Saturday, July 28, 2012

एनडी के रोहित



एनडी तिवारी रोहित शेखर के पिता हैं, यह साबित होने के बाद एनडी की प्रतिष्ठा को जबरदस्त आघात लगेगा। यदि वह अब भी इसे अपने खिलाफ सुनियोजित साजिश मानते हैं, तो उनके अंदर सच का सामना करने की हिम्मत नहीं है।
किस्सा किसी फिल्म की पटकथा सरीखा रहा। किसी को उम्मीद नहीं रही होगी कि एनडी तिवारी जैसे ताकतवर आदमी के सामने एक आम लड़का रोहित यह साबित करने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ेगा कि एनडी उसके जैविक पिता हैं। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद रोहित की जीत ने साबित किया है कि इरादे मजबूत हों, तो कुछ भी किया जा सकता है। कोई नहीं चाहता कि समाज को पता चले कि वह किसी की नाजायज औलाद है। एक औरत तो समाज से हर संभव तरीके से यह छुपाने की कोशिश करती है कि उसने उस शख्स के बच्चे को जन्म दिया है, जिससे उसका वैवाहिक रिश्ता नहीं था। लेकिन रोहित शेखर ने यह साबित करने के लिए कि वह देश के एक नामी नेता की औलाद हैं, लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। उनकी मां उज्जवला उनकी लड़ाई में साथ रहीं। रोहित और उज्जवला इस लड़ाई में कितनी मानसिक पीड़ा से गुजरे होंगे, यह वे ही जानते हैं और कहते भी हैं कि वे इस लंबी लड़ाई में बेहद तकलीफ से गुजरे हैं। दूसरी और नारायण दत्त तिवारी हैं, जो आखिरी वक्त तक कोशिश करते रहे कि सच दुनिया के सामने न आने पाए। इसके लिए उन्होंने हर हथकंडा अपनाया। अदालत से असहयोग किया। डीएनए के लिए ब्लड सैंपल भी वह कोर्ट के फटकार के बाद देने के लिए तैयार हुए थे। एक तरह से उनसे जबरदस्ती ब्लड सेंपल लिया गया था। बहुत लोगों का ख्याल था कि रोहित एनडी की विरासत में हिस्सा लेने के लिए सब कुछ कर रहे हैं, लेकिन वह बार-बार मना करते रहे हैं कि उन्हें संपत्ति का लालच नहीं है, बस एनडी उन्हें अपना नाम दे दें। अब सच सामने आ गया है, तो आने वाले दिन बताएंगे कि रोहित की मंशा क्या थी? एनडी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि किसी समय रात के अंधेरे में किया गया उनका एक गुनाह उनकी जिंदगीभर की मान-प्रतिष्ठा को मिट्टी मिला देगा। सब कुछ सामने आने के बाद भी एनडी इसे अपने खिलाफ सुनियोजित षडयंत्र मानते हैं, तो कहना पड़ता है कि अभी भी वह सच स्वीकार करने की ताकत हासिल नहीं कर पाए हैं। सच का सामना कैसे किया जाता है, इसकी सीख उन्हें उज्ज्वला लेनी चाहिए। रोहित ने जो लड़ाई लड़ी है, उसका असर समाज पर भी पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि कोई और रोहित और उज्जवला नहीं होंगे, लेकिन सामाजिक बेड़ियां उन्हें आगे आने से रोकती रही होंगी। रोहित ने उन लोगों को रास्ता दिखाया है, अपना हक लेने का, अपनी पहचान कायम करने का। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि एनडी तिवारी ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में विकास के नए आयाम बनाए हैं, लेकिन राजनीतिक गलियारों में उनकी रंगीन मिजाजी के किस्से भी चटखारे लेकर सुने-सुनाए जाते रहे हैं। देखना यह है कि आने वाला वक्त उन्हें विकास पुरुष के रूप में याद करेगा या एक ऐसे रंगीन मिजाज नेता रूप में, जो उम्र के आखिरी पड़ाव में भी एक सीडी में कथित रूप से एक अभिनेत्री के साथ दिखाई दिए थे।
(28 जनवरी के दैनिक जनवाणी में छपा संपादकीय)

Monday, July 23, 2012

लड़की को दुनिया में आने ही मत दो

- सलीम अख्तर सिद्दीकी
जमाना बदल रहा है, लेकिन समाज का एक वर्ग बदलने को तैयार नहीं है। अक्सर कुछ लोग इकट्ठे होते हैं और ऐसे फरमान जारी कर दिए जाते हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं होता। असारा तो उदाहरण भर है, सच तो यह है कि अधिकतर घरों में खाप बैठी हैं, जिन्हें बेटी या बहन की चिंता है, लेकिन बेटा या भाई बाहर क्या कर रहा है, इसकी परवाह नहीं होती। इसकी वजह यह है कि बेटा कुछ भी करता रहे, ‘इज्जत’ खाक में नहीं मिलती, लेकिन बेटी ने अगर यह कह दिया कि वह फलां लड़के से शादी करना चाहती है, तो बस कयामत आ जाती है। अगर लड़की ने घरवालों की मर्जी के बगैर शादी कर ली, तो उसे या तो जान से हाथ धोना पड़ता है या अपने परिवार को हमेशा के लिए छोड़ना पड़ता है। कहा जा रहा है कि खाप पंचायतें अच्छे फैसले भी लेती हैं। कन्या भ्रूण हत्या, दहेज लेन-देन जैसी कुरीतियों पर भी वार करती हैं। सवाल यह है कि पंचायतों की उन बातों को मान कौन रहा है? शादियों में पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। भव्य शादियां करने की होड़ लगी है। हरियाणा और वेस्टयूपी, जहां खाप पंचायतें सबसे ज्यादा मुखर हैं, आंकड़े गवाह हैं कि वहीं सबसे ज्यादा भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। कन्याभ्रूण हत्या के पीछे भी स्त्री विरोधी भावना ही काम करती है। ऐसा करने वालों को भय सताता रहता है कि लड़की जात है, कहीं कुछ कर बैठी, तो समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। आसान रास्ता ढंूढ लिया गया है कि लड़की को दुनिया में आने ही मत दो। न लड़की घर में होगी और न ही इज्जत जाने का खतरा रहेगा।
खाप पंचायतें भ्रूण हत्या के खिलाफ कितना बोल लें, कोई मानने को तैयार नहीं होगा। लेकिन जब पंचायत यह कहती है कि लड़कियां बाजार में अकेली न जाएं, जींस न पहनें, मोबाइल का इस्तेमाल न करें, तो सभी उस पर फौरन ही एकमत हो जाते हैं। यह अच्छी बात है कि खाप पंचायतें अन्य मुद्दों पर भी फैसले लेती हैं, लेकिन जितनी शिद्दत और जल्दी महिलाओं के बारे में फैसले लिए जाते हैं और महिलाओं पर उनका मानने का दबाव होता है, इसके विपरीत अन्य फैसलों को हवा में उड़ा दिया जाता है। खाप पंचायतों की यही नाकामी उन्हें कठघरे में खड़ी करती है।
 जमाना बदल रहा है। गांवों-कस्बों की लड़कियां भी नए कीर्तिमान बना रही हैं। उच्च शिक्षा ले रही हैं। आजादी भी मिली है। लेकिन जीवन साथी चुनने की आजादी समाज अभी लड़कियों को देना नहीं चाहता। कुछ लोगों न अपनी बेटियों को यह आजादी दे दी है। जिस दिन समाज का बड़ा बर्ग संकुचित सोच से बाहर आ जाएगा, उस दिन आॅनर किलिंग का भी अस्तित्व नहीं रहेगा।

किताबों की आंच

सलीम अख्तर सिद्दीकी
शीर्ष सरकारी पदों पर रहे लोगों की किताब जब भी आती है, उस पर विवाद न हो, ऐसा कम ही हुआ है। पद पर रहते कुछ बातें सार्वजनिक करना देशहित में नहीं होता। पद से हटने के बाद दिल को कचोटती वे बातें जब किताबों या लेख आदि के जरिये बाहर आती हैं, तो उनकी चर्चा होती है। किसी काल का ऐसा सच भी सामने आता है, जिसकी किसी को भनक भी नहीं होती।
टर्निंग पॉइंट्स: अ जर्नी थ्रू चैलेंजेस
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के बारे में आम धारणा है कि वह शांतचित्त और विवादों से दूर रहने वाले शख्स हैं। पिछले सप्ताह ही उनकी किताब 'टर्निंग पॉइंट्स: अ जर्नी थ्रू चैलेंजेस' आई, तो कई वे बातें सामने आर्इं, जिससे कलाम कुछ लोगों की नजर में वह ‘पाखंडी’ बन गए, तो कुछ लोग ऐसी सच्चाई से रूबरू हुए, जिसे कलाम खुद नहीं कहते, तो कभी सामने नहीं आती।
कलाम का सच
यह नहीं सोचा गया था कि अब्दुल कलाम की कोई किताब आएगी और उस पर विवाद हो जाएगा। अब तक माना जाता था कि 2004 में सोनिया गांधी इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बन पार्इं थीं, क्योंकि अब्दुल कलाम को उनके विदेशी मूल के होेने पर ऐतराज था। लेकिन उनकी किताब कहती है कि यदि सोनिया अपना दावा पेश करतीं, तो कलाम को उन्हें शपथ दिलाने में कोई आपत्ति नहीं थी। अब्दुल कलाम के व्यक्तित्व को देखते हुए उनकी विश्वसनीयता पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है। यदि 2004 में राष्ट्रपति रहते हुए इस मुद्दे पर उन्होंने कुछ नहीं कहा था, तो इसका मतलब नहीं है कि वह झूठ बोल रहे हैं।
सिर्फ इतना ही नहीं, भाजपा के सबसे पसंदीदा राष्ट्रपति रहे अब्दुल कलाम ने भाजपा को यह कहकर असहज कर दिया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कलाम को सलाह दी थी कि वह दंगों के बाद गुजरात न जाएं। कलाम ने वाजपेयी की सलाह को नजरअंदाज करते हुए गुजरात का दौरा किया। हालांकि कलाम की यह सदाशयता ही रही कि उन्होंने गुजरात दंगों पर न तो उस समय और न ही किताब पर ऐसी कोई प्रतिक्रिया दी, जिससे विवाद होता। यहां तक कि नरेंद्र मोदी की आलोचना भी कभी नहीं र्ष सरकारी पदों पर रहे लोगों की किताब जब्दी की आलोचना भी कभी नहीं की। 
यह बात गले से नहीं उतरती कि देश का गृहमंत्री विमान अपहरण जैसे बड़े मामले की छोटी सी छोटी बात से अनजान हो। जब पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी की किताब ‘माई कंट्री माई लाइफ’ आई, तो उसमें उन्होंने लिखा कि कंधार विमान अपहरण मामले में वह विदेश मंत्री के कंधार जाने के फैसले से अनजान थे। पूर्व रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज ने यह कहकर विवाद की आग और भड़का दी थी कि फैसले की बैठक में आडवाणी मौजूद थे। आडवाणी ने 1998 में भाजपानीत की सरकार के बनने और फिर एक साल बाद उस सरकार के गिरने की प्रक्रिया में दिवंगत पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन पर भी सवाल खड़े किए थे। आडवाणी का कहना था कि सरकार बनाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी को न्यौता देने में केआर नारायणन के दस दिन का विलंब किया था। आडवाणी के अनुसार त्रिशंकु संसद की सूरत में सिर्फ उस व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करने की बात कही थी, जो राष्ट्रपति को सहयोगी दलों की ओर से प्रस्तुत समर्थनपत्रों के माध्यम से राष्ट्रपति को बहुमत हासिल करने की अपनी क्षमता के प्रति आश्वस्त करने में सफल हो। इस पर आडवाणी ने नारायण की यह कहकर आलोचना की थी कि दो पूर्व राष्ट्रपतियों आर वेंकटरमन और शंकर दयाल शर्मा ने  बिना समर्थन के आशवस्त हुए सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था, जिसका अनुसरण नारायण ने नहीं किया था। पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन ने भी अपनी किताब में गुजरात दंगों का जिक्र करके तत्कालीन केंद्रीय राजग सरकार और गुजरात सरकार को असहज कर दिया था। 
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत अर्जुन सिंह की आत्मकथा अभी बाजार में नहीं आई है, लेकिन विवाद शुरू हो गया है। अपनी आत्मकथा 'ए ग्रेन आॅफ सैंड इन दि आवरग्लास आॅफ टाइम' में उन्होंने जो कुछ लिखा है, उससे विवादों का पिटारा खुलना ही था। उनका कहना है कि तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने भोपाल गैस कांड के आरोपी वारेन एंडरसन को छुड़वाने में अहम भूमिका निभाई थी। इस मामले में वह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को क्लीन चिट देते हैं। वह एक और धमाका करते हैं कि 1987 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह राजीव गांधी को हटाकर उन्हें यानी अर्जुन सिंह को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे। किताब में यह भी दावा किया गया है कि नरसिम्हाराव नहीं चाहते थे सोनिया गांधी कांगे्रस की अध्यक्ष बनें। अर्जुन सिंह की किताब में बाबरी मसजिद विध्वंस का जिक्र न होता, यह संभव नहीं था। अयोध्या मामले पर अर्जुन सिंह कहते हैं कि नरसिम्हाराव आरएसएस प्रमुख बाला साहेब देवरस से सीधे संपर्क में थे, इसका मैंने विरोध किया था। 4 दिसंबर, 1992 की बैठक में मैंने उन्हें बता दिया था कि किसी भी दिन अयोध्या में विवादित ढांचा गिरा दिया जाएगा। अर्जुन सिंह कहते हैं कि 6 दिसंबर 1992 को राव ने अपने स्टॉफ से यह कहकर एक कमरे में बंद कर लिया था कि उन्हें परेशान न किया जाए। खास बात यह है कि किताब के लेखक अर्जुन सिंह, पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव में से कोई भी जीवित नहीं है।
जिनाह का जिन
भाजपा के नेता जसवंत सिंह एक नहीं, दो बार किताबों की वजह से विवाद में घिरे। 2006 में उनकी एक किताब आई थी, 'ए काल टू आॅनर..इन सर्विस आॅफ इमजेट इंडिया'। इस किताब में उन्होंने लिखा था कि पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में एक ऐसा शख्स था, जो अमेरिका को सूचनाएं देता था। इस पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें उस शख्स की पहचान बताने का चैलेंज दिया था। हालांकि जसवंत ने अपनी बात के पक्ष में जो तथ्य दिया था, वह बहुत ही लचर था। उन्होंने बिना हस्ताक्षर वाले एक पत्र का हवाला देते हुए कहा था कि उस पत्र से पैदा हुए शक के आधार पर ऐसा लिखा था।
2009 में जसवंत सिंह की एक और किताब आई थी, 'जिन्ना, इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंस'। इसमें उन्होंने भारत में लगभग खलनायक का दर्जा रखने वाले पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिनाह की जमकर तारीफ की थी। भाजपा के नेता और जिनाह की तारीफ, ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। जिनाह की ही तारीफ की होती थी, तो फिर भी गनीमत थी। उन्होंने भारत विभाजन का असली जिम्मेदार जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल को बताया था। उन्हें 19 अगस्त 2009 को भाजपा से निष्कासित कर दिया गया था। हालांकि एक साल से भी कम समय में 24 जून 2010 को उनकी भाजपा में वापसी हो गई थी। मजे की बात यह है कि जसंवत सिंह, अर्जुन सिंह ओर कुलदीप नैयर की किताबों में पीवी नरसिम्हाराव निशाने पर रहे ।

Tuesday, July 17, 2012

लड़कियों के लिए क्यों तंग कर दीगई है जमीन?

सलीम अख्तर सिददीकी 
जब अफगानिस्तान में तालिबान का शासन था, तब एक वीडियो फुटेज बार-बार दिखाया जाता था, जिसमें तालिबान कुछ महिलाओं को उनके ‘कथित’ जुर्म की सजा सरेआम छड़ी से पीटकर दे रहे थे। तालिबान की उस हरकत की जबरदस्त आलोचना की गई थी। गुवाहटी के जो वीडियो फुटेज हैं, वे उन फुटेज के सामने ज्यादा अमानवीय हैं। इसकी वजह यह है कि तालिबानी निरंकुश शासक थे। उनका विरोध नामुमकिन न सही, मुश्किल जरूर था। हम उन्हें लगभग असभ्य की श्रेणी में रखते थे। आज भी रखते हैं। हम लोकतांत्रिक और सभ्य देश होने का दावा करते हैं। यहां आम नागरिक भी किसी पर ज्यादती होने पर हस्तक्षेप का हक रखता है। गुवाहटी में एक मासूम लड़की पर हो रही ज्यादती रोकने में किसी नागरिक ने अपने इस हक का इस्तेमाल नहीं किया। वह भी तब, जब लड़की के साथ ज्यादती करने वाले ‘तालिबानी’ नहीं थे। तालिबानी तो वे लोग बन गए थे, जो एक लड़की का ‘चीरहरण’ होता देखकर चुप रहे।
कुछ साल पहले नए साल के अवसर पर बंगलूरू के एक पब में घुसकर कुछ लड़कियों को इसलिए पीटा गया था, क्योंकि एक धार्मिक संगठन की नजर में वे भारतीय संस्कृति को कलंकित कर रही थीं। हालांकि वह खुद लड़कियों को सरेआम पीटकर भारतीय संस्कृति के मुंह पर तमाचा मार रहे थे। उनसे तब भी सवाल किया गया था कि महिलाओं को पीटना कौन-सी भारतीय संस्कृति है? इसी बीती 31 दिसंबर को जब पूरा देश नए साल का जश्न मना रहा था, तो गुड़गांव की एक पॉश कही जाने वाली जगह पर एक लड़की के साथ 20 से ज्यादा लोगों ने इसी तरह की वहशियाना हरकत की थी, जैसी गुवाहाटी में की गई है। तब भी उस लड़की को बचाने में समाज सामने नहीं आया था। दिल्ली में कारों में गैंग रेप की घटनाएं लगातार हो रही हैं। गुवाहाटी की घटना पिछली घटनाओं का ‘एक्शन रिप्ले’ भर है। एक मासूम लड़की को भीड़ के सामने 15-20 लड़के नोंचते-खसोटते हैं। भीड़ तमाशा देखती रहती है। वह मदद के लिए चिल्लाती है, लेकिन कोई हाथ मदद के लिए नहीं बढ़ता। किसी को भी उस पर दया नहीं आती। शर्मनाक यह भी कि लड़की ने मीडिया से भी मदद की गुहार लगाई, लेकिन वह उसे बेइज्जत होते शूट तो करता रहा, लेकिन ‘ड्यूटी’ पर होने की वजह से कुछ करने में ‘असमर्थ’ था। मीडिया को भी तय करना पड़ेगा कि उसकी जिम्मेदारी में किसी मरते आदमी को बचाना प्राथमिकता है या उसे मरते हुए कैमरे में कैद करना?
किसी के सामने वहिशयाना हरकत होती रहे और वह खड़ा तमाशा देखता रहे यह असंवेदनशील होने की इंतहा है। क्या वाकई समाज कायर हो गया है? आखिर ऐसी घटनाओं के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठती? लड़की के साथ जिस तरह की हरकत हुई है, उससे लड़की की दिमागी हालत का अंदाजा ही लगाया जा सकता है। क्या वह अपनी जिंदगी सामान्य तरह से जी पाएगी? क्या समाज ने एक लड़की को जीते-जी नहीं मार दिया है? क्या वह किसी पुरुष पर भरोसा कर पाएगी? लड़कियों का घर से निकलना क्यों गुनाह हो गया है? क्या वे किसी पार्टी में नहीं जा सकतीं? इस घटना ने अंतहीन सवाल पैदा किए हैं, जिनका जवाब समाज को देना है।
समाजशास्त्रियों के लिए यह रिसर्च का विषय है कि आखिर इस तरह के मामले उन बड़े शहरों में ही क्यों हो रहे हैं, जो कथित रूप से प्रगतिशील और सभ्य होने का दंभ भरते हैं?  दरअसल, समाज की यह तटस्थता घरों में दी जाती रही उस तालीम का नतीजा है, जिसमें बार-बार पढ़ाया जाता है कि किसी के पचड़े में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है, अपने काम से काम रखा करो। कुछ तालीम का असर, कुछ खुदगर्जी और कुछ पुलिस के रवैये ने ऐसा माहौल बना दिया है कि यदि कोई किसी के लिए मदद के लिए आगे आना भी चाहे, तो वह बहुत बातें सोचकर बढ़ते कदमों को पीछे खींच लेता है। पीछे खींचे गए कदम आतताइयों के हौसले बुलंद करती है, जिसका नतीजा गुवाहाटी जैसी घटनाओं के रूप में सामने आता है। इस मामले में अभी कम से कम छोटे शहरों और कस्बों का समाज इतना खुदगर्ज नहीं हुआ है कि वह किसी लड़की को सरेआम बेइज्जत होता देखता रहे। और यही वह समाज है, जिस पर बड़े शहरों के प्रगतिशील लोग औरतों को प्रताड़ित करने का आरोप लगाते हैं। 
समाज में ऐसा वातावरण बना दिया गया है कि जो लड़कियां जींस-टीशर्ट में पबों में जाती हैं, वे यकीनी तौर पर भोगने वाली वस्तु हैं। इस घटना के बाद सवाल लड़की पर भी उठाए जाएंगे। मसलन, वह रात को पब में क्या कर रही थी, वह भी इतनी छोटी उम्र की लड़की? यह भी कहा जाएगा कि आजकल की लड़कियां भी कम नहीं हैं। सवाल उसकी डेÑस पर भी उठाए जाएंगे। कुछ उसके चरित्र पर भी उंगली उठा देंगे। सारा दोष लड़की पर ही मढ़ देने वाले भी कम नहीं होंगे। इन सबके बावजूद बड़ा सवाल यह है कि लड़की की गलती हो भी, तो क्या किसी को उसे सरेआम नोंचे-खसोटे जाने का लाइसेंस मिल जाता है? पाबंदियां सिर्फ लड़कियों के लिए ही क्यों हैं? लड़की प्रेम विवाह करे, तो उसे मौत मिलती है। कभी सुनने में नहीं आया कि किसी परिवार ने अपने ‘लाडले’ को मौत की नींद इसलिए सुलाया कि उसने प्रेम विवाह क्यों किया है?
घटना पर असम के पुलिस महानिदेशक जयंत नारायण चौधरी ने जो कहा है, वह भी बेशर्मी की पराकाष्ठा है। वह फरमाते हैं कि  'पुलिस एटीएम मशीन नहीं होती, जिसमें कार्ड की तरह घटना का ब्योरा डाला जाए और मुजरिम हाथ आ जाए।' लखनऊ में एक दारोगा थाने में एक महिला से बलात्कार करने की कोशिश करता है। जब पुलिस ही महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाएगी, तो वही होगा, जो बागपत के एक गांव असारा की एक पंचायत में हुआ है। वहां पंचायत ने 40 साल से कम उम्र की महिलाओं पर अकेले बाजार आदि में जाने पर पाबंदी आयद करने का फरमान जारी किया है। इस फरमान की आलोचना हो रही है, होनी भी चाहिए। लेकिन जब पुलिस ही महिलाओं के साथ हुए उत्पीड़न पर उदासीनता बरते, तो समाज के वे लोग मजबूत होंगे ही, जो महिलाओं को परदे में रखने की कवायद करते हैं।
जब लड़कियों को सताया जाएगा, तो कन्या भ्रूण हत्याओं में इजाफा होगा। यह भी अकारण नहीं है कि जब भी लावारिस नवजात शिशु पड़ा पाया जाता है, तो वह शिशु लड़की ही होता है। देखा जाए, तो लड़कियों को दुनिया में आने जसे रोका ही इसलिए जाता है, क्योंकि उनके साथ ‘इज्जत’ नत्थी कर दी गई है। यही वजह है कि उनके लिए ड्रेस कोड निर्धारित किए जाते हैं। उनकी हर गतिविधि पर नजर रखी जाती है। सोच बनती जा रही है कि लड़कियां अपनी तरफ से भले ही कोई गलत कदम न उठाएं, लेकिन उनके साथ कहीं भी कुछ हो सकता है, इसलिए लड़की न होना ही अच्छा है। गुवाहाटी जैसी घटनाओं के बाद यह सोच और ज्यादा पुख्ता होगी।
(लेखक जनवाणी से जुड़े हैं)