Tuesday, September 25, 2012

बीस रुपये का कमाल

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मेरठ-बागपत सीमा पर वाहन चेकिंग सख्ती से जारी है। बिल्कुल पास ही ढाबा, चारपाई पर चाय की चुस्कियों के बीच देखा एक मोटर साइकिल आकर रुकी। चालक युवक ने दो सिगरेट लीं और मुझसे थोड़े फासले पर पड़ी एक अन्य चारपाई पर बैठ गए। एक सिगरेट साथी की ओर बढ़ाई। उसने सिगरेट लेते हुए सवालिया नजरों से कहा, यहां क्यों रुक गया? देख नहीं रहा कितनी सख्त चेकिंग है? तो क्या हुआ मेरे पास लाइसेंस है, मैं चलाता हूं। कागज मोटर साइकिल में होंगे, हेलमेट भी है। उसने बेबसी से कहा, ˜कागज ही तो नहीं हैं। साथी युवक ने सलाह दी, इंतजार कर लेते हैं, चेकिंग भी कब तक चलेगी? आगे भी तो चेकिंग मिल सकती है, अभी 60 किलोमीटर आगे और जाना है। साथी ने लापरवाही से कहा, अरे यार कोई आगे मिलेगा, तो 100-50 रुपये ही तो लेगा पुलिस वाला, दे देंगे। चल खड़ा हो। दूसरा बोला, बात 100-50 की नहीं है, इतना कहकर उसने आसपास नजर डाली। इस बीच मैं चाय पीकर कमर सीधी करने के लिए चारपाई पर लेट चुका था। मैंने आंखें बंद कर रखी थीं, शायद उन्हें लगा मैं सो रहा हूं। मेरे तवज्जो उनकी ओर ही थी। उसने फुसफसाहट भरे अंदाज में कहा, आवाज कानों तक पहुंच ही गई। ˜दरअसल, यह मोटर साइकिल चोरी की है। साथी युवक की हैरत भरी सिसकारी उभरी, क्या कह रहा है तू। ˜बात यह है कि किसी पर मेरे 20 हजार रुपये थे। एक साल से टरका रहा था। एक हफ्ते पहले उसके पास तकादे के लिए गया था, तो उसने कहा कि अभी पैसे नहीं हैं, जब तक पैसे नहीं दे देता, तुम मोटर साइकिल ले जाओ। मुझे बात जंच गई और मैं मोटर साइकिल ले आया। कल ही पता चला है कि यह चोरी की है। इसे वापस देने जाना है। मैं उठकर बैठ गया था। मैंने देखा साथी युवक के चेहरे पर चिंता थी। दूसरा इधर-उधर नजरें दौड़ा रहा था। उसकी नजर एक पेंटर की दुकान पर पड़ी। साथी से कहा, चल हो गया काम। साथी हजार सवाल चेहरे पर लिए चल दिया। दोनों मोटर साइकिल लेकर पेंटर की दुकान पर पहुंचे। पेंटर से कुछ बातचीत हुई। पेंटर काम में जुट गया। मोटर साइकिल की हेडलाइट के ऊपर लगे कवर पर कुछ लिखने लगा था। काम होने के बाद उन्होंने पेंटर को कुछ रुपये दिए। मोटर साइकिल का रुख मेरी तरफ हुआ, तो उस पर अंग्रेजी में बड़े-बड़े अक्षरों में प्रेस लिखा नजर आया। मैं टहलता हुआ वहां जा पहुंचा, जहां चेकिंग चल रही थी। फासला मुश्किल से 200 गज का था। चंद लम्हों में वे दोनों भी वहां पहुंच गए। एक सिपाही ने इशारा किया, लेकिन ˜प्रेस लिखा देखकर वह दूसरे वाहन रोकने लगा। मोटर साइकिल चेकिंग कर रहे दारोगा के पास जाकर रुकी और चालक युवक बोला, कैसे हैं सर? यहां कब पोस्टिंग हुई? दरोगा ने उसे पहचानने की कोशिश करते हुए जवाब दिया, ठीक हूं, दो महीने हो गए हैं। इधर कहां जा रहे हैं? वह बेफिक्री से बोला, जरा बागपत तक जाना है, वापसी में थाने में मिलता हूं। इतना कहकर उसने मोटर साइकिल आगे बढ़ा दी। वह मेरे करीब से गुजरे, तो आवाज आई, देखा बीस रुपये का कमाल।

Monday, September 24, 2012

कांग्रेस खुद लिख रही अपने पतन की पटकथा


सलीम अख्तर सिद्दीकी
 सरकार के हालिया आर्थिक फैसलों के चलते आम आदमी बौखलाया हुआ है और प्रधानमंत्री की सफाई से मुतमुईन नहीं है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस अपने पतन की पटकथा खुद लिख रही है। जनता का गुस्सा चरम पर है।
क व्यक्ति का कमीज उतारकर प्रधानमंत्री का विरोध करना और कोयला मंत्री र्शीप्रकाश जायसवाल के काफिले पर जूते-चप्पल फेंककर विरोध जताना मीडिया की सुर्खियां बनीं हैं। यदि आम आदमियों के बीच जाकर सरकार के बारे में उसकी टिप्पणियां सुनीं जाएं, तो किसी सर्वे आदि की जरूरत ही नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का देश के नाम संदेश में इस कथन ने कि पैसे पेड़ पर नहीं लगते, जनता की जख्मों को पर नमक ही छिड़का है। सवाल हो रहा है कि जनता के घरों में क्या पैसों के पेड़ लगे हैं, जिनसे पैसा तोड़कर वह सुरसा की तरह बढ़ती महंगाई का मुकाबला कर लेगी? जैसे इतना ही काफी न हो। हमारे गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे फरमाते हैं कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है। जिस तरह वह बोफोर्स घोटाला भूल गई, इसी तरह कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाला भी भूल जाएगी। ऐसा नहीं है कि जनता की याददाश्त कमजोर है। उसे सब याद है और हो सकता है कि जब चुनाव आएं, तो वह मतदान केंद्रों पर पहुंचकर सरकार का र्मसिया पढ़ दे।

सरकार के हालिया आर्थिक फैसलों के चलते आम आदमी बौखलाया हुआ है और प्रधानमंत्री की सफाई से मुतमुईन नहीं है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस अपने पतन की पटकथा खुद लिख रही है। भले ही आज की तारीख में विपक्ष कमजोर दिख रहा है, लेकिन जनता का गुस्सा चरम पर है और उसे कांग्रेस के अलावा कोई भी मंजूर है। आम आदमी गूढ़ अर्थशास्त्र नहीं समझता। उसे इतना समझ में आता है कि उसकी थाली का भोजन लगातार महंगा होता जा रहा है। 200 रुपये रोज कमाने वाला आदमी कैसे अपने परिवार का पालन करे, यह बड़ा सवाल उसके सामने मुंह बाए खड़ा है। लेकिन हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री जनता को एफडीआई के फायदे गिना रहे हैं। विदेशी रिटेल मॉल्स में गरीब आदमी शॉपिंग करने नहीं जाएगा। जिस मध्यम और उच्च वर्ग के लिए एफडीआई को मंजूरी दी गई है, वह वोट देने जाना अपनी शान के खिलाफ समझता है। प्रधानमंत्री यह नहीं समझ रहे हैं कि सरकारों को वही वर्ग बनाता-गिराता है, जिसकी वह अनदेखी कर रहे हैं।
जनता को यह भी मलाल है कि ममता बनर्जी की तरह मुलायम सिंह यादव और मायावती ने क्यों सरकार से सर्मथन वापस नहीं लिया। सरकार को सर्मथन दिए जाने के संबंध में मुलायम सिंह यादव का यह तर्क भी लोगों के गले नहीं उतर रहा है कि उसने सांप्रदायिक ताकतों को रोकने लिए ऐसा किया है। मुलायम 1990 की सांप्रदायिक राजनीति की उपज हैं। इसमें दो राय नहीं कि उस समय सांप्रदायिकता उफान पर थी और वही ऐसे शख्स थे, जिसने फन उभारती सांप्रदायिकता से लोहा लिया था। इसका उन्हें फायदा भी हुआ था। लेकिन तब से अब तक बहुत कुछ बदल गया है। राममंदिर मुद्दा कभी का राख में तब्दील होकर दफन हो चुका है। 2002 के गुजरात कलंक का भाजपा हर हाल में धोना चाहती है। ऐसे में मुलायम कब तक सांप्रदायिक ताकतों का खौफ दिखाकर जनता को मूर्ख बनाएंगे, यह सवाल भी जनता की जबान पर है। यूं भी उनकी रणनीति किसी के समझ नहीं आ रही है। वह यूपीए सरकार पर हमलावर भी होते हैं और सरकार की बैसाखी बनने से भी उन्हें गुरेज नहीं है। इतना ही नहीं, उनके बेटे अखिलेश यादव अलग सुर अलापते हुए कहते हैं कि आर्थिक संकट के लिए प्रधानमंत्री ही जिम्मेदार हैं और सपा मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार है। इन सब बातों से लगता है कि वह खुद ही कंफ्यूज हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए। समझ में यही आता है कि वह विरोध और सर्मथन की नावों पर सवार होना चाहते हैं, लेकिन दो नाव की सवारी करने वाला कब मंझधार में बह जाए, कहा नहीं जा सकता।

हो सकता है कि मुलायम सिंह यादव सरकार को मोहलत देकर उसे और ज्यादा अलोकप्रिय होने देना चाहते हों, जिससे उसका राजनीतिक फायदा उठाया जा सके। लेकिन घोटालों का रिकॉर्ड बनाने और महंगाई के लिए जिम्मेदार यूपीए सरकार का साथ देने का खामियाजा किसी और को नहीं, सपा को ही भुगतना पड़ेगा। जिस तीसरे मोर्चे पर सवार होकर वह प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे हैं, उसका अस्तित्व भविष्य के गर्भ में है। वह क्या आकार लेगा, उसमें कौन-कौन पार्टियां शामिल होंगी, कुछ पता नहीं है। ऐसे में जब इस समय कई लोग प्रधानमंत्री बनने की कतार में हैं, आने वाले वक्त में मुलायम सिंह की स्थिति क्या होगी, कहना मुश्किल है। लेकिन सवाल यह है कि क्या समाजवादी पार्टी के इतने सांसद जीतकर लोकसभा में पहुंच जाएंगे, जिनके बल पर वह प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे हैं? उत्तर प्रदेश में सपा सरकार जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पा रही है। अगर सपा ने यूपीए सरकार का ऐसे ही सर्मथन जारी रखा और उत्तर प्रदेश में सपा सरकार का ऐसा ही प्रदर्शन जारी रहा, तो उसका हर्श भी बसपा सरीखा हो सकता है।

(लेखक जनवाणी से जुड़े हैं)

Monday, September 10, 2012

आस्था और राजनीति


-सलीम अख्तर सिद्दीकी

सूरज अपना सफर तय करता हुआ दूसरी जगहों को रोशन करने के लिए गामजन था। मेरे शहर में सांझ की सुरमई फैलने लगी थी। मैं शहर के एक मशहूर चौराहे की एक पान की दुकान पर खड़ा कोल्ड ड्रिंक की चुस्कियां ले रहा था। मेरे दोस्त ने मुझे यहीं मिलने का कहा था। चौराहे के बीच में एक मजार था। अक्टूबर का महीना था, इसलिए मौसम में हल्की-सी ठंड का एहसास हो रहा था। वह गुरुवार की शाम थी। इस दिन मजारों पर सामान्य से ज्यादा भीड़ रहती है। अगरबत्ती की खुशबू फिजा में तैर रही थी। मजार पर र्शद्धालुओं की संख्या कम थी। थोड़ी देर बाद र्शद्धालुओं की आमद बढ़ गई। मैंने वक्त गुजारने के लिए कोल्ड ड्रिंक पीते हुए मजार पर आने वाले लोगों पर ध्यान केंद्रित कर दिया। वहां आने वालों के हाथ में तबरुक यानी प्रसाद का लिफाफा था। वे पहले प्रसाद चढ़ाते और फिर मजार के सामने थोड़ी देर र्शद्धा से सिर झुकाकर खड़े हो जाते। इसी बीच मजार के पास एक स्कूटर आकर रुका। स्कूटर सवार को मैं पहचानता था। वह एक स्थानीय नेता था, जो अपने विवादास्पद बयानों के लिए बदनाम था। उन बयानों की बदौलत ही वह शहर में पहचाना जाता था। वह एक ऐसी पार्टी से ताल्लुक रखता था, जिसके कार्यकर्ता किसी न किसी बहाने शहर में धरना-प्रदर्शन करते रहते थे। यह अलग बात है कि कोई भी उस पार्टी को गंभीरता से नहीं लेता था। उसने स्कूटर एक साइड लगाया और मजार की ओर बढ़ा। मुझे लगा कि वह मजार पर नहीं जाएगा, लेकिन वह अपने जूते उतारकर मजार के अंदर गया। मुझे ताज्जुब हुआ कि उस आदमी का मजार पर क्या काम। इसी पार्टी के लोगों ने तो दंगों के दौरान इसे तोड़ दिया था। जब दंगों की आग शांत हुई थी, तो मजार को दोबारा न बनने की जिद भी की थी। पता नहीं क्यों, मेरे कदम मजार की ओर उठ गए। मैं उससे पूछना चाहता था कि मजार को तोड़ने वाले की कैसे इसमें र्शद्धा जाग गई। जब मैं मजार के करीब पहुंचा तो वह बड़े भक्तिभाव से सिर झुकाए खड़ा था। मैं उसके बाहर निकलने का इंतजार करने लगा। थोड़ी देर में वह बाहर निकलकर अपने स्कूटर की ओर बढ़ा, तो उसे मैंने रोका और अपना परिचय देते हुए अपना सवाल दाग दिया। वह मुझे नीचे से ऊपर की ओर देखते हुए बोला, यह मेरी आस्था है, वह राजनीति। संक्षिप्त जवाब देकर वह अपने स्कूटर की ओर बढ़ गया था। मैंने पान की दुकान की ओर नजर उठाई। मेरे दोस्त की आंखें मुझे तलाश रही थीं।