Friday, April 23, 2010

रिपोर्टर ही बने रहना चाहते थे उदयन शर्मा रिपोर्टर ही बने रहना चाहते थे उदयन शर्मा


सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
उदयन शर्मा की पुण्य तिथि 23 अप्रैल पर उनको याद करना 1977 में शुरु हुई उस हिन्दी पत्रकारिता को भी याद करना है, जब उदयन शर्मा, एमजे अकबर और एसपी सिंह ने 'रविवार' के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता को नए तेवर प्रदान किए थे। 11 जुलाई 1949 को जन्मे उदयन शर्मा प्रख्यात पत्रकार ही नहीं बल्कि विचारों से पक्के समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शख्स थे। उन्होंने दीन-हीन हिन्दी पत्रकारिता को नए आयाम दिए थे। जब 23 अप्रैल 2001 को उनका निधन हुआ तो निर्भीक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष पत्रकारिता का युग समाप्त हो गया है। उदयन शर्मा का ये विशेष गुण था, वो अपने लिए नहीं जीते थे, वे अपने नहीं लिखते थे। वो नहीं लिखते थे किसी उच्च पद को पाने के लिए। जहां भी पीड़ा हो दर्द हो, जहां भी उत्पीड़न हो, जहां भी मनुष्य विपत्ति में हो, उसकी आवाज उठाने का काम उदयन शर्मा ने किया था। हालांकि एक वक्त में उदयन शर्मा रिपोर्टर से सम्पादक बन गए थे, लेकिन उनकी दिलचस्पी रिपोर्टिंग से कभी नहीं हटी। उनका मानना था कि अगर पत्रकार रहना है तो रिपोर्टर बनकर रहो। वो यह भी कहते थे कि जो सम्पादक रिपोर्टर नहीं रहता उसका सम्बन्ध उसकी अपनी जमीन यानी 'फील्ड' से छूट जाता है। उदयन जी के लिए पत्रकारिता सिर्फ पाठकों तक सूचनाएं पहुंचाने का पेशा नहीं थी। घटनाक्रम, उसके पीछे के कारकों तथा भावी परिणामों के प्रति सजग करना भी वह अपना दायित्व मानते थे। सामाजिक और व्यवस्थापक बदलावों के लिए काम करना भी वह पत्रकार का दायित्व मानते थे।
उदयन जी एक खास बात यह भी थी कि उनका कभी कोई स्थाई दुश्मन या दोस्त नहीं रहा। उन्होंने यदि किसी के खिलाफ लिखा और उस आदमी ने उन्हें बैठाकर अपना नजरिया समझा दिया तो उसके पक्ष में लिखने से भी संकोच नहीं किया। जब वीपी सिंह ने कांग्रेस से निकलकर जनता दल बनाया तो उदयन शर्मा ने 'रविवार' में वीपी सिंह के खिलाफ जबरदस्त अभियान चलाया था। उन्होंने वीपी सिंह को 'बेईमान राजा' से 'शर्मीला ब्रूटस' तक लिख डाला था। बाद में जब वीपी सिंह ने अपना पक्ष उन्हें समझाया तो उन्होंने वीपी सिंह को 'शालीनता की अद्भुत मिसाल' कहने से भी गुरेज नहीं किया। यदि वे किसी के स्थाई दुश्मन थे तो वो थे साम्प्रदायिक लोग, जिन्हें उन्होंने कभी नहीं बख्शा। साम्प्रदायिक लोग हिन्दू थे या मुसलमान इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। उदयन की साम्प्रदायिक दंगों की रिर्पोटें तो पत्रकारिता के छात्रों के लिए दस्तावेज की तरह हैं। अस्सी का दशक भारत खासतौर से उत्तर भारत साम्प्रदायिक दंगों की चपेट में था। उदयन शर्मा ने साम्प्रदायिक दंगों की वास्तविकता और उनके पीछे लगे दिमाग और हाथों को कस कर बेनकाब किया। जब बेनकाब साम्प्रदायिक ताकतें किसी अन्य समाचार माध्यम से उनकी आलोचना करती थीं तो वे केवल मुस्कराकर कहते थे-'हाथी चलता है, कुत्ते भौंकते हैं।' साम्प्रदायिक दंगों पर उनकी रिर्पोटिंग इतनी अथेंटिक होती थी कि अंग्रेजी साप्ताहिक 'संडे' भी उनकी हिन्दी रिपोर्ट्‌स को अंग्रेजी में अनुवाद करके प्रकाशित करता था। पाठक उनकी रिपोर्ट को पढ़कर जानता था कि सच क्या है। उदयन शर्मा की एक खास बात यह भी थी कि वे पत्रकार के साथ ही एक एक्टिविस्ट भी थे। वे चन्द्रशेखर की भारत यात्रा के साथ पूरी तरह जुड़े रहे। इस यात्रा से उन्हें देश और लोगों को समझने में आसानी हुई। जब चम्बल घाटी के कुछ दस्युओं ने आत्मसमर्पण किया तो समर्पण कराने में उनकी भूमिक भी थी।
उदयन शर्मा ने राजनीति में भी हाथ आजमाए थे। राजनीति में वे केवल इसलिए नहीं आना चाहते थें कि उनके कई पत्रकार मित्र 'जोड़-तोड़' करके राज्यसभा में पहुंच गए थे। उनका मानना था कि राजनीति से भी समाज में बदलाव का काम किया जा सकता था। लेकिन वे राज्यसभा में नहीं बल्कि जनता के द्वारा चुनकर लोकसभा में जाना चाहते थे। लेकिन दूसरों का राजनैतिक आकलन करने में माहिर उदयन शर्मा अपना आकलन करने में गच्चा खा गए। 1985 में जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में कांग्रेस के पक्ष में लहर चल रही थी तो वे चौधरी चरण सिंह की पार्टी 'दलित मजदूर किसान पार्टी' के टिकट पर आगरा से चुनाव लड़े। दूसरी बार 1991 में कांग्रेस विरोधी लहर में कांग्रेस के टिकट पर भिंड से चुनाव लड़ा। दोनों बार ही हार का मुंह देखना पड़ा। उदयन यदि चुनाव जीत जाते तो यकीनन देश को एक ऐसा सांसद मिलता, जो दलितों, अल्पसंख्यकों और वंचितों की मुखर आवाज बनता।
आज जब पत्रकारिता 'मिशन' से 'धन्धा' बन चुकी है, यह देखकर उदयन की आत्मा अगर कहीं है तो जरुर जार-जार रो रही होगी। 1977 में जिस जन पक्षधर पत्रकारिता की शुरुआत उन्होंने एमजे अकबर और स्व0 सुरेन्द्र प्रताप सिंह के साथ मिलकर की थी, आज वह बाजार में बेशर्मी के साथ बिक रही है। पत्रकारिता 'जन पक्षधर' से 'विज्ञापन पक्षधर' हो गयी है। 'पेड न्यूज' के नाम पर कुछ लोग जरुर मुखर हो रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह गयी है। हैरत की बात तो यह है कि 'पेड न्यूज' पर मीडिया कुछ भी दिखाने और लिखने को तैयार नहीं है। पेड न्यूज के बारे जो भी बहस हो रही है, वो केवल मीडिया पोर्टलों पर ही हो रही है। अब सवाल यह है कि मीडिया पोर्टलों के पाठक हैं ही कितने। जो भी हैं, उनमें भी उन पाठकों की तादाद ज्यादा है, जो किसी न किसी रुप से मीडिया से जुड़े हैं। आम आदमी को आज तक यह पता नहीं चल पाया है कि कुछ अखबार और न्यूज चैनल किस तरह से विज्ञापन को खबर बनाकर परोस कर उनके साथ धोखा-धड़ी कर रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आज मीडिया पर विश्वसनीयता का संकट है। अब विज्ञापन विभाग सम्पादकीय पॉलिसी तय करने लगा है। आज भी कुछ लोग 1977 वाली पत्रकारिता करना चाहते हैं, लेकिन उनके सामने इतनी दुश्वारियां खड़ी कर दी जाती हैं कि कुछ हालात से समझौता कर लेते हैं। जो लोग समझौता नहीं करना चाहते, उन्हें हाशिए पर धकेल दिया जाता है। मीडिया को आज उदयन शर्मा, एसपी सिंह और राजेन्द्र माथुर जैसे पत्रकारों की जरुरत है।

Sunday, April 18, 2010

एक दिन का दारोगा एक दिन में ही हुआ हलकान



सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
किस की किस्मत कब और कैसे बदल जाए कुछ पता नहीं चलता। मेरठ शहर के सराय खैर नगर निवासी जिस बालकराम प्रजापति का कल तक कोई नहीं जानता था, चार दिन से मीडिया की सुर्खियों में बने हुए हैं। वजह, मेरठ के डीआईजी अखिल कुमार ने उन्हें एक दिन के लिए एक पुलिस चौकी का इंचार्ज बनने की चुनौती दी और बालक राम ने चुनौती मंजूर कर ली। हुआ यूं था कि 'मानव समाज कल्याण सेवा समिति' नाम से एक संस्था चलाने वाले और निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले 58 साल के समाजसेवी बालकराम प्रजापति ने 15 अप्रैल को डीआईजी से मिलकर पुलिस व्यवस्था सुधारने और जनता के बीच पुलिस की इमेज सुधारने की बात की थी। डीआईजी का कहना था कि जिन हालात में पुलिस काम करती है, उन हालात में ज्यादा कुछ नहीं किया जा सकता है। बालकराम प्रजापति उनकी बात से संतुष्ट नहीं थे। डीआईजी ने बालकराम को यह देखने के लिए कि पुलिस किन हालात में काम करती है। पुलिस के सामने किस प्रकार की दुश्वारियां आती हैं। पुलिस जनता के सामने किस तरह से पेश आती है, एक दिन के लिए एक पुलिस चौकी का इंचार्ज बनाने की पेशकश कर दी। बात के धनी और कुछ कर गुजरने की चाहत रखने वाले बालकराम ने 17 अप्रैल की सुबह दस बजे से और 18 अप्रैल की सुबह दस बजे तक पिलोखेड़ी पुलिस चौकी का इंचार्ज बनना स्वीकार कर लिया।
बालकराम प्रजापति की सोच समाजवादी है। 'मानव सेवा समाज कल्याण समिति' नाम से एक गैर सरकारी संगठन चलाते हैं। बहुत ही ईमानदार आदमी हैं। इसीलिए खटारा स्कूटर पर चलते हैं। वे मल्टीनेशनल कम्पनियों के सख्त खिलाफ हैं। बंगला देश के अर्थशास्त्री युनूस अली से दिल्ली में लम्बी वार्ता कर चुके हैं। अस्सी के दशक में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से भी मिल चुके हैं। हालांकि उनके एक दिन का चौकी इंचार्ज बनने से पहले डीआईजी साहब को फोन करके किसी ने बताया कि बालकराम एक बार जेल जा चुके हैं। उनके पड़ोसी इरशाद अली इस बात का पुरजोर खंडन कहते हुए कहते हैं कि 'उनके बारे में इस तरह की अफवाह उनके विरोधी इसलिए फैला रहें है, ताकि वे चौकी इंचार्ज नहीं बन सकें।' डीआईजी साहब ने बालकराम के साथ एक ज्यादती कर दी। उन्हें उस पुलिस चौकी का इंचार्ज बनाया गया, जिस में शिकायतकर्ताओं की सुबह से शाम तक लाइन लगी रहती है। इस पुलिस चौकी के अर्न्तगत आने वाले मौहल्लों में सट्टा, जुआ, ब्याजखोरी और लड़ाई झगड़ा आम बात है। मेरठ का मशहूर 'कमेला' भी इसी चौकी के अन्तर्गत आता है। बालकराम को लीगल अधिकार भी नहीं दिए गए थे। ऐसा शायद सम्भव भी नहीं था।
17 अप्रैल को बालकराम प्रजापति सुबह अपने पुराने बजाज चेतक स्कूटर से पुलिस चौकी जाने के लिए निकले। स्कूटर की पैट्रोल की टंकी में झांक कर देखा तो टंकी लगभग खाली थी। पहले 20 रुपए का पैट्रोल डलवाने की सोची। फिर पूरा एक लीटर पैट्रोल डलवाया गया। सफारी सूट पहनकर जाने की इच्छा रखते थे, लेकिन सफारी सूट नहीं था। बहरहाल, ठीक नौ बज के पचास मिनट पर बालकराम ने पुलिस चौकी में प्रवेश किया और जाते ही इंचार्ज की कुर्सी सम्भाल ली। जैसा कि अपेक्ष्ित था, फौरन ही बालकराम के सामने शिकायतों का अम्बार लग गया। एक महिला की शिकायत थी कि पुलिस जबरन उसके पति को उठा लायी है। पुलिस ने घर में भी तोड़फोड़ की। एक और महिला का कहना था कि पुलिस उसके बेटे को पुलिस उठा लाई है। एक शिकायत में कहा गया कि स्कूटर चोरी की रिपोर्ट लिखने 500 रुपए मांगे गए। मजे की बात यह रही कि थोड़ी ही देर में बालकराम की भी भाषा बदल गयी। वह भी पुलिस की भाषा बोलने लगे। उन्होंने लोगों को अपने कर्त्तव्य निभाने की सलाह दी। इसी दौरान बालकराम ने एक दम्पति के आपसी मनमुटाव को उन्होंने दूर करके दम्पति को घर वापस भेज दिया। बालकराम ने क्षेत्र का दौरा भी किया। रात को दबिश डालने भी पुलिस के साथ गए। इतनी गनीमत रही कि पुलिस उन्हें अपने साथ यह दिखाने नहीं ले गयी कि पुलिस 'एनकाउंटर' कैसे करती है।
एक दिन का चौकी इंचार्ज बनने पर बालकराम को पता चल ही गया कि पुलिस को चौबीस घंटे भागना-दौड़ना पड़ता है। कम संसाधन और विपरीत परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। उन्हें मानना पड़ा कि पुलिस वालों को भी आराम की जरुरत होती है। एक दिन का दारोग बालकराम एक दिन में ही 'हलकान' हो गया। बालकराम को यह भी पता चला कि शिकायतकर्ता फौरन यह चाहता है कि जिसकी शिकायत लेकर वह आया है, उसको पुलिस बस फौरन बिना की जांच के लॉकअप में डाल दे। बालकराम के इल्म में यह भी आया कि कुछ शिकायतें झूठी भी होती हैं। हालांकि ऐसा होता भी है कि पुलिस किसी एक पार्टी से पैसा खाकर झूठे मुकदमे लिखती है। बालकराम जानते होंगे कि जो थानेदार अपनी चौकी या थाने में रिश्वत लेने नहीं देता, ईमानदारी से काम करता है, उस थानेदार के मातहत ही जल्दी से जल्दी उसका बोरिया बिस्तर बंधवाने की जुगत में लग जाते हैं। पुलिस वाले अक्सर अपने सीनियर के बारे में कहते हुए मिल जाते हैं- 'साला ना खुद खाता है ना हमें खाने देता है, पता नहीं कब दफान होगा यहां से।' बालकराम एक दिन के लिए चौकी इंचार्ज बने थे। एक दिन में वह कोई बदलाव ला पाते यह मुमकिन नहीं था। बालकराम ही क्यों, एक दिन में कोई भी कुछ नहीं कर सकता है। सच तो यह है कि कई सालों तक भी कोशिश की जाए तो इस सड़े-गले 'सिस्टम' को कोई नहीं तोड़ सकता। क्योंकि पुलिस और पब्लिक इस सिस्टम के इतने आदी हो चुके हैं, इसमें इतना रम चुके हैं कि यही सही 'सिस्टम' लगने लगा है। अपनी एक रिपोर्ट में आनंद नारायण मुल्ला यह कह चुके हैं कि 'पुलिस संगठित अपराधियों का गिरोह है।' अपराधियों के इस गिरोह को इसलिए ढील दी जाती है, ताकि राजनीतिज्ञ और सरकारें अपने हित में इस गिरोह का इस्तेमाल कर सकें। पुलिस में सुधार के लिए कई आयोग बने, लेकिन उनकी रिपोर्ट पर कभी भी अमल नहीं किया गया। भारत में आज भी 1861 में बना पुलिस एक्ट ही चलता है। ब्रिटिश हुकूतम ने इस एक्ट को 1857 के गदर के बाद भारतीयों पर जुल्म और ज्यादती करने के लिए लागू किया था। आजादी के बाद हमारे देश के नेता इस एक्ट को खत्म करने को तैयार नहीं है।
इस एक दिन के तमाशे के पीछे डीआईजी साहब की क्या मंशा होगी, यह तो वही जानते होंगे। इस तरह के ड्रामे 'नायक' सरीखी फिल्मों में ही हो सकते हैं। फिल्म में कलाकार एक लिखी-लिखाई स्क्रिप्ट पर काम करते हैं। लेकिन यहां बालकराम ने अपनी स्क्रिप्ट खुद लिखी। हो सकता है कि डीआईजी को 'नायक' फिल्म से ही यह सब ड्रामा करने की प्रेरणा मिली हो। कुछ भी हो बालकराम प्रजापति चार दिन में ही 'आम' से 'खास' आदमी तो हो ही गए हैं। एक बार कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने राज्य के एक भिश्ती को एक दिन का बादशाह बना दिया था। उस भिश्ती ने उसी दिन चमड़े का सिक्का चलाया था। इसी तरह मेरठ के इतिहास में भी यह दर्ज हो गया है कि बालकराम प्रजापति एक दिन के पुलिस चौकी इंचार्ज बने थे। लेकिन भिश्ती की तरह बालकराम के हाथ खुले नहीं थे, बंधे हुए थे।

Wednesday, April 14, 2010

क्या अपने ही देश के लोगों के खिलाफ सेना का इस

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलवादियों द्वारा 76 सीआरपीएफ जवानों की घात लगाकर की गयी हत्याओं के बाद बहस इस बात पर तो हो रही हैं कि सीआरपीएफ जवानों की हत्याएं किस की गलती से हुईं। इस बात पर बहस नहीं हो रही कि आखिर नक्सलवाद ने अपनी जड़ें इतने गहरे कैसे जमा लीं कि अब उनसे निपटना कठिन हो गया है। नक्सलवाद को इस स्थिति तक लाने का जिम्मेदार कौन ? हमारे देश की बहुत बड़ी त्रासदी है कि यहां समस्याओं को पहले इत्मीनान से फलने-फूलने दिया जाता है, और जब समस्या विकट हो जाती है तो समस्या को 'तोप' दाग कर हल करने की कोशिश की जाती है। इसलिए समस्या सुलझने के बजाय और ज्यादा उलझ जाती है। समस्या चाहे किसी शहर की सड़कों पर अतिक्रमण की स्थानीय हो या आतंकवाद या नक्सलवाद जैसे गम्भीर राष्ट्रीय हो। 1980 के दशक में जब स्वर्ण मंदिर को आतंकवादियों ने अपना अड्डा बना लिया तो महज राजनैतिक फायदे के लिए उसको बढ़ने दिया गया। जब समस्या हद से ज्यादा बढ़ गयी तो समाधान सेना को करना पड़ा। उस समाधान की देश को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी, इसे पूरा देश जानता है। कुछ लोग नक्सल समस्या को भी पंजाब समस्या की तर्ज पर हल करने की वकालत कर हैं। ऐसे सुझाव देने वालों पर केवल हंसा जा सकता है। ऐसे लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि पंजाब में आतंकवाद केवल एक प्रदेश तक सिमटा हुआ था। नक्सलवाद कई प्रदेशों के बड़े हिस्सों को चपेट में ले चुका है। नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में सेना का इस्तेमाल अपने ही देश के लोगों से युद्ध करना सरीखा होगा। अभी भी नक्सलवादियों के विरुद्ध चलाया जा रहा कथित 'ऑप्रेशन ग्रीन हंट' नक्सलवादियों के खिलाफ युद्ध सरीखा ही तो है। सेना के इस्तेमाल से केवल इतना होगा कि युद्ध का विस्तार थोड़ा और ज्यादा हो जाएगा। जब युद्ध होगा तो लोग तो मारे ही जाएंगे। मरने वालों में दोनों ही तरफ के ही लोग होंगे। सवाल यह है कि क्या अपने ही देश के लोगों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल करना नैतिक रुप से सही होगा ?
देश का अभिजात्य वर्ग इस बात की बहुत वकालत करता है कि नक्सली बंदूकें छोड़कर लोकतान्त्रिक तरीक से संसद और विधानसभाओं में चुनकर आएं और अपनी बात कहें। ये लोग किस लोकतन्त्र की बात करते हैं ? उस लोकतन्त्र की जिसमें एक मुख्यमंत्री हजारों बेगुनाह लोगों को मरवाने के बाद भी एक प्रदेश का तीन बार मुख्यमंत्री बना रह सकता है ? दूसरे मुख्यमंत्री चारा घोटाला में दोषी ठहराए जाने के बाद सत्ता अपने परिवार को सौंपकर जेल काटता है। तीसरी मुख्यमंत्री मूर्तियां तराशने और भव्य पार्क बनाने के नाम पर अरबों रुपए स्वाहा कर देती हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से भी तो विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के लोग संसद और विधानसभा में जाते हैं, उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए आज तक क्या किया है, इसका लेखा-जोखा भी देश की जनता के सामने आना चाहिए। यह भी देश को पता चलना चाहिए कि कैसे बड़े पूंजीपतियों ने आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन से बेदखल करके अपना कब्जा कर लिया है। नक्सलवाद को बलपूर्वक कुचलने की बात करने वाले यह क्यों नहीं सोच रहे कि नक्सलवाद को पनपाने में सरकार की भ्रष्ट नौकरशाही भी बराबर की जिम्मेदार है। जब झारखंड जैसे प्रदेश का मुख्यमंत्री मधुकोड़ा केवल दो साल में चार हजार करोड़ रुपए की काली कमाई करेगा तो नक्सलवाद नहीं तो क्या रामराज्य पनपेगा ? सरकार की बंदूकें भ्रष्ट नौकरशाहों और नेताओं की तरफ क्यों नहीं उठतीं ? क्यों उनके गुनाहों को जांच दर जांच में उलझाकर भुला दिया जाता है ? दो जून की रोटी की मांग करने वालों के ही सीने में गोलियां उतारने की बात क्यों की जाती है ? नक्सलवाद को कुचलने की बात करने वालों को पहले भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण और आर्थिक विषमता के खिलाफ भी तो मुहिम चलानी चाहिए।
नक्सलवाद तो बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के पिछड़े और आदिवासी इलाकों में है, लेकिन क्या हालात ऐसे नहीं बनते जा रहे हैं कि अब नक्सलवाद का विचार उन राज्यों और शहरों के लोगों को भी अच्छा लगने लगा है, जो साधन सम्पन्न कहलाते हैं। शोषण, अत्याचार और असमानता देखने के लिए नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में जाने की जरुरत नहीं है। साधन सम्पन्न समझे जाने वाले प्रदेशों में भी सरकार, नेता और पुलिस अपनी मनमानी करती है। उदहारण के लिए सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों का सारा राशन ब्लैक में बिक जाता है। उस राशन को लेने का हकदार बस देखता रहता है। यदि किसी ने हिम्मत करके दुकानदार की शिकायत अधिकाारियों से कर दी तो राशन की दुकान वाले का तो कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन शिकायतकर्ता की मुसीबत आ जाती है। नोएडा की खबर है कि गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले लोगों के लिए बनने वाले बीपीएल राशन कार्ड करोड़पतियों ने बनवा रखे हैं, वास्तविक हकदार तहसील और खाद्य आपूर्ति विभाग के चक्कर काट रहे हैं, जहां उन्हें दुत्कार के अलावा कुछ नहीं मिलता। प्राइवेट नर्सिंग होम लूट के अड्डों में तो सरकारी अस्पताल बूचड़खानों में तब्दील हो गए हैं। वेस्ट यूपी में ही आए दिन आर्थिक तंगी, कर्ज और बीमार होने पर इलाज न होने पर आत्महत्या करने की खबरें छपती हैं। मेरठ में पिछले सप्ताह एक महिला ने अपने तीन बच्चों के साथ इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसका पति एक फैक्टरी में मात्र 2500 रुपयों की नौकरी करता था। इतने पैसों में दो वक्त की रोटी खाना भी दुश्वार था। इन आत्महत्या करने वालों में कितने ही लोग ऐसे होंगे, जो मौजूदा सिस्टम से नाखुश होते होंगे। लेकिन उनमे इतनी ताकत नहीं होती कि वे कुछ कर सकें। इसलिए उन्हें मौत ही एकमात्र आसान रास्ता लगता है। लेकिन भविष्य में कुछ लोग ऐसे भी तो सामने आ सकते हैं, जो सिस्टम के खिलाफ उठ खड़े होने का हौसला रख सकते हैं। कल उनके बीच भी तो कोई कोबाड गांधी आ सकता है।
दंतेवाड़ा में मारे गए जवानों को श्रंद्धाजलि देने के लिए मोमबत्तियों जलाना ही काफी नहीं है। झारखंड के मुख्यमंत्री मधुकोड़ा जैसे लोगों की काली कमाई को उनसे छीनकर उसे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के विकास में लगाया जाए। यह भी शहीद हुए जवानों को एक श्रंद्धाजलि होगी। एक सच्ची श्रद्धांजलि।

Saturday, April 10, 2010

मीडिया की शर्मनाक हरकत

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मीडिया अपनी टीआरपी की हवस में किसी भी हद तक जा सकता है। खासतौर से इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो जैसे सारी नैतिकता ही खत्म कर दी है। सानिया ने एक पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब मलिक से शादी करने का फैसला क्या लिया पूरा मीडिया सानिया और शोएब मलिक की निजी जिन्दगी में दखलअंदाजी कर बैठा।
उस पर आएशा सिद्दीकी नाम का एक कोण जुड़ जाने से मामले को और ज्यादा मसालेदार बनाने का मौका भी हाथ आ गया। ऐसा लगा जैसे मीडिया के पास सानिया-शोएब-आएशा के अलावा कोई मुद्दा नहीं रहा। सानिया जैसी सेलेब्रेटी हो या आम आदमी, उसकी जिन्दगी में कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जो बहुत निजी होती है। शादी भी ऐसा ही निजी मामला है। लेकिन मीडिया शादी जैसे निजी मामले को भी टीआरपी बटोरने का हथियार मानकर बेतुकी बातों पर ध्यान दे रहा है। हद तो जब हो गयी, जब इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने ऐसी क्लिपिंग दिखायी, जिसमें शोएब और सानिया एक कमरे में बातें कर रहे थे। मीडिया की यह हरकत क्या शर्मनाक नहीं कही जाएगी ? लोगों के कमरों में में झांकने का हक मीडिया को कैसे है ? जैसे इतना ही काफी नहीं था।
अब ऐसा लगता है कि मीडिया ने सानिया-शोएब की शादी को भी 'बेचने' का पूरा-पूरा इन्तजाम कर लिया है। सानिया अपनी शादी के दिन कौनसा लहंगा पहनेगी ? उसकी कीमत क्या होगी ? उसे कौन फैशन डिजाइनर डिजाइन कर रहा है ? शादी में कौन-कौन मेहमान रहेगा ? शादी का वैन्यू और मेन्यू क्या होगा ? कौन खानसामा खाना तैयार करेगा ? सानिया और शोएब अपना हनीमून कहां मनाने जाएंगे ? इन सब सवालों पर मीडिया अब 15 अप्रैल तक माथापच्ची करेगा। सवाल यह है कि मीडिया को ऐसा क्यों करना चाहिए ? क्या एक सेलेब्रेटी को अपनी शादी को अपनी मर्जी से करने का हक नहीं है ? एक सेलेब्रेटी को अपनी शादी का तमाशा क्यों बनने देना चाहिए ? मीडिया में भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो सेलेब्रेटी हैं, क्या वे चाहेंगे कि उनकी अपनी या उनकी सन्तान की शादी को भी टीआरपी बटोरने का हथियार बना दिया जाए ? सानिया मिर्जा हो या कोई और सेलेब्रेटी, बात उसके प्रोफेशन की होनी चाहिए, शादी जैसे निजि मामले की नहीं।
मीडिया ने तो खैर इस बात पर हायतौबा नहीं मचायी कि सानिया एक पाकिस्तानी से शादी क्यों कर रही है, लेकिन कुछ लोगों को सानिया का एक पाकिस्तानी से शादी करना बिल्कुल रास नहीं आ रहा है। इस पर कुतर्क दिया जा रहा है कि क्योंकि पाकिस्तान हमारा 'दुश्मन' देश है, इसलिए सानिया को शोएब मलिक से शादी नहीं करनी चाहिए। समझ नहीं आता कि पाकिस्तान 'दुश्मन' देश किस तरह है ? क्या भारत और पाकिस्तान के एक दूसरे के देश में दूतावास नहीं हैं ? क्या दोनों के बीच व्यापारिक सम्बन्ध नहीं हैं ? क्या दोनों देशों के लोग एक दूसरे मुल्क में नहीं जाते ? यदि पाकिस्तान दुश्मन देश होता तो क्या पाकिस्तान के कलाकार भारत आकर टेलीविजन पर अपने प्रोग्राम दे सकते थे ? क्या शोएब मलिक भारत आकर शादी करने की सोच सकते थे ? क्या सानिया मिर्जा दुल्हन बनकर पाकिस्तान जा सकती थीं ? जो लोग पाकिस्तान को दुश्मन देश कह रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि दुश्मन देश वह होता है, जिससे किसी भी प्रकार के सम्बन्ध नहीं होते। पाकिस्तान को अघोषित रुप से दुश्मन देश तो समझा जा सकता है, लेकिन घोषित रुप से पाकिस्तान हमारा दुश्मन नहीं है।
कुछ लोग पाकिस्तान में सानिया की भावी जिन्दगी को लेकर शंका जाहिर कर रहे हैं। उदाहरण दिया जा रहा है रीना रॉय का। सवाल यह है कि क्या दुनिया में सभी शादियां सफल ही होती हैं ? मत भूलिए कि हमारे देश की बहुत सारी लड़कियों की शादी ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका में भी होती है। जन्मपत्री से कुंडली मिलाकर रिश्ता तय होता है। शुभ मुहूर्त में लग्न होता है। क्या ब्रिटेन और अमेरिका से खबरें नहीं आती कि किस तरह भारत से शादी होकर जाने वाली लड़कियों की जिन्दगी को नरक बना दिया जाता है। पश्चिमी देशों में तो परदा पर्था भी नहीं है। सभी तथाकथित प्रगतिशील और खुले विचारों के लोग है। फिर उन देशों में हमारे देश की लड़कियां क्यों खुश नहीं रह पाती हैं ? याद रखिए बहुत ज्यादा खुलापन और प्रगतिषीलता भी अच्छी नहीं होती है। पष्चिमी देषों में यदि भारत की लड़कियों को नौकरानी बनाकर रखने की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती है तो इसका कारण यह है कि भारत की लड़कियां पष्चिमी देषों के खुलेपन को अपना नहीं पातीं।

Tuesday, April 6, 2010

वीएम सिंह की गिरफ्तारी अलोकतांत्रिक


सलीम अख्तर सिद्दीकी
अब इस देश में गरीबों, किसानों और वंचितों की हक की लड़ाई लड़ना भी इतना बड़ा गुनाह हो गया है कि लड़ाई लड़ने वालों सामाजिक कार्यकर्ताओं पर संगीन धाराओं में मुकदमे लगाकर जेल में ठूंस दिया जाता है। किसान मजदूर संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रसिद्ध किसान नेता वीएम सिंह की गिरफ्तारी तो यही बताती है। यहां यह बताना उल्लेखनीय होगा कि पीलीभीत उत्तर प्रदेष के वीएम सिंह सड़क से लेकर कोर्ट तक किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम दिलाने की लड़ाई लड़ते रहे हैं। पिछले साल उन्होंने गन्ना उत्पादक किसानों को उनकी उपज का वाजिब दिलाने में कामयाबी हासिल की थी। अब वह अनाज मंडियों द्वारा गेंहूं के सरकारी समर्थन मूल्य से कम मूल्य पर गेंहूं खरीदे जाने के विरुद्ध आंदोलन कर रहे थे। इसी सिलसिले में वीएम सिंह 4 अप्रैल को हजारा थाना क्षेत्र के राहुल नगर में किसानों की एक बड़ी सभा को सम्बोधित करने जाने वाले थे। लेकिन इससे पहले ही सुबह चार बजे बसपा सरकार की 'बहादुर' पुलिस ने वीएम सिंह पर संगीन धाराओं में मुकदमा दायर करके उन्हें जेल भेज दिया।
वीएम सिंह अपवाद नहीं हैं। सच तो यह है कि अब अन्याय, शोषण और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वालों की लड़ाई को कुन्द करने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओ को झूठे मुकदमों में फंसा देना, उनकी पिटाई करना आम बात हो गयी है। कई बार तो हक की लड़ाई लड़ने वालों के साथ अपराधियों से भी बुरा सलूक किया जाता है। अब अहिंसक रुप से आंदोलन चलाने से सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। लेकिन जब आन्दोलन उग्र हो जाता है तो सरकार की बहादुर पुलिस आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाने से भी गुरेज नहीं करती। उस पर तुर्रा यह कि कसूरवार पुलिस का बाल भी बांका नहीं होता। कभी कभी तो लगता है कि हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें ब्रिटिश सरकार से भी ज्यादा असंवेदनशीलता का मुजाहिरा करती हैं। वीएम सिंह तो कोई हिंसक आंदोलन भी नहीं चला रहे थे। मात्र धरना-प्रदर्शन करने से ही सरकार बौखला गयी। दरअसल, हमने लोकतंत्र का मतलब केवल वोटों के सहारे सरकारें बदलना ही समझ लिया है। वीएम सिंह की गिरफ्तारी सरकार का निहायत ही अलोकतांत्रिक कदम है। सरकार को उन्हें जल्द से जल्द बिना शर्त रिहा करना चाहिए।

Friday, April 2, 2010

सानिया को क्यों बनाते हो 'सनसनी'

सलीम अख्तर सिद्दीकी

सानिया मिर्जा किससे शादी करेगी। किससे नहीं करेगी। यह सानिया की मर्जी पर निर्भर है। वह बालिग है। अपना बुरा भला सोच सकती है। देश का कानून भी साफ कहता है कि एक बालिग युवक या युवती अपनी मर्जी से किसी से भी शादी कर सकता है। लेकिन यह भारत है। यहां बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना भी हो सकता है और परेशान भी। आजकल भारत में ऐसे बहुत सारे अब्दुल्ला हैं, जो सानिया की शादी से परेशान हो गए हैं। पाकिस्तान का कोई मामला हो और उसमें शिवसेना अपनी टांग न अड़ाए ऐसा हो ही नहीं सकता।
पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब मलिक और टेनिस स्टार सानिया मिर्जा की शादी में भी शिवसेना ने अपनी टांग घुसेड़ दी है। इधर सपा नेता अबू आजमी भी पगला गए लगते हैं। उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि मैं शयोब मलिक की कभी तरफदारी नहीं कर सकता। वह कहते हैं कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच में मैं यह दुआ करुंगा कि मलिक जीरो पर आउट हो जाएं, और पाकिस्तानी टीम हार जाए। ऐसा लगता है कि अबू आजमी खेलों को सद्भावना की नजर से नहीं दुर्भावना की नजर से देखते हैं। अगर शयोब मलिक अच्छी बल्लेबाजी करेगा तो हमें क्यों अपनी सूरत पर बारह बजा लेने चाहिए ? जो अच्छा खेलेगा उसकी तारीफ तो करनी ही पड़ेगी। अब उसमें शयोब मलिक हों या सचिन तेंदुलकर। इससे क्या फर्क पड़ता है। हमारा मानना तो यह है कि खेल दो देशों के बीच सद्भावना कायम रखने के लिए खेले जाते हैं, दुश्मनी बढ़ाने के लिए नहीं। यदि खेलों से दो देशों के बीच दूरियां बढ़ती हैं तो ना खेलना ही बेहतर है।
अबू आजमी के बेटे फरहान आजमी ने हाल ही में एक फिल्म अभिनेत्री आयशा टाकिया से शादी की है। क्या किसी ने सवाल किया कि आपके बेटे ने एक 'नाचने-गाने' वाली लड़की से शादी क्यों की है। पूछने का मतलब भी नहीं है। क्योंकि यह आपके बेटे और आपके परिवार का मामला था। इसमें किसी को दखलअंदाजी करने का मतलब ही पैदा नहीं होता। इसी तरह सानिया मिर्जा और शयोब मलिक के परिवार राजी हैं तो अबू आजमी के पेट में दर्द क्यों हो रहा है ? 1978 के बाद से अब तक हजारों लड़कियों की शादी पाकिस्तान में हो चुकी है। यहां तक की फिल्म अभिनेत्री रीना रॉय भी पाकिस्तानी क्रिकेटर मोहसिन खान से शाद करके पाकिस्तान में रह चुकी हैं। उस वक्त तो किसी ने यह नहीं पूछा कि आप पाकिस्तान की हिमायत करेंगी या पाकिस्तान की ? सानिया मिर्जा से यह सवाल क्यों पूछा जा रहा है ?
शादी होने के बाद सानिया क्या फैसला लेती है, यह उस ही छोड़ दें तो बेहतर है। यहां यह बताना भी उल्लेखनीय हैं कि भारतीय मूल के कई लोग दूसरे देशों में जाकर भारत के खिलाफ खेल चुके हैं। मसलन, इंग्लैंड के पूर्व कप्तान नासिर हुसैन भारतीय मूल के होते हुए भी इंग्लैंड के कप्तान बने और भारत के खिलाफ खेले। शादी के बाद सानिया मिर्जा को भी पाकिस्तान की नागरिकता मिल जाएगी। पाकिस्तान की नागरिक होने के बाद यदि वे पाकिस्तान की तरफ से खेलती हैं, तो क्यों किसी को आपत्ति होनी चाहिए ? अभी सवाल यह भी है कि शादी के बाद वे टेनिस खेलना जारी रखती हैं या नहीं ? अभी सवाल यह भी है कि क्या पाकिस्तान के मुल्ला, जैसा कि कहा भी जाने लगा है, टेनिस खेलने की ड्रेस में सानिया को खेलने की इजाजत देते हैं या नहीं ? भारत में कुछ उलेमा उनकी ड्रेस पर उंगली उठा चुके हैं। हालांकि उलेमाओं का उनकी ड्रेस पर उंगली कतई सही नहीं है। हर खेल का एक ड्रेस होता है। यदि उस खेल का खेलना है तो ड्रेस कोड का पालन तो करना ही पड़ेगा।
इधर, शिवसेना ने भी इस मुद्दे पर अपनी त्योरियों चढ़ा ली हैं। शिवसेना के मुखपत्र हिन्दी 'सामना' के सम्पादक प्रेम शुक्ल एक न्यूज चैनल पर सानिया और शयोब मलिक पर अपनी भड़ास निकाल रहे थे। शिवसेना को तो माफ किया जा सकता है, क्योंकि उनकी रोजी-रोटी तो चलती ही है नफरतों के सहारे। पाकिस्तान का विरोध उसका सबसे प्रिय शगल है। यह अलग बात है कि शिवसेना दाउद इब्राहीम के समधी जावेद मियांदाद को 'मातोश्री' में बुलाकर उनकी सेवा करके अपने 'धन्य' मानती है। शिवसेना की सहयोगी भाजपा के नेता और प्रसिद्ध अभिनेता रह चुके शत्रुघ्न सिन्हा एक बार पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जिया-उल-हक के खास मेहमान रह चुके हैं। टेनिस सनसनी की शादी को 'सनसनी' मत बनाइए। सानिया को अपनी जिन्दगी उनकी मर्जी से जीने दीजिए।

कमाल है ! मोदी को भी भगवान याद आ गए

सलीम अख्तर सिद्दीकी
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी आजकल सुर्खियों में हैं। नरेन्द्र मोदी जब से गुजरात दंगों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित विशेष जांच दल के सामने पेश हुए हैं, तब से वे कुछ अजीब सी बातें करने लगे हैं। मसलन, उन्होंने कहा कि वे एसआईटी के बुलाने पर उसके सामने इसलिए पेश हुए हैं, क्योंकि वे कानून का आदर करते हैं। यह भी कहा कि पिछले आठ सालों से मीडिया के कठघरे में खड़ा हूं। उनका यह भी कहना है कि एसआईटी की पूछताछ उनके लिए कठिन क्षण था। उन्होंने भगवान से आत्मबल देने की प्रार्थना भी की है। उन्होंने यह भी कहा है कि उन्होंने गोधरा दंगों का विरोध किया था।
पता नहीं नरेन्द्र मोदी कानून का सम्मान कब से करने लगे हैं। 2002 में जब गुजरात जल रहा था, पूरे गुजरात में कानून नाम की चीज खत्म हो गयी थी। सिर्फ नरेन्द्र मोदी का ही कानून चलता था। यदि मोदी कानून का इतना ही सम्मान करने वाले होते तो गुजरात पूरी दुनिया में बदनाम नहीं होता। अरबों रुपयों की सम्पत्ति बच जाती और हजारों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना नहीं पड़ता। पिछले आठ सालों से मीडिया उन्हें कठघरे में भी खड़ा नहीं करता। वैसे उन्हें पता होना चाहिए कि उन्हें केवल मीडिया ने ही कठघरे में खड़ा नहीं कर रखा है, उन्हें हर वो आदमी कठघरे में खड़ा करता है, जो मानवतावादी है, धर्मनिरपेक्ष है और सही मायनों में राष्ट्रवादी है। लेकिन उन्होंने उस वक्त किसी की नहीं सुनी क्योंकि उस वक्त तो उनके शरीर में जनरल डायर, हिटलर और ईदी अमीन की आत्मा प्रवेश कर गयी थी। उनका आचरण एक तानाशाह सरीखा हो गया था। उस वक्त गुजरात में वही हुआ था, जो मोदी चाहते थे। गुजरात में भारतीय कानून गौण और 'मोदीत्व' कानून ही चलता था। अल्पसंख्यकों के लिए तो आज भी मोदी का ही कानून चलता है। उनका सीना भी 46 इंच का हो गया था। जरा याद किजिए, जब वह गर्व से कहते थे कि गुजरात बनाने कि लिए 46 इंच का चौड़ा सीना चाहिए।
कितनी अजीब बात है कि 46 इंच का सीना रखने वाले नरेन्द्र मोदी को एसआईटी के सामने पेश होने में पसीना आ गया। पूछताछ के वक्त उनका सीना 46 से 36 इंच हुआ या नहीं यह तो नहीं पता, लेकिन इतना तो हुआ कि उन्हें कठिन क्षण में भगवान याद आ गए और भगवान से और अधिक आत्मबल देने की प्रार्थना करने लगे। काश! वे घरों को आग लगाने वाले, जीवित लोगों को आग में झोंकने वाले दंगाईयों को काबू करने के लिए भगवान से आत्मबल देने की प्रार्थना कर लेते तो शायद आज उन्हें एसआईटी के सामने पेश नहीं होना पड़ता और लोगों की नफरतों को नहीं झेलते। मात्र एसआईटी के सामने पेश होने से ही कठिन क्षण की बात करने वाले नरेन्द्र मोदी को पता होना चाहिए कि गुजरात के अल्पसंख्यकों ने कैसे अपने वे बुरे दिन गुजारे होंगे। मोदी ने तो मात्र नौ घंटे ही एसआईटी के सामने गुजारे हैं। मोदी के सताए हुए लोग तो अब तक कठिन क्षण नहीं दिन, महीने और साल गुजार रहे हैं।
अब कुछ लोग यही प्रलाप करेंगे कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में रामसेवकों को जिन्दा नहीं जलाया जाता तो गुजरात में वह सब कुछ नहीं होता जो हुआ था। सवाल यह है कि क्या इतनी बड़ी घटना के कुछ धंटों बाद ही इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एस 6 कोच में किन लोगों ने आग लगायी है ? हालांकि बाद में कई जांच आयोगों ने अपनी रिपोर्ट में यह खुलासा किया है कि एस 6 कोच में आग अन्दर से लगी थी, बाहर से आग लगाना सम्भव नहीं था। चलिए माने लेते हैं कि एस 6 कोच में आग मुसलमानों ने ही लगायी थी। ऐसा होने पर भी क्या जिम्मेदार लोगों को पकड़ने के बजाय ेबेकसूर लोगों को जिन्दा आग में झोंक देना सही था ? क्या बाबरी मस्जिद विध्वंस बाद हुए मुंबई के मुस्लिम विरोधी दंगों की प्रतिक्रिया में मार्च 1993 के मुंबई बम धमाकों को भी सही ठहराया जा सकता है ? क्या इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों का कत्लेआम सही था ? मोदी ने 'क्रिया की प्रतिक्रिया' का जो सिद्वान्त घड़ा था, उस सिद्वान्त के आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि मुंबई के बम धमाके और सिखों का कत्लेआम सही था। मोदी के चेले आज भी इसी सिद्वान्त को बार-बार दोहराकर कुतर्क देने से बाज नहीं आते हैं। सच तो यह है कि किसी सम्प्रदाय के कुछ लोगों की गलत हरकतों की वजह से पूरे समुदाय को कठघरे में खड़ा करना हद दर्जे की बेवकूफी है। 'क्रिया की प्रतिक्रिया' का सिद्वान्त लागू किया जाएगा तो फिर कानून नाम की चीज कहां रह जाएगी ? मत भूलिए हम एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश के सुसंस्कृत और सभ्य नागरिक हैं। जो कुछ 1984 में सिखों के साथ हुआ था। जो मार्च 1993 में मुंबई में हुआ था और जो कुछ गुजरात में हुआ था, वह सब वहशीपन और पागलपन के अलावा कुछ नहीं था।