Saturday, January 18, 2014

कोई तो समझे आंसुओं की जुबां


सलीम अख्तर सिद्दीकी
दंगा हुए चार महीने बीत चुके थे। दंगों से प्रभावित जिन लोगों ने अपने गांवों से भागकर राहत शिविरों में पनाह ले थी, उनमें से बहुत लोग अभी राहत शिविरों में ही पनाह लिए हुए थे। राहत शिविरों पर तेज होती राजनीति के बीच मुझे आदेश हुआ था कि राहत शिविरों में जाकर देखा जाए कि असलियत क्या है? साथ में एक फोटोग्राफर था। हमने सबसे बड़े एक राहत शिविर को चुना, जो एक मदरसे में संचालित हो रहा था। राहत शिविर बेतरतीब और जगह-जगह से फट चुके टेंटों की बस्ती बन चुका था। फटे हुए टेंटों में ठंडी हवा से बचने के लिए लोग किसी तरह सर्दी को दूर रखने की नाकाम कर रहे थे। लेकिन शायद बच्चों को इसकी परवाह नहीं थी। वे समूह बनाकर मिट्टी में खेलने में मस्त थे। कब तक बाहर से आने वाली खाद्य सामग्री पर निर्भर रहा जाता, इसलिए महिलाएं अपने-अपने चूल्हों पर दोपहर का खाना बनाने में व्यस्त थीं। इन लोगों के बीच मुझ जैसे लोग भी थे, जो वहां ‘दंगा पीड़ितों’ का हाल लेने आए थे। हालांकि उनका हाल जानने का सिलसिला कई दिनों से बदस्तूर जारी था, लेकिन उनकी पीड़ा कुछ कम हुई थी, ऐसा बिल्कुल नहीं लग रहा था।
हर किसी के पास एक कहानी थी, जिसे सुनने के बहुत वक्त की दरकार थी। इसलिए उनका ‘हाल’ जाने वाले लोग जल्दी ही पीछा छुड़ाने की फिराक में लग जाते थे। मेरा साथी फोटोग्राफर यूं तो बहुत सारी तस्वीरें ले चुका था, लेकिन वह एक ऐसी तस्वीर की तलाश में भटक रहा था, जो थोड़ी अलग हो। फोटोग्राफर भटकता हुआ एक ऐसी जगह जाकर रुक गया, जहां पर उन लोगों को खाना देने की तैयारी की जा रही थी, जो अभी भी अपना ‘चूल्हा’ बनाने में कामयाब नहीं हो सके थे। चावलों की देग लाकर रख दी गई थी। लोग जल्दी-जल्दी अपनी प्लेटें लेकर लाइन में लगने लगे। एक आदमी एक प्लेट से देग में से कुछ चावल निकालकर प्लेट में डालता तो दूसरा अपनी प्लेट आगे कर देता। एक 14-15 साल की लड़की, जिसके चेहरे पर उदासियों ने डेरा डाले हुए था, ने अपनी प्लेट उस आदमी के आगे की। आदमी ने प्लेट में खाना डाला। खाना लेते हुए लड़की की आंखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। टप-टप करते उसके आंसु खाने की प्लेट में गिरकर जज्ब लगे। फोटोग्राफर ने लड़की की लगातर कई तस्वीरें ले डालीं। उसे उसकी मनपसंद तस्वीर मिल गई थी। कैमरे की फ्लैश से लड़की चौंकी। उसने सिर ऊपर उठाकर देखा। उसके चेहरे पर कुछ लम्हों के लिए गुस्से की लकीरें उभरीं, फिर उसकी आंखें आंसुओं से सरोबोर हो गर्इं। वे आंसु, जो कह रहे थे, हमारी जिंदगी कब पटरी पर आएगी? कितनी तस्वीरें छापोगे अखबारों में? कितनी बारे बेचोगे हमारी मजबूरियां? क्यों बनाते हो हमारा तमाशा? उसके आंसुओं की जुबां शायद किसी के समझ में नहीं आती। किसी के भी नहीं।

Saturday, January 11, 2014

सोनी की सीढ़ी और दादी


रात के किसी पहर एक दोस्त का एसएमएस आया था कि दादी जी का स्वर्गवास हो गया है। मैं सोचने लगा कि मैंने तो कभी उस घर में दादी का अस्तित्व नहीं देखा, अचानक दादी कहां से आ गई। फिर सोचा कि हो सकता है, वह अपने किसी दूसरे बेटे के पास रहती हों। यही सोचते-सोचते दोस्त को फोन किया। पता चला कि दोपहर बारह बजे उनकी अंत्येष्टिी गंगा पर होगी। तैयार होकर सुबह नौ बजे ही दोस्त के घर पहुंच गया था।
अर्थी तैयार की जा रही थी, जिसे फूलमालाओं से सजाया जा रहा था। उस पर गुब्बारे भी लगाए जा रहे थे, जिन्हें बच्चे बड़े उत्साह से फुला रहे थे। मैंने अपने दोस्त की तलाश में इधर-उधर नजर डाली तो वह मुझे अन्य दोस्तों के साथ बात करता हुआ दिखाई दिया। उनके पास पहुंचते-पहुंचते मेरे कानों में एक आवाज आई, मेरे दोस्त का एक दूसरा दोस्त कह रहा था, अब तो तेरे मजे आ गए, दादी ने तेरा कमरा घेरा हुआ था। अब तो वह तुझे मिल जाएगा। मैं उनके करीब पहुंच चुका था, मेरा दोस्त कह रहा था, हां, यार दादी ने बहुत इंतजार कराया। वे शायद समय का ध्यान रखते हुए ठहाका नहीं मार सकते थे, इसलिए सभी मंद-मंद मुस्कुरा उठे। मेरे दोस्त के चेहरे पर आशा की चमक आ गई थी। वैसे भी वहां ऐसा माहौल नहीं था कि ऐसा लगे कि इस घर में किसी की मौत हुई है। मेरे जेहन में यही चल रहा था कि दोस्त की दादी कौन-सी थी। मैंने दोस्त से पूछा, तेरी दादी को कभी इस घर में तो नहीं देखा, क्या तेरे किसी चाचा के पास रहती थी? इससे पहले की वह मेरे सवाल का जवाब देता, उसे किसी ने पुकारा, वह अभी आया, कहकर चला गया। मैं दूसरे दोस्तों के साथ बातों में मशगूल हो गया।
बातों के बीच एक दोस्त ने दादी का हुलिया बयान करके बताया कि दादी कौन थी? हुलिए के आधार पर मैंने दादी को पहचाना तो मेरे जेहन को झटका लगा। तभी मेरा दोस्त प्रकट हुआ और आते ही बोला, दादी ने लंबी उम्र पाई है, इसलिए वह सोने की सीढ़ी पर चढ़कर जाएंगी। पिताजी ने किसी को सीढ़ी लेने भेजा था, वह अभी तक आया ही नहीं है। पिताजी तो बैंड वाले को भी कह आए थे, लेकिन मैंने ही फालतू खर्च के लिए मना कर दिया था। वह फिर बोला, अभी वह नहीं आया, जिसे सोने की सीढ़ी लेने भेजा था? फिर मोबाइल में टाइम देखकर बोला, अभी तो दस ही बजे हैं, शायद अभी दुकानें नहीं खुली होंगी। वह बोल रहा था और मेरे सामने एक कृशकाय वृद्ध महिला का चेहरा घूम रहा था। मैली धोती पहने, झाड़ू लगाती हुई, फर्श पर पौंछा लगाती हुई, बाल्टी में कपड़े भरकर छत पर सुखाने के लिए हांफती हुई सीढ़ियां चढ़ती हुई, बहु यानी मेरे दोस्त की मां की झिड़की सुनती हुई। आज मुझे पता चला कि वह नौकरानी नहीं, दादी थी। अर्थी तैयार हो चुकी थी। अर्थी को चार लोग उठाकर अंतिम यात्रा वाहन की ओर चलने लगे। मेरे बराबर में चल रहे दो लोगों में एक फुसफुसाया जिंदगी भर नौकरानी बनकर रही, अब सोने की सीढ़ी पर चढ़कर जा रही है।

Sunday, January 5, 2014

सभ्यता के दायरे से बाहर होते हुए


वे चार थे। शहर के एक बार में बैठे हुए थे। बदन पर ब्रांडेड कपड़े, हाथों में महंगे मोबाइल और मुंह में लगी महंगी सिगरेट। उनकी बातों से लग रहा था कि वे किसी मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे पदों पर थे। देखने में सभी सभ्य लग रहे थे। सभ्यता से बातें कर रहे थे। चारों के फोन बारी-बारी से बज रहे थे और बहुत ही सभ्य भाषा में कॉल करने वालों का संतुष्टकरने का प्रयास कर रहे थे। तभी उनके पास एक वेटर आया और आॅर्डर लेकर चला गया। चंद लम्हों में उनके सामने पैग रखे हुए थे। सबने एक साथ सभ्य तरीके से चियर्सबोला और एक-एक सिप लेकर गिलास मेज पर रख दिए। मैंने अपना ध्यान उन लोगों से हटाकर टीवी स्क्रीन पर लगा दिया, जिस पर भारत और इंग्लैंड के बीच हो रहे क्रिकेटमैच का प्रसारण आ रहा था। मुझे जिस आदमी का इंतजार था, उसने आधा घंटा बाद आने के लिए कहा था, तब तक मुझे किसी तरह से टाइम काटना था। मैं धीरे-धीरे कोल्ड ड्रिंक की चुसकियां ले रहा था। मेरा ध्यान एक बार फिर उन चारों की ओर चला गया। वे दो-दो पैग पी चुके थे। अब उनकी बातचीत के लहजे में फर्कआ गया था। उनकी भाषा असभ्य-सी हो चली थी। उनमें से किसी एक का फोन बजा। उसने स्क्रीन पर नजर डाली और और भद्दी से गाली देकर बोला, यह कमीना बॉस भी चैन नहीं लेने देता। इतना कहकर उसके फोन रिसीव किया और किसी तरह लहजे को संयत करके बात करके फोन बंद कर दिया। वेटर उनको तीसरा पैग सर्व कर चुका था। तीसरा पैग पीने के दौरान उनकी चचार्का विषय राजनीति हो गया था। उनकी आवाज बहकने लगी थी और मुंह से नेताओं के लिए धाराप्रवाह गालियां निकलने लगीं थीं। सब .. चोर हैं। देश बेच खाया है, इन्होंने। हैरान कर देने की हद तक वे अब पूरी तरह असभ्य हो चले थे। अब जब भी किसी के फोन की रिंग बजती, वह उसे काटदेता और फिर बातों में मशगूल हो जाता। थोड़ी देर बाद एक-एक करके चारों ने फोन बंद करके अपनी जेब के हवाल कर दिए। अचानक उनकी बातों का रुख अपने आॅफिस की सहकर्मियों की ओर हो गया। देखते ही देखते उनका पौरुष जाग गया और वे एक तरह से हिंसक हो उठे। एक बोला, अरे उसके बारे में मुझे सब पता है। ..बनती हैसती सावित्री। सब जानते हैं, उसका किसके साथ चक्कर है? इतना कहकर वह शैतान की तरह हंसा। बाकी तीनों ने भी उसका साथ दिया। दूसरे ने किसी और सहकमीर्के बारे में अश्लील कमेंट किया और फिर चारों एक साथ शैतान की तरह हंसे। उनके गिलास खाली हो चुके थे। एक ने इधर-उधर नजर दौड़ाकर वेटर को ढूंढा और उसे पैग रिपीट करने के लिए कहा। उनका चेहरा विकृत हो चला था। अब उनका ध्यान टीवी पर आ रहे क्रिकेट मैच पर हो गया था। मैच का अंतिम ओवर चल रहा था। भारत जीत की दहलीज पर था। आखिरी गेंद फेंकी गई और भारत जीत गया। इसी के साथ चारों के अंदर अचानक देशभक्ति का जज्बा पैदा हो गया। चारों इस जीत को भारत की महान उपलब्धि बताने लगे। जीत को सेलीबेट्र करने के लिए पैग रिपीट करने का आॅर्डर दिया गया। नशे की अधिकता से दिमाग ने शरीर का साथ छोड़ दिया था।अचानक उनमें से एक को जोरदार उल्टी हुई। मेज पर गंदगी पसर गई। हॉल में बैठे हुए लोग उन्हें घृणा से देखने लगे। कईने अपने मुंह पर रूमाल रख लिया। वेटर उन्हें भद्दी गालियां देने लगा। वे चुपचाप सुनने के लिए मजबूर थे। वे उस समय पूरी तरह से असभ्य हो चुके थे।