Friday, February 28, 2014

मोदी नहीं हैं तुरूप का इक्का


सलीम अख्तर सिद्दीकी
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मुसलमानों से भाजपा से हुई जानी-अनजानी गलतियों के लिए सिर झुकाकर माफी मांगने की बात कहकर चुनावी बेला में माफी की राजनीति को आगे बढ़ाया है। पूर्व में सोनिया गांधी 84 के सिख विरोधी दंगों के लिए माफी मांग चुकी हैं, तो मुलायम सिंह यादव कल्याण सिंह को सपा में लाने की गलती के लिए मुसलमानों से क्षमा मांग चुके हैं। मुलायम सिंह को मुसलमानों ने माफ भी कर दिया था। अब देखना यह है कि मुजफ्फरनगर दंगों के लिए वह कब माफी मांगेगे? बहरहाल, भाजपा को यह पता है भारत में मुसलिम एक सियासी ताकत हैं, जिन्हें नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि वह देश की ऐसी सौ सीटों की पहचान करती है, जहां मुसलिम 30 प्रतिशत या उससे अधिक हैं। यदि इन सौ सीटों पर भी मुसलिमों ने एकजुट होकर उसके खिलाफ वोट कर दिया, तो उसका ह्य272 प्लसह्ण मिशन तो धराशायी हो ही जाएगा, वह 200 के आसपास सीटें लाने से भी वंचित हो सकती है। भाजपा की यही सबसे बड़ी चिंता है कि यदि नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए मुसलिम एकजुट हो गए तो क्या होगा? हमें याद रखना चाहिए कि देश में जब भी सत्ता परिवर्तन हुआ है, उसमें सभी वर्गों की भागीदारी रही है। आजादी के बाद 1977 और 1989 में गैर कांग्रेसवाद के नाम पर क्रमश: जनता पार्टी और जनता दल सत्ता में आए थे। यह जानते हुए भी कि जनसंघ, जो आज की भाजपा है, का जनता पार्टी में विलय हो गया था, तब भी मुसलमानों ने जनता पार्टी को वोट दिया था। इसी तरह 1989 में जनता दल को जिताने में दूसरे वर्गों के साथ मुसलमानों का भी अहम योगदान रहा था। जनता दल ने भाजपा से बाहर से समर्थन लेकर सरकार बनाई, तब भी मुसलमानों को ऐतराज नहीं हुआ था। लेकिन राम मंदिर आंदोलन के बहाने जिस तरह से भाजपा ने सांप्रदायिक एजेंडा चलाया था, वह अभूतपूर्व था। 1992 में बाबरी मसजिद के टूटने और देश के कई शहरों में हुए भीषण सांप्रदायिक दंगों के बाद मुसलमानों और भाजपा के बीच फासला बहुत अधिक हो गया। 2002 के गुजरात दंगों के बाद तो दूरियां इतनी ज्यादा बढ़ गर्इं कि उन्हें किसी तरह की माफी शायद ही खत्म कर सके।
राजनाथ सिंह मुसलमानों से यह क्यों कह रहे हैं कि यदि भाजपा से गलती हुई है, तो वह उनसे माफी मांग लेंगे? यह तो खुद भाजपा को देखना है कि उससे कब और कहां ऐसी चूकें हुई हैं, जिससे देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग उससे ऐसा छिटका कि किसी भी तरह उसके पास आने के लिए तैयार नहीं है। 1925 में वजूद में आए आरएसएस, फिर जनसंघ, आज की भारतीय जनता पार्टी और तमाम पूरे संघ परिवार की कवायद देश के अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलाकर हिंदुओं का वोट बैंक तैयार करने की रही है। लेकिन इस देश का धर्मनिरपेक्ष ताना-बाना इतना मजबूत है कि वह तमाम कोशिशों के बाद भी छीजा नहीं। यही वजह रही कि भाजपा 188 सीटों से कभी आगे नहीं बढ़ सकी। इससे पता चलता है कि उसकी नीतियों को मुसलिम ही नहीं, देश के अन्य वर्ग भी पसंद नहीं करते। ऐसा न होता, तो वह 90 के दशक में ही ह्य272 प्लसह्ण का आंकड़ा छू चुकी होती। नब्बे का दशक भाजपा का सुनहरा दौरा था, जो अब शायद ही कभी वापस आए। दरअसल, 1986 में बाबरी मसजिद का ताला खुलने से लेकर मुजफ्फरनगर दंगों तक संघ परिवार, भाजपा के पक्ष में हिंदुओं के ध्रुवीकरण की कोशिश करता रहा है। अगर राजनाथ सिंह भाजपा की गलती ही पूछते हैं, तो उनकी हालिया सबसे बड़ी गलती तो यही है कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद वे मुसलिम दंगा पीड़ितों का हाल जानने नहीं गए। किसी राहत शिविर में उन्होंने कदम रखा। हां, दंगों के आरोपियों को भाजपा के मंच से सम्मानित किया गया। जब भाजपा ऐसा करेगी, तो मुसलमान भाजपा को वोट क्यों देगा?
अगर भाजपा वास्तव में देश के सभी नागरिकों को समान समझती, जैसा वह दावा करती है, तो उसकी राजनीति मुसलिम विरोध पर ही क्यों टिकी है? लोकसभा और विधान सभाओं में उसने कितने मुसलमानों को टिकट दिया है? ऐसा क्यों हैं कि उसके पास मुसलमानों के नाम पर सिर्फ दो चेहरे ही होते हैं? क्या उसे पूरे मुसलिम समुदाय से चंद काबिल मुसलिम नहीं मिलते, जिन्हें वह लोकसभा या विधान सभाओं में भेज सके? भाजपा को अपनी मुसलिम नीति में बदलाव लाने की जरूरत है, जिसमें वह चाहकर भी बदलाव नहीं कर सकती। उसने अपना चरित्र कुछ ऐसा बना लिया है कि है कि उससे बाहर आने पर उसे डर लगता है कि उसका वजूद इतना भी नहीं रहेगा, जितना आज है। राजनाथ सिंह के बयान से प्रकाश जावेडकर का किनारा करना इसकी पुष्टि करता है। भाजपा भले ही अन्य राजनीतिक दलों को छदम धर्मनिरपेक्ष कहकर उनकी आलोचना करे, लेकिन सच यही है कि भारत जैसे देश में सभी को साथ लेकर ही सत्ता का शिखर छुआ जा सकता है। बसपा ने दलितों के साथ सभी को जोड़ा तो 2007 में उसने पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई। भाजपा सोचे कि वह क्यों पिछले दस साल से वनवास में रही है? भाजपा को यह समझ लेना चाहिए कि मोदी का चेहरा तुरूप का इक्का नहीं है, जिसको चलकर हर हाल में बाजी जीती जा सकती है।

Sunday, February 23, 2014

लोकतंत्र का दुर्भाग्य


तेलंगाना मुद्दे पर लोकसभा में हुई बहस को देखने सुनने का जनता को पूरा अधिकार था। ये भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि जिस उद्देश्य से लोकसभा का चैनल शुरू किया गया था, उसका एक अहम दिन भारतीय जनता ने गंवा दिया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि चैनल पर लोकसभा की कार्यवाही के प्रसारण को जानबूझकर बंद किया गया होगा। हालांकि सरकार ने स्पष्टीकरण दिया है कि तकनीकी कारणों से ऐसा हुआ है। मान लीजिए कि यह सहमति बन गई थी कि इस प्रसारण से आंध्र प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति खराब होती तो फिर इसके लिए स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं थी। हालांकि आंध्र में आप जो देख रहे हैं, उससे खराब स्थिति और क्या हो सकती थी। राज्य के मुख्यमंत्री इस्तीफा दे चुके हैं और एक बड़े इलाके में विरोध और बंद हो रहे हैं। इससे एक और बात साबित होती है कि अभी देश के व्यवस्थापकों में लोकतंत्र की पारदर्शिता की समझ बहुत पिछड़े स्तर की है। वो समझदार नहीं हैं। मुझे नहीं लगता कि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा इस मामले से अनभिज्ञ होगी। भाजपा से तो बहुत अच्छे तरीके से बात की गई होगी। इससे पहले भी संसद में अहम मसलों पर यूपीए का भाजपा के साथ सहयोग रहा है। तेलंगाना के मुद्दे पर भी भाजपा को विश्वास में लिया गया था, भले ही पार्टी राजनीतिक कारणों से कुछ भी कहे। तेलंगाना का मुद्दा राजनीतिक कारणों से ही लटका हुआ है अन्यथा इसे तो 1956 में ही बन जाना चाहिए था।
बीबीसी में प्रमोद जोशी

Wednesday, February 19, 2014

आतंकवाद पर दोगलापन


सलीम अख्तर सिद्दीकीयह इसी देश में संभव हो सकता है कि एक पूर्व प्रधानमंत्री के कातिलों की पहले फांसी की सजा माफ की जाए और उसके बाद उन्हें रिहा भी कर दिया जाए। एक तरफ यह ऐसा हो रहा है, तो दूसरी ओर अफजल गुरु को फांसी दिए जाने का शोर हर ओर से उठता है और आखिरकार उसके घर वालों के बताए बगैर उसे फांसी पर लटका दिया जाता है। हद यह कि उसकी लाश भी उसके परिजनों को नहीं दी जाती। आखिर आतंकवाद पर यह दोगलापन क्यों है? उस भाजपा का तो कहना ही क्या, जिसको सुकून तभी आया, जब अफजल को फांसी दे दी गई। भाजपा का दोगलापन देखिए कि वह राजीव गांधी के कातिलों को माफ किए जाने पर ऐसे चुप्पी साधे है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। यही भाजपा किसी मुसलिम का आतंकवाद में लिप्त होने का नाम आने भर से उसे सरेआम फांसी पर लटका देने की मांग करने लगती है। लेकिन मालेगांव, मक्का मसजिद और समझौता एक्सप्रेस में बम धमाके करके सैकड़ों लोगों की जान लेने वाली साध्वी प्रज्ञा, प्रकाश पुरोहित और असीमानंद जैसे आतंकवादी उसे संत लगते हैं। कैसी विडंबना है कि बहुत सारे मुसलिम नौजवान उस जुर्म की सजा भुगत रहे हैं, जो उन्होंने किया ही नहीं।  आखिर आतंकवाद पर कब तक दोगलापन किया जाता रहेगा?

कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं


सलीम अख्तर सिद्दीकी
2014 के लोकसभा चुनाव बहुत अहम हो गए हैं। यदि गौर से देखा जाए, तो एक मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की कोशिश है कि ये चुनाव सांप्रदायिक आधार पर लड़े जाएं। यही वजह है कि अपने कई सीनियर लीडर की अनदेखी करते हुए भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया। यह बताने की जरूरत नहीं कि मोदी की सोच क्या है? दरअसल, आगामी लोकसभा चुनाव धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक ताकतों के बीच होना है। देशवासियों पर यह अहम जिम्मेदारी आयद हो गई है कि वे देश को सांप्रदायिक शक्तियों के हाथों में जाने से रोकें। नरेंद्र मोदी भले ही फिलहाल सांप्रदायिक बयानों से बच रहे हैं, लेकिन उनकी मंशा यही है कि जिस तरह से उन्होंने गुजरात में मुसलमानों को हाशिए पर रख रखा है, देश की सत्ता पर काबिज होकर देश के सभी मुसलमानों को सबक सिखाया जाए। सवाल यह नहीं है कि गुजरात में 2002 के बाद दंगा हुआ या नहीं? सवाल यह है कि 12 सालों में मुसलमानों को किस हैसियत में रखा गया है। दंगा तो होकर गुजर जाता है, लेकिन किसी को राज्य या देश की मुख्यधारा से काट देना बहुत खतरनाक है।
दरअसल, आगामी लोकसभा चुनाव में सभी अल्पसंख्यक वर्गों की अहम जिम्मेदारी यह बनती है कि वे देश में ऐसी सरकार आने से रोकें, जो फासिस्ट विचारधारा की हो। जिसका अतीत भी हम देख चुके हों। मैं यह नहीं कहता अल्पसंख्यक किस धर्मनिरपेक्ष पार्टी को को वोट दें, लेकिन एक सवाल जरूर करूंगा कि क्या कांग्रेस का कोई विकल्प है? मेरा जवाब तो यही है कि नहीं है। इसकी वजह यह है कि देश में गैर कांग्रेस सरकार के नाम पर दो प्रयोग हुए। एक 1977 में जनता पार्टी का और दूसरा 1989 में जनता दल का। जनता पार्टी और जनता दल दोनों ही एक स्थिर सरकार देने में बुरी तरह नाकाम रहे। और फिर जो लोग जनता पार्टी या जनता दल में थे, उनमें भी ज्यादातर वे थे, जो कभी न कभी कांग्रेसी रहे थे। वह चाहे मोरारजी देसाई हों, चरण सिंह हों या वीपी सिंह। आज जो ताकतें सत्ता में आने के लिए बेचैन हैं, वे भी देश पर छह साल तक देश की सत्ता पर काबिज रहीं, लेकिन वे भी अंतत: नाकाम रहीं और 2004 में देश की जनता ने एक बार फिर देश की सत्ता कांग्रेस को सौंपने में ही भलाई समझी। 2009 में भी कांग्रेस और अधिक सीटें लेकर आई। आज प्रायोजित रूप से 1984 के सिख विरोधी दंगों का यह कहकर प्रचारित किया जा रहा है कि उनमें कांग्रेसियों का हाथ था, लेकिन सच यह है कि उनमें संघ परिवार के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। एक सच यह भी है कि देश में जितने भी सांप्रदायिक दंगे हुए हैं, उनकी जांच में यही निष्कर्ष निकला कि उनमें आरएसएस के कार्यकर्ता शामिल थे। यह भी निकलकर आया कि  देश में हिंदुत्व आतंकवाद भी आरएसएस की सरपरस्ती में परवान चढ़ा। 
देश की जमीनी हकीकत कांग्रेस ही जानती है, इसलिए वह मनरेगा लेकर आती है। खाद्य सुरक्षा बिल पास कराती है। इसलिए मुझे तो लगता है की तारीख में कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं है। कांग्रेस ही एक स्थिर सरकार दे सकती है।

Monday, February 17, 2014

पैरों की जूती


सलीम अख्तर सिद्दीकी
अपने एक पुराने दोस्त के गांव में उसके घर पर बैठा हुआ था। शाम ढल चल चुकी थी। अंधेरा बढ़ने लगा था। घर क्या, वह पूरा महल सरीखा था, लेकिन उसमें गांव की महक समाईहुईथी। परंपरागत मूढ़े पड़े थे, जिन पर बैठकर लोग रात गए तक किन्हीं मुद्दों पर चर्चाकरते थे। मेरा दोस्त दीनदार किस्म का आदमी था। टोपी उसके सिर पर रहती थी। इबादत का कोईभी वक्त वह नहीं छोड़ता था, भले ही उसके लिए बहुत जरूरी काम छूट जाए। हम ताजा राजनीतिक घटनाक्रम पर चर्चाकर रहे थे।बच्चे ने आकर किसी के आने की सूचना दी। अंदर भेज दो, कहकर वह बातचीत में मशगूल हो गया। चंद लम्हों बाद ही एक शख्स ने बैठकखाने में कदम रखा। दोस्त और उस शख्स की बातचीत से मालूम हुआ कि वह उसके खेतों पर काम करने वाला मजदूर था और पूरे दिन का लेखा-जोखा देने आया था। वह खड़े-खड़े बातें कर रहाथा। दोस्त ने उससे कहा, बैठ जा। वह सामने ही उकडूं बैठगया और उसने फिर अपनी बात जारी की। मेरा माथा ठनका। वह नीचे क्यों बैठा है? थोड़ी देर बाद लगभग 13-14 साल का एक लड़का चाय की ट्रे लेकर आया और करीब पड़ी एक मेज खींचकर उस पर ट्रे रखकर चला गया। ट्रे में चाय के तीन कप थे, लेकिन एक कप डिस्पोजल था। यह देखकर फिर मैं सोचने लगा कि ऐसा क्यों है? दोस्त ने उस शख्स से चाय लेने के लिए कहा। उसने पहले मना किया, लेकिन दोबारा कहने पर डिस्पोजल वाला कप उठा लिया।
अब मैं समझचुका था कि वह शख्स मूढ़े पर क्यों नहीं बैठा और उसके लिए अलग कप में चाय क्यों आई है। थोड़ी देर की बातचीत के बाद उस शख्स ने जेब से कुछनोट निकाले और दोस्त की ओर बढ़ाते हुए बोला, आज जो मंडी माल गया है, यह उसके पैसे हैं।दोस्त ने नोट गिने और अपनी जेब के हवाले कर लिए और चाय की चुस्कियां लेने लगा। उसने कुछनिर्देश उस शख्स को दिए । वह शख्स उल्टे पांव बैठकखाने से बाहर निकल गया। मैं सोच रहा था कि नोटलेते वक्त आदमी छुआछूत क्यों नहीं मानता? मैं जानता था कि दोस्त ने उस शख्स के साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया है? लेकिन मैं उसके मुंह से सुनना चाहता था। मैंने पूछा, भाई, उस शख्स के साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया तुमने। जवाब वही मिला, जो मुझे अपेक्षित था, बल्कि उससे भी ज्यादा तल्ख। उसने कहा, जूतियां पैरों में ही अच्छी लगती हैं, उन्हें सिर पर नहीं रखा जाता। उससे बहस करना बेकार था। बहस में पड़ने के बजाय मैंने मेज पर पड़े रिमोटसे टीवी ऑन कर दिया। खबर मुजफ्फरनगर दंगों से संबंधित थी। उसमें बताया जा रहा था कि कैसे राहत शिविरों में रहने वाले लोगों की हालत खराब थी। उनमें बच्चे दम तोड़ रहे हैं।बारिश के बाद दुश्वारियां और बढ़ गई हैं। खबर देखते-देखते मेरा दोस्त बोला, इस देश में हमारे साथ हमेशा से भेदभाव होता आया है। कोई भी सरकार हो, सब यही करती हैं। मुझसे नहीं रह गया।मैंने कहा, जब तक हम अपने मजहब के खिलाफ जाकर इंसानों को अपने पैरों की जूती समझते रहेंगे, तब तक हमारे साथ यही होता रहेगा। उसने मेरी बात को अनसुनी सी करते हुए चैनल बदल दिया।

Tuesday, February 11, 2014

खौफ

सलीम अख्तर सिद्दीकी
वह शहर का एक नामचीन अस्पताल था, जिसमें मैं अपने एक दोस्त के बेटे को देखने गया था, जो वहां जेरे इलाज था। रात के यही कोई साढ़े नौ बजे थे। बारिश थोड़ी देर पहले ही रुकी थी, जिससे सर्दी में इजाफा हो गया था। अस्पताल के बाहर कई लग्जरी गाड़ियां खड़ी हुई थीं, जिनके आसपास झक सफेलद कलफ कपड़ों में कुछ युवा खड़े थे। कई की शर्ट थोड़ी उभरी हुई थी, जो संकेत दे रही थी कि उन्होंने पिस्टल लगाया हुआ है। उनकी नजरें चारों ओर तेजी से घूम रही थीं। मेरा दोस्त मुझे बाहर ही मिल गया था। मैंने उसके बेटे की तबीयत के बारे में पूछकर कहा, क्या माजरा है, माहौल कुछ अलग-सा लग रहा है। उसने एक पूर्व बाहुबली विधायक का नाम लेकर कहा, उसका भाई अस्पताल में भर्ती है, वह अपने भाई को देखने अंदर गया है। हम बातचीत में मशगूल हो गए। थोड़ी देर बाद हलचल हुई और दस-पंद्रह लोगों का काफिला बाहर आया। काफिले के बीच में पूर्व बाहुबली विधायक चल रहा था। वह सतर्क नजरों से चारों ओर देख रहा था।
दरअसल, पूर्व विधायक पर अपने एक साथी के कत्ल का इल्जाम था। जब कत्ल हुआ था, तो पूर्व विधायक, उस वक्त सत्ताधारी पार्टी का विधायक था, इसलिए पुलिस से उसे ‘क्लीन चिट’ मिलने में दुश्वारी नहीं आई थी। लेकिन कत्ल होने वाले के साथियों का मानना था कि कत्ल पूर्व विधायक ने ही किया था। इसलिए बाहुबली विधायक को अपनी जान को खतरा लगा रहता था।
पूर्व विधायक और उसका काफिला सड़क पर आ चुका था। ड्राइवर उसकी गाड़ी को बैक करके उसके पास ला रहा था। उसके दूसरे साथी एक-एक करके उन गाड़ियों में जा बैठे थे, जो पहले से ही वहां खड़ी थीं। ड्राइवर ने गाड़ी विधायक के बराबर में लाकर खड़ी की। विधायक गाड़ी का दरवाजा खोलकर गाड़ी में बैठना ही चाहता था कि एक काले रंग की बाइक तेजी से उसके पास आकर रुकी। बाइक चालक ने काले रंग का ही हैलमेट लगा रखा था। बाइक के रुकते विधायक के चेहरे पर खौफ की लकीरें नमूदार हो हुर्इं। स्ट्रीट लाइट की रोशनी में साफ नजर आया कि कड़ाके की ठंड होने के बावजूद उसके चेहरे पर पसीना आ गया। विधायक की समझ में नहीं आया कि वह गाड़ी में बैठे या बाहर ही खड़ा रहे। उस पर जैसे सकता सा छा गया। उसके साथ चलने वाले लोग भी एक बारगी जड़वत से हो गए। इससे पहले कि किसी के कुछ समझ में आता, बाइक सवार ने अपना हैलमेट उतारा और तपाक से विधायक की ओर हाथ बढ़ाकर बोला, अरे, नेताजी यहां कैसे? सब खैरियत तो है? विधायक ने उसे पहचाना और बोला, यार तुमने तो मेरी जान ही निकाल दी थी। दोनों ठहाका मारकर हंसे। विधायक के साथ वाले लोगों की जान में जान आई। मेरा दोस्त बोल उठा, देखा कितने कमजोर दिल वाले होते हैं