Thursday, February 28, 2013

‘आयरन लेडी’ ब्लॉगर का बचकानापन

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मैं पिछले दिनों एक ब्लॉग पर गया और वहां जो कुछ लिखा था, उसकी आलोचना कर दी। उस टिप्पणी को प्रकाशित नहीं किया गया। हां इतना जरूर हुआ कि उस ब्लॉगर की मॉडरेटर साहिबा न जरूर टिप्पणी की कि यहां पर तुम जैसे मुल्लों, आतंकी और गुंडों के लिए कोई जगह नहीं है। मैं चौंका। मैंने उस ब्लॉग को ध्यानपूर्वक पढ़ा तो पाया कि वह एक ऐसी हिंदुत्ववादी महिला का ब्लॉग है, जो अपने आप में सिमटी है और जिसे लगता है कि किसी मुसलमान की टिप्पणी प्रकाशित कर दी, तो ब्लॉग का शुद्धिकरण कराना पड़ सकता है। मैंने इसके बाद कई बाद उनकी पोस्ट पर टिप्पणीयिां कीं, सकारात्मक भी कीं और नकारात्मक भी, लेकिन सभी हजम कर गर्इं। मेरा कहना यह है कि जब तक आप दूसरों की नहीं सुनेंगे? अपने आप मेें सिमटे रहेंगे? सभी खिड़की दरवाजे बंद करके बैठ जाएंगे, तो दूसरों को समझने का मौका कैसे मिलेगा। मुझे सबसे ज्यादा ऐतराज यह है कि मुसलमान होने का मतलब आतंकी और गुंडा मान लिया गया है। मेरा ब्लॉग पढ़कर कम से कम मुझे सांप्रदायिक तो नहीं ठहरा सकता। और यदि सांप्रदायिक और फासिस्ट ताकतों के खिलाफ लिखना सांप्रदायिक, आतंकी और काफिर होना है, तो मैं कहूंगा कि मैं ऐसा करता रहूंगा। अपने खोल में सिमटे रहने की समस्या अकेली उस महिला ब्लॉगर की नहीं है, जो अपने आपको ‘आयरन लेडी’ कहने का दंभ पालती है। मुझे तो लगा कि वह एक कमजोर महिला है, जो अपने लिखे पर की गई टिप्पणी को भी बर्दाश्त नहीं कर पाती।

Tuesday, February 26, 2013

कौन कहता है कि भारत में मुसलमानों के लिये आरक्षण नहीं है

अमलेन्दु उपाध्याय
हैदराबाद बम विस्फोट के बाद भारतीय मीडिया भले ही सरकार और जाँच एजेंसियों पर दबाव बनाने में कामयाब हो गया हो लेकिन न केवल उसकी साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी ताकतों से साँठ-गाँठ उजागर हो गयी बल्कि यह भी उजागर हो गया कि आतंकवाद के खेल में मीडिया घरानों की भूमिका भी कम संदिग्ध नहीं है। जहाँ एक ओर सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर मीडिया ट्रायल पर गम्भीर चिन्ता जता रहे हैं वहीं पाकिस्तान के एक अखबार ने यह पोल खोल दी है कि भारतीय मीडिया हैदराबाद बम विस्फोट में जिस संदिग्ध को दिखा रहा है उसकी तो पहले ही हत्या हो चुकी है।
    हाल ही में जस्टिस अल्तमस कबीर ने पटना में एक कार्यक्रम में इस बात पर चिन्ता जतायी थी कि ट्रायल अदालतों में ही होना चाहिये और फैसला अदालतों में ही होना चाहिये। लेकिन ऐसी बातें चाहे जस्टिस कबीर कहें या जस्टिस मार्कण्डेय काटजू, हमारे मीडिया की समझ में यह बातें आना बन्द हो गयी हैं। तमाशा यह है कि आईबी या पुलिस अपनी चार्जशीट पहले मीडियाकर्मियों को उपलब्ध करा देती है और मीडिया उसे अपनी स्पेशल रिपोर्ट बताकर चिल्लाना और सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर देता है। हैदराबाद बम ब्लास्ट के बाद भी ऐसा देखने में आ रहा है। जब विस्फोट के दस मिनट बाद ही मीडिया एक सुर में चिल्लाने लगा कि इसके पीछे इण्डियन मुजाहिदीन का हाथ है और पूरी रटी-रटायी थ्योरी एक्सक्ल्यूसिव स्टोरी बताकर प्रसारित होने लगी।
    पाकिस्तान के अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने खुलासा किया है कि कुछ भारतीय मीडिया घराने इस ब्लास्ट में जिस संदिग्ध को दिखा रहे हैं वह पाकिस्तान की मुत्तहिदा कौमी मूवमेन्ट (एमक्यूएम) के लीडर मरहूम एपीए मंजर इमाम का चित्र है। इतना ही नहीं गम्भीर बात यह है कि इमाम की हत्या बीती 17 जनवरी को हो चुकी है और तालिबानी संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने इस हत्या की जिम्मेदारी कुबूल की है। मजे की बात यह है कि भारतीय मीडिया इमाम का चित्र दिखा कर उन्हें न सिर्फ इण्डियन मुजाहिदीन का सदस्य बता रहा है बल्कि हैदराबाद के संभावित गुनाहगारों में दिखा रहा है।
यहाँ सवाल उठता है कि खुफिया एजेन्सियों के प्रोपेगण्डा को खबर बनाकर चलाना कहाँ की पत्रकारिता है। क्या किसी खबर को प्रकाशित करने या आॅन एयर करने से पहले उसकी थोड़ी सी भी पड़ताल करना मीडियाकर्मियों के पेशे की नैतिकता में शामिल नहीं है। लोकतन्त्र के कथित चौथे खम्भे की ऐसी काली करतूतें देश विभाजन की भूमिका तैयार करती हैं। 
सोशल मीडिया पर भी भारतीय मीडिया की इस काली करतूत की जमकर भर्त्सना हो रही है। फेसबुक पर एक पत्रकार ने मजाक उड़ाते हुये लिखा है झ्र इट्स नॉट फेयर यार। इण्डियन मीडिया के बारे में ऐसा नहीं कहते..... यार अब वो भी क्या करें? आईबी वालों ने गरीब रिपोर्टर्स को जो दिया वो उन्होंने चला दिया... इसमें उनकी क्या गलती है? भाई मैं तो अपने भाइयों के साथ हूँ।
ऐसा नहीं है कि यह कोई पहला मौका है जब भारतीय मीडिया का काला चेहरा सामने आ रहा है। पहले भी कई मौकों पर इसका साम्प्रदायिक चरित्र उजागर हो चुका है। पत्रकार गिलानी प्रकरण में भी मीडिया ने अपना साम्प्रदायिक चरित्र दिखाया था।
मानवाधिकार कार्यकर्ता महताब आलम सवाल उठा रहे हैं कि हैदराबाद ब्लास्ट में कम से कम 6 लोग हिरासत में लिये गये या उनसे पूछताछ की गयी जबकि 13 के नाम उस सूची में हैं जिनसे पूछताछ की जानी है। सभी मुस्लिम हैं। वह व्यंग्य करते हैं- ह्लकौन कहता है कि भारत में मुसलमानों के लिये आरक्षण नहीं है? आतंक का कोई रंग नहीं होता है लेकिन निश्चित रूप से यह इस्लामिक आतंकवाद है।ह्ल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक समीक्षक हैं। हस्तक्षेप डॉट कॉम के संपादक)

Wednesday, February 20, 2013

मोदीत्व की छांव में भाजपा की कांव कांव


सलीम अख्तर सिद्दीकी
मीडिया में मोदी की आलोचना होते ही मोदी समर्थक और भाजपा के नेता उनके बचाव में जिस तरह से उतरते हैं उससे मोदी का बचाव कम नुकसान ज्यादा हो जाता है। मोदी के समर्थक यह साबित कर देते हैं कि सचमुच मोदी के छांव में एक ऐसा फासीवादी नेतृत्व पनप रहा है जो मोदी की आलोचना भी बर्दाश्त नहीं कर सकता है। हाल में ही मीडिया में मोदी के विकासगाथा की समीक्षा होनी शुरू हुई है। मोदी अपने हिन्दुत्व की पटरी छोड़कर विकास के रास्ते पर सरपट दौड़ते हुए प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। लेकिन अगर स्वतंत्र और संप्रभु देश के नागरिक मोदी के विकास की कलई खोलते हैं तो उनके समर्थक आतंकवादी की तरह ऐसे नागरिकों और विचारकों पर हमला बोल देते हैं। भाजपा के नेता या समर्थक चाहे जो तर्क दें, काटजू की इस बात से हर कोई इत्तेफाक रखेगा कि मोदी पर लगा दंगों का दाग अरब के सारे इत्र से भी साफ नहीं किया जा सकता है।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद मोदी पर पर गुजरात दंगों का दाग है। उन्होंने अभी तक दंगों के लिए ‘माफी’ जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है। उन्होंने दंगा के आरोपियों को बचाने की हर मुमकिन कोशिश की। यूरोपीय यूनियन के समक्ष उन्होंने दंगों को दुर्भाग्यपूर्ण जरूर बताया है, लेकिन यह नाकाफी है। गुजरात दंगों के अलावा फर्जी मुठभेड़ों का दाग भी उन पर है। सोहराबुद्दीन शेख की हत्या करने के आरोप में उनके वफादार आला पुलिस अधिकारी डीके बंजारा सहित कई अधिकारी जेल में बंद हैं। 2004 में इशरतजहां मुठभेड़ भी संदेह के दायरे में है। उनकी सरकार में गृहमंत्री रहे हरेन पांडया की हत्या को लेकर वह संदेह के घेरे में रहे हैं। वह दंगों की आरोपी और बाद में आरोप सिद्ध होने पर जेल जाने वाली माया कोडनानी को मंत्री पद से नवाजते हैं। सुप्रीम कोर्ट उन्हें अक्सर झटका देता रहता है। वह गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं करना चाहते। अमेरिका उन्हें अपने यहां आने के लिए वीजा प्रदान नहीं करता है। जो शख्स इतना विवादित हो, उसे प्रधानमंत्री पद के लिए आगे लाने की कोशिश क्यों की जा रही है? क्या भाजपा ने यह सोचा है कि ऐसा करने पर भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्या छवि बनेगी?
नरेन्द्र मोदी पर जिन दंगों के बदतरीन दाग हैं, उन्हें ढकने के लिए ‘विकास’ का मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश की जा रही है। गुजरात में उनकी हैट्रिक को ऐसे पेश किया जा रहा है, जैसे ऐसा होना प्रधानमंत्री पद की अनिवार्य शर्त है। यदि ऐसा है तो शीला दीक्षित प्रधानमंत्री पद की दावेदार क्यों नहीं हो सकतीं। मोदी हैट्रिक बनाने में कामयाब हुए हैं, तो इसकी बुनियाद में 2002 के दंगे हैं। यदि दंगे नहीं होते तो उन्हें हैट्रिक करने का आधार नसीब नहीं होता। वैसे भी यदि बारीकी से देखा जाए, तो गुजरात में भाजपा कभी नहीं जीती, नरेंद्र मोदी जीतते रहे हैं। भाजपा और आरएसएस का एक धड़ा नरेंद्र मोदी को हराने पर तुला हुआ था। गुजरात की जनता नरेंद्र मोदी को वोट देती है, भाजपा को नहीं। लेकिन सब कुछ जानते हुए भी भाजपा सत्ता हासिल करने के लिए हिंदुत्व के वर्तमान पुरोधा मोदी पर दांव लगाना चाहती है। लेकिन भाजपा में यह मंथन जरूर चल रहा होगा कि यदि ‘मोदी दांव’ नहीं चला, तो क्या होगा? दांव उल्टा पड़ने पर वह न घर की रहेगी न घाट की.
वैसे भी नरेंद्र मोदी की राह इतनी आसान नहीं है, जितनी उन्हें राष्ट्रीय फलक पर बैठाने की कवायद करने वाले लोग समझ रहे हैं। नरेंद्र मोदी की राह में कई रोड़े हैं। सबसे बड़ा रोड़ा भाजपा का एक ऐसा धड़ा है, जो बिल्कुल नहीं चाहता कि नरेंद्र मोदी को गुजरात से उठाकर सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने की कवायद की जाए। वह ऐसा करने के खतरों को समझता है, जो गलत नहीं हैं। पूरी तरह से यह साफ होने के बाद कि नरेंद्र मोदी ही भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार होंगे, सिकुड़ते राजग का अस्तित्व की खत्म हो सकता है। सिर्फ कांग्रेस की हालिया अलोकप्रियता भुनाने से बात नहीं बनने वाली। जब तक एनडीए का और विस्तार नहीं किया जाएगा, कुछ नहीं हो सकता। शिव सेना भाजपा से वैचारिक समानता के चलते राजग में बनी रह सकती है, तो अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल भी मोदी को पचा जाएंगे। यह पहले से ही साफ है कि नितीश कुमार मोदी को किसी हाल मंजूर नहीं होंगे। एनडीए के पुराने सहयोगियों में से जयललिता उनके साथ आ सकती हैं। लेकिन संप्रग से किनारा करने के बावजूद ममता बनर्जी मुसलिमों को नजरअंदाज करके राजग का हिस्सा बनने की जुर्रत शायद की कर सकें। नवीन पटनायक भी दूरी बना लेंगे। इस आलोक में भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि राजग का विस्तार कैसे किया जाए?
गुजरात के हालिया नगर निकाय चुनाव में कुछ मुसलिम बाहुल्य वार्डों में भाजपा के उम्मीदवारों के जीतने को ऐसे पेश किया जा रहा है, जैसे मुसलमानों में भी मोदी की स्वीकार्यता बढ़ गई है। इस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि जब पाकिस्तान में जनरल जिया-उल-हक की तानाशाही चलती थी, तो एक जनमत संग्रह कराया गया था कि देश में शरीयत कानून लागू होना चाहिए या नहीं? जवाब ‘हां’ या ‘ना’ में देना था। नतीजा आया तो, 99 प्रतिशत लोगों का जवाब ‘हां’ था। इस ‘हां’ की वजह समझना मुश्किल नहीं है। मोदी के दिल में मुसलमानों के प्रति कितना वैमनस्य है, यह इससे पता चलता है कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए जारी की गर्इं केंद्र की उन 15 योजनाओं को लागू करने से इंकार कर दिया था, जिनमें मुसलमान छात्रों के लिए निर्धारित 53 हजार छात्रवृत्तियों दी जानी थीं। अब हाईकोर्ट ने उन्हें झटका देते हुए उनके उस फैसले पर फटकार लगाई है।
यूरोपियन संघ ने नरेंद्र मोदी का बहिष्कार खत्म करने के संकेत दिए हैं और अमेरिकी सीनेटर ने भी मोदी के विकास के गुणगान किए है। भाजपा इसे बड़ी उपलब्धि मानती है। लेकिन वह भूल रही है कि वे यूरोपियन देश हैं। अपने हित के लिए किसी को भी मंजूर या नामंजूर कर सकते हैं। भाजपा को यह समझ लेना चाहिए कि यूरोपियन देशों के लोग भारत में वोट देने नहीं आएंगे। प्रधानमंत्री कौन बनेगा, इसका फैसला भारत की जनता ही करेगी। भारत का एक बड़ा वर्ग समझता है कि मोदी आएंगे, तो देश विकास की राह पर सरपट दौड़ने लगेगा। प्रचारित किया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के सत्ता मे आने बाद गुजरात दुनिया में सबसे ज्यादा विकास करने वाला राज्य बन गया है। ऐसा कहने वाले जान लें कि गुजरात पहले से ही समृद्ध रहा है।
1992-93 में ही उसकी विकास दर 16.75 प्रतिशत थी। मोदी के सत्ता संभालने के बाद अधिकतम दर 12 प्रतिशत तक ही हो सकी है। 2001-2005 के दौरान गुजरात की विकास 11 प्रतिशत थी, जो 2006-2010 की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान घटकर 9.3 प्रतिशत की दर पर आ गई। इसी अवधि में बिहार की विकास दर 10.9 प्रतिशत रही, जो 2001-2005 में मात्र 2.9 प्रतिशत थी। अगर विकास के मुद्दे पर ही प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बनती है, तो नीतिश कुमार भी इसके प्रबल दावेदार हैं। नरेंद्र मोदी आक्रामक और भ्रमित प्रचार शैली से अपने आपको ऐसा नेता प्रचारित करने में मशगूल हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त दावेदार है। इसमें दो राय नहीं कि उनकी शैली कामयाब भी होती दिख रही है। सवाल यह है कि क्या अगला लोकसभा चुनाव अकेले नरेंद्र मोदी लडेंÞगे या भारतीय जनता पार्टी, जिसमें उनकी दावेदारी के मसले पर घमासान मचा हुआ है?

Saturday, February 16, 2013

शहर में कर्फ्यू

सलीम अख्तर सिद्दीकी
शहर में तीन दिन से लगे कर्फ्यू के बाद सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक के लिए उसमें ढील दी गई थी। हालात पर नजर रखते हुए लोग आहिस्ता-आहिस्ता घरों से निकलने लगे। मैं भी अपने एक पत्रकार मित्र के साथ कोतवाली में एसएसपी की प्रेस वार्ता में शामिल होने के लिए जा रहा था। 12 बजते-बजते सड़कों पर ट्रैफिक भरपूर हो गया था। अभी हम आधे रास्ते में ही थे कि अचानक माहौल बदल गया। डरे हुए लोग भागने लगे। थोड़ी देर में ही भगदड़ की स्थिति बन गई। कई लोगों को रोककर पूछा, क्यों भाग रहे हो? जवाब किसी के पास नहीं था। देखते ही देखते शहर सुनसान नजर आने लगा। हम जैसे-तैसे कोतवाली तक पहुंचे। वहां का नजारा भी अजीब था। पूरी कोतवाली लोगों से भरी हुई थी। सबके चेहरों पर दहशत तारी थी। एक सिपाही से पूछा, ‘इन्हें किस जुर्म में गिरफ्तार किया गया है?’ सिपाही मेरे पत्रकार मित्र को जानता था। उसने मेरे ऊपर एक गहरी नजर डाली और हथेली पर खैनी रगड़ते हुआ बोला, ‘कर्फ्यू तोड़ने के जर्मु में।’ हम आगे बढ़े। कोतवाल के सामने लोगों की लाइन लगी हुई थी। कर्फ्यू तोड़ने के जुर्म में लोगों के चालान किए जा रहे थे। अब जिस शख्स की बारी थी, वह कोई 60 साल का बुजुर्ग था। एक एसआई ने कड़ककर उसका नाम पूछा। उसने नाम बताया। एसआई ने फिर सवाल किया, ‘क्या है तुम्हारे पास?’ बुजुर्ग ने लरजते हुए जवाब दिया, ‘मेरे पास ‘कट्टा’ है जनाब।’ यह सुनकर सभी की नजरें बुजुर्ग की ओर उठीं। बुजुर्ग ने माजरा समझकर सफाई पेश की, ‘हुजूर यह आटे का कट्टा है। घर में आटा नहीं था, उसे ही लेने निकला था, इतने में भगदड़ मच गई और पुलिस जीप ने मुझे रोककर जीप में डाल दिया।’ बुजुर्ग सफाई पेश कर रहा था। लेकिन लग नहीं रहा था एसआई उसकी सफाई पर ध्यान दे रहा था। वह तत्परता से उसका चालान काट रहा था। एसआई ने एक सिपाही को इशारा किया। उसने बुजुर्ग को उस भीड़ में ले जाकर बैठा दिया, जिनके चालान काट दिए गए थे और जेल भेजा जाना था। तभी एसएसपी ने कोतवाली में प्रवेश किया और ऐलान किया कि कुछ नहीं हुआ है। दो सांडों के लड़ने की वजह से भगदड़ मची थी।

Sunday, February 10, 2013

‘मजहब की नहीं, पैसे की बात कर अम्मा’

सलीम अख्तर सिद्दीकी
जब समझौता एक्सप्रेस धीरे-धीरे पाकिस्तान-भारत का बॉर्डर क्रॉस कर रही थी,  शाम के चार बज रहे थे। रमजान का महीना था। यात्रियों ने अपना सामान स्टेशन पर उतारा। मेरी पाकिस्तान की पहली यात्रा थी। रोमांच था, उस देश को देखने का, जो कभी भारत का हिस्सा था और न जाने कितने लोगों को जख्म देकर वजूद में आया था। मैंने अपना सामान उस टेबिल के सामने रखा, जिस पर मेरा कस्टम होने वाला था। अफसर ने मेरे एक एयर बैग को देखकर पूछा, ‘आपका सामान कहां है?’ मैंने बैग की तरफ इशारा कर दिया। उसने हैरत से कहा, ‘बस इतना ही? क्या है इसमें?’ ‘बस सर चार जोड़ी कपड़े हैं।’ अफसर ने यह कहते हुए बैग खोलकर कपड़ों को बाहर पटका, ‘यार कुछ नहीं लाओगे, तो हमारा काम कैसे चलेगा?’ उसने नागवारी से मुझे क्लीन चिट दी। मैं पास पड़ी एक चेयर पर बैठ गया। शाम का धुंधलका छाने लगा था। रोजा इफ्तार का वक्त करीबतर होता जा रहा था। अफसरों की टेबिल रोजा खोलने की सामग्री सजने लगीं। मुझसे कुछ ही दूरी पर एक दूसरी टेबिल पर भी कस्टम चल रहा था। वहां कुछ ज्यादा भीड़ थी। उस भीड़ में लगभग सत्तर साल की एक बुजुर्ग महिला अपने नंबर का इंतजार कर रही थी। जब उसका नंबर आया तो अफसर ने उसका सामान देखा और कहा, ‘अम्मा, क्या पूरा हिंदुस्तान साथ ले आई हो?’ महिला ने जवाब दिया, ‘बेटा, बेटी है मेरी कराची में। उसके और उसके बच्चों के लिए ले जा रही हूं।’ अफसर ने उसकी बात नजरअंदाज करते हुए कहा, ‘हमारे लिए भी कुछ लाई हो या नहीं?’ महिला ने सकुचाते हुए कहा, ‘बेटा सब तुम्हारा ही है, जो चाहे ले लो।’ अफसर अब धूर्त की तरह हंसकर बोला, ‘अम्मा पांच हजार रुपये दो, तब ले जाने यह सामान अपनी बेटी के पास।’ यह सुनकर महिला की सांस थम-सी गई। वह अवाक अफसर के चेहरे को देखने लगी, जिस पर किसी तरह के भाव नहीं थे। अफसर महिला के एहसेसात से बेखबर अपने टेबल पर लगी उन प्लेटों पर नजर डाल रहा था, जिनमें रोजा खोलने के लिए कई तरह ही खाने की चीजें सजी हुई थीं। महिला अभी भी अफसर को देखे जा रही थी। वह हिम्मत करके बोली, ‘बेटा मेरे पास तो इतने पैसे नहीं है, अभी तो मुझे कराची तक जाना है।’ अफसर महिला की बात अनसुनी करके दूसरे यात्री से ‘सौदेबाजी’ करने में व्यस्त हो गया था। रोजा खोने का वक्त हो गया। थोड़ी देर में अजान ही आवाज आने लगीं। महिला ने कहा, ‘बेटा अजान हो रही है, सच में मेरे पास इतने पैसे नहीं है।’ अफसर बेशर्मी से बोला, ‘अम्मा मजहब की बातें मत कर, इससे काम नहीं चलता, पैसे से काम चलता है।’ अब महिला उससे सौदेबाजी करने लगी थी। अफसर के चेहरे पर पैसे मिलने की चमक उभर आई थी।

राजनीति की पिच पर कांग्रेस का ‘अफजल बाउंसर’

सलीम अख्तर सिद्दीकीकसाब को फांसी दिए जाने के बाद अफजल गुरु को देर-सबेर फांसी होनी ही थी। इसलिए नहीं कि अफजल आतंकवादी था, इसलिए कि देश में लोकसभा चुनाव की आहट शुरू हो गई है और कांग्रेस पर उन मुद्दों को खत्म करने का दबाव था, जिन पर भाजपा कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करती रही है। अफजल गुरु को फांसी दिया जाना राजनीति की पिच पर कांग्रेस का ‘अफजल बाउंसर’ है, जो उस समय फेंका गया है, जब भाजपा और उसका मातृसंगठन आरएसएस नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करके जोर-शोर से विशुद्ध रूप से हिंदू कार्ड खेलने के मूड में आज चुके हैं। इस बाउंसर यह संकेत भी मिलता है कि कांग्रेस ने हिंदू कॉर्ड खेलने की भी कोशिश की है। कांग्रेस के इस बाउंसर की संघ परिवार को उम्मीद नहीं रही होगी। हो सकता है कि संघ परिवार अंदरुनी तौर पर सकते ही हालत में हो। इस फांसी का मतलब यह भी है कि लोकसभा चुनाव वक्त से पहले हो सकते हैं।
भाजपा प्रतीकों के सहारे राजनीति करने की आदी रही है। 1992 में जब बाबरी मसजिद का विध्वंस हुआ था, तब भी कहा गया था कि बाबरी मसजिद ढहने का मतलब है, भाजपा का मुद्दा खत्म होना। हुआ भी ऐसा ही था। भाजपा कसाब और अफजल गुरु का नाम लेकर कांग्रेस पर यह कहते हुए वार करती रही है कि उन्हें क्यों जेल में बिरयानी खिलाई जा रही है। भाजपा का इस तरह की बातें करने का मकसद यह होता था कि कांग्रेस वोटबैंक की राजनीति कर रही है। मुसलमान नाराज न हो जाएं, इसलिए दोनों को फांसी नहीं दी जा रही है। हालांकि उसकी यह सोच बेबुनियाद थी। कांग्रेस ने अफजल को फांसी देकर उसके मुद्दे की हवा निकाल दी है। किसी भी आतंकवादी को यह सोचे बगैर कि उसका धर्म क्या है, उसके अंजाम तक पहुंचाया ही जाना चाहिए। जब कसाब को फांसी दी गई थी, तो मुसलमानों ने उसको ठीक ही बताया था। कल अगर समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव बम धमाकों के आरोपियों पर आरोप सिद्ध हो जाते हैं और उन्हें फांसी की सजा होती है, तो भाजपा फांसी का विरोध इसलिए नहीं कर सकती कि सजा पाने वाले आरोपी हिंदू हैं।  यानी वह वक्त भी आ सकता है कि आतंकवाद पर जो गेम भाजपा खेलती रही है, उसकी गेंद उसके पाले में आकर गिर जाए। सरकार कह रही है कि फांसी के पीछे राजनीति ने देखी जाए, लेकिन बाउंसर फेंकने की जो ‘टाइमिंग’ है, वह राजनीति की चुगली कर रही है।  बहरहाल, लोकसभा चुनाव के लिए चालें चलनी शुरू हो गई हैं। शह और मात के खेल में बाजी किसके हाथ लगेगी, यह वक्त बताएगा। फिलहाल देश की राजनीति उस दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है, जहां से वह किसी ओर भी मुड़ सकती है। चुनाव आते-आते कितने और सियासी बाउंसर फेंके जाएंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश करने की कवायद और अफजल गुरु की फांसी, देश की राजनीति की दशा और दिशा बदल सकते हैं।

Saturday, February 2, 2013

आम रहो, खास मत बनो


सलीम अख्तर सिद्दीकी
शहर के चौराहे पर भयंकर टैÑफिक जाम था। मैं भी उस जाम में फंसा था। हाइवे की ओर से एक ट्रक आकर मेरे पास रुका। ट्रकों के लिए नो एंट्री का समय था। मेरे बराबर में एक  युवा भी मोटर साइकिल पर बैठा जाम खुलने का इंतजार कर रहा था। युवा ने ट्रक ड्राइवर से कहा, ‘नो एंट्री में कहां घुसे जा रहे हो?’ ड्राइवर ने उसकी बात को नजरअंदाज कर दिया। चंद लम्हों बाद ही एक ट्रैफिक पुलिस कांस्टेबल ड्राइवर की खिड़की की बराबर में पहुंचा। उसने ड्राइवर की ओर देखा। खिड़की से मुट्ठीबंद एक हाथ बाहर निकला। कांस्टेबल ने हाथ बढ़ाया। मुट्ठी खुली और कांस्टेबल की मुट्ठी गर्म हो गई। यह देखकर मेरे बराबर में खड़े युवा के माथे पर बल पड़ गए। जैसे ही कांस्टेबल युवा के पास पहुंचा, उसने कांस्टेबल को पकड़कर पूछा, ‘यह क्या किया तुमने। रिश्वत लेकर ट्रक नो एंट्री में जाने दे रहे हो?’ कांस्टेबल धूर्त हंसी हंसा और बोला, ‘किसने लिए हैं पैसे?’ युवा हैरान रह गया। उसने गुस्से में कांस्टेबल का हाथ पकड़ा और ट्रक के पास पहुंचकर ड्राइवर से कहा, ‘तुमने इसे अभी पैसे दिए हैं या नहीं?’ ड्राइवर निर्लिप्त भाव से बोला, ‘नहीं, हमने तो कोई पैसा इनको नहीं दिया।’ युवा का पारा और ज्यादा गर्म हो गया। वह कांस्टेबल से उलझ गया। बात तू-तू-मैं-मैं तक पहुंची। कांस्टेबल ने युवा का कालर पकड़ा और चौराहे पर बने चेकपोस्ट पर ले गया। इतनी देर में ट्रैफिक सरकने लगा था। जिज्ञासावश मैं भी पीछे-पीछे हो लिया। देखते ही देखते वहां अच्छे खासे लोग जमा हो गए। चेकपोस्ट पर पहुंचकर कांस्टेबल ने युवा को एक थप्पड़ रसीद करते हुए कहा, ‘अब मैं तुझे बताऊंगा एक पुलिस वाले से उलझने का नतीजा क्या होता है।’ अब युवा थोड़ा घबराया। मैंने हस्तक्षेप करते हुए कांस्टेबल से कहा, ‘गलती तुम्हारी, ऊपर से इसी पर क्यों इल्जाम लगा रहे हो।’ कांस्टेबल ने मुझे घूरकर देखा। अभी वह कुछ कहना ही चाहता था कि हूटर बजाती एक गाड़ी वहां आकर रुकी। वह एसपी ट्रैफिक की गाड़ी थी। एसपी गाड़ी से उतरा और लोगों को हड़काते हुए बोला, ‘हटिए सब यहां से, क्या तमाशा लगा रखा है।’ एसपी ने कांस्टेबल और युवा से मुखातिब होकर पूछा, ‘क्या मामला है, क्यों उलझ रहे हो?’ युवा ने सब कुछ बताया। कांस्टेबल ने प्रतिवाद किया तो मैं बोल पड़ा, ‘गलती कांस्टेबल की है, मैं चश्मदीद हूं।’ एसपी ने मुझे घूरा- ‘आप कौन हैं?’ मैंने कहा, ‘सर मैं तो आम शहरी हूं।’ एसपी ने तल्ख लहजे में कहा, ‘आम हो तो आम ही बने रहो, खास बनने की कोशिश मत करो, चलिए काम देखिए अपना।’ मैंने पीछे मुड़ा तो देखा। फिर से जाम लगने लगा था। एसपी की गाड़ी का हूटर बजने लगा था। कुछ कांस्टेबल एसपी की गाड़ी को रास्ता देने के लिए जाम खुलवाने की मशक्कत करने लगे थे।

Friday, February 1, 2013

कुछ अधिकारियों की खाल बहुत मोटी हो गई है आजम खान साहब


सलीम अख्तर सिद्दीकी
नगर विकास मंत्री आजम खान न तो कह दिया कि अधिकारी काम न करें, तो डंडा हाथ में रखें। लेकिन शायद उन्हें पता नहीं कि कुछ अधिकारियों की खाल तो इतनी मोटी हो गई है कि उन पर किसी डंडे का असर नहीं होता। मेरठ का मलियाना ट्रकों की पािर्कंग बन गया है, लेकिन लाख गुहार लगाने के बाद भी अधिकारियों के कान पर जूं नहीं रेंग रही है। हद यह है कि इस समस्या के निदान के लिए मेरठ के एसपी ट्रैफिक से गुहार लगाई गई, उन्होंने यहां तक कह दिया कि मैं किसी की बकवास की परवाह नहीं करता हूं। बात यहीं खत्म नहीं हुई। उनकी वाणी इतनी बदमिजाज और तीखी है कि सुनकर नहीं लगता कि यह किसी जिम्मेदार वरिष्ठ अधिकारी की हो सकती है। किसी आम आदमी की तरह उन्होंने शिकायतकर्ता से कह दिया कि मैं तुमसे तनख्वाह नहीं पाता हूं। उन्हें शायद इतना भी नहीं पता कि सरकारी अधिकारी जनता का नौकर होता है और उसकी तनख्वाह जनता के टैक्स से मिलती है। उनकी वाणी अखबार में छपी, लेकिन वाकई उन्होंने परवाह नहीं की।  जिस शहर का एसपी ट्रैफिक ऐसा होगा, तो क्यों नहीं कांस्टेबिल चौराहों पर 10-10 रुपये लेकर नो एंट्री में ट्रकों को शहर दाखिल कराकर लोगों की जान लेंगे। आजम खान ने कहा है कि बदमिजाज अधिकारियों की बदजबानी को रिकॉर्ड करो यानी स्टिंग आपरेशन करो। मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने पर भी अधिकारी सुधर सकते हैं। वास्तव में नौकरशाही का बुरा हाल है। जनता पिस रही है। बदनाम समाजवादी सरकार हो रही है। मैं नहीं समझता कि मायावती सरकार रहते किसी एसपी ट्रैफिक की किसी समस्या के हल के बाबत यह कहने की हिम्मत हो सकती थी कि, ‘आई डोंट केयर बकवास’ अखिलेश यादव बताएं कि जनता किस से कहां गुहार करे। यदि अधिकारी सरकार के डंडे से भी नहीं डर रहे हैं, तो जनता के डंडे से कैसे डरेंगे।   यदि अखिलेश यादव साहब यह सुन लें कि मेरठ के एसपी ट्रैफिक ने किस बेहूदा तरीके से बात की है, तो हैरान रह जाएंगे, जिसकी रिकॉरडिंग मौजूद है।