Saturday, January 30, 2010

'चौथी दुनिया' यानि प्रिन्ट मीडिया का 'इंडिया टीवी'


सलीम अख्तर सिद्दीकी
मोसाद और सीआईए ने हिन्ुस्तान को बर्बाद और टुकड़ों में बांटने के लिए 'स्माइल इंडिया 2015' प्लान बनाया है। इस प्लान के तहत आने वाले समय में देश के नामचीन लोगों के चरित्र हनन, हिन्दु-मुस्लिम दंगों और बड़े लोगों की हत्याओं का दौर शुरु किया जाएगा, जिससे पूरे देश में अफरा-तफरी का माहौल पैदा होगा। हालात 1947 सरीखे हो जाएंगे। देश को 31 भागों में बांटने की साजिश हो रही है। हालात पर काबू पाने के लिए अमेरिका भारत को गुलाम बना लेगा। आदि-आदि। यह भी कि इस काम के लिए सीआईए ने देश के बड़े-बड़े और असरदार लोगों को मुंहमांगी कीमत पर खरीद लिया है।
उपरोक्त बातें किसी सुरेन्द्र मोहन पाठक या वेदप्रकाश शर्मा के जासूसी उपन्यास के कथानक का हिस्सा नहीं हैं। ये सब देश का पहला साप्ताहिक अखबार कहे वाला 'चौथी दुनिया' अपने पिछले तीन अंकों में लिखता आ रहा है। अखबार जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहा है, उससे दहशत और सिहरन पैदा होती है। इन सब बातों को लिखने के लिए अखबार का क्या उद्देश्य है, यह तो अखबार का सम्पादक जानें, हमारा सवाल यह है कि इन सब बातों का आखिर आधार क्या ? जहां तक सीआईए और मोसाद की भारत में दखअंदाजी की बात है तो उसमें नई बात भी कुछ नहीं है। यह विदित ही है कि सीआईए और मौसाद के एजेण्ट किसी-न-किसी रुप में दूसरे देशों में मौजूद रहते ही हैं। सीआईए और मोसाद ही क्यों, क्या रुस की खुफिया एजेंसी केजीबी के अस्तित्व को भारत में नकारा जा सकता है ? अखबार ने जिस तरह से भारत के भविष्य का चित्रण किया है, उससे लगता है कि अखबार का मकसद केवल सनसनी फैलाने के अलावा कुछ नहीं है। चौथी दुनिया' की रिपोर्ट क्या ऐसी नहीं है, जिसमें यह कहा जाता है कि 2012 में दुनिया का अस्तित्व खत्म हो जाएगा ? क्या 'चौथी दुनिया' प्रिंट मीडिया का 'इंडिया टीवी' बनने की ओर बढ़ रहा है ?
यदि किसी अखबार में इस तरह की रिपोर्ट 80 और 90 के दशक में आती तो शायद लोग उस पर यकीन भी कर लेते। क्योंकि उस दौर में भयानक साम्प्रदायिक दंगे हुए थे। राम मंदिर आंदोनल उग्र रुप लिए हुए था। मंडल कमीशन की वजह से पूरे देश में आग लगी हुई थी। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या भी इन्हीं दशकों में हुई थीं। कोई केन्द्र सरकार स्थिरता से काम नहीं कर सकी थी। देश की आर्थिक स्थिति बेहद खराब थी। चन्द्रशेखर सरकार को देश का सोना गिरवी रखना पड़ा था। यह वह दौर था, जिसे कहा जा सकता था कि देश अस्थिरता की और बढ़ रहा है। 26/11 तक आतंकवादी हमलों की बाढ़ आई हुई थी। लेकिन बीता 2009 काफी हद तक पूरसकून गुजरा है। ऐसे में 'चौथी दुनिया' की रिपोर्टें गले से नहीं उतरती हैं। यदि रिपोर्ट को सही मान भी लिया जाए तो क्या देश में होने वाले बम धमाके और 26/11 की घटना सीआईए और मोसाद की करतूत थी ? जैसा कि कुछ लोग शक करते हैं, क्या 9/ 11 का हादसा मोसाद की देन था ? क्या साध्वी प्रज्ञा सिंह और कर्नल पुरोहित सीआईए और मोसाद के इशारे पर काम कर रहे थे ? क्या हेडली और तहव्वुर राणा सीआईए के एजेन्ट हैं ?
'चौथी दुनिया' ने इस बात को बहुत प्रमुखता से कहा है कि आने वाले समय में कुछ बड़े सम्पादकों, नेताओं और उच्च अधिकारियों का चरित्र हनन करने के लिए उनकी अश्लील सीडी बनायी जा सकती हैं। तो क्या एनडी तिवारी की अश्लील सीडी इसी सिलसिले की कड़ी है ? क्या भाजपा के बंगारु लक्षमण की रिश्वत लेते बनी सीडी भी सीआईए की करतूत थी ? सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत को बर्बाद करने में सीआईए और मोसाद का क्या फायदा होने वाला है ? अमेरिका तो पहले ही अफगानिस्तान और इराक में फंसा हुआ है। अफगानिस्तान और इराक जैसे कमजोर और छिन्न-भिन्न देशों पर ही उसका बस नहीं चल रहा है। अमेरिका दोनों देशों से किसी भी सूरत में बाहर आने की जुगत में लगा हुआ है। इन दोनों देशों में अमेरिका आतंवाद के खिलाफ जंग में पता नहीं कितने ट्रिलियन डालर झोंक चुका है, जिसके चलते उसकी आर्थिक स्थिति भी डांवाडोल होने लगी है। भारत बहुत बड़ा देश है। यहां पर अमेरिका की सीआईए क्या कर लेगी ?

Friday, January 29, 2010

'रण', अमिताभ बच्चन और आईबीएन-7

सलीम अख्तर सिद्दीकी
दोस्तों के साथ तीन दिन पहले तय पाया गया था कि सभी काम छोड़कर 'रण' फिल्म का पहला शो देखा जाएगा। अभी-अभी रण देखकर लौटा हूं। विजय हर्षवर्धन मलिक एक न्यूज चैनल इंडिया 24 चलाते हैं। आदर्शवादी पत्रकार हैं। चैनल घाटे में चल रहा है। टीआरपी बढ़ाने के लिए मलिक का बेटा जय विपक्ष के एक नेता, जो बाहुबली है, के साथ मिलकर एक साजिश रचते हैं। उस साजिश में देश के प्रधानमंत्री हुड्डा को एक शहर में हुए बम ब्लॉस्ट का साजिश कर्ता करार देती सीडी बनाई जाताी है। यानि खबर क्रिएट की जाती है। हर्षवर्धन मलिक को सीडी दिखाई जाती है। मलिक को लगता है कि देशहित में ये खबर अपने चैनल पर चलाना जरुरी है। इंडिया 24 पर खबर चलती है। चुनाव में हुड्डा हार जाते हैं और विपक्ष का नेता जीत जाता है।
इधर पूरब नाम का एक आदर्शवादी पत्रकार भी है, जो विजय हर्षवर्धन मलिक का जबरदस्त प्रशसंक है। उन्हीं के वैनल में नौकरी करता है। उसको लगता है कि खबर में कहीं कोई गड़बड़ है। वह अपनी तरह से इंवेस्टीगेशन करता है और पूरी सच्चाई की एक सीडी बना लेता है। फिल्म में एक और चैनल है, हैडलाइन टुडै नाम का। उसका मालिक कक्कड़ आदर्शवादी पत्रकार को देश हित के नाम इमोशनल ब्लैकमेल करता है। आदर्शवादी पत्रकार उसे सीडी सौंप देता है। लेकिन चैनल का मालिक कक्कड़ विपक्ष के नेता से सीडी का पांच सौ करोड़ में सौदा कर लेता है। सीडी के बिकने पर आदर्शवादी पत्रकार कक्कड़ के पास जाता है तो कक्क्ड़ उसे पैसे की अहमियत बयान करता है। यह भी कहता है कि विपक्ष के नेता और इंडिया 24 का पर्दाफाश करके 10-15 दिन की टीआरपी के अलावा क्या मिलने वाला है। आदर्शवादी पत्रकार उसकी भी सीडी बना लेता है। उसे पता चल जाता है कि विजय हर्षवर्धन मलिक वाकई ईमानदार पत्रकार हैं। वह उनके पास जाता है। सीडी उन्हें सौंप देता है। मलिक से पत्रकारिता छोड़ने की बात कहकर मलिक के पैर छूकर चला जाता है। मलिक अपने चैनल पर सीडी को उस वक्त चलाता है, जब विपक्ष का नेता प्रधानमंत्री की शपथ लेने की तैयारी कर रहा होता है। कैमरे के सामने एक लम्बा सा भाषण मीडिया को पिलाता है। दर्शकों से हमेशा के लिए नमस्कार कर लेता है। आदर्शवादी पत्रकार पूरब, इंडिया 24 का मालिक बना दिया जाता है। यह है 'रण' की कहानी।
फिल्म में गानों की गुंजायश ही नहीं थी। फिल्म के बीच-बीच में हिन्दु-मुस्लिम एकता का तड़का भी लगाया गया है। यदि मीडिया अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए खबरें क्रिएट करता है तो फिल्म निर्माता सिनेमा हॉल तक लाने के लिए बेतुकी कहानियों को पर्दे पर उताकर लोगों का बेवकूफ बनाता है। रामगोपाल वर्मा जिस बात को कहना चाहते हैं, वह बात समय-समय पर मीडिया वाले ही बार-बार कह चुके हैं। स्व0 प्रभाष जोशी तो बाकायदा खबरों को बेचे जाने के खिलाफ एक अभियान चला चुके हैं। फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे यह लगे कि आज के दौर के मीडिया, खासकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में कुछ बदलाव आ सकता है। हम लोग तो अभी-अभी पांच सौ रुपए का फटका खाकर आए हैं। बाकी आपकी मजी। वैसे पहले शो में कुल बारह लोग थे। आखिर में एक सवाल अमिताभ बच्चन से। कल रात आईबीएन-7 पर बैठे हुए आप खबर क्रिएट नहीं कर रहे थे तो और क्या कर रहे थे ?

Wednesday, January 27, 2010

भाजपा नेताओं के पाकिस्तान प्रेम का राज क्या है ?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
1965 और 1971 की लड़ाई के बाद से ही पाकिस्तान हमारा दुश्मन रहा है। 1971 की जंग के बाद से ही आने-जाने के रास्ते बंद थे। 1978 में दोनों देशों के बीच आगमन का सिलसिला शुरु हुआ था इसी दौर में क्रिकेट को दोनों देशों के बीच ताल्लुकात बेहतर करने का जरिया माना गया था। लेकिन दोनों देशों के बीच सास-बहु सरीखी नोंकझोंक कभी बंद नहीं हुई। यह पता होने के बाद भी कि पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जिया-उल-हक पंजाब के आतंकवादियों को शह दे रहे हैं, पाकिस्ताान से सम्बन्ध बने रहे। यहां तक हुआ कि क्रिकेट मैच देखने जनरल साहब एक बार जयपुर तशरीफ लाए थे। एक बार दोनों मुल्कों ने मिलकर क्रिकेट का वर्ल्ड कप का भी आयोजन किया था। दिसम्बर 2001 में संसद पर हमले के बाद एक बार फिर दोनों मुल्कों की फौजें आमने-सामने आ गयीं थीं, जो बिना लड़े ही बैरकों में वापस चली गयी थीं। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी साहब बतौर प्रधानमंत्री लाहौर और दिल्ली के बीच बस चलवा चुके थे। एक बार लगा था कि दोनों मुल्कों के बीच मधुर सम्बन्ध कायम हो जाएंगे, लेकिन 26/11 के बाद दोनों देशों के बीच फिर से तनातनी चल रही है।
आईपीएल में पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों को नहीं लिया गया। इस पर पाकिस्तान में तीखी प्रतिक्रिया हुई। आईपीएल के कर्ता-धर्ताओं का तर्क है कि 26/11 के कारण पाकिस्तान के खिलाडियों को नहीं लिया गया हैं। यदि पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नीलामी से बाहर ही रखना था तो उन्हें भारत सरकार ने वीजा ही क्यों जारी किया था ? पाकिस्तान 20-20 क्रिकेट का वर्ल्ड चैम्पियन है। ऐसे मे पाकिस्तानी खिलाड़ियों को आईपीएल से बाहर रखने पर आईपीएल के रोमांच में न सिर्फ कमी आएगी बल्कि 26/11 के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच जो खाई पैदा हुई है, उसमें बढ़ोतरी होगी। समझ में यह नहीं आता कि आतंकवाद के बहाने क्रिकेट पर क्यों चोट की जा रही है। क्या पाकिस्तान को क्रिकेट से अलग करके आतंकवाद को खत्म किया जा सकता है ? आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों का बहिष्कार आतंकवादियों के मंसूबे पूरे करने में सहायता करने के बराबर है। क्योंकि आतंकवादी और उनके आका हर हाल में यह चाहते हैं कि दोनों देशों के बीच एक बार और जंग हो जाए। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का कहना है कि वह इस बात की गारंटी नहीं दे सकते हैं कि आतंकवादी फिर कभी भारत में कोई आतंकवादी घटना को अंजाम नहीं देंगे। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के इस बयान का अर्थ यह है कि पाकिस्तान सरकार का भी आतंकवादियों पर कोई बस नहीं रहा है। इसको ऐसे ही समझिए जैसे हमारे कृषि मंत्री यह बयान दें कि मुझे नहीं पता कि दें कि चीनी कब सस्ती होगी। कभी-कभी तो लगता है कि आतंकवाद की आड़ में दोनों देशों के साथ कोई ऐसी अन्तरराष्ट्रीय साजिश की जा रही है, जिससे दोनों देश न तो दोस्त ही बनें और न ही दुश्मन।
एक सवाल और है, जो बार-बारे जेहन में आता है, आखिर भाजपा को पाकिस्तान से ताल्लुक बेहतर रखने में इतनी दिलचस्पी क्यों रहती है ? आखिर भाजपा नेताओं का पाकिस्तान प्रेम का राज क्या है ? विपक्ष में रहते हुए उन्होंने हमेशा ही पाकिस्तान को पानी पी-पीकर कोसा। यह भी बार-बार मांग की गयी कि पाकिस्तान में चल रहे आतंकी ट्रेनिंग कैम्पों को भारतीय फौज पाकिस्तान में घुसकर तबाह करे। लेकिन जब भी भाजपा के लोग सत्ता में रहे, उन्होंने पाकिस्तान में घुसकर आतंकी ट्रेनिंग कैम्पों को तबाह करने के बजाय पाकिस्तान से दोस्ती करने की कवायद की है। 1978 में जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने ही दोनों देशों के बीच बंद पड़े रास्तें को खुलवाया था। इन्हीं अटल बिहारी वाजपेयी ने एक तानाशाह जनरल मुर्शरफ को आगरा बुलाया और लाहौर और दिल्ली के बीच चलने वाली बस को भी हरी झंडी भी अटल बिहार वाजपेयी ने ही दिखाई थी। लालकृष्ण आडवाणी साहब कराची में जिनाह की मजार पर मत्था टेकते हैं और जिनाह को सैक्यूलर होने का सर्टीफिकेट दे आते हैं।
सच तो यह है कि पाकिस्ताान के साथ दुश्मनी ही निभानी चाहिए। दोनों को अपने-अपने दूतावास बंद कर देने चाहिए। यदि समझौता एक्सप्रेस से पाकिस्तानी आतंकवादी भारत में आते हैं और भारत से कुछ लोग भारत के खिलाफ जासूसी करने की ट्रेनिंग लेने पाकिस्तान जाते हैं तो समझौता एक्सप्रेस को बंद कर देना ही मुनासिब होगा। दोनों देशों की एक कदम आगे और एक कदम पीछे की नीति समझ में नहीं आती है। एक बार तय करें कि पाकिस्तान हमारा दुश्मन है या दोस्त ?ोस्त ?

Friday, January 22, 2010

तुच्छ मानसिकता के ब्लॉगर हैं पीसी गोदियाल

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मैंने अपनी पिछली पोस्ट 'भूख इंसान को गद्दार बना देती है' लिखी थी। इस पोस्ट में देश में बढ़ती महंगाई पर लिखा गया था। पोस्ट में कहीं भी हिन्दू या मुसलमान का जिक्र नहीं था। लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं, जो हर चीज में धर्म को ले आते हैं। इन लोगों का एकमात्र एजेंडा किसी न किसी रुप में मुसलमानों का विरोध करना है। ये लोग देश की प्रत्येक समस्या के लिए मुसलमानों को दोषी बताने में गुरेज नहीं करते। ऐसे ही एक ब्लॉगर पीसी गोदियाल हैं। उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा हैं कि देश की यह हालत (बढ़ती महंगाई) मुसलमानों के कारण है। समझ में नहीं आता कि पीसी गोदियाल जैसे लोग चाहते क्या हैं ? शायद तुच्छ और गलीच मानसिकता के पीसी गोदियाल अच्छे खाते-पीते परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनका पेट भरा हुआ लगता है। हो सकता है कि वह भी ऐसा ही कोई काम करते हो,ं जिसकी वजह से महंगाई सुरसा के मुंह तरह बढ़ती जा रही है। ब्लॉगिंग तो वे शायद केवल मुसलामनों का विरोध करने के लिए ही करते हैं। उन्हें बताना चाहिए कि बढ़ती महंगाई में मुसलमानों का दोष किस तरह है ? गोदियाल को उन सत्तर प्रतिशत लोगों की कोई चिन्ता नहीं है, जो केवल बीस रुपए रोज की आमदनी पर गुजारा करते हैं। मैं उन्हें यह भी बताना चाहूंगा कि भारत अभी भी भूखमरी के मामले में पाकिस्तान, यमन और बंगलादेश जैसे देशों से आगे है। सच तो यह है कि महंगाई बढ़ाने में उन लोगों का हाथ है, जो सरमाएदार हैं। बड़े व्यापारी हैं। जमाखोर और मुनाफाखोर हैं। देश के इस तरह के लोगों में मुसलमानों की संख्या नगण्य है। कुछ लोग देश में चीजों का कृत्रिम अभाव करके मुनाफाखोरी और काला बाजारी करते हैं। सच तो यह है कि मुनाफाखोरों और कालाबाजारियों की वजह से नब्बे प्रतिशत हिन्दू और मुसलमान जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। भूख को धर्म के चश्मे से देखने वाले लोग इंसानियत के दुश्मन ही कहे जा सकते हैं। यही वे लोग हैं, जो अकाल पड़ने पर गिद्ध बनकर भूख से तड़पते लोगों का गोश्त नोंच-नोंच कर खाते हैं। लेकिन इन गिद्धों का पेट कभी नहीं भरता।

Sunday, January 17, 2010

भूख इंसान को गद्दार बना देती है

सलीम अख्तर सिद्दीकी
इस समय देश पर जो लोग शासन कर रहे हैं, वे लोग इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि गरीबों को जमाखोरों और मुनाफाखोरों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है। जब हमारे कृषि मंत्री शरदपवार यह कहते हैं कि चीनी अभी और महंगी या अभी महंगाई जारी रहेगी तो इसमें साफ संदेश यह होता है कि जमाखोर खाद्यान्न का स्टॉक कर लें, उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। यह हैरत की बात है कि कोई राज्य सरकार जमाखोरों के खिलाफ कानून का डंडा चलाने के लिए तैयार नहीं है। सरकारें जमाखोरों की हिमायत करें भी क्यों नहीं, जब यह जमाखोर ही चुनाव लड़ने के करोड़ों रुपए चंदा देते हैं। इन पर कानून का चाबुक चल गया तो ये लोग सरकार से नाराज हो जाएंगे। देश की जनता भले ही भूख से मर जाए लेकिन जमाखोरों और मुनाफाखोरों पर आंच नहीं आनी चाहिए। सच तो यह है कि यही जमाखोर और मुनाफाखोर राजनैतिक पार्टियों को चलाते हैं। भूखी जनता सरकार को क्या देती है। सिर्फ वोट ही ना। लेकिन वोटों को खरीदने के लिए पैसा तो सरमाएदार देते हैं। फिर बताइए सरकार पहले भूखे लोगों को ख्याल रखे या अपने 'पूंजीपति आकाओं' का। अब तो लोकसभा और विधानसभओं में करोड़पति ही जीतकर जाता है। सब जानते हैं कि करोड़पति कैसे बना जाता है। सरकार में इतनी हिम्मत भी नहीं रही कि इन करोड़पतियों से यह भी पूछ सके कि वे करोड़पति कैसे हुए हैं।
केन्द्र और राज्य सरकारें महंगाई के लिए एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालकर महंगाई से कराहती जनता के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम रही हैं। समझ नहीं आता कि महंगाई बढ़ क्यों रही है ? सरकार को कम-से -कम देश की जनता को यह तो बताना ही चाहिए कि महंगाई बढ़ने के कारण क्या हैं ? जब सरकार से यह पूछा जाता है चीनी के दाम कब कम होंगे तो उसका जवाब इतना गलीच होता है कि गाली देने का मन करता है। कृषि मंत्री शरद पवार का यह कहना कि 'मैं कोर्इ्र ज्योतिषी नहीं हूं, जो यह बता दूं कि चीनी कब सस्ती होगी,' गलीचता का निकृष्टतम उदाहरण है। ऐसा जवाब वही आदमी दे सकता है, जो संवेदहीन और जमाखोरों का हिमायती हो। एक मंत्री ऐसा जवाब इसलिए दे पाता है, क्योंकि वह यह जानता है कि देश की जनता इतनी धैर्यवान है कि उसकी खाल भी खींच ली जाए तो वह उफ तक नहीं करेगी। देश की जनता की यही सहनशीलता उसके शोषण का कारण है। सवाल सिर्फ चीनी का ही नहीं है। जिंदा रहने की हर बुनियादी चीज महंगी और महंगी होती जा रही है। मीडिया रोज शोर मचा रहा है कि खाद्य पदार्थों के थोक और खुदरा मूल्यों में भारी अन्तर है। लेकिन सरकार यह तय नहीं कर पाती कि एक खुदरा व्यापारी किसी वस्तु पर कितना मुनाफा ले सकता है। ऐसा लगता है कि देश में केन्द्र और राज्यों की सरकारें सिर्फ अपनी कूर्सी बचाने और पैसा उगाहने में ही व्यस्त हैं। देश की जनता का कोई पूरसाने हाल नहीं है।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम धर्मो, पार्टियों और जातियों में जकड़े समाज हैं। हम यह क्यों नहीं सोचते कि कुछ होने से पहले हम इंसान हैं। जिंदा रहने का हमें भी हक है। जिंदा हम तभी रहेंगे, जब हमें और हमारे बच्चों को भरपेट भोजन मिलेगा। मंदिर-मस्जिद पर हजारों-लाखों की संख्या में सड़कों पर निकलने वाले लोग एक बार रोटी के लिए सड़कों पर क्यों नहीं आते ? यह याद रखिए हम लोग सरकार बनाने और बिगाड़ने वाली भेड़ें मात्र नहीं हैं। हमारे वोटों से सरकार बनती है तो हमें दो वक्त की रोटी की आस भी सरकार से रहती है। जिस दिन देश की भूखी जनता सड़कों पर आकर महंगाई के खिलाफ मोर्चा खोल देगी, उस दिन किसी शरद पवार की इतनी हिम्मत नहीं होगी कि वह यह कह सके कि मैं ज्योतिषी नहीं हूं, जो बता दूं कि महंगाई कब कम होगी। उस दिन हम यह कहने की स्थिति में होंगे कि शरद पवार बताओ चीनी अभी सस्ती करते हो या नहीं। सरकारों को यह सोचना चाहिए कि देश के लोग भूखे पेट रहकर देशभक्ति के तराने नहीं गा सकते। रोटियां आदमी को दीचाना बना देती हैं और भूख इंसान को गद्दार बना देती है। एक या दो गद्दार लोगों को संभालना मुश्किल होता है, लेकिन जब लाखों लोग गद्दारी पर उतर आएंगे तो संभालना मुश्किल हो जाएगा।

Thursday, January 14, 2010

सपा को मुलायम परिवार की रासलीलाएं ले डूबीं

सलीम अख्तर सिद्दीकी
इतना तो आभास था कि समाजवार्दी पार्टी में 'शीत युद्ध' चरम पर है लेकिन यह आभास कतई नहीं था कि अमर सिंह इतनी जल्दी सीधे-सीधे 'फायर' खोल देंगे। कल्याण सिंह को पार्टी में लाने के बाद से ही सपा में एक दूसरे पर तीर चलाने का जो सिलसिला शुरु हुआ था, फिरोजाबाद सीट हारने के बाद बहुत तेज हो गया था। कहते हैं कि जो फौज हार जाती है, उसमें सबसे ज्यादा आरोप-प्रत्यारोप होते हैं। सपा एक हारी हुई फौज है इसलिए उसमें भी वही हो रहा है, जो भाजपा में हो रहा है। इसमें दो राय नहीं कि सपा में विवाद की जड़ अमर सिंह ही रहे हैं। यह भी सच है कि कि अमर सिंह सपा के प्रमोद महाजन थे। अमर सिंह ने ही सपा को समाजवाद के रास्ते से भटका कर पूंजीवादी पार्टी बनाने के साथ ही उसे पूंजीपतियों और फिल्मों सितारों से सजाकर ग्लैमरस किया था। कहा तो यह भी जाता है कि अमर सिंह ने मुलायम सिंह के परिवार के कुछ सदस्यों को पथभ्रष्ट करने में भी अपनी भूमिका निभाई। अमर सिंह ने मुलायम सिंह के परिवार को रासलीला में डुबा दिया था। रासलीला में डूबे तथाकथित समाजवादियों की फिरोजाबाद सीट गंवाने के बाद जब आंखें खुलीं तो सल्तनत लुट चुकी थी। अनिल अम्बानी, जया प्रदा, जया बच्चन, संजय दत्त और मनोज तिवारी को पार्टी में लाने का श्रेय अमर सिंह को ही है। सैफई में फिल्मी अभिनेत्रियों को नचाने का चलन अमर सिंह ने ही शूरु किया था। इन्हीं सब बातों से खफा पार्टी का एक वर्ग समाजवाद से भटक कर पूंजीवाद को थामने का विरोध करता आ रहा था। इससे भी ज्यादा विरोध इस बात का था कि जिन लोगों ने पार्टी को एक मुकाम पर खड़ा किया, उन्हीं लोगों को हाशिए पर डाल दिया गया। समाजवादी पार्टी को चुनाव जीतने के लिए कल्याण सिंह सरीखे लोगों को पार्टी में लाना आत्मघाती कदम साबित हुआ। मुसलमान इस बात को नहीं पचा पाए कि जिस कल्याण सिंह को मुसलमान अपना दुश्मन मानते रहे हैं, उस आदमी को कैसे समाजवादी पार्टी में बर्दाश्त किया जा सकता है।
पार्टी की बुनियाद के पत्थर कहे जाने वाले आजम खान, राजबब्बर, सलीम शेरावानी, शफीर्कुरहमान बर्क और बेनी प्रसाद वर्मा सरीखे लोगों को अमर सिंह के आगे बौना समझा गया। इसीलिए ये लोग पार्टी को न सिर्फ अलविदा कह गए बल्कि उन्होंने मुखर होकर अमर सिंह की आलोचना की। रही सही कसर मुलायम सिंह के परिवार प्रेम ने पूरी कर दी। फिरोजाबाद सीट पर जब मुलायम ने अपनी बहु डिम्पल को उतारा तो आम जनता में यह साफ संदेश गया था कि मुलायम सिंह यादव 'परिवार मोह' मे पार्टी का बेड़ा गर्क करने पर तुल गए हैं। जब फिरोजाबाद सीट की हार का ठीकरा अमर सिंह पर फोड़ने की कोशिश की गयी तो अमर सिंह ने भी मोर्चा खोल दिया था। फिरोजाबाद सीट हारने के बाद से ही मुलायम सिंह के परिवार में अमर सिंह का विरोध शुरु हुआ। मुलायम सिंह के चचेरे भाई रामगोपाल यादव और अमर सिंह में जो वाक युद्ध शुरु हुआ था, उसकी परिणति अमर सिंह के इस्तीफे में हुई। लेकिन बात अमर सिंह के इस्तीफे तक ही रुकने वाली नहीं थी । संजय दत्त, मनोज तिवारी और अबूआजमी का इस्तीफा इस बात का सबूत है कि सपा से वे सभी लोग किनारा करने में देर नहीं लगाएंगे, जिन्हें अमर सिंह पार्टी में लेकर आए थे। एक न्यूज चैनल पर जब अबू आजमी से यह पूछा गया कि आप मुलायम सिंह और अमर सिंह में से किस को चुनेंगे तो उनका जवाब अमर सिंह था।
हालांकि अभी भी मुलायम सिंह यादव मामले को रफा-दफा करने की कवायद कर रहे हैं। रामगोपाल यादव का अमर सिंह को 'सॉरी' कहलवाना इसी कवायद का हिस्सा था लेकिन रामगोपाल यादव ने कहकर कि मैंने अमर सिंह से कोई माफी नहीं मांगी, कहकर सब पर पानी फेर दिया है। इधर अमर सिंह ने भी अपने ब्लॉग पर यह लिखकर कि मैं सैफई नहीं जाउंगा, आग में घी डाल दिया है। ये सब देखते हुए लगता है कि बात इतनी दूर तक निकल गयी है कि दिलों का फिर से मिलना नामुमकिन रहा है। सबसे विचारणीय प्रश्न यह है कि जिसने भी अमर सिंह पर निशाना साधा, मुलायम सिंह ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया। किसी को भी इस तरह से मनाने की कोशिश नहीं की गयी, जिस तरह से अमर सिंह को मनाने के लिए की जा रही हैं। आखिर अमर सिंह में ऐसी क्या बात है कि मुलायम सिंह ने अपने भाई रामगोपाल से 'सॉरी' कहलवा दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि 'गुडफेथ' में मुलायम सिंह परिवार की कुछ ऐसी बातें अमर सिंह को पता चल गयी हों, जिनके सार्वजनिक होने से मुलायम परिवार में 'भूचाल' आने की सम्भावना हो। वैसे भी राजनैतिक गलियारों में मुलायम परिवार के कुछ सदस्यों की रासलीलाओं की बातें चटखारें लेकर सुनी और सुनाई जाती रही हैं। कहा जाता है कि अमर सिंह की जो फोन कॉल्स टेप हुईं थीं, उनमें कुछ फिल्मी अभिनेत्रियों और मुलायम परिवार के सदस्यों के बारे में ऐसी-ऐसी बातें कही गईं हैं, जिन्हें समाज आसानी से पचा नहीं पाएगा। यह समझना भूल होगी कि सपा में 'सीजफायर' हो जाएगा। अभी तो यह भी लगता है कि 'माया' को लेकर भी कुछ बातें निकल कर आ सकती हैं।
हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि रामगोपाल जो कह रहे हैं, उसके पीछे मुलायम सिंह यादव की शह है। कयास यह भी लगाया जा रहा है कि कल्याण सिंह को पार्टी में लेने के चलते जो मुस्लिम वोट बैंक छिटक कर कांग्रेस और बसपा की तरफ चला गया था, उसे वापस सपा में लाने के लिए अब मुलायम सिंह यादव आजम खान को सपा में वापसी की राह हमवार कर रहे हैं। यह विदित है कि आजम खान का कल्याण सिंह और अमर सिंह से ही छत्तीस का आंकड़ा था, इसलिए कल्याण सिंह से पीछा छुड़ाने के बाद अब अमर सिंह से पीछा छुड़ाया जा रहा है। लेकिन यहां यह भी याद रखा जाना चाहिए कि भाजपा और सपा बाबरी मस्जिद बनाम राममंदिर की पैदाइश थीं। राममंदिर मुद्दा अब राख में तबदील हो चुका है। भाजपा और सपा एक दूसरे को ताकत देने का काम करती थीं। भाजपा खत्म हुई है तो सपा को भी खत्म होना ही था। ऐसे में आजम खान भी सपा को डूबने से बचा पाएंगे, इसमें संदेह है। उत्तर प्रदेश में अब दो राजनैतिक ताकतें रह गयी हैं। एक बसपा तो दूसरी कांग्रेस। सपा की नई पिक्चर में अभी कई और मोड़ आने बाकी हैं। इसलिए पिक्चर अभी खत्म नहीं हुई है दोस्तों, पिक्चर अभी बाकी है।

Friday, January 8, 2010

क्या सिर्फ राठौड़ ही कानून को ठेंगे पर रखकर मुस्कराया है ?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
रुचिका मामले में मीडिया की अति सक्रियता के चलते हरियाणा के पूर्व महानिदेशक एसपीएस राठौड़ पर कानून का जो चाबुक चला है, उसे मीडिया अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मान रहा है। मीडिया अपनी पीठ खुद ही थपथपा रहा है। मान लो अगर राठौड़ अदालत से बाहर आते हुए मुस्कराता नहीं तो क्या मीडिया रुचिका केस में इतनी ही दिलचस्पी लेता? क्या राठौड़ का मुस्कराना ही गजब हो गया? राठौड़ का मुस्कराना मीडिया को बहुत बुरा लगा। सभी को लगा था। लगना भी चाहिए। लेकिन क्या एक राठौड़ ही ऐसा है जो कानून को अपने ठेंगे पर रखकर मुस्कराया है। जब लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट आयी थी तो एक न्यूज चैनल पर उमा भारती मंद मंद मुस्करा कर बता रही थीं कि कैसे बाबरी मस्जिद को ढहाया गया था। उनका साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार महोदय भी मुस्करा कर सवाल पूछ रहे थे। उमा भारती की मुस्कराहट पर तो मीडिया खफा नहीं हुआ। याद किजिए जब अदालत ने कल्याण सिंह को एक दिन की सजा दी थी तो उस समय उनके चेहरे पर विजेताओं जैसी मुस्करहाट थी या नहीं? यकीन नहीं आता तो उस वक्त की वीडियो क्लिपिंग देख लें। बाबरी मस्जिद को ढहाने वाले और हजारों लोगों का खून बहाने वाले लोग इस देश पर छह साल तक शासन कर गये। 17 साल से बाबरी मस्जिद ढहाने वालों पर मुकदमा चल रहा है। आगे कब तक चलेगा कुछ पता नहीं है। रुचिका को इंसाफ मिलने में 19 साल लग गये। इस बात को ऐसे पेश किया जा रहा है, जैसे इस देश में यह कोई अनोखी बात हो। 19 और 17 साल में तो ज़्यादा अंतर नहीं है।
25 साल हो गये सिखों को इंसाफ मांगते हुए। क्या इंसाफ मिला? 25 साल ही भोपाल गैस कांड को हो गये हैं। क्या उन्हें इंसाफ मिला? 1987 को मेरठ में दो बदतरीन हादसे हुए थे। 22 मई को पीएसी ने हाशिमपुरा के 44 युवाओं को गोलियों से भूनकर उनकी लाशों को मुरादनगर (गाजियाबाद) की गंगनहर में बहा दिया था। 24 साल बाद किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। इतना भी नहीं हुआ कि किसी को सस्पेंड तक किया गया हो। 23 मई को मेरठ के ही मलियाना में पीएसी ने ढाई घंटे के अंदर 73 लोगों को गोलियों से भून दिया था। ज़‍िम्मेदार पुलिस और पीएसी के जवान आराम से नौकरी करते रहे। तरक्की पाते रहे। कहने को मलियाना का केस मेरठ की फास्ट ट्रैक कोर्ट में चल रहा है, लेकिन रफ्तार इतनी सुस्त है कि अभी तक एक गवाह की गवाही भी पूरी नहीं हो पायी है। क्या मीडिया की यह जिम्मेदारी नहीं है कि चौथाई सदी पुराने केसों पर भी वह निगाह डाले? जब इशरत जहां को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया था तो यही मीडिया गुजरात सरकार द्वारा खींची गयी लाइन को लांघने की हिम्‍मत नहीं कर पाया था। 2002 के गुजरात दंगों के दौरान इलैक्ट्रॉनिक मीडिया नरेंद्र मोदी के खिलाफ बहुत मुखर था। लेकिन जब एनडीए सरकार ने न्यूज चैनलों को धमकाया तो सभी न्यूज चैनलों की घिग्घी बंध गयी थी। जब राठौड़ हरियाणा के पुलिस महानिदेशक थे, तब मीडिया उनके प्रति इतना सख्त क्यों नहीं हुआ था?
सवाल यह भी है कि मीडिया केवल जेसिका लाल, नीतीश कटारा और रुचिका जैसे मामलों में ही इतनी दिलचस्पी क्यों लेता है? क्या इसलिए कि इन केसों से न्यूज चैनलों की टीआरपी बढ़ती है? यदि मीडिया देश की अदालतों में झांक कर देखने की ज़हमत उठाये तो वहां कानून के सताये हुए सैकड़ों लोग मिल जाएंगे, जिनकी इंसाफ मांगते-मांगते कमर झुक गयी है। अदालतों में किस रफ्तार से काम होता है, इस बात का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि 2009 में उत्तर प्रदेश की अदालतों में केवल 138 दिन ही काम हो पाया है। अदालतों में छुट्टियां ऐसी होती है, जैसे किसी सरकारी स्कूल की होती है। छुट्टियों के अलावा आये दिन होने वाली हड़तालों ने अदालती काम को बेहद धीमा कर रखा है। ऐसे में अदालतों से इंसाफ मिलने में बीस बरस लग जाते हैं तो ताज्जुब वाली बात नहीं है। सच तो यह है कि देश की अधिकांश अदालतें संगठित भ्रष्टाचार का अड्डा बन गयी हैं। पैसे और रसूख वाले लोग केस को लंबा खींचने के लिए पैसा पानी की तरह बहाते हैं। अदालतों में बहुत से वकीलों की वकालत ही इस बात पर चलती है कि उसकी किस जज से कैसी सैटिंग है। जज का पेशकार जज के सामने ही रिश्वत लेता है। लेकिन जज की मुद्रा ऐसी होती है, जैसे उसे कुछ मालूम ही नहीं है। इंसाफ़ देर से मिलने का एक कारण भ्रष्टाचार भी है। यह सही है कि मीडिया ने रुचिका के बहाने सांकेतिक रूप से ही सही समाज और सरकार को सोचने के लिए मजबूर किया है। लेकिन क्या इतना ही काफी है? इस देश में जेसिकाओं, नीतिशों और रुचिकाओं के अलावा भी सताये हुए लोग हैं, जिनकी नज़र मीडिया पर नहीं पड़ती या वे लोग मीडिया तक पहुंचने में सक्षम नहीं है। कोशिश करिए – ऐसे सताये हुए लोगों को खोजिए। इतने लोग हैं कि उनकी कहानियां दिखाते और छापने से फुरसत नहीं मिलेगी।

Thursday, January 7, 2010

सांस्कृतिक हस्तक्षेप भी तय करता है राजनीति की दिशा


शेष नारायण सिंह

सिंह२१ साल पहले सफ़दर हाशमी को दिल्ली के पास एक औद्योगिक इलाके में मार डाला गया था .वे मार्क्सवादी कमुनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे . उनको मारने वाला एक मुकामी गुंडा था और किसी लोकल चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार था. अपनी मौत के समय सफ़दर एक नाटक प्रस्तुत कर रहे थे . सफ़दर हाशमी ने अपनी मौत के कुछ साल पहले से राजनीतिक लामबंदी के लिए सांस्कृतिक हस्तक्षेप की तरकीब पर काम करना शुरू किया था. कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत सारे बड़े लोगों को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहे थे वे. सफ़दर की मौत के बाद दिल्ली और फिर पूरे देश में ग़म और गुस्से की एक लहर फूट पड़ी थी . जो काम सफ़दर करना चाहते थे और उन्हें कई साल लगते, वह एकाएक उनकी मौत के बाद स्वतः स्फूर्त तरीके से बहुत जल्दी हो गया. देश के हर हिस्से में संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले लोग इकठ्ठा होते गए और सफ़दर की याद में बना संगठन, सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट ,'सहमत' एक ऐसे मंच के रूप में विकसित हो गया जिसके झंडे के नीचे खड़े हो कर हिन्दू पुनरुत्थानवाद को संस्कृति का नाम दे कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाले आर एस एस के मातहत संगठनों को चुनौती देने के लिए सारे देश के प्रगतिशील संस्कृति कर्मी लामबंद हो गए.राजनीतिक उद्देश्यों के लिए संस्कृति के आधार पर जनता को लामबंद करने की पश्चिमी देशो में तो बहुत पहले से कोशिश होती रही है लेकिन अपने यहाँ ऐसी कोई परंपरा नहीं थी .१८५७ में अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ जो एकता दिखी थी , उस से ब्रितानी साम्राज्यवाद की चिंताएं बढ़ गयी थी, भारत का हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर जिस तरह से खड़ा हो गया था , वह भारत में साम्राज्यवादी शासन के अंत की चेतावनी थी . हिन्दू और मुसलमान की एकता को ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने बहुत सारे तरीके अपनाए . बंगाल का बंटवारा उसमें से एक था. लेकिन जब अंग्रेजों के खिलाफ १९२० में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हिन्दू और मुसलमान फिर लामबंद हो गए तो अंग्रेजों ने इस एकता को खत्म करने केलिए सक्रिय हस्तक्षेप की योजना पर काम करना शुरू कर दिया..१९२० के आन्दोलन के बाद साम्राज्यवादी ब्रिटेन को भारत की अवाम की ताक़त से दहशत पैदा होने लगी थी .सने भारत में सांस्कृतिक हस्तक्षेप के लिए सक्रिय कोशिश शुरू कर दी. अंग्रेजों के वफादारों की फौज में ताज़े ताज़े भर्ती हुए पूर्व क्रांतिकारी ,वी डी सावरकर ने १९२३-२४ में अपनी किताब "हिन्दुत्व-हू इज ए हिन्दू " लिखी जिसे आगे चल कर आम आदमी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भोथरा करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला था .इसी दौर में आर एस एस की स्थापना हुई जिसके सबसे मह्त्वपूर्ण उद्देश्यों में पिछले हज़ार साल की गुलामी से लड़ना बताया गया था . इसका मतलब यह हुआ कि गाँधी जी के नेतृत्व में जो पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ लामबंद हो रहा था, उसका ध्यान बँटा कर उसे मुसलमानों की सत्ता के खिलाफ तैयार करना था . ज़ाहिर है इस से अँगरेज़ को बहुत फायदा होता क्योंकि उसके खिलाफ खिंची हुई भारत के अवाम की तलवारें अंग्रेजों से पहले आये मुस्लिम शासकों को तलाशने लगतीं और अँगरेज़ मौज से अपना राजकाज चलाता रहता . सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत सावरकर की इसी किताब के गर्भ से निकलता हैं. आर एस एस और सावरकर की हिन्दू महासभा के ज़रिये, अवाम को बांटने की अँगरेज़ की इस कोशिश से महात्मा गाँधी अनभिज्ञ नहीं थे . शायद इसी लिए उन्होंने अपने आन्दोलन में सामाजिक परिवर्तन की बातें भी जोड़ दीं. लेकिन दंगों की राजनीति का इस्तेमाल करके हिन्दू और मुसलमानों की एकता को खंडित करने में ब्रितानी साम्राज्य को सफलता मिली . १९२७ में आर एस एस ने नागपुर में जो दंगा आयोजित किया, बाद में बाकी देश में भी उसी माडल को दोहराया गया . नतीजा यह हुआ कि भारत के आम आदमी की एकता को अंग्रेजों ने अपने मित्रों के सहयोग से खंडित कर दिया .वामपंथी राजनीतिक सोच के लोगों ने संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय होने के लिए पहली बार १९३६ में कोशिश की . प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ और उसके पहले अध्यक्ष ,हिन्दी और उर्दू के बड़े लेखक , प्रेमचंद को बनाया गया.इसी दौर में रंगकर्मी भी सक्रिय हुए और नाटक के क्षेत्र में वामपंथी सोच के बुद्धिजीवियों का हस्तक्षेप हुआ. इप्टा का गठन करके इन लोगों ने बहुत काम किया . लेकिन यह जागरूकता १९४७ में कमज़ोर पड़ गयी क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व में जो आज़ादी मिली थी उसकी वजह से आम आदमी की सोच प्रभावित हुई. वैसे भी राष्ट्रीय चेतना के निगहबान के रूप में कांग्रेस का उदय हो चुका था.. जनचेतना में एक मुकम्मल बदलाव आ चुका था लेकिन वामपंथी उसे समझ नहीं पाए और इसमें बिखराव हुआ.उधर गाँधी हत्या केस में फंस जाने की वजह से आर एस एस वाले भी ढीले पड़ गए थे . १९६४ में विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना करके संघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दू पुनरुत्थानवाद की राजनीति के स्पेस में काम करना शुरू कर दिया. लेकिन उनके पास कोई आइडियाज नहीं थे इसलिये खीच खांच कर काम चलता रहा . वह तो १९८४ के चुनावों में बी जे पी की हार के बाद आर एस एस ने भगवान् राम के नाम पर हिंदुत्व की राजनीति को सांस्कृतिक आन्दोलन का मुखौटा पहना कर आगे करने का फैसला किया . भगवान् राम का हिन्दू समाज में बहुत सम्मान है और उसी के बल पर आर एस एस ने बी जे पी को राजनीति में सम्मानित मुकाम दिलाने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर हाशमी और उनकी पार्टी को संघ की इस डिजाइन का शायद अंदाज़ लग गया था. लगभग उसी दौर में सफ़दर ने कलाकारों को लामबंद करने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर की मौत ऐसे वक़्त पर हुई जब आर एस एस ने राम के नाम पर हिन्दू जनमानस के एक बड़े हिस्से को अपने चंगुल में कर रखा था . समझदारी की बात कोई सुनने को तैयार नहीं था लेकिन सहमत के गठन के बाद संस्कृति के स्पेस में संघ को बाकायदा चुनौती दी जाने लगी . सहमत की उस दौर की करता धर्ता , सफदर की छोटी बहन शबनम हाशमी थीं . जिन्होंने अयोध्या के मोर्चे पर ही, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनती दी और उनकी बढ़त को रोकने में काफी हद तक सफलता पायी. शायद सहमत के नेतृत्व में हुए आन्दोलन का ही नतीजा है कि आज आर एस एस के सभी संगठन बी जे पी के मातहत संगठन बन चुके हैं और सरकार बनाने के चक्कर में हरदम रहते हैं . वहीं से ज़्यादातर संगठनों का खर्चा पानी चलता है ...सहमत आज सांस्कृतिक हस्तक्षेप के एक ऐसे माध्यम के रूप में स्थापित हो चुका है कि दक्षिणपंथी राजनीतिक और संस्कृति संगठन उसकी परछाईं बचा कर भाग लेते हैं ..उसका कारण शायद यह है कि सहमत के गठन के पहले बहुमत के अधिनायकत्व की सोच की बिना पर चल रहे आर एस एस के धौंस पट्टी के अभियान से लोग ऊब चुके थे और जो भी सहमत ने कहा उसे दक्षिणपंथी दादागीरी से मुक्ति के रूप में अपनाने को उत्सुक थे .सहमत के वार्षिक कार्यक्रमों में ही , ऐतिहासिक रूप से फासीवाद की पक्षधर रही शास्त्रीय संगीत की परम्परा को अवामी प्रतिरोध का हाथियार बनाया गया और उसे गंगा-जमुनी साझा विरासत की पहचान के रूप में पेश किया गया.. सहमत के गठन का यह फायदा हुआ कि कलाकारों को एक मंच मिला . बाद में जब गुजरात में मुसलमानों के सफाए के लिए नरेंद्र मोदी ने अभियान चलाया तो सबसे बड़ा प्रतिरोध उन्हें' सहमत' और शबनम हाशमी के नए संगठन 'अनहद' से ही मिला. आज भी इन्हीं दो संगठनों के बैनर के नीचे मोदी की ज्यादतियों को सिविल सोसाइटी की ओर से चुनौती दी जा रही है. आर एस एस में भी अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रास्ते सत्ता पाने की उम्मीद धूमिल हो गयी है . शायद इसीलिए अब वे नौकरशाही और पुलिस में घुस चुके अपने स्वयंसेवकों पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं ..जहां तक संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय प्रगतिशील जमातों की बात है , उनके लिए सहमत और अनहद के अलावा भी बहुत सारे मंच उपलब्ध हैं और हर जगह काम हो रहा है.. राजनीतिक एकजुटता के लिए सांस्कृतिक हस्तक्षेप को एक माध्यम बनाने की परंपरा भी रही है और संभावना भी है लेकिन बुनियादी बात आइडियाज़ की है जो दक्षिण पंथी संगठनों के पास बहुत कम होती है जबकि जन आन्दोलन के लिए संस्कृति के औज़ार ही सबसे बड़े हथियार होते हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि जब भी जन आन्दोलनों की बात होगी आम आदमी के साथ खडी जमातों को ज़्यादा सम्मान मिलेगा .
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Sunday, January 3, 2010

बच गए याकूब कुरैशी के 51 करोड़ रुपए

सलीम अख्तर सिद्दीकी
खबर है कि हजरत मौहम्मद साहब के कार्टून की श्रंखला बनाने वाले डेनमार्क के कॉर्टूनिस्ट कर्ट वेस्टरगार्ड की एक सोमालियाई युवक ने जान लेने की कोशिश की है। आपको याद होगा कि डेनमार्क के उस कार्टूनिस्ट का कत्ल करने वाले को हमारे शहर मेरठ के एक नेता हाजी याकूब कुरैशी ने ने 51 करोड़ रुपए देने का ऐलान किया था। कुरैशी के ऐलान की गूंज पूरी दुनिया में हुई थी। याकूब कुरैशी रातों-रात सुर्खियों में आ गए थे। वे आशिक-ए-रसूल (पहली बार पता चला था कि आशिक-ए-रसूल कैसे बना जाता है ) हो गए थे। मालूम नहीं कि सोमालिया के युवक तक आशिक-ए-रसूल के ऐलान की खबर पहुंची थी या नहीं, हां इतना जरुर है कि यदि वह युवक कार्टूनिस्ट को कत्ल करने में कामयाब हो जाता तो 51 करोड़ रुपए का हकदार हो जाता। यह सवाल भी मेरे दिमाग में घूमड़ रहा है कि याकूब कुरैशी अपने वादे पर खरे उतरते या नहीं ? वैसे याकूब कुरैशी को इतना तो करना ही चाहिए कि जिस युवक ने ऐसी कोशिश की है, उसे 51 लाख रुपए तो देने ही चाहिए। अब देखो न बेचारे को दो गोलियां भी लगी हैं। मेरे दिमाग में यह भी सवाल उठ रहा है कि यदि भविष्य में कोई कॉर्टूनिस्ट को मारने में कामयाब हो गया और वह हिन्दुस्तान से बाहर का हुआ तो याकूब साहब उसे भुगतान कैसे करेंगे ? कौनसी करेंसी में करेंगे ? खुद जाकर करेंगे या बैंक के जरिए करेंगे ? बैंक से करेंगे तो मारने वाले का बैंक एकाउंट नम्बर कहां से लेंगे्र ? कभी-कभी मैं ये भी सोचता हूं कि खुद को आशिक-ए-रसूल कहने वाले याकूब कुरैशी खुद ही इस काम को अंजाम क्यों नहीं दे लेते ? घर का पैसा घर में ही रह जाएगा। लेकिन दिक्कत यह है कि वे बड़े कारोबारी हैं। उन्हें इतनी फुरसत कहां है। वैसे भी उनके पीछे कमेले का ऐसा झमेला लगा हुआ है कि उन्हें चैन ही लगने देता। भाजपा वाले पहले ही से उनके पीछे पड़े हुए ही थे अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी उनके पीछे पड़ गया है। अब बताइए उन्हें कार्टूनिस्ट को मारने का वक्त कहां है। वे तो सिर्फ 'सुपारी' दे सकते हैं। उसका उन्होंने ऐलान किया हुआ है ही। वैसे याकूब कुरैशी ने जब कार्टूनिस्ट को मारने की कोशिश की खबर पढ़ी होगी तो उन्हें इस ठंड में भी पसीना आ गया होगा। अब तक तो उन्हें लगता होगा कि जब सलमान रुश्दी का आज तक कुछ नहीं बिगड़ा तो कार्टूनिस्ट का कौन क्या बिगाड़ लेगा। लेकिन अब याकूब कुरैशी सोच रहे होंगे कि कभी भी कुछ भी हो सकता है। मेरी तो उन्हें राय यही है कि 51 करोड़ का इन्तजाम करके रखें। पता नहीं कब कौन अपने मिशन में कामयाब हो जाए। फिलहाल तो याकूब साहब के 51 करोड़ बच ही गए हैं। इसके लिए उन्हें मेरी तरफ से बहुत-बहुत मुबारकबाद !

Friday, January 1, 2010

नया साल मतलब सुर, सुरा और सुन्दरी


सलीम अख्तर सिद्दीकी
पूरे हिन्दुस्तान का आंकड़ा तो मुझे मालूम नहीं, लेकिन 1 जनवरी के मेरठ के समाचार-पत्रों में खबर छपी है कि मेरठवासी नए साल का स्वागत करने के लिए एक करोड़ की शराब गटक गए हैं। होटलों में सुर के साथ सुरा की नदियां बहायी गयीं और सुन्दरियों के साथ नाचते-गाते हुए नए साल का स्वागत किया गया। मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि नए साल में ऐसी क्या बात है कि एक वर्ग दीवानावार होकर नाचता-गाता है ? मेरा तो यह मानना रहा है कि प्रत्येक सेकिण्ड, मिनट, घंटे, दिन, सप्ताह और महीने की तरह ही नया साल भी समय की एक ईकाई भर है। चलिए मान लेते हैं कि पूरा साल होना अपने आप में एक अनोखी घटना है तो क्या नए साल का स्वागत सुर, सुरा और सुन्दरी के बगैर पूरा नहीं किया जा सकता ? गुजरा 2009 एक मायने में अच्छा कहा जा सकता है कि इस साल देश में कोई भी आतंकवादी हमला नहीं हुआ। लेकिन दूसरे मायने में इसे बहुत बुरा भी कहा जा सकता है। 2009 में महंगाई ने गरीबों के मुंह से रोटी का निवाला छीन लिया है। महंगाई का यह हमला किसी आतंकवादी हमले से कम नहीं है। 2010 में भी यह उम्मीद नजर नहीं आती कि सुरसा की तरह फैलता जा रहा मंहगाई का मुंह बंद हो जाएगा। ऐसे में जब देश की अधिकतर आबादी दो जून की रोटी की तरस रही हो तो कुछ सम्पन्न लोगों का करोड़ों रुपए की शराब गटक जाना एक त्रासदी ही कही जाएगी। सच यह भी है कि नए साल पर पैसे उड़ाने वाला वही वर्ग है, जो भ्रष्टाचारी, जमाखोर और मुनाफाखोर है। ये लोग अपनी हरकतों से गरीब लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम करते हैं। एक गरीब और मजदूर आदमी के लिए नए साल का पहला दिन तमाम दिनों की तरह ही आता है। उसे मजदूरी करनी है। रिक्शा खींचना है। वह नए साल की खुमारी में डूब गया तो बच्चों के लिए रोटी कहां से लाएगा।
अखबारों में यह तो छपा है कि होटलों में युवतियों ने जमकर धमाल मचाया। युवतियों के आकर्षक फोटो पहले पन्नों पर छपे हैं। अखबारों में ऐसी कोई खबर भी ढूंढे से नहीं मिली, जिसमें यह कहा गया हो कि नए साल के उपलक्ष्य में सबसे निचले तबके की भलाई लिए सरकारी या गैरसरकारी स्तर पर कोई कार्यक्रम किया गया हो। अखबारों को भी यह मुराद नहीं आयी कि वे बाहर निकलकर यह देख लेते कि इस कड़ाके की सर्दी में कितने बेघर लोग अखबार लपेटकर सर्दी से लड़ने की कोशिश कर रहे थे। अखबार ऐसा करें भी क्यों। अब अखबारों का मानना है कि अखबारों के रंगीन पन्नों पर गुरबत अच्छी नहीं लगती। एक तथ्य से अवगत करा दूं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शराब के ठेकों पर शराब की बोतलों पर अधिकतम खुदरा मुल्य से पांच से चालीस रुपए अधिक वसूले जा रहे हैं। यदि अखबारों का यह दावा सही है कि 31 दिसम्बर को मेरठ में ही एक करोड़ की शराब बिकी है तो शराब माफियाओं ने लगभग 10 से 15 करोड़ रुपए की अवैध वसूली एक दिन में ही कर डाली है। यह सब उस सरकार की नाक नीचे हो रहा है, जो अपने को गरीबों का हमदर्द कहते नहीं थकती है।
अन्त में गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे उन सैंतीस प्रतिशत भारतीय लोगों के लिए इतना ही कह सकता हूं कि 'नए साल में खुदा उन्हें महंगाई से महफूज रखे।' आमीन !