Friday, May 27, 2011

वक्त और इंसानियत

सलीम अख्तर सिद्दीकी
सुबह के दस बजे हैं। मैं आॅफिस जाने के लिए सिटी बस का इंतजार कर रहा हूं। धूपी बहुत तीखी है। एक दुकान के शेड के नीचे जाने की सोचता ही हूं कि बस आती दिखाई दे जाती है। बस को हाथ से रूकने का इशारा करता हूं। बस में सवार होता ही हूं कि कंडक्टर की आवाज आती है, ‘कहां जाना है?’ मैं समझता हूं, कंडक्टर मुझसे मुखातिब है। मैं पैसे निकालने के लिए जेब में हाथ डालता हुआ आवाज की दिशा में देखता हूं तो कंडक्टर एक महिला से मुखातिब था। महिला की उम्र यही कोई 30-35 साल रही होगी। वह निहायत ही गंदे कपड़े पहने हुए थी। उसके पास एक गंदी से पोटली थी, जिसमें से उसकी ‘गृहस्थी’ का सामान कुछ-कुछ नुमायां हो रहा था। चेहरे मोहरे से वह स्थानीय नहीं लग रही थी। उसकी गोद में लगभग दो साल का बच्चा था। वह सूरत से ही बीमार लग रहा था। उसकी नाक बह रही थी। बच्चे के हाथ में खुला हुआ ग्लूकोज के बिस्कुट का पैकेट था। उसमें से उसने एक या दो बिस्कुट ही खाए होंगे। वह शून्य में निहार रहा था। महिला कंडक्टर की बात का जवाब नहीं देती। बस शून्य में निहारती रहती है। कंडक्टर अबकी बार कुछ जोर से उससे कहता है, ‘अरी, कहां जाना है, बता तो सही?’ महिला अबकी बार भी कोई जवाब नहीं देती। कंडक्टर झुंझला जाता है। वह उसे पकड़कर झिंझोड़ना चाहता है, लेकिन उसके गंदे कपड़े देखकर ठिठक जाता है। इस बीच अन्य मुसाफिर भी उसकी ओर मुतवज्जह हो जाते हैं। एक महिला उपहास के स्वर में कहती है, ‘बताओ कैसीऔरत है, जवाब ही नहीं देती है।’ इतना कहकर वह ठहाका मारकर हंस पड़ती है। इस बात का भी कोई असर महिला पर नहीं होता। वह लगातार शून्य में देखे जा रही है। कंडक्टर ड्राइवर से बस रोकने के लिए कहता है। बस साइड में रूक जाती है। बस रूकते ही मुसाफिरों में बैचेनी होने लगती है। उन्हें लग रहा था कि महिला की वजह से उन्हें देर हो रही है। एक मौलाना कंडक्टर से नाराजगी से कहते हैं, ‘अरे यार इसे नीचे उतारो, इसकी वजह से सब लेट हो रहे हैं।’ मैं मौलना से कहता हूं, ‘मौलाना इतना नाराज क्यों हो रहे हो, पता नहीं कौन है ये? एक बार फिर पूछ लो, इसे कहां जाना है, आफिस के लिए तो मैं भी लेट हो रहा हूं?’ मौलाना तल्खी से कहते हैं, ‘तुम्हें इतना तरस आ रहा है, तो तुम्हीं पूछ लो, इसे कहां जाना है।’ मैं उसे झिंझोड़कर बार-बार उसके बारे में पूछता हूं, लेकिन वह टस से मस नहीं होती। बस उसके चेहरे पर दर्द भरे भाव आते हैं। उसकी आंखों में बेबसी और लाचारी साफ झलक रही है। मौलाना के सब्र का पैमाना छलक जाता है। वह बहुत ही तल्खी से कंडक्टर से महिला को नीचे उतारने का आदेश देते हैं। कंडक्टर कुछ हिचकिचाता है। शायद उसके दिल में महिला के प्रति कुछ हमदर्दी है। थोड़ी देर में सब मुसाफिर उसे नीचे उतारने के लिए कंडक्टर पर जोर देने लगते हैं। कंडक्टर उसे जबरदस्ती बस से उतार देता है। उसकी पोटली सड़क पर पटक दी जाती है। बस चल दी है। महिला जाती हुई बस की तरफ देखती भी नहीं। वह गुमसुम पोटली उठाकर चारों तरफ देखने लगती है। धूप और ज्यादा तीखी हो गई है। शायद कोई साया तलाश करने लगी है। मुसाफिरों के चेहरों पर संतोष के भाव उभर आए हैं। मौलाना विजयी मुस्कान के साथ बस में चारों तरफ नजर दौड़ाते हुए जेब से मोबाईल निकालकर उसमें वक्त देखते हुए बड़बड़ाते हैं, ‘इस औरत की वजह से पूरे पंद्रह मिनट लेट हो गए हैं।’

वोट कटवा’ मुसलिम राजनैतिक दल




सलीम अख्तर सिद्दीकी



उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों अपने चार साल मुकम्मल कर लिए हैं। इधर नगर निकायों का कार्यकाल भी समाप्त होने को है, इसलिए नगर निकाय और विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां तेज हो गर्इं हैं। राजनैतिक दलों ने कुछ उम्मीदवारों की घोषणा भी कर दी है। जब चुनाव आते हैं, तो मुसलिम वोट बैंक को हर राजनैतिक दल ललचाई नजरों से देखता है। देखे भी क्यों नहीं? उत्तर प्रदेश में मुसलिम आबादी लगभाग 20 प्रतिशत है। भले ही भाजपा का आधार मुसलिम विरोध पर टिका हो, लेकिन वह भी मुसलिम वोटों की चाहत रखती है। ये अलग बात है कि मुसलिमों की और कदम बढ़ाते ही उसका अपना वोट बैंक उसे ‘कांग्रेस की कार्बन कापी’ बताने लगता है, लेकिन उसकी ये चाहत कभी भी उभर ही आती है। जब से बसपा के साथ आंखें बंद करके दलित वोट बैंक जुड़ा है, तब से मुसलमानों में भी सवाल कौंधता रहता है कि मुसलिमों की पार्टी क्यों नहीं हो सकती? ऐसा नहीं है, यह कोई नया विचार हो। अतीत में कई प्रयोग हुए, लेकिन सफल नहीं हुए। आजादी के बाद से ही मुसलमानों ने अपना रहनुमा हिंदुओं को ही माना है। नेहरु से लेकर विश्वप्रताप सिंह तक, उन्होंने अपना समर्थन हिंदु नेताओं को ही दिया। यदि मुसलमान धर्म के नाम पर बनने वाले राजनैतिक दल की हिमायती होते तो, उनके लिए मुसलिम लीग सबसे बेहतर पार्टी हो सकती थी, लेकिन मुसलमानों ने उसे हमेशा ही नकारा। आजादी के बाद वह धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई। थोड़ा बहुत वजूद सिर्फ केरल में बचा हुआ है।
अस्सी और नब्बे के दशक में जब राममंदिर और बाबरी मसजिद विवाद के चलते हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक दीवार सी खिंच गई थी, तब सैयद शहाबुद्दीन ने इंसाफ पार्टी बनाकर मुसलमानों की रिझाने की कोशिश की थी, लेकिन मुसलमानों ने उसे कोई भाव नहीं दिया। बसपा से अलग होकर डॉ मसूद अहमद ने नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी बनाई। पूरे पन्द्रह साल तक वह उसे सींचते रहे, पौधा कभी पेड़ नहीं बन पाया। आखिरकार मसूद साहब को पार्टी का विलय सपा में करना पड़ा। मेरठ के मौजूदा बसपा विधायक याकूब कुरैशी और उनके भाई युसूफ कुरैशी ने उत्तर प्रदेश यूडीएफ का गठन किया था। पिछला चुनाव इसी बैनर पर लड़कर मात्र याकूब कुरैशी ही जैसे-तैसे जीत पाए थे। बाकी जगहों पर बस ठीक-ठाक वोट मिले थे। पता नहीं किन्हीं मजबूरियों के चलते याकूब कुरैशी ने चुनाव जीतते ही ‘बहनजी का दामन’ थाम लिया था। इसके साथ ही यूडीएफ की ‘नवजात मौत’ गई थी। इतिहास से सबक नहीं लेते हुए पिछले एक दो सालों में मुसलमानों के नाम पर कई पार्टियां खड़ी हो गर्इं हैं। उत्तर प्रदेश में आज की तारीख में नेशनल लोकहिंद, उलेमा काउंसिल, पीस पार्टी, कौमी एकता दल, मोमिन कांफ्रेंस, परचम पार्टी और भारतीय एकता पार्टी जैसी पार्टियां मुसलिमों के नाम पर मैदान में हैं। जाहिर है, ये तमाम दल उन दलों को निशाने पर रखते हैं, जिनके बारे में यह समझा जाता है कि मुसलमान उनसे हमदर्दी रखते हैं।
ये कारण भी खोजने होंगे कि आखिर मुसलमानों के नाम पर इतनी पार्टियां कैसे वजूद में आ गयी हैं। दरअसल, सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों ने मुसलमानों को भाजपा का डर और सब्जबाग दिखाकर छला है। मुसलमानों की आर्थिक व शैक्षिक तरक्की के लिए किसी राजनैतिक दल ने कुछ नहीं किया। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कांग्रेस से छिटके मुस्लिम वोटर ने अपना भविष्य क्षेत्रीय दलों में देखना शुरू किया। भाजपा को हराने के लिए उसने उप्र में समाजवादी पार्टी, लोकदल और बसपा का साथ दिया, तो बिहार में राजद और लोजपा के साथ रहा। आंध्र प्रदेश में वह तेदेपा से जुड़ा, तो पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों को वोट देता रहा। मुसलमानों को धक्का तब लगा, जब तेदेपा, जनता दल (यू), तृणमूल कांगेस, बसपा, लोजपा और नेशनल कांफे्रंस जैसे क्षेत्रीय दलों ने 1999 में भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी की। 2002 में गुजरात दंगों के दौरान ये दल मूकदर्शक बने रहे। उत्तर प्रदेश में तो मायावती ने तीन-तीन बार भाजपा के साथ सरकार बनाई। मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए वोट करते रहे और उनके वोटों के बल पर क्षेत्रीय दल भाजपा के साथ ही मिलकर सत्ता का सुख भोगते रहे।
अब मुसलमानों के नाम पर खडे हुए दल मुसलमानों से कह रहे हैं कि सबको आजमा लिया है, इसलिए अपना झंडा अलग होना जरूरी है। यही वजह है कि ‘नाना प्रकार के दल’ मुसलमानों का भावनात्मक शोषण करने के लिए मैदान में आ गए हैं। आजमगढ़ के मदरसे के एक मौलाना आमिर रशादी ने ‘उलेमा काउंसिल’ नाम की पार्टी ही बना डाली। बाहुबली मुख्तार अंसारी ने ‘कौमी एकता दल’ बना डाला। डॉक्टरी के पेशे को ठोकर मारकर डॉ अयूब को मुसलमानों का रहनुमा बनने का शौक चर्राया, तो उन्होंने ‘पीस पार्टी’ का गठन कर लिया। सवाल यह है कि क्या इन पार्टियों के आने से मुसलमानों को कोई फायदा मिलेगा? सवाल यह भी है कि क्या ये पार्टियां वास्तव में मुसलमानों का भला चाहती हैं? जवाब नहीं में ही दिया जा सकता है। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इनमें से कुछ पार्टियां किसी ऐसी पार्टी के इशारे पर मैदान में हों, जिनको मुसलिम वोट बंटने से फायदा होता है। एक ऐसी ही मुसलिम पार्टी के नेता सपा, बसपा और कांग्रेस को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन बताते रहे हैं, जबकि भाजपा के बारे में वह हमेशा मौन रहते हैं।
यह सही है कि कुछ हजार वोट पाकर ये पार्टियां अपनी उपस्थिति तो दर्ज करा रही हैं, लेकिन इनको सिर्फ मुसलमानों के वोटों से ही संतोष करना पड़ रहा है। हालांकि ये पार्टियां महज दिखावे के लिए दलितों, पिछड़ों और शोषित तबकों को जोड़ने की बात करती हैं, लेकिन इनके नेताओं के भाषणों के केंद्र में सिर्फ मुसलमान ही रहते हैं। यही वजह है कि इनके साथ दूसरे समुदाय के लोग नहीं जुड़ पाते। इस तरह से देखें तो इन पार्टियों की हैसियत सिर्फ ‘वोट कटवा’ से ज्यादा नहीं है। ये सभी पार्टियां पूर्वांचल में वजूद में आयी हैं, पश्चिम में इनका कोई नाम भी सही तरीके से नहीं जानता, इसलिए ये सबसे ज्यादा नुकसान सपा का करेंगी। फायदा भाजपा का होगा। मसला अलग पार्टी बनाने से नहीं, संसद और विधानसभाओं में पढ़े-लिखे और सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष लोगों को भेजने से हल होगा। ऐसे लोगों से बचने से होगा, जो कभी स्कूल नहीं गए और सिर्फ अपने कारोबार को बचाने या बढ़ाने की नीयत से मुसलमानों के वोटों का इस्तेमाल करते हैं।
(यह लेख जनवाणी, मेरठ के 26 मई के अंक में प्रकाशित हो चुका है)

Monday, May 16, 2011

हिंदुओं-मुसलमानों की खाई को पाटा था टिकैत ने

सलीम अख्तर सिद्दीकी
महेंद्र सिंह टिकैत का किसान नेता के रूप उभार अस्सी के दशक के अंत की अभूतपूर्व घटना थी। मेरठ के लिए वे सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल के तौर पर भी याद किए जाएंगे। मेरठ में 1987 में भयंकर सांप्रदायिक दंगा हो चुका था। सूबे में कांगे्रस की सरकार थी। मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह थे। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास की काली छाया हटने का नाम नहीं ले रही थी। मुसलमान वीरबहादुर सिंह से सख्त खफा थे। फरवरी 1988 में महेंद्र सिंह टिकैत किसानों की मांगों को लेकर मेरठ कमिश्नरी पर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए थे। धरने को सभी वर्गों का भरपूर समर्थन मिला था। मुसलमानों ने इस धरने में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था। टिकैत साहब को ‘महात्मा’ की उपाधि से नवाजा जा चुका था। हम कुछ दोस्तों का प्रोग्राम टिकैत साहब से मिलने का बना। हम वहां पहुंचे तो किसानों का हुजूम था। उस हुजूम के बीच में टिकैत बैठे हुए थे। हम जैसे ही उनकी तरफ जाने के लिए चले, तो उनके सुरक्षा गार्डों ने हमें रोककर पूछा, ‘कहां जा रहे हो?’ हमने सीधे जवाब दिया, टिकैत साहब से मिलना है। सुरक्षा गार्ड ने कहा, ‘वे ऐसे ही हर किसी से नहीं मिलते, जाओ यहां से।’ मेरे दोस्तों ने मजाक उड़ाया, ‘आया था टिकैत साहब से मिलने?’ मैं खिसिया गया था। मैंने उनसे कहा, ‘अच्छा दूसरे गेट से चलते हैं।’ हम दूसरे गेट पर पहुंचे। जैसे ही अंदर जाने लगे, सुरक्षा गार्ड ने फिर वही सवाल दोहराया। इस बार मैं तैयार था। मैंने कहा, ‘हम लोग महाराष्ट्र से आए हैं, टिकैत जी से मिलना है।’ ‘महाराष्ट्र’ शब्द ने जादू जैसा कम किया। सुरक्षा गार्ड हमें खुद टिकैत साहब के पास तक छोड़कर आया। सुरक्षा गार्ड वहां मौजूद अपने लोगों को खास हिदायत देकर आया कि ये लोग महाराष्ट्र से आए हैं, इन्हें महात्मा जी से मिलवा देना। उस समय वह किसी विदेशी महिला पत्रकार से दुभाषिया के माध्यम से बात कर रहे थे। वे बातचीत से फारिग हुए तो हमारा परिचय ‘महाराष्ट्रवासी’ के तौर पर कराया जाने लगा तो मैंने कहा, ‘नहीं, टिकैत साहब हम तो मेरठ से ही हैं। ये सब तो आप तक पहुंचने के लिए करना पड़ा।’ इस पर उनके सुरक्षा गार्डों के तेवर तीखे हुए, तो टिकैत साहब ने अपनी ‘भाषा’ में उनसे कहा, ‘अरे, ये भी तो देखो इन्होंने सच बोल दिया है। ये मुझसे महाराष्ट्र का बनकर ही मिलकर चले जाते, तो हमें क्या बता चलता।’ उन्होंने बड़े प्यार से एक-एक का नाम पूछा। जब उन्हें पता चला कि हम मुसलिम हैं, तो उन्हें और ज्यादा खुशी हुई। बस इतना ही कहा, ‘एक बुरा दौर था, गुजर गया। आगे की सोचो। सांप्रदायिक सद्भाव बना रहना चाहिए।’ विदा लेते समय टिकैत साहब ये कहना नहीं भूले थे, ‘रोटी खाए मत जाना।’ दंगों के बाद हिंदुओं और मुसलमानों की बीच, जो खाई बनी थी, उस धरने ने उसे बहुत हद तक पाट दिया था।

Sunday, May 1, 2011

पश्चिम बंगाल : खतरे में 'लाल किला'

बंगाल के विधानसभा चुनाव कई मायनों में अलग हैं। नतीजों से पहले ही वामदलों के लिए 'मर्सिया' पढ़े जाने लगे हैं। वाम दलों का परंपरागत वोट बैंक समझे जाने वाले मुसलमान इस बार क्या करेंगे? यह सवाल फिजा में तैर रहा है। हालांकि पिछले लोकसभा और पंचायत चुनावों में मुसलमानों ने वाम दलों को अपनी दूरी को नतीजों का रूप दे दिया था। यही वजह है कि इस बार राजनीतिक पार्टियां मुसलिम वोट बैंक का हिसाब लगा रही हैं। बंगाली वाममोर्चा को गलतफहमी हो गई है कि अब पहले जैसे हालात नहीं हैं और मुसलमान उसके साथ हैं। इसमें शक नहीं कि सिंगूर और नंदीग्राम में मुसलमानों के साथ वाममोर्चा ने ज्यादती की, जो उसकी कामयाबी में बड़ी भूमिका अदा करते रहे हैं।

इस बार मुसलमान ममता बनर्जी को राइटर्स बिल्डिंग में लाने को बेताब हैं। वामदल सांप्रदायिकता के मुद्दे पर मुसलमानों पर 'इमोशन अत्याचार' करते रहे हैं। अबकी बार सांप्रदायिकता का मुद्दा गायब है। मुद्दा 2008 और 2009 के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चलाए गए आंदोलन को निर्ममता से कुचलने के लिए मुसलमानों पर अत्याचार का है।

यही वजह थी कि 2009 के लोकसभा चुनाव में मुसलिम बहुल क्षेत्रों में वाम को करारी शिकस्त हुई थी। तब सीपीएम का केवल एक मुसलमान सांसद पश्चिम बंगाल से चुनाव जीत सका था। कोलकाता, पूर्व मेदिनीपुर, हावड़ा, हुगली, मालदा, मुर्शिदाबाद, उत्तर दिनाजपुर, उत्तर और दक्षिण 24 परगना और वीरभूम जैसे मुसलिम बहुल जैसे जिलों से तो वामदलों को बिल्कुल ही नकार दिया गया था। नकारे जाने की शिद्दत का अंदाजा इस बात से से लगाया जा सकता है कि 67 प्रतिशत वोटर वाले मुर्शिदाबाद जिले वाले लोकसभा चुनाव में वहां की एकमात्र जलंगी विधानसभा सीट पर वाममोर्चा आगे रहा था। 55 प्रतिशत वोटर वाले जिले मालदा की 12 विधानसभा सीटों में सिर्फ एक सीट ही जीत सका था। उत्तर दिनाजपुर की सभी नौ सीटों पर हालत खराब रही थी। उत्तर 24 परगना के बशीरहाट, बारासात और बैरकपुर लोकसभा सीटों के अंतर्गत आने वाली वाली 21 विधानसभा सीटों में केवल तीन पर वामदल आगे रहे थे। अन्य जिलों की भी कमोबेश भी यही हालत रही थी।

बंगाल की 294 सीटों में से 115 सीटों पर मुसलिम निर्णायक साबित होते हैं। 70 सीटें पूरी तरह से मुसलिम बहुल हैं, तो 45 सीटों पर हार-जीत मुसलमान ही तय करते हैं। 2009 के बाद मुसलमानों को अपनी ओर करने के लिए वामदलों ने कुछ किया हो, सामने नहीं आया है। सिंदूर और नंदीग्राम को भी मुसलमान भूल गए हैं, ऐसा भी नहीं है। हालांकि मुसलिम मतदाताओं की नाराजगी दूर करने के लिए मुसलमानों को ओबीसी आरक्षण का लाभ देने की घोषणा की गई है, लेकिन लगता नहीं कि मुसलमानों की नाराजगी दूर करने के लिए इतना काफी है।

इसमें दो राय नहीं कि वामदलों ने हमेशा ही सांप्रदायिकता के मुद्दे पर कड़ा स्टैंड लिया। मुसलमान उन्हें अपने करीब पाते थे। यही वजह थी कि पश्चिम बंगाल के मुसलमानों ने भी कभी वामदलों को निराश नहीं किया। लेकिन अफसोसनाक बात यह है कि इसके बदले में वामदलों ने अन्य राजनैतिक दलों की तरह ही उन्हें सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक विकास से दूर रखा। सच्चर समिति रिपोर्ट बताती है कि बंगाल के मुसलमान स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मामले में सबसे ज्यादा पिछड़े हुए हैं। यदि कोलकाता और उसके आसपास के शहरों को छोड़ दिया जाए तो शेष बंगाल में मुसलमानों की हालत बेहद खराब है। यह सवाल बार-बार उठता है कि आखिर चार दशक तक सत्ता में रहने बाद भी वाम सरकार ने मुसलमानों की अनदेखी क्यों की? पिछले दो दशकों में बंगाल में हुए आर्थिक विकास का लाभ मुसलमानों को कुछ नहीं मिला है।

सच यह है कि वाम सरकार मुसलमानों को सिर्फ धर्मनिरपेक्षता की घुट्टी पिलाती रही और दंगे न होने देने का आश्वासन देती रही। यह सही है कि पश्चिम बंगाल में दंगे नहीं होते। क्या मुसलमान इसे ही बहुत कुछ मान लें कि वे दंगों से सुरक्षित हैं? क्या उन्हें रोजी-रोटी नहीं चाहिए? बंगाल की कुल आबादी का एक चौथाई आबादी मुसलमानों की है, लेकिन सरकारी नौकरियों में सिर्फ 2.1 प्रतिशत मुसलमान हैं। सरकार के अपने उपक्रमों में तो हालत और भी ज्यादा खराब है। इनमें सिर्फ 1.2 प्रतिशत मुसलमान उच्च पदों पर हैं। यह तथ्य चौंकाने वाला है कि मुस्लिम विरोधी माने जाने वाले नरेंद्र मोदी के गुजरात में सिर्फ 9.1 प्रतिशत मुसलमान होने के बाद भी सरकारी नौकरियों में 5.4 प्रतिशत मुसलमान हैं। यह भी तथ्य है कि वाम दलों की सरकार से पहले सरकारी नौकरियों में ज्यादा मुसलमान थे।

पश्चिम बंगाल में शिक्षा के क्षेत्र में भी मुसलमानों की दशा बेहाल है। जहां पूरे देश में 24 प्रतिशत मुसलमान मैट्रिक कर लेते हैं, वहीं पश्चिम बंगाल में सिर्फ 12 प्रतिशत मुसलमान ही मैट्रिक तक पढ़ पाते हैं। सच्चर समिति की रिपोर्ट कहती है कि पश्चिम बंगाल में औसतन एक बैंक खाते में 30,000 रुपये जमा हैं, लेकिन औसत मुसलमान के खाते में सिर्फ 14,000 रुपये हैं। शिक्षा और रोजगार से पिछड़ा बंगाली मुसलमान इसराईल, फिलस्तीन, बाबरी मसजिद और तस्लीमा नसरीन में ही उलझा रहा। उसकी आंखें तब खुलीं, जब सिंगूर और नंदीग्राम में उसी कॉमरेड के हाथों मारा गया, जिसे वे अपना सबसे बड़ा हितैषी समझते थे। यही वजह है कि पश्चिम बंगाल के मुसलमान दूसरा विकल्प तलाश करने पर मजबूर हो रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के रूप में उनके पास एक विकल्प मौजूद है। दोनों के बीच समझौता होने से मुसलमानों के वोटों में बिखराव नहीं आएगा। चार दशकों के बाद बंगाल में परिर्वतन की आंधी चली है।

ओपिनियन पोल भी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस को भारी सफलता मिलने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस को 170 सीटें मिलने की उम्मीद जताई जा रही है। यदि परिर्वतन हुआ, तो इसमें निश्चित रूप से मुसलमानों की अहम भूमिका होगी। राइटर्स बिल्डिंग में कौन आएगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इतना तय है कि यदि वामदलों की विदाई होती है, तो इसकी तुलना सोवियत संघ के अभेद्य दुर्ग के ढह जाने से की जाएगी। सोवियत संघ के ढहने के बाद कई मुसलिम रियासतों को आजादी मिलने की तरह ही बंगाल में भी मुसलमानों के शैक्षणिक और आर्थिक विकास की नई राहें खुल सकती हैं। ममता बनर्जी जानती हैं कि गुजरात और बिहार की तरह लंबी पारी खेलने के लिए विकास ही अब एक रास्ता है। यदि विकास का लाभ मुसलमानों को भी मिलेगा, तो वे दूसरी 'नीतीश कुमार' साबित हो सकती हैं।