Sunday, December 22, 2013

घने कोहरे के बीच दो चेहरे


सलीम अख्तर सिद्दीकी
नौ बजे थे, जब मैं अपने डॉक्टर दोस्त के क्लिनिक पर पहुंचा था। कोहरे में लिपटी रात होने की वजह से सड़क पर सन्नाटा पसरा था। डॉक्टर एक मरीज का चैकअप कर रहा थ। मरीज की उम्र यही कोई65-70 साल के आसपास थी।सर्दीसे बचने के लिए उसने एक मैली सी चादर अपने बदन पर लपेटी हुईथी। वह बराबर खांस रहा था। डॉक्टर उससे कह रहा था, बाबा मैंने पहले भी कहा था, अपनी कुछजांच करा लें, वरना सर्दीमें दिक्कत बढ़ जाएगी। बूढ़े ने डॉक्टर को ऐसी नजरों से देखा, जैसे पूछरहा हो, कैसे जांच करवाऊं? डॉक्टर ने सवाल किया, आपके बेटा नहीं है कोई? बूढ़े ने हाथ की ऊंगलियों से इशारा किया, चार। डॉक्टर ने फिर सवाल दागा, आपके साथ नहीं रहते? इस सवाल पर बूढ़ा थोड़ी देर के लिए चुप हो गया और बाहर की ओर ताकने लगा। फिर हाथ का इशारा किया, जिसका मतलब यही था कि सब बाहर रहते हैं। थोड़ी देर खामोशी रही। बूढ़े ने खामोशी तोड़ते फुसफुसाते हुए कहा, चारों सरकारी नौकर हैं। किसी चीज की कमी नहीं है। बस मेरे लिए ही कुछनहीं है। यह कहते-कहते बूढ़े की आंखों में आंसू तैरने लगे। डॉक्टर ने कहा, बाबा अब तो मैं दवा दे रहा हूं, लेकिन आपको कुछजांच करानी ही पड़ेंगी। थोड़ी देर में कंपाउडर ने दवा का लिफाफा बूढ़े के हाथ में दिया। उसने कहीं से टटोलकर चार तह किया हुएआ एक पचास का नोट डॉक्टर के सामने रख दिया। डॉक्टर ने कुछसोचा और फिर बोला, पैसे रहने दो बाबा। दवा खालो कल फिर दवा ले जाना। बूढ़ा आहिस्ता-आहिस्ता क्लिनिक से बाहर निकला और कोहरे की धुंध में खो गया। मेरे और डॉक्टर के बीच खामोशी छा गई। मैं उस बूढ़े के बारे में सोच रहाथा और शायद डॉक्टर भी। हमारी तंद्रा तब टूटी, जब एक बच्चे की रोने की आवाज हमारे कानों में पड़ी। एक नौजवान दंपति एक रोते हुए बच्चे के साथ क्लिनिक में दाखिल हो रहा था। बच्चा लगातार रोए जा रहा था। दंपति के चेहरों से लग रहाथा कि वह बच्चे का रुदन सहन नहीं कर पा रहे थे। नौजवान, जो उस बच्चे का पिता था, कातर स्वर में बोला, डॉक्टर साहब तीन घंटे से यह रोए जा रहा है। शायद इसके पेटमें दर्दहै। डॉक्टर ने दंपति से कुछसवाल किए। कागज पर दवा लिखी और स्टोर से लाने के लिए कहा। उसका पिता जितनी जल्दी हो सकता था, दवा लेकर आया। डॉक्टर ने ड्रॉपर से चंद बूंदे बच्चे के मुंह में डालीं। थोड़ी देर बाद ही बच्चे की रोने की आवाज धीमी होती चली गई। देखते ही देखते बच्चे के चेहरे पर सुकून उभरा और अपनी मां के आंचल में दुबक कर सो गया। दंपति के चेहरों पर भी संतोष के भाव उभर आए। डॉक्टर ने उन्हें कुछ औरदवाइयां दीं। बच्चे के पिता ने जेब से पैसे निकालकर डॉक्टर के सामने रखे। अचानक मुझे उस बच्चे के पिता का चेहरा बदलता हुआ लगा। लगा जैसे वह उस बूढ़े की तरह होता जा रहा है, जो थोड़ी देर पहले क्लिनिक से गया था। मजबूर, बेबस और लाचार। देखते ही देखते वह हूबहू उस बूढ़े की शक्ल अख्तियार कर चुका था। वह बूढ़ा भी कभी अपने उन बच्चों के लिए ऐसे ही परेशान हुआ होगा, जैसे यह पिता हो रहा है। बाहर कोहरा और घना हो गया था। सड़क पर सन्नाटा भी और ज्यादा हो गया था।

Sunday, December 15, 2013

उनकी खुशी, हमारा गुनाह



वह एक ऐसे शख्स के बेटे की शादी थी, जो धर्म-कर्म में लगे रहते थे। सब से धर्म के रास्ते पर चलने की नसीहतें देना उनका सबसे बड़ा काम था। सादगी और आडंबर से दूर रहने की हिदायत उनकी जबान पर रहती थी। शादी में मैं भी शरीक था। शादी हॉल पर पहुंचा तो सादगी का तो दूर-दूर तक खैर पता ही नहीं था, वह सब हो रहा था, जिसे न करने की हिदायत वह शख्स दिन रात दिया करते थे। दहेज इतना मिला था कि लोगों की आंखे चुंधिया गईं। उस शख्स को भी एक स्कूटी भेंट की गई थी। कई तरह के खाने थे। रंग-बिरंगी पौशाक में इठलाते युवा और युवतियां। यहां तक सही लग रहा था कि चलो आजकल जमाना ही ऐसा है। लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ, वह चौंकाने वाला था। कहीं दूर आतिशबाजी और बैंड बजने की आवाज सुनाई दी। किसी ने कहा, लगता है बारात आ गई। मेरे साथ अन्य लोग भी चौंके। इस शादी में आतिशबाजी और बैंड बाजा। बात कुछ हजम नहीं हो रही थी। मैंने सोचा कि किसी और की बारात होगी, क्योंकि शादियों का सीजन था। लेकिन थोड़ी देर बाद कंफर्म हो गया कि बारात उन्हीं धार्मिक शख्स की थी। थोड़ी देर बाद नाचते-गाते युवकों का टोला बैंड बाजे के साथ शादी हॉल के सामने आकर रुका।
देर तक जमकर आतिशबाजी हुई। कई लोगों के चेहरों पर नागवारी थी। किसी ने कहा,‘यह तो आतिशबाजी और बैंड बाजे को गुनाह मानते और बताते फिरते हैं?’ यह सुनकर कई लोगों की चेहरों पर व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट तैर गई। वो शख्स, जिनके बेटे की बारात थी, शादी का वैभव देखकर गर्व से फूले नहीं समा रहे थे। किसी ने उनसे मुखातिब होकर कहा, जनाब,‘यह क्या हो रहा है? कथनी और करनी में इतना बड़ा फर्क? अब कैसे दूसरों को नसीहत करेंगे आप?’ उस शख्स ने बेपरवाह होकर जवाब दिया,‘भई मैंने तो बहुत मना किया, लेकिन क्या करें आजकल के बच्चे मानते ही नहीं हैं। मैंने तो बहुत मना किया, लेकिन नहीं माने अब घर में कौन लड़ाई करे?’ इतना कहकर वह एक ओर चल दिए तो एक आदमी ने कहा,‘अरे जनाब इनकी घर में चलती कहां है? इनकी शरीक-ए-हयात का कहना था कि मेरा तो एक ही बेटा है, मैं तो अपने पूरे अरमान निकालूंगी। सब कुछ उन्होंने ही किया है।’
थोड़ी देर बाद शादी हॉल में कुछ गहमागहमी सुनाई दी। कोई जोर-जोर से बोल रहा था। सब लोग उस ओर ही चल दिए। देखा कि एक शख्स उनसे मुखातिब था, जिनके बेटे की शादी थी। वह शख्स कह रहा था,‘मियां, आप जो करो, वह सही, हम करें तो गुनाह-ए-अजीम? पिछले महीने मेरे बेटे की शादी थी, तो बच्चों ने डीजे लगवा दिया था, तो आपने अपने साथियों के साथ जबरदस्ती उसे यह कहकर बंद करवा दिया था कि यह सब हमारे मजहब में शिर्क है।’ वह जाते-जाते बोला,‘..और आपके इसी बेटे ने डीजे के तार खींचे थे, जिसकी बारात में यह सब कर रहे हैं।’ बाहर आतिशबाजी और बैंड की आवाज तेज हो गई थी। कहीं दूर किसी मसजिद से अजान की मद्धम आवाज उभरी, जो आतिशबाजी और बैंड की आवाज में दबकर रह गई।

Sunday, December 1, 2013

ऊपर की आमदनी


वह एक शहर के एक नामचीन शिक्षण संस्थान की कैंटीन थी। ‘विद्या का ज्ञान’ देने का दावा करने वाले उस संस्थान में ‘मेरिट’ पर नहीं ‘डोनेशन’ पर दाखिला दिया जाता था। वहां आम आदमी के बच्चों के लिए कोई जगह नहीं थी। यही वजह थी कि कैंटीन में ऐसे छात्रों का जमावाड़ा था, जिनके चेहरे-मोहरे से ही रईसी टपकती थी। छह-सात लड़कों का एक ग्रुप चर्चा में मशगूल था। बहस इस पर हो रही थी कि जॉब सरकारी बेहतर है या प्राइवेट? कोई प्राइवेट सेक्टर की अच्छाई बता रहा था, तो कोई सरकारी नौकरी की। लेकिन अधिकतर का मत यही था कि प्राइवेट सेक्टर में सिक्योरिटी नहीं है, जबकि सरकारी नौकरी में सिक्योरिटी के साथ ही ‘ऊपर की आमदनी’ भी बहुत है। चर्चा की बीच एक छात्र बोल उठा, ‘मेरे पापा की यूं तो 35 हजार सेलरी है, लेकिन ऊपर की आमदनी इससे कई गुना है। सेलरी न भी मिले तो परवाह नहीं।’ दूसरे ने हांक लगाई, ‘अबे ऐसा न होता, तो यहां पांच लाख देकर एडमिशन ले सकता था तू?’ एक छात्र उनकी बातें सुनकर कुछ उदास हो गया था। उसकी सूरत देखकर एक लड़के ने कहा, ‘अरे, तेरे चेहरे पर क्यों 12 बज गए?’ उसने कहा, सोच रहा हूं, ‘अगर मेरे पापा पर ईमानदारी का भूत सवार न हुआ होता, तो मैं भी तुम्हारी तरह ही ऐश कर रहा होता।’ उसकी बात सुनकार थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गई। एक छात्र ने खामोशी तोड़ते हुआ कहा, ‘अच्छा यह सब छोड़ो, यह बताओ शाम को कहां मिल रहे हो?’ इस सवाल के जवाब में एक आवाज उभरी, ‘लेकिन ‘बार’ का खर्च कौन उठाएगा?’ एक ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, ‘वही उठाएगा, जिसका बाप सेलरी से कई गुना ऊपर की आमदनी करता है।’ वह छात्र, जिसके बारे में यह कहा गया था, बोल उठा, ‘नहीं यार आज मंगलवार है, मुझे मंदिर जाना है। हमारे ‘गुरुजी’ ने सख्ती से मंगलवार को कुछ ऐसा-वैसा करने के लिए मना किया हुआ है।’ उसने उठते हुए अपनी बात पूरी की, ‘दरअसल, मेरे डैडी को आमदनी वाली पोस्ट तभी मिली थी, जब उन्होंने ‘गुरुजी’ के सत्संग में जाना शुरू किया था। उस ग्रुप से इतर दूसरे ग्रुप से किसी ने ऊंची आवाज में कहा, ‘गुरुजी ने सख्ती से रिश्वत लेने को मना नहीं किया, तेरे बाप को?’ कैंटीन में सन्नाटा पसर गया।