और सिर्फ शाहवान और उसके परिवार के सदस्य ही नहीं, बल्कि उसी तरह की खुशियों की बयार मोहम्मद सलीम हनीफ शेख, अब्दुल कयूम मंसूरी उर्फ मुफ्ती बाबा और अन्य कइयों के घरों में दिखाई दे रही थी। गौरतलब था कि शाहवान और उसकी अम्मी नसीम की आंखों से खुशियों के आंसुओं का ताल्लुक इस बात से कतई नहीं था कि मोदी की अगुआई में भाजपा ‘ऐतिहासिक जीत’ दर्ज कर रही थी। यह एक विचित्र संयोग था कि जिस दिन भारत के मतदाताओं का फैसला सामने आया, यह वही दिन था, जब भारत की आला अदालत ने एक ऐतिहासिक फैसले में अक्षरधाम आतंकी हमले को लेकर पोटा अर्थात ‘प्रीवेन्शन आफ टेररिजम एक्ट’ जैसे कुख्यात कानून के तहत गिरफ्तार छह लोगों की रिहाई का आदेश दिया था और इस तरह गुजरात सरकार के विवादास्पद निर्णय को पलट दिया था।
वैसे आज बहुत कम लोग याद कर पा रहे होंगे कि किस तरह सितंबर 2002 में अहमदाबाद स्थित अक्षरधाम मंदिर पर आतंकी हमला हुआ था, जिसमें दो आतंकियों ने 37 लोगों को मार गिराया था और कइयों को घायल किया था। दोनों आतंकी कमांडो कार्रवाई में वहीं मारे गए थे। मामले की जांच में पुलिस के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने शाहवान के पिता आदम सुलेमान मंसूरी अर्थात आदम अजमेरी, और अन्य चार को शाहपुर और दरियापुर इलाके से अगस्त 2003 में पुलिस ने गिरफ्तार किया और छठवें अभियुक्त को कुछ दिनों के बाद उत्तर प्रदेश से उठाया था। अभियोजन पक्ष ने उन पर आरोप लगाया था कि इन छह लोगों की इस आतंकी हमले में भूमिका थी। निचली अदालत ने आदम अजमेरी एवं अन्य एक व्यक्ति को फांसी और बाकियों को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। गुजरात हाईकोर्ट ने इसी सजा को बरकरार रखा था।
आला अदालत में एके पटनायक, वी गोपाल गौड़ा की द्विसदस्यीय पीठ ने ‘निरपराध’ लोगों को फंसाने के लिए गुजरात पुलिस की खिंचाई करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष इन अभियुक्तों पर अपने आरोप प्रमाणित नहीं कर सका है और वे बिना शर्त रिहाई के पात्र हैं। इन अभियुक्तों के ‘अपराध स्वीकृति’ के बयानों को अदालत ने खारिज किया और उन्हें कानून की निगाह में अवैध घोषित किया। पीठ ने गृहमंत्री को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराया कि, ‘उन्होंने पोटा के तहत मुकदमे की अनुमति देने में दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि वह निर्णय न सूचना पर आधारित था और न ही तथ्यों के स्वतंत्र विश्लेषण पर टिका था।’ अब यह चंद दिनों की बात है, कि आदम अजमेरी अक्षरधाम आतंकी हमले में गिरफ्तार अन्य बेगुनाहों की तरह घर लौटेंगे। एक ऐसा शख्स, जिसने अपने परिवार में फिर जीवित लौटने की आस छोड़ दी हो, उसके लिए यह एक तरह से पुनर्जन्म है।
वैसे चुनावी नतीजों और सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया के बीच नजर आया यह विचित्र संयोग, जिसका शासन के अपने इकबाल से ताल्लुक दिखता है, वह सूबा गुजरात के इसी अंतराल के एक अन्य स्याह अध्याय की भी याद ताजा करता है। सभी जानते हैं कि आज की तारीख में राज्य में आईपीएस स्तर के कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एवं उनके जूनियर सलाखों के पीछे बंद हैं, क्योंकि राज्य के फर्जी मुठभेड़ों में उनकी संलिप्तता पायी गई है। भारत का यह एकमात्र राज्य, होगा जहां कार्यपालिका से संबद्ध इतने अधिकारी सालों से सलाखों के पीछे होंगे।
मालूम हो कि चुनाव नतीजे आने के महज एक सप्ताह पहले गुजरात सरकार को सुप्रीम कोर्ट में ही एक अन्य अपमानजनक झटके का सामना करना पड़ा था, जब मुठभेड़ों में हत्याओं को लेकर समरूप दिशा-निर्देश जारी करने की उसकी याचिका अदालत ने खारिज की थी। अदालत का कहना था कि भारत के संघीय ढांचे में ऐसी सलाह जारी नहीं की जा सकती। मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढा, एमबी लोकुर और कुरियन जोसेफ की त्रिसदस्यीय पीठ ने कहा कि ‘ऐसी सलाह पर अमल करना संभव नहीं होगा।’ दरअसल, 2012 में गुजरात सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में यह जनहित याचिका दायर की थी कि विगत दस सालों में भारत में हुई फर्जी मुठभेड़ों की स्वतंत्र जांच की जाए और उसके लिए न्यायालय दिशा-निर्देश तय करे। चाहे सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामला हो, इशरत जहां मुठभेड़ का प्रसंग हो या सादिक जमाल की फर्जी मुठभेड़ में हत्या का मामला हो। यह सभी के सामने था कि ऐसे मामलों में राज्य एवं उसके अधिकारियों की बार-बार किरकिरी हो रही थी और इसी वजह से उसने यह दावा किया था कि यह निहित स्वार्थी तत्वों की वजह से हो रहा है, जो चुनिंदा ढंग से उसे निशाना बना रहे हैं। याचिका में यह प्रस्ताव था कि सभी राज्य सरकारों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को यह दिशा-निर्देेश दिया जाए कि वह ‘स्पेशल टास्क फोर्स/मानिटरिंग आथारिटी’ जैसी स्वतंत्र एजेंसी का निर्माण करें, ताकि तमाम फर्जी मुठभेड़ों की जांच हो सके।
ध्यान देने योग्य बात है कि अदालत में गुजरात सरकार इस मसले पर बिल्कुल अलग-थलग नजर आई। यहां तक भाजपा शासित राज्यों ने भी इस मसले पर गुजरात सरकार का समर्थन करने से इंकार कर यह जताया कि ऐसे निर्देश भारतीय राज्य के संघीय स्वरूप पर आघात करते हैं। चाहे सूबा गुजरात की फर्जी मुठभेड़ों का मामला हो या 2002 में गुजरात के स्तब्धकारी दौर की बात हो, जब पूरे राज्य में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसाचार हुआ था और जिसे लेकर पार्टी के वरिष्ठों ने भी ‘राजधर्म’ न निभाए जाने की बात कही थी, यह बात सभी के सामने है कि मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी पारी एक ऐसे अतीत के साथ शुरू कर रहे हैं, जो अध्याय जल्द समाप्त नहीं होने वाला है। क्या वह अपने इस अतीत से रैडिकल विच्छेद कर सकेंगे और महज गुड गवर्नेंस के स्तर पर नहीं, बल्कि जस्ट गवर्नेंस अर्थात न्यायपूर्ण शासन को सुनिश्चित कर सकेंगे, यह सवाल भविष्य के गर्भ में छिपा है। हालांकि एक साल बीतते-बीतते पता चल जाएगा कि नरेंद्र मोदी कौन-सी राह पकड़ते हैं।

Tuesday, May 13, 2014

मीडिया ने ‘नमक का हक’ अदा किया


सलीम अख्तर सिद्दीकी
आखिरकार मीडिया ने आखिरी वक्त तक ‘नमक का हक’ अदा किया। एग्जिट पोल में अबकी बार मोदी सरकार बनवा ही डाली। हद यह है कि एक चैनल ने तो एनडीए को 340 सीटें तक दे डाली हैं। कोई अक्ल का अंधा भी कयास लगा सकता है कि ऐसा मुमकिन नहीं है। लेकिन वह भी बेचारा क्या कर सकता है। पैसा लिया है, तो ऐसा कुछ तो दिखाना ही पड़ेगा कि जिससे लगे कि ‘नमक का हक’ अदा किया गया है। जिन राज्यों में भाजपा सरकारें हैं, उनमें तो एग्जिट पोल में लगभग सौ प्रतिशत सीटें तक दी गई हैं। यह तब है, जब 2009 और 2004 में यही एग्जिट पोल उलटे हो गए थे। तब भी मीडिया ने राजग को लगभग 250 सीटें तक दी थी। यह ठीक है कि ‘मोदी फैक्टर’ कहीं न कहीं काम कर रहा है, लेकिन इतना नहीं कि अन्य राजनीतिक दलों का सूपड़ा साफ हो जाएगा। इस चुनाव में मीडिया और खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपनी साख गंवाई है, पहले कभी नहीं गंवाई थी। पूरी बेशर्मी के साथ नमो-नमो की गई। पैड न्यूज का इतना बोलबाला रहा कि खबर और विज्ञापन का अंतर की खत्म हो गया था। लेकिन ऐसा नहीं है कि मीडिया  को इसका खामियजा उठाना नहीं पड़ेगा। मोदी की तानाशाही का शिकार उसे भी होना ही पड़ेगा। पूरी तरह से सेंसरशिप नहीं, तो ‘सेमी सेंसरशिप’ मीडिया को झेलनी पड़ेगी। हो सकता है कि जिन कॉरपोरेट घरानों के शेयर मीडिया में लगे हैं, वे अपनी मनमानी को मीडिया की सुर्खियां नहीं बनने देंगे। मोदी के साथ मिलकर ऐसी बंदरबांट करेंगे, जैसी यूपीए सरकार ने भी नहीं की होगी। ऐसा हुआ तो अंतत: जनता ही पिसेगी। मोदी के चुनाव प्रचार पर कॉरपोरेट ने जितना पैसा खर्च किया है, वे उसे सूद सहित वापस लेंगे। यदि मोदी सरकार आई तो देश पर काला साया मंडराने लगेगा, जिसका मुकाबला ऐसे ही करना पड़ेगा, जैसे ब्रिटिश सरकार का किया गया था। अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी और समाज के अन्य कमजोर तबकों के लिए मोदी सरकार विनाशकारी साबित होगी।

Friday, May 9, 2014

नरेंद्र मोदी हो सकते हैं भीतरघात के शिकार


सलीम अख्तर सिद्दीकी
चुनाव प्रचार में भले ही मोदी आगे नजर आ रहे हों, लेकिन दरहकीकत मोदी का चुनावी रथ रोकने के लिए दूसरे राजनीतिक दलों से ज्यादा भाजपा के नेता ही ज्यादा सक्रिय हैं। मोदी को भीतर घात का खतरा दरपेश है। भाजपा में मीर जाफर और जयचंदों की बड़ी फौज मोदी को पटकनी देने के लिए तैयार है। सूत्र बताते हैं कि नरेंद्र मोदी इस बात से ज्यादा बौखलाए हुए हैं कि उनकी ही पार्टी के लोग विश्वाघात पर आमादा हैं। दरअसल, मोदी के तानाशाही रवैये के चलते भाजपा नेताओं में यह घबराहाट है कि चुनाव के बाद उन्हें किनारे लगा दिया जाएगा और मोदी अपने विश्वासपात्रों को ही सरकार में ज्यादा तवज्जो देंगे। जानकार बताते हैं कि वैसे भी नरेंद्र मोदी जल्दी से किसी पर विश्वास नहीं करते हैं।
कहा जाता है कि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की कोशिश है कि मोदी 200 सीटों के आसपास ही सिमट जाएं। इसके लिए उन्होंने प्रयास भी किए हैं। जिन सीटों पर राजपूत वोटों की संख्या ज्यादा है, वहां राजनाथ सिंह ने यह संदेश पहले से ही दे दिया था कि भाजपा उम्मीदवार को हराने के लिए वोट किया जाए। ऐसा किया भी गया है। यह अलग बात है कि सब कुछ बेहद गोपनीय तरीके से किया गया है। दरसअल, राजपूतों में पहली बार आस जगी है कि कोई राजपूत प्रधानमंत्री बन सकता है। फॉर्मला वही पुराना है कि यदि भाजपा की सीटें 200 के आसपास रहती हैं, तो ‘उदारवादी’ चेहरे के नाम पर एनडीए से कुछ ऐसे दल जुड़ जाएंगे, जो मोदी की वजह से उसका हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि मोदी से खफा नेताओं ने भी अपने समर्थकों को गोपनीय तरीके से यह संदेश दिया था कि चुप रहे हैं या मोदी कोे रोकने के लिए काम करें।
कहा यह भी जाता है कि भाजपा के अगड़ी जाति के नेता नहीं चाहते कि कोई पिछड़ी जाति का नेता प्रधानमंत्री बने। उन्हें डर सता रहा है कि यदि नमो पीएम बन जाते हैं, तो भाजपा से अगड़ी जातियों का लगभग सफाया जो जाएगा। भाजपा में हमेशा ही अगड़ी जातियों का वर्चस्व रहा है। नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से अगड़ी जाति के नेताओं-मुरली मनोहर जोशी, लालकृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह और सुषमा स्वजराज को हाशिए पर डाला है, उससे आशंका है कि भाजपा के 200 सीटों के आसपास सिमटने के बाद ये नेता खुलकर मोदी के विरोध में खड़े हो जाएंगे। यदि मोदी अबकी बार प्रधानमंत्री बनने से चूक गए, तो इसके पीछे भीतर घात सबसे बड़ा कारण होगा।

Wednesday, May 7, 2014

निम्न स्तर की राजनीति पर उतर आए हैं मोदी


हैरत की बात है कि नरेंद्र मोदी के समर्थकों में वे लोग शामिल हैं, जिन पर यौन उत्पीड़न के आरोप लग चुके हैं। आजकल वे लोग फेसबुक पर मोदी विरोधियों का चरित्र हनन करने पर उतर आए हैं। फेसबुक पर मोदी विरोधी स्टेट्स से बौखलाकर एक ऐसा आदमी जिस पर एक साध्वी को मारने-पीटने और उसका पैसा हजम करने के आरोप लग चुके हैं, फर्जी तरीके से फेसबुक पर मेरे चरित्रहनन करने का प्रयास कर रहा है। इसमें उसके कई ऐसे साथी भी शामिल हैं, जिनका काम ही मोदी विरोधियों को डराना-धमकाना है। अभी तो मोदी सरकार आई नहीं है, अभी से हाल यह है तो इस देश में अभिव्यक्ति का गला घोंटने की कोशिश की जा रही है। जिस तरह से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया  मोदी के सामने नतमस्तक हुआ है, उसे देखकर लग रहा है कि देश पर सेंसरशिप थोप दी जाएगी। मोदी और उनके समर्थकों की बौखलाहट से अंदाजा लग रहा है कि अब मोदी सरकार आने में बेहद रुकावटें पैदा हो गई हैं। यही वजह है कि मोदी अब निम्न स्तर की राजनीति पर उतर आए हैं। विकास का गुब्बारा फूटने के बाद वह घोर सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति करने पर मजबूर हो गए हैं। ऐसा लगता है कि अबकी बार मोदी सरकार का सपना ध्वस्त होने जा रहा है।