सलीम अख्तर सिद्दीकी
वह एक कई दिन तक चलने वाली धार्मिक यात्रा थी। श्रद्धालु अपनी मनोकमाना पूरी करने के लिए पैदल ही तीर्थयात्रा पर जाते थे। श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की परेशानी न हो, इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर हर तरह के इंतजाम किए जाते थे। मैं यात्रा को बचपन से देखता आ रहा था। पहले कब यात्रा संपन्न हो जाती थी, पता नहीं चलता था। वक्त के साथ श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती रही। यात्रा चल रही थी। रात का समय था। जगह-जगह श्रद्धालु विश्राम कर रहे थे। बहुत श्रद्धालु भक्तिभाव से पैदल चले जा रहे थे। मैं मोटरसाइकिल पर सड़क पर जा रहा था। मैंने दूर से देखा कि बहुत सारे श्रद्धालु एक जगह जमा थे और जोर-जोर से धार्मिक नारे लगा रहे थे। नारों में श्रद्धा कम और आक्रोश ज्यादा था। मैं भीड़ के करीब पहुंचा ही था भीड़ एक ओर भागने लगी। मैंने एक श्रद्धालु से पूछा, ‘क्यों भाई, क्या हुआ?’ उसने गरदन हिलाकर कहा, ‘पता नहीं क्या हुआ।’ पास में खड़ा एक श्रद्धालु बोला, ‘सुना है किसी श्रद्धालु का एक्सीडेंट हो गया है।’ हम अभी बात ही कर रहे थे कि श्रद्धालुओं का एक बड़ा हुजूम आया और आने-जाने वाले वाहनों पर पथराव शुरू कर दिया। भगदड़ मच गई। जिसे जहां जगह मिली, वहीं दुबक गया। पुलिस आई और बेबसी से खड़ी सब देखती रही। थोड़ी देर में सड़क पर क्षतिग्रस्त वाहनों की संख्या बढ़ने लगी। कुछ श्रद्धालु इस अराजकता पर अफसोस प्रकट करते हुए एक ओर हो गए। उनमें से एक बोला, ‘एक्सीडेंट हुआ है, तो आने-जाने वाले लोगों पर पथराव करने की क्या जरूरत है?’ दूसरा अफसोस प्रकट करते हुए कहने लगा, ‘कुछ लोगों ने इस यात्रा को बदनाम कर दिया है।’ तीसरा बोला, ‘यह तो यात्रा कम, शक्ति प्रदर्शन ज्यादा हो गई है।’ अभी वार्तालाप चल ही रहा था कि मेरे मोबाइल की घंटी बजी। फोन घर से था, पूछा गया, ‘कहां हो तुम? जल्दी घर आओ सुना है, शहर में दंगा हो गया है।’ मैंने बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन घरवाले मानने को तैयार नहीं थे। थोड़ी देर बाद शांति हो गई। पता चला कि दो श्रद्धालु आपस में लड़ पड़े थे, जिसकी वजह से सारा मामला हुआ था। मैंने घर फोन करके सही बात बताई, लेकिन न जाने उनका कौनसा-सूत्र था, जिसकी वजह से वे इस पर बात पर अड़े थे कि दंगा हुआ है और कर्फ्यू लगने ही लगने वाला है।
वह एक कई दिन तक चलने वाली धार्मिक यात्रा थी। श्रद्धालु अपनी मनोकमाना पूरी करने के लिए पैदल ही तीर्थयात्रा पर जाते थे। श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की परेशानी न हो, इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर हर तरह के इंतजाम किए जाते थे। मैं यात्रा को बचपन से देखता आ रहा था। पहले कब यात्रा संपन्न हो जाती थी, पता नहीं चलता था। वक्त के साथ श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती रही। यात्रा चल रही थी। रात का समय था। जगह-जगह श्रद्धालु विश्राम कर रहे थे। बहुत श्रद्धालु भक्तिभाव से पैदल चले जा रहे थे। मैं मोटरसाइकिल पर सड़क पर जा रहा था। मैंने दूर से देखा कि बहुत सारे श्रद्धालु एक जगह जमा थे और जोर-जोर से धार्मिक नारे लगा रहे थे। नारों में श्रद्धा कम और आक्रोश ज्यादा था। मैं भीड़ के करीब पहुंचा ही था भीड़ एक ओर भागने लगी। मैंने एक श्रद्धालु से पूछा, ‘क्यों भाई, क्या हुआ?’ उसने गरदन हिलाकर कहा, ‘पता नहीं क्या हुआ।’ पास में खड़ा एक श्रद्धालु बोला, ‘सुना है किसी श्रद्धालु का एक्सीडेंट हो गया है।’ हम अभी बात ही कर रहे थे कि श्रद्धालुओं का एक बड़ा हुजूम आया और आने-जाने वाले वाहनों पर पथराव शुरू कर दिया। भगदड़ मच गई। जिसे जहां जगह मिली, वहीं दुबक गया। पुलिस आई और बेबसी से खड़ी सब देखती रही। थोड़ी देर में सड़क पर क्षतिग्रस्त वाहनों की संख्या बढ़ने लगी। कुछ श्रद्धालु इस अराजकता पर अफसोस प्रकट करते हुए एक ओर हो गए। उनमें से एक बोला, ‘एक्सीडेंट हुआ है, तो आने-जाने वाले लोगों पर पथराव करने की क्या जरूरत है?’ दूसरा अफसोस प्रकट करते हुए कहने लगा, ‘कुछ लोगों ने इस यात्रा को बदनाम कर दिया है।’ तीसरा बोला, ‘यह तो यात्रा कम, शक्ति प्रदर्शन ज्यादा हो गई है।’ अभी वार्तालाप चल ही रहा था कि मेरे मोबाइल की घंटी बजी। फोन घर से था, पूछा गया, ‘कहां हो तुम? जल्दी घर आओ सुना है, शहर में दंगा हो गया है।’ मैंने बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन घरवाले मानने को तैयार नहीं थे। थोड़ी देर बाद शांति हो गई। पता चला कि दो श्रद्धालु आपस में लड़ पड़े थे, जिसकी वजह से सारा मामला हुआ था। मैंने घर फोन करके सही बात बताई, लेकिन न जाने उनका कौनसा-सूत्र था, जिसकी वजह से वे इस पर बात पर अड़े थे कि दंगा हुआ है और कर्फ्यू लगने ही लगने वाला है।