Wednesday, September 15, 2010

हिन्दुस्तान व जागरण ने छोटी खबर को बनाया बड़ी

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
मेरठ में हिन्दुओं और मुसलमानों का अनुपात लगभग 60-40 का है। अस्सी के दशक में मेरठ 'दंगों का शहर' नाम से कुख्यात हो गया था। लेकिन बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जब उत्तर प्रदेश के कई शहर साम्प्रदायिक हिंसा से जल रहे थे, तब मेरठ ने शांत रह कर पूरे प्रदेश में एक मिसाल पेश की थी। उसके बाद यह संवेदनशील कहा जाने वाला शहर किसी बड़े दंगे की आग में नहीं जला।
पिछले साल जरुर मुसलमानों की एक विशेष जाति के लोगों ने अपने व्यापारिक हितों की खातिर शहर को दंगों की आग में झोंकने की कोशिश की थी। उस कोशिश को शहर के हिन्दुओं और मुसलमानों ने नाकाम कर दिया था। इस शहर के लोग साथ-साथ रहते हैं, काम करते हैं, एक दूसरे के व्यापार भी आपस में साझा है। एक दूसरे की खुशी और गम में बराबर शरीक होते हैं। यदि सड़क पर कोई आदमी दुर्घटना में घायल हो जाए तो उसे अस्पताल पहुंचाते वक्त उसका धर्म नहीं देखते। जब सब कुछ साझा है तो फिर आपस में तकरार भी होती है। मेट्रो सिटी का दर्जा पा चुके इस शहर में अक्सर किसी छोटी-मोटी बात को लेकर एक ही शहर के नागरिक होने के नाते दोनों के बीच व्यक्तिगत रुप से छोटी-मोटी झड़पें होती रहती हैं।
किसी हिन्दू की मोटर साइकिल किसी मुसलमान से टकराने पर ही झड़प हो जाती है। कभी क्रिकेट खेलने पर ही तू तू-मैं मैं हो जाती है।हद यहां तक है कि एक हिन्दू या मुसलमान के हाथों अंडे का फूटना भी झड़प का सबब बन जाता है। ऐसी झड़पों का साम्प्रदायिकता से दूर-दूर तक भी वास्ता नहीं होता। ऐसी छोटी-मोटी घटनाओं को भी मेरठ का मीडिया ऐसे पेश करता है, जैसे बस दंगा होने ही वाला था।
कल 13 सितम्बर की एक घटना है। यहां के मोहल्ला इमलियान में में कुछ बच्चे अपनी छत पर फुटबाल खेल रहे थे। जिस घर की छत पर फुटबाल खेली जा रही थी, उस घर के पीछे एक हिन्दू टिल्लू का घर है, जिसमें फुटबाल जा गिरी। फुटबाल मांगी गई तो उसने मना कर दिया। इसी बात को लेकर बात बढ़ गयी। टिल्लू ने तैश में आकर अपनी लाईसेंसी बंदूक से फायर कर दिया। गोली के कुछ छर्रे एक मुस्लिम युवक को जा लगे। महज इतना हादसा था। पुलिस और क्षेत्र के लोगों ने मामला शांत करा दिया।
इस हादसे को मेरठ के 'हिन्दुस्तान' और 'दैनिक जागरण' ने बड़ा बनाकर पेश किया। एक हिन्‍दू और मुसलमान के बीच होने वाली छोटी सी व्यक्तिगत झड़प से भी मेरठ के कुछ अखबारों को 'शहर की फिजा' खतरे में नजर आने लगती है। कल की घटना को 'हिन्दुस्तान' और 'दैनिक जागरण' ने पहले पेज पर मुख्य खबर तो बनाया ही, सिटी वाला पूरा एक पेज इसी खबर के नजर कर दिया। दोनों अखबारों ने तस्वीरों के माध्यम से यह बताया कि शहर में दहशत के चलते सड़के सुनसान हो गयीं। जबकि सच यह था कि बारिश की वजह से सड़के सुनसान थीं।
'अमर उजाला' ने संयम बरता। खबर छोटी करके लिखी। इस तरह की झड़पें कितनी महत्वहीन और रुटीन वाली होती हैं, इस बात का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता कि जिस क्षेत्र में इस तरह की झड़पें होती हैं, उस क्षेत्र के लोगों को भी पता नहीं चल पाता कि क्या हुआ। जब वे सुबह का अखबार देखते हैं तो उनके मुंह से यही निकलता है, 'अरे! कल यहां यह हो गया हमें तो पता ही नहीं चला।' उस पर तुर्रा यह कि बॉक्स में यह खबर भी डाल दी जाती है कि 'शहर में अफवाहों का बाजार गर्म हो गया।' पता नहीं अखबार इस तरह की खबरें, जो फिजा को वाकई खराब कर सकती हैं, क्यों छापते हैं। इस तरह की झड़पों की खबर को महज दो शहरियों के बीच की झड़प मान कर ही खबर लिखी जानी चाहिए न कि दो समुदायों के बीच होने वाली झड़प की तरह।
एक और मजे की बात जान लीजिए। ऐसी झड़पों की खबर लिखते समय अखबारों की अपनी आचार संहिता के मुताबिक, जिसमें लड़ने वालों का धर्म नहीं खोला जाता, 'दोनों समुदाय के लोग आमने-सामने आ गए' लिखा जाता है। यह अलग बात है कि बीच में कहीं लड़ने वालों के नाम से यह बता भी दिया जाता है कि मामला हिन्दू और मुसलमानों के बीच का है। ऐसी खबरों की विशेष बात यह भी है कि मुसलमानों को 'एक वर्ग विशेष के लोग' लिखा जाता है तो हिन्दुओं के लिए 'बहुसंख्यक वर्ग के लोग' प्रयोग किया जाता है। जैसे यह लिखा जाता है कि 'एक वर्ग विशेष के लोगों' या 'बहुसंख्यक वर्ग के लोगों' ने जाम लगा दिया या 'नारेबाजी शुरु कर दी'। हालांकि साथ में लगी तस्वीर साफ बता देती है कि जाम लगाने या नारेबाजी करने वाले कौन लोग हैं। समझ में नहीं आता कि इशारों में बताने के बजाय झगड़ा करने वालों का धर्म ही क्यों नहीं बता दिया जाता है। क्या अखबार वाले अपने पाठक को इतना नासमझ समझते हैं कि वे इशारों की बात नहीं समझेगा?
ऐसे में जब अयोध्या विवाद का अदालती फैसला इसी महीने की 24 तारीख को आने वाला है, ऐसे में अखबारों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गयी है। छोटी सी खबर को बड़ी बनाने से शहर में बेमतलब का तनाव फैलता है। मेरठ एक जो एक संवेदनशील और दंगों के लिए कुख्यात रहा है, में तो अखबारों को और ज्यादा संयम बरतना चाहिए।