Thursday, February 23, 2012

नसीहत और तरबियत

-सलीम अख्तर सिद्दीकी

एक हाईप्रोफाइल मुसलिम परिवार की शादी शहर के सबसे महंगे रिसॉर्ट में हो रही थी। मैं एक पुराने परिचित के साथ बातचीत में मशगूल था। करीब में ही दो और शख्स, जिन्हें मैं भी अच्छी तरह से जानता था, खड़े होकर बातचीत कर रहे थे। तभी उनके पास एक वेटर पहुंचा, जो ट्रे में कोल्ड ड्रिंक के गिलास लिए हुआ था। दोनों ने एक-एक गिलास उठा लिया। एक ने उल्टे हाथ से गिलास उठाया था। उसने गिलास मुंह की तरफ बढ़ाया ही था कि दूसरे शख्स ने उसे टोकते हुए कहा, ‘यार अब तो आदत बदल लो। उल्टे हाथ से खाना-पीना हमारे हमारे पैगंबर को बहुत नापसंद था’। उसने शर्मिदा होते हुए गिलास सीधे हाथ में पकड़ लिया और बोला, ‘बचपन की आदत है, अब कहां जाने वाली है।’ दूसरे ने तंज के साथ कहा, ‘यह तुम्हारी नहीं, तुम्हारे वालिदेन की गलती है। उन्होंने तरबियत सही नहीं की तुम्हारी।’ उनकी बात सुनते हुए मैंने उस शानदार गॉर्डन में नजरें दौड़ाईं, जहां यह शादी हो रही थी। शादी में कहीं पर भी इसलामिक कल्चर की छाप नहीं थी। लोग खड़े होकर खाना खा रहे थे। महिलाएं डिजाइनदार कपड़ों में गहरा मेकअप किए इठलाती घूम रहीं थीं। एक ओर डीजे पर भौंडे गाने चल रहे थे, जिनकी धुनों पर अजीबो-गरीब कपड़े पहने युवा जबरदस्ती डांस करने की कोशिश कर रहे थे। खास बात यह थी कि उन युवाओं में उस शख्स का छोटा भाई भी था, जो सीधे और उल्टे हाथ के बारे में नसीहत दे रहा था। अब उन दोनों की बातचीत का विषय शहर की पॉलिटिक्स पर हो गया था। मैं भी अपने परिचित के साथ बातों में मशगूल हो गया। थोड़ी देर बाद मेरे कानों में आवाज पड़ी, ‘अब्बू मुझसे यह नहीं खाया जा रहा, क्या करुं इसका? मैं कुछ और खाऊंगा।’ मैंने आवाज की दिशा में देखा। नसीहत देने वाले शख्स का बेटा, जिसकी उम्र दस-बारह साल रही होगी, एक प्लेट में बहुत सारा खाना लिए खड़ा था, जो शायद अब उससे खाया नहीं जा रहा था। नसीहत देने वाले ने बहुत ही सहजता से कहा, ‘कोई बात नहीं बेटा, यह प्लेट सामने वाले डस्टबिन में डाल दो और नई प्लेट लेकर जो खाना हो, वह ले लो।’ पता नहीं क्यों, अब उस शख्स को पैगंबर की याद क्यों नहीं आई?

Sunday, February 12, 2012

दीन-ईमान, जरूरत के गणित के साए में

सलीम अख्तर सिद्दीकी

हाजी जी ने फोन करके कहा था कि मैं मगरिब की नमाज के बाद उनके घर आ जाऊं। विधानसभा का चुनाव लड़ रहा एक दमदार उम्मीदवार उनके घर आने वाला है। हमारे हाजी जी आजकल इलाके के ‘मुअजिज’ लोगों में शुमार किए जाते हैं। अब से लगभग दस साल पहले आम आदमी की हैसियत से भी नीचे थे। बाप-दादा की दस बीघा जमीन गजों में तब्दील होकर बिकनी शुरू हुई, तो पैसे के साथ रुतबा भी बढ़ता चला गया। पैसा आया तो जुमे के जुमे नमाज पढ़ने वाला शख्स एक दिन हज भी कर आया और हाजी जी हो गए। प्रोफाइल में हाजी जोड़ने का चलन भी आजकल कुछ ज्यादा ही हो गया है। मैं तयशुदा वक्त पर पहुंच गया था। उम्मीदवार अभी नहीं आया था। इंतजार करतेकर ते ईशा की अजान भी हो गई। उम्मीदवार पूरे दलबल के साथ बाद नमाज ईशा के आए।

उम्मीदवार भी हाजी ही थी। हाजी जी की हॉलनुमा बैठक में इलाके के कुछ और मुअजिज लोगों के साथ उम्मीदवार ने अपनी बात रखी और वोट देने की अपील की। ‘गैर मुअजिज’ लोग बाहर से झंककर नेता जी के दीदार करके मन मसोस रहे थे। सभी मुअजिज लोगों ने उम्मीदवार को जिताने का संकल्प लिया। उनका कहना था कि यहां की वोट तो हमारे ही हाथ में हैं, जहां कहेंगे, वहीं डालेंगे। बाहर खड़े गैर मुअजिज लोग, जो उम्मीदवार की शानदार गाड़ियों के इर्दगिर्द जमा थे, परे हट गए।

उम्मीदवार ने उन लोगों से बात तक करना पसंद नहीं की।

दो दिन बाद फिर हाजी जी का फोन आया। फिर यही कहा गया कि नेताजी घर से आ रहे हैं, शाम को जल्दी आ जाऊं।

मैं अबकी बार थोड़ी देर से पहुंचा था। नेताजी तशरीफ ला चुके थे। हाजी जी की बैठक में जो लोग बैठे थे, वे दो दिन पहले लोगों से थोड़ा जुदा थे। हां, इतना जरूर था कि इलाके के कुछ वे मुअजिज लोग भी थे, जो दिन पहले थे। अबकी बार दूसरी पार्टी से लड़ने वाला एक और कद्दावर उम्मीदवार समर्थन मांगने आया था। हाजी जी ने उम्मीदवार की शान में कसीदे पढ़ने शुरू किए, तो मुझ समेत कई लोग उन्हें टुकर-टुकर देखने लगे।

हाजी जी ने उम्मीदवार को पूरा यकीन दिलाया कि इलाके के वोट आपको ही मिलेंगे, बिल्कुल भी फिक्र न करें। नाश्ते के बाद नेता जी विदा हो गए, तो मैंने हाजी जी से कहा, ‘यह क्या है, कल तक आप दूसरे को वोट दिलाने का भरोसा दिला रहा थे और आज इसे, कुछ दीन-ईमान है या नहीं आपका?’ हाजी जी ने कहा, ‘मियां सब कुछ गया तेल लेने। टक्कर इन दोनों में ही है। इन्हीं में से कोई एक जीतेगा। जो जीतेगा, पांच साल के लिए उसी के हो जाएंगे। नेता भी तो ऐसा ही करते हैं।

Friday, February 10, 2012

बुखारी की उलटबांसियां

सलीम अख्तर सिद्दीकी

दिल्ली की जामा मसजिद के इमाम अहमद बुखारी ने मुसलमानों से समाजवादी पार्टी को वोट देने की अपील करना निहायत की गैरजिम्मेदाराना हरकत है। वह भी उस सूरत में जब उनका दामाद भी सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहा है। अगर उनका दामाद सपा के बजाय किसी और पार्टी से चुनाव लड़ता, तो क्या तब भी वह सपा को जिताने की अपील मुसलमानों से करते? क्या बुखारी देश या उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के एकमात्र रहनुमा हैं? उन्हें यह हक किसने दिया कि वह मुसलमानों को किसी विशेष पार्टी के हक में वोट देने की अपील करें? किसी भी व्यक्ति को यह हक है कि वह चाहे किसी को भी अपना वोट दे, किसी दूसरे का हस्तक्षेप वह क्यों बर्दाश्त करे? अपील करने से पहले बुखारी को इसका खुलासा करना चाहिए था कि उन्होंने किन मुसलिम मुद्दों और मांगों को मुलायम सिंह यादव के सामने रखा? हालांकि उनके वालिद कई पार्टियों को जिताने की अपील मुसलमानों से कर चुके हैं। पार्टी ने जीतने के बाद मुसलमानों के हक में क्या किया, यह आज तक किसी को पता नहीं है। इतना जरूर है कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से जरूर कीमत वसूली। इसका उदहारण 1989 कर चुनाव है। राजीव गांधी की सरकार पर बौफोर्स तोप दलाली को लेकर वीपी सिंह बयानों के गोले दाग रहे थे। सरकार जनता में विश्वसनीयता खो चुकी थी। दूसरी ओर राम मंदिर आंदोलन पूरे उफान पर था। सांप्रदायिक दंगों की आग में उत्तर प्रदेश के कई शहर जल रहे थे। राममंदिर पर राजीव गांधी की दोगली नीतियों और मलियाना और हाशिमपुरा में पुलिस और पीएसी की ज्यादती के कारण मुसलमानों का कांग्रेस से मोह भंग हो गया था। वे वीपी सिंह को अपने रहनुमा के तौर पर देख रहे थे। मरहूम अब्दुल्ला बुखारी ने मुसलमानों का रुख देखा, तो मुसलमानों से जनता दल को वोट देने की अपील कर दी। समर्थन देने की एवज में उन्होंने जनता दल सरकार से पूरी कीमत वसूली। अपने आदमियों को राज्यसभा में भेजा और जामा मसजिद पचास लाख रुपये का अनुदान लिया। उन रुपयों का बुखारी परिवार ने क्या किया, यह आज तक किसी को पता नहीं है। यह पूछने की हिम्मत ने तो किसी की हुई और न हो सकती थी।
मलियाना और हाशिमपुरा कांड के विरोध स्वरूप अब्दुल्ला बुखारी ने जामा मसजिद को काले झंडे और बैनरों से पाट दिया था। 1989 उत्तर प्रदेश में जनता दल की सरकार बनी। मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ही थे। मलियाना कांड पीड़ितों का एक प्रतिनिधिमंडल अब्दुल्ला बुखारी से मिलने गया था। प्रतिनिनिधि मंडल ने उनसे आग्रह किया था कि वह वीपी सिंह और मुलायम सिंह यादव से कहकर मलियाना जांच आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करवाएं और दोषियों पर मुकदमा चले। इस पर अब्दुल्ला बुखारी का जवाब था, ‘राजीव गांधी, वीपी सिंह, या मुलायम सिंह यादव हों, कोई भी मुसलमानों का हमदर्द नहीं है।’ उनके इस जवाब पर प्रतिनिधि मंडल के एक सदस्य ने कहा था, ‘जब कोई राजनीतिक दल मुसलमानों का हमदर्द ही नहीं है, तो आप क्यों बार-बार किसी दल को समर्थन देने की अपील मुसलमानों से करते हैं?’ इस सवाल पर बुखारी बोले थे, ‘मुझसे किसी की सवाल करने की हिम्मत नहीं होती, तुमने कैसे सवाल करने की जुर्रत की।’ उनके जवाब से जाहिर था कि मुसलमानों के नाम पर बुखारी परिवार सिर्फ अपने स्वार्थ साधता रहा है। सवाल करने की जुर्रत तो उनके साहबजादे अहमद बुखारी से भी किसी की नहीं हो सकती। पिछले साल लखनऊ में एक उर्दू पत्रकार ने उनसे एक सवाल कर लिया था, तो उनके समर्थकों ने पत्रकार को बुरी तरह मारापीटा था।
ऐसे समय में जब मुसलमानों का रुख लगभग पहले से ही सपा की ओर है, तो बुखारी की अपील उन्हें नुकसान भी कर सकती है। पूरा चुनाव मुसलमानों के इर्दगिर्द होने से नई चीजें पैदा हो रही हैं। आरएसएस भाजपा उम्मीदवार के कमजोर होने की सूरत में अपने कैडर को बसपा को वोट देने की अपील कर चुका है। सपा के मुसलिम चेहरे आजम खान और बुखारी परिवार के बीच हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। उनका क्या रुख रहेगा, यह भी देखने वाली बात होगी। वह बुखारी की अपील पर नाराजगी का इजहार भी कर चुके हैं। कल्याण सिंह मुद्दे पर आजम एक बार पार्टी छोड़ चुके हैं। बुखारी प्रकरण से आजम और मुलायम सिंह के रिश्तों के बीच फिर से खटास आ सकती है, जो अंतत: सपा को ही नुकसान पहुंचाएगी। इतिहास बताता है कि जब भी दिल्ली की जामा मसजिद से किसी के पक्ष में वोट करने की अपील जारी हुई, हवा का रुख देखकर ही हुई। 1977 में जनता पार्टी, 1980 में कांगे्रस और 1989 में जनता दल के पक्ष में अपील जारी हो चुकी हैं। इन चुनावों में यदि बुखारी अपील भी न करते, तो मुसलमान वोट उसी पार्टी को करता, जिसके पक्ष में अपील की गई थी। इस तरह की अपीलों का एक खतरनाक पहलू यह भी है कि दूसरे समुदायों में यह संदेश जाता है कि मुसलमानों का ध्रुवीकरण हो रहा है, जिससे गैरमुसलिम वोटरों का भी धु्रवीकरण होता है, जो लोकतंत्र के लिए सही नहीं है। अहमद बुखारी 2004 में मुसलमानों से भाजपा को वोट देने की अपील भी कर चुके हैं, जिसे सिरे से खारिज कर दिया गया था। वह मुसलमानों की भावनाओं के विपरीत था, इसलिए मुसलमानों ने जमकर उसकी आलोचना की थी। उसके बाद ही अब सवाल यह है कि क्या सैयद बुखारी की अपील के सहारे मुलायम चुनाव की नैया पार लगा सकेंगे?