Sunday, November 25, 2012

बिन बात बतंगड़

सलीम अख्तर सिद्दीकी
वह एक कई दिन तक चलने वाली धार्मिक यात्रा थी। श्रद्धालु अपनी मनोकमाना पूरी करने के लिए पैदल ही तीर्थयात्रा पर जाते थे। श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की परेशानी न हो, इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर हर तरह के इंतजाम किए जाते थे। मैं यात्रा को बचपन से देखता आ रहा था। पहले कब यात्रा संपन्न हो जाती थी, पता नहीं चलता था। वक्त के साथ श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती रही। यात्रा चल रही थी। रात का समय था। जगह-जगह श्रद्धालु विश्राम कर रहे थे। बहुत श्रद्धालु भक्तिभाव से पैदल चले जा रहे थे। मैं मोटरसाइकिल पर सड़क पर जा रहा था। मैंने दूर से देखा कि बहुत सारे श्रद्धालु एक जगह जमा थे और जोर-जोर से धार्मिक नारे लगा रहे थे। नारों में श्रद्धा कम और आक्रोश ज्यादा था। मैं भीड़ के करीब पहुंचा ही था भीड़ एक ओर भागने लगी। मैंने एक श्रद्धालु से पूछा, ‘क्यों भाई, क्या हुआ?’ उसने गरदन हिलाकर कहा, ‘पता नहीं क्या हुआ।’ पास में खड़ा एक श्रद्धालु बोला, ‘सुना है किसी श्रद्धालु का एक्सीडेंट हो गया है।’ हम अभी बात ही कर रहे थे कि श्रद्धालुओं का एक बड़ा हुजूम आया और आने-जाने वाले वाहनों पर पथराव शुरू कर दिया। भगदड़ मच गई। जिसे जहां जगह मिली, वहीं दुबक गया। पुलिस आई और बेबसी से खड़ी सब देखती रही। थोड़ी देर में सड़क पर क्षतिग्रस्त वाहनों की संख्या बढ़ने लगी। कुछ श्रद्धालु इस अराजकता पर अफसोस प्रकट करते हुए एक ओर हो गए। उनमें से एक बोला, ‘एक्सीडेंट हुआ है, तो आने-जाने वाले लोगों पर पथराव करने की क्या जरूरत है?’ दूसरा अफसोस प्रकट करते हुए कहने लगा, ‘कुछ लोगों ने इस यात्रा को बदनाम कर दिया है।’ तीसरा बोला, ‘यह तो यात्रा कम, शक्ति प्रदर्शन ज्यादा हो गई है।’ अभी वार्तालाप चल ही रहा था कि मेरे मोबाइल की घंटी बजी। फोन घर से था, पूछा गया, ‘कहां हो तुम? जल्दी घर आओ सुना है, शहर में दंगा हो गया है।’ मैंने बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन घरवाले मानने को तैयार नहीं थे। थोड़ी देर बाद शांति हो गई। पता चला कि दो श्रद्धालु आपस में लड़ पड़े थे, जिसकी वजह से सारा मामला हुआ था। मैंने घर फोन करके सही बात बताई, लेकिन न जाने उनका कौनसा-सूत्र था, जिसकी वजह से वे इस पर बात पर अड़े थे कि दंगा हुआ है और कर्फ्यू लगने ही लगने वाला है।    

Thursday, November 15, 2012

एक लड़की की शादी

मेरे दोस्त रजनीश साहिल ने मेल से भाई नासिरुद्दीन के ब्लॉग जेंडर जेहाद का लिंक भेजा था। लिखा था कि इसे जरूर पढ़ना। फुरसत नहीं थी, फिर भी सबसे पहले इसे ही पढ़ा। पढ़कर लगा कि यह बात दूर तक जानी चाहिए, इसलिए अपने ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूं। उम्मीद करता हूं नासिरुद्दीन साहब नाराज नहीं होंगे।
सलीम अख्तर सिद्दीकी 
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नासिरूद्दीन

जहन में एक बात हमेशा कौंधती है, क्या लड़की की जिंदगी का सारा सफर शादी पर ही खत्म होता है।  मैं अक्सर सोचता हूँ कि दसवीं, बारहवीं में जो लड़कियाँ हर इम्तेहान में लड़कों से बाजी मारती रहती हैं, कुछ दिनों बाद ऊँची तालीम, नौकरी और जिंदगी के दूसरे क्षेत्रों में क्यों नहीं दिखाई देतीं कहाँ गायब हो जाती हैं

लड़की पैदा हुई नहीं कि शादी की चिंता। उसके लिए एफडी की फिक्र। उसके नैन-नक्श, दांत की बुनावट, पढ़ाई-लिखाई, काम-काज की चिंता भी शादी के लिए ही यही नहीं शादी को लेकर जितनी कल्पनाएँ लड़कियों की झोली में डाल दी जाती हैं, वह उनके पूरी दिमागी बुनावट पर असर डालता है। फिर वह भी इसी में झूलती रहती हैं। पढ़ो इसलिए कि अच्छा वर मिले। हँसो ठीक से ताकि ससुराल में जग हँसाई न हो। चलो ऐसे कि ह्यचाल चलनह्ण पर कोई उँगली न उठे। चेहरा-मोहरा इसलिए सँवारो ताकि देखने वाला तुरंत पसंद कर ले। यह सब भी इसलिए ताकि ह्यसुंदर- सुशील- घरेलूह्ण के खाँचे में फिट हो सके।

क्या माँ-बाप कभी किसी लड़के को ताउम्र शादी की ऐसी तैयारी कराते हैं। क्या कभी किसी लड़के से शादी की ऐसी तैयारी की उम्मीद की जाती है। क्या किसी लड़के की जिंदगी की सारी तैयारी का गोल सिर्फ और सिर्फ शादी होता है। शायद नहीं। तो क्यों नहीं क्यों सिर्फ लड़कियाँ
शादी की भी तैयारी कैसे होती है। लड़की 18 की हुई नहीं कि माँ-बाप रिश्तेदारों की निगाहें लड़के ढूँढने लगती हैं। लड़का और सिर्फ लड़का। लड़की बड़ी होती जाती है। घर वालों के खुसुर पुसुर बढ़ते जाते हैं। माथे की सिलवटें बढ़ने लगती हैं। लड़की अपने आप में सिमटती जाती है। कई बार उलाहने सुनती है। माँ- बाप हुए तो कम। अगर नहीं तो फिर जो होता है, वही जानती है। भाई- भाभी- बहन सब पर भारी। हर आदमी एहसान जताने को तैयार। कोई कहता है, हम अपने बच्चों को देखें या इन्हें। अपनी खुशी में वो अपनी बहनों को शामिल करने से हिचकता है। शामिल करता है तो उसे लगता है, उसका शेयर कोई दूसरा हड़प रहा है। जब दुल्हे की तलाश शुरू होती है तो पहले खानदान-लड़का-पैसा देखा जाता है। उसकी शराफत की कोई चर्चा नहीं होती। क्योंकि लड़के को कैसा कैरेक्टर सर्टिफिकेट देना। लड़की की उम्र बढ़ती जाती है। बोझ बढ़ता जाता है। बोझ को उतारने की जल्दबाजी होती है।  फिर जिस तिस लड़के को पकड़ कर खड़ा कर दिया जाता है। कई बार खानदान का हवाला तो कई बार लड़के के धार्मिक या दीनदार होने का वास्ता दिया जाता है। जैसे दीनदार होना ईमानदार और शरीफ होने की गारंटी हो।

लड़की की रजामंदी- यह किस चिड़िया का नाम है। इस मौके पर सब भूल जाते हैं कि वह इंसान है। इस्लाम ने तो सबसे पहले लड़की की रजामंदी की बात की है। लेकिन यहां दीनदारी हवा में उड़ जाती है। सब का दावा होता है- हम अपनी लड़की का भला- बुरा सबसे अच्छा समझते हैं। क्या उसे कुएँ में ढकेलेंगे। जो हम कहेंगे, वह मेरी लड़की करेगी। मेरी लड़की शरीफ है। यानी शराफत गूंगी होने का नाम है। जब सब तय कर लिया जाता है तो उस लड़की को खबर दे दी जाती है। यह खबर ही उसकी रजामंदी होती है। कोई उसके दिल में झाँक कर नहीं देखता। सब खुशियों का ढोल पीटते हैं और लड़कियाँङ्घ यह तो वही बता सकती हैं। कुछ खुश होती हैं, चूँकि यह रिवाज है। कुछ चुप हो जाती है, जो उनकी शराफत का नमूना मान लिया जाता है। कुछ उधेड़बुन में रहती हैङ्घ पर कुछ कह नहीं पातीङ्घ कहीं कुछ और न सोच लिया जाए।

फिर एक ऐसी जिंदगी शुरू होती है। जिसमें उस लड़की को सिर्फ करना ही होता है। जिम्मेदारियों से लदी-फदी जिंदगी। कर्तव्य के नाम शहीद जिंदगी। उसकी ख्वाहिश और उसके जज्बात सब दूसरों के नाम हो जाते हैं। उसीमें वह खुश भी रहती हैं- चूँकि पितृसत्ता यही सीखाता है।
विचारों की बड़ी मजबूत श्रृंखला है जनाब। जैसे- भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है। कहीं से निकाल कर लाया जाता है कि शौहर मजाजी खुदा है। शौहर के पैर के नीचे जन्नत होती है। शौहर को नाराज करेगी तो फरिश्ते बद़दुआ देंगे। (न जाने किसी शौहर के लिए ऐसी बात कहीं कही भी जाती है या नहीं)। एक कमासुत मर्द का साया उसकी जिंदगी के लिए जरूरी शर्त बना दी जाती है। बन जाती है। वह भी इसे ही जरूरी समझती है। किसी को लगता है कि बाजार में अपने मर्द के साथ में चलने में ही शान है। तो किसी को अपनी आगे की जिंदगी गुजारने का यही जरिया समझ में आता है। समझा दिया जाता है। यानी लड़कियों को इस दायरे से बाहर सोचने का मौका ही नहीं दिया जाता। एक पंगु दिमाग तैयार किया जाता है। जो गुलाम दिमाग होता है। बस करो, सवाल नहीं करो।

और तो और कहा जाता है, बेटी की डोली जाती है और अर्थी ही उठती है। फिर लड़की अर्थी बनने के लिए ताउम्र घसीटती रहती है। उसे हर ख्वाहिश भूलनी पड़ती है। उसे हर वो चीज भूलने की नसीहतें मिलती हैं, जो पवित्र परिवार के राह में रोड़े के रूप में देखा जाता है। वह भूलती है कि उसे एमए करना है। शादी से पहले कहा जाता था, बहुत पढ़ लिया अब शादी करनी है। शादी के बाद कहा जाता है, क्या घर चलाना है। तू वह काम कर जिसके लिए बनी है। यानी नौकरी के बोझ से लौटे पति की सेवा कर। वह भूलने लगती है कि उसे फोटो खींचने का शौक था। वह भूल जाती है कि उसे दूसरों के लिए काम करना अच्छा लगता था। उसे अपने गुण याद नहीं रहते और अवगुण उसे याद दिलाए जाते रहते हैं। वह भूल जाती है कि उसे किताब पढ़ना कितना अच्छा लगता था। उसे सपने में कभी याद आता हो तो आता हो कि पहली बार दोस्तों संग जब पहाड़ पर गई तो कैसे फोटो खिंचवाई थी। लगता था सारा आसमां उसी की मुट़ठी में है। उसे यह भी याद नहीं रखने दिया जाता कि वह अपने लिए जी सकती है। अपने लिए जीनाङ्घ सोचना भी हराम है। उसे तो शहीद होना सिखाया गया है। पहले घरवालों के लिए। फिर ससुरालियों के लिए। उससे बच गई तो बच्चों के लिए। कभी ख्वाब के दरीचे खुले तो सारा समाज उसके आगे खड़ा हो जाता है। तुम अपने लिए सोच कैसे सकती हो

मैं शादी के खिलाफ नहीं हूँ। प्रेम की शादी हो तो बिना झिझक, पूरी दुनिया से लोहा लेकर करना चाहिए। लेकिन जो शादी परस्पर प्रेम पर आधारित नहीं है, बराबरी पर आधारित नहीं है, वह शादी ताउम्र गैरबराबरी को बढ़ावा देगी और उस गैरबराबरी में हमेशा लड़की का दर्जा नीचे होगा। यही हमारे समाज के ज्यादातर लड़कियों की कहानी है।
तो क्या शादी बिना भी जिंदगी का कोई दरीचा खुलता है

Saturday, November 10, 2012

कबाब में हड्डी


सलीम अख्तर सिद्दीकी
अखबार की नौकरी की सबसे बड़ी समस्या यही होती है कि रात को अक्सर देर हो ही जाती है। आज भी आॅफिस से निकलते-निकलते रात के 11 बज गए थे। आज कोई वाहन भी नहीं था। यही सोचकर दिमाग चकरा रहा था कि अगर सवारी नहीं मिली तो क्या होगा। आॅफिस से बाहर आया तो चारों ओर घुप अंधेरा था। बिजली गई हुई थी। आसपास की दुकानें भी बंद हो चुकी थीं। सिर्फ एक खाने का ढाबा खुला था। यूं भी वह रातभर खुला रहता है। मैं उस ढाबे के सामने खड़ा होकर सवारी मिलने का इंतजार करने लगा। काफी देर इंतजार करता रहा। वक्त बढ़ता जा रहा था। मैंने कुछ सोचकर कारों को हाथ देना शुरू किया। कार पास से गुजरती और मेरे चेहरे पर नजर डालकर गुजर जाती। थोड़ी देर बाद दूर से आते एक वाहन पर पड़ी। यूं दूर से उसे पहचानना मुश्किल था कि वह कौनसा वाहन था, लेकिन उसकी चाल बता रही थी कि वह कोई थ्री व्हीलर था। थोड़ी देर बाद ही वह वाहन लड़खड़ता हुआ सा ठीक ढाबे के सामने आकर रुका। मेरा अंदाजा सही था, वह थ्री व्हीहलर ही था। उसे देखकर मुझे थोड़ी आस बंधी। उसमें से चार पुलिस वाले उतरे, जिनके कंधों पर पुरानी बंदूकें लटक रही थीं। एक के हाथ में वाकी-टॉकी था। चारों पुलिस वाले ढाबे के अंदर चले गए। मैंने थ्री व्हीलर चालक से दरयाफ्त किया, ‘भैया क्या आगे भी जाओगे?’ उसने मुझे ऊपर से नीचे देखते हुए कहा, ‘मैं तो बेगार पर हूं, पता नहीं ये पुलिस वाले कहां चलने के लिए कह दें, उन्हीं से पूछ लो।’ शब्द ‘बेगार’ सुनकर मैं चौंका। मैंने फिर उससे मुखातिब होते हुए पूछा, ‘ये बेगार क्या बला है?’ उसने जवाब दिया, ‘मेरे पास थ्री व्हीलर चलाने का परमिट नहीं है। हम जैसे लोगों को पुलिस वाले कभी भी अपनी बेगारी में ले लेते हैं और रातभर गश्त करते हैं। यह बिना परमिट थ्री व्हीलर चलाने की सजा है हमारी।’ ‘डीजल वगैरहा यही डलवाते हैं?’ उसने मायूसकुन लहजे में कहा, ‘नहीं, वह भी हमें ही डलवाना पड़ता है।’ वह थ्री व्हीलर पर कपड़ा मारने लगा और मैं ढाबे के अंदर इस आस में पुलिस वालों के पास गया कि शायद वह मुझे ले जाएं। मैं उनके करीब पहुंचा। चारों खाने में व्यस्त थे। कांच के गिलासों में शराब पड़ी हुई थी। मैंने अभी कुछ कहने के लिए मुंह ही खोला था कि वॉकी-टॉकी से संदेश प्रसारित होने लगा। उस पर लोकेशन बताकर कहा जा रहा था कि एक एक्सीडेंट हुआ है, जल्दी पहुंचे। संदेश सुनकर एक सिपाही, जो शराब के गिलास को मुंह के तरफ ले जा रहा था, ने गिलास मेज पर पटक दिया। उसका चेहरा बता रहा था कि संदेश उसके लिए कबाब में हड्डी की तरह आया है। दूसरे सिपाही ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा, ‘अरे बंद कर इसे सारा मूड खराब कर दिया। साले सड़कों पर मरते रहते हैं, मजा हमारा खराब करते हैं।’ मैं बाहर आकर फिर किसी वाहन की तलाश में लग गया था।

Monday, November 5, 2012

पानी रे पानी


सलीम अख्तर सिद्दीकी
शहर से 20 किलोमीटर दूर सड़क किनारे बसे एक गांव में रिपोर्टिंग के लिए जाना था। नहर किनारे बसे उस गांव में मेरा लगभग 15 साल बाद जाने का इत्तेफाक हुआ था। नवंबर की शुरुआत में मौसम कुछ ठंडा हो गया था। यह सोचकर कि उस गांव तक जाने वाली सड़क के दोनों और घने पेड़ों का साया रहता है, इसलिए वहां ठंड कुछ ज्यादा होगी, मैंने स्वेटर पहन लिया था। शहर की सीमा खत्म होने के बाद गांव जाने वाले रास्ते पर मोटर साइकिल पहुंची, तो एकबारगी लगा कि यह वह रास्ता नहीं है। सड़क पहले से दोगुनी चौड़ी हो गई थी। पेड़ वहां से नदारद थे। सड़क के दोनों तरफ नई-नई कालोनियां विकसित हो रही थीं। कुछ एजुकेशन इंस्टीट्यूट की इमारतें नजर आ रही थीं। सुबह के नौ बजे थे। गर्मी का एहसास हुआ और स्वेटर भारी लगने लगा था। प्यास भी उभर आई थी। पानी की तलाश में नजरें इधर-उधर दौड़ार्इं, लेकिन कहीं किसी नल आदि के दर्शन नहीं हुए, जिससे पानी पीया जा सकता। थोड़ा चलने पर एक गांव आया, तो सोचा यहां जरूर पानी का नल होगा। लेकिन यहां भी मायूसी ही हाथ आई। कुछ दुकानों पर कोल्ड ड्रिंक कंपनियों के बड़े-बड़े फ्रिजों में पानी की बोतलें सजी हुई थीं, लेकिन गांव में बिजली न होने की वजह से ठंडी नहीं थीं। तभी ख्याल आया कि जिस गांव जा रहा हूं, वहां नहर के किनारे नल है, जो तपती दोपहरी में भी ठंडा पानी देता है। वहीं पानी पीया जाना चाहिए। मैंने मोटर साइकिल आगे बढ़ा दी। मैं नहर किनारे लगे नल के बारे में सोचने लगा। शायद ही कोई मुसाफिर होगा, जो वहां रुककर पानी न पीता हो। पानी पीकर मुंह पर मारे गए पानी के छींटे सफर की थकान दूर कर देते हैं। नहर पर पहुंचते ही बस का कोई मुसाफिर ड्राइवर से बस रोकर पानी पीने की दरयाफ्त करता, तो उसकी देखा-देखी पूरी बस ही पानी पीने उतर जाती थी। यही सब सोचते-सोचते मैं नहर तक आ गया था। यहां का नजारा भी पहले से जुदा था। अब चौैड़ा और बुलंद पुल बन गया था। उसकी बगल में पुराना पुल वीरान पड़ा था। उस पर जगह-जगह घास उग आई थी। पुल से ठीक पहले लगा नल झाड़-झंखाड़ के बीच जंगआलूदा होकर बेजान खड़ा था। मैंने नए पुल के आसपास नल की तलाश में नजरें घूमार्इं। एक खोखे के बराबर में, जिसमें कोल्ड ड्रिक की बोतलों से भरा एक फ्रिज भी रखा था, की जड़ में एक नल दिखाई पड़ा, लेकिन हालात बता रहे थे कि उससे कई दिन से पानी नहीं खींचा गया था। मैंने किसी उम्मीद में उसकी हत्थी को ऊपर-नीचे किया, लेकिन पानी नहीं आया। मैंने हताशा में खोखे वाले से पूछा, ‘भाई नल क्या खराब है?’ उसने बेरुखी से जवाब दिया, ‘हां, खराब है।’ ‘पानी की बोतल है क्या?’ ‘हां, है। 20 रुपये की है।’ मैंने प्रतिवाद किया, ‘15 रुपये की जगह 20 रुपये की क्यों भाई!’ ‘इसलिए की नल खराब है। जब नल ‘कुछ दिनों’ के लिए सही होता है, तो कोई फ्री में लेने को भी तैयार नहीं होता।’ इतना कहकर उसने एक कुटिल मुस्कुराहट के साथ मेरे हाथ में लोकल ब्रांड की एक पानी की बोतल थमा दी।