Tuesday, December 29, 2009

झूठ बोलते हैं शाहिद सिद्दीकी

सलीम अख्तर सिद्दीकी
शाहिद सिद्दीकी उर्दू साप्ताहिक 'नई दुनिया' के मालिक हैं। मालिक हैं तो खुद ही सम्पादक भी हैं। पक्के सैक्यूलर कहलाए जाते हैं। सैक्यूलर होने की मिसाल उन्होंने एक हिन्दू लड़की से शादी करके दी थी। लेकिन उनका अखबार कितना सैक्यूलर है, यह उसे पढ़कर अन्दाजा लगाया जा सकता है। बाबरी मस्जिद, अनुच्छेद 370, समान सिविल कोड, अमेरिका, ईरान, इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक ही सिमटा यह अखबार उन लोगों का पसंदीदा अखबार है, जो बाहर झांक कर देखना नहीं चाहते हैं। इस अखबार को मुसलमानों का 'पांज्जन्य' कहा जा सकता है। लेकिन यह जरुरी नहीं है कि वे अपने अखबार में जो लिखते हैं, उससे वे सहमत भी हों। शाहिद सिद्दीकी साहब को सियासत का भी चस्का है, इसलिए पार्टी बदलने के साथ ही अखबार की पॉलिसी भी बदलती रहती है। जिस पार्टी में रहते हैं, अखबार को उस पार्टी का मुखपत्र बना दिया जाता है। आजकल न्यूज चैनलों पर एक मुस्लिम चेहरे के रुप में उनकी शिरकत अक्सर देखी जा सकती है। जिस पार्टी में होते हैं, उस पार्टी के पक्ष में बोलते हुए गला तक सुखा लेते हैं। जब वे सपा में थे तो एक न्यूज चैनल पर सपा के पक्ष में जम कर बोल रहे थे, लेकिन एक घंटे बाद दूसरे चैनल पर वे बहन मायावती के चरणों की वंदना करते नजर आए थे। हाल ही में एनडीटीवी के 'मुकाबला' में में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री द्वारा उत्तर प्रदेश को बांटने के प्रस्ताव की जमकर वकालत कर रहे थे, लेकिन पता नहीं फिर क्या हुआ, लगभग एक सप्ताह बाद ही खबर आ गयी कि शाहिद सिद्दीकी साहब को बसपा से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। शाहिद साहब ने बसपा के टिकट पर 2009 का लोकसभा का चुनाव लड़ा था। लेकिन चुनाव हार गए। बसपा से बाहर आने के लिए 'शहीद' होना जरुरी था इसलिए बहन जी की शान में शायद जानबूझकर गुस्ताखी की और 'शहीद' होकर बसपा से बाहर आ गए। 'तहलका' के ताजा अंक में उन्होंने कहा है कि मायवाती कहती थीं कि तुम्हारे मुसलमान गद्दार हैं, इसलिए उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ। अब पता नहीं मायावती ने यह बात कही है या नहीं लेकिन इतना जरुर है कि शाहिद साहब ने यह तो सरासर झूठ बोला है कि उन्होंने पैसे देकर बसपा से लोकसभा का टिकट नहीं लिया था। वह एक पत्रकार हैं। इस बात को अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि बसपा एक राजनैतिक पार्टी नहीं बल्कि एक 'दुकान' भर है। वहां पर सिर्फ और सिर्फ पैसे देकर ही टिकट खरीदा जाता है। शाहिद सिद्दीकी में सूर्खाब के पर नहीं लगे थे कि मायावती ने उन्हें बगैर पैसे लिए ही लोकसभा का चुनाव लड़वा दिया। सच तो यह है कि अगर वो चुनाव जीत जाते तो मायावती भले ही लाख बार कहतीं कि शाहिद तुम्हारे मुसलमान गद्दार हैं, शाहिद साहब खींसे निपोर कर रह जाते। न्यूज चैनलों पर जमकर मायावती और बसपा की पैरवी करते। उन्हें सबसे बड़ा सैक्यूलर बताते।
दरअसल, शाहिद सिद्दीकी जैसे लोग मुसलमानों को इमोशनल ब्लैकमेल करके अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। मुसलमानों की भलाई के लिए न तो उनके पास समय है और हमदर्दी। उनके दो चेहरे हैं, एक चेहरा वो है, जो न्यूज चैनलों और उनके अखबार में नजर आता है, दूसरा चेहरा अपने स्वार्थ का है। उनका मकसद किसी भी तरह से लोकसभा और राज्यसभा में जाने का रहता है। इसलिए सियासी पार्टियों को कमीज की तरह बदलते रहते हैं। अस्सी के दशक में जब बाबरी मस्जिद और राममंदिर का आंदोलन चल रहा था तो उनका अखबार बराबर यह लिखता आ रहा था कि बाबरी मस्जिद पर से किसी भी हालत में कब्जा नहीं छोड़ा जाएगा। बात मई 1988 की है। मैं 'नई दुनिया' के दफ्तर में अपनी एक रिपोर्ट 'दंगों के एक साल बाद मलियाना' देने गया था। रिपोर्ट को उन्होंने सरसरी पढ़ा और यह कहकर कि रिपोर्ट तो अच्छी लिखी है, अपने पास रख ली। वह रिपोर्ट 'नई दुनिया' प्रमुखता के साथ छपी थी। चाय पीने के दौरान बाबरी मस्जिद की चर्चा शुरु हो गयी। मैंने उनसे पूछा कि बाबरी मस्जिद समस्या का हल आपकी नजर में क्या हो सकता है। इस सवाल पर उन्होंने मुझसे कहा था कि मेरी अपनी राय तो यह है कि बाबरी मस्जिद हिन्दुओं को सौंप दी जाए और उसके एवज में मुसलामन अपने लिए और सुविधाएं ले लें। एक ऐसा कानून बनवा लें जिसके अनुसार आइन्दा किसी मस्जिद पर हिन्दू दावा नहीं कर सकें। उन्होंने साथ में कहा कि ये मेरा अपना ख्याल है, लेकिन इस ख्याल को मैं अपने अखबार में नहीं लिख सकता क्योंकि मुझे अपना अखबार चलाना है।

Thursday, December 24, 2009

क्यों जरुरी है 'हरित प्रदेश' का निर्माण ?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
तेलांगना के बहाने अलग प्रदेशों की मांग का पिटारा एक बार फिर नए सिरे से खुल गया है। हरित प्रदेश की दबी चिंगारी को हवा देने का काम उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने केन्द्र सरकार को इस आशय का पत्र लिखकर कर दिया है कि उत्तर प्रदेश को चार भागों में बांट दिया जाना चाहिए। हालांकि मायावती के इस कृत्य की पीछे राजनीति साफ नजर आती है। यदि मायावती उत्तरप्रदेश का बंटवारा करना ही चाहती हैं तो उन्हें केन्द्र को पत्र लिखने के बजाय उत्तर प्रदेश विधानसभा में बंटवारे का प्रस्ताव पारित कराककर अपनी ईमानदारी का सबूत देना चाहिए था। मायावती पूर्ण बहुमत में हैं, इसलिए प्रस्ताव पारित होने में भी कोई अड़चन नहीं आने वाली है। हालांकि राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह समय-समय पर हरित प्रदेश की मांग को उठाते रहे हैं। लेकिन लगता नहीं है कि वे हरित प्रदेश की मांग के प्रति ईमानदार हैं।
उत्तर प्रदेश के पुर्नगठन की मांग नयी नहीं है। लन्दन में सन 1931 में हुई एक गोलमेज कांफ्रेंस में उत्तर प्रदेश के पुर्नगठन की मांग की गयी थी। इस कांफ्रेंस में कांग्रेस के महात्मा गांधी, मुस्लिम लीग के मौहम्मद अली जिनाह और हिन्दु महासभा के भाई परमानन्द ने भाग लिया था। आजादी के बाद 1953 में राष्ट्रीय स्तर पर फैजल अली की अध्यक्षता में एक राज्य पुर्नगठन आयोग का गठन किया था। इस आयोग के सदस्यों में ह्‌दयनाथ कुंजरु तथा के एम पनिक्कर थे। आयोग ने तेलांगना, विदर्भ, बिहार और उत्तर प्रदेश को बांटने की संस्तुति की थी। डा0 भीमराव अम्बेडर ने फैजल अली आयोग की सिफारिशों के आलोक में उत्तर प्रदेश को तीन भागों में बांटने का समर्थन किया था। 1977 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने भी छोटे राज्यों के निर्माण के लिए अपना समर्थन दिया था। सन 1978 में मोदीनगर के विधायक सोहनवीर सिंह तोमर ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में उप्र के पुर्नगठन के लिए सदन में प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। प्रस्ताव पर चर्चा से पहले ही दुर्भाग्य से केन्द्र ने बनारसीदास मंत्रीमंडल् को भंग कर दिया था। इसी दौरान चौधरी चरणसिंह ने केन्द्रीय मंत्रीमंडल के समक्ष उत्तर प्रदेश के पुर्नगठन का प्रस्ताव रखा, जिसका समर्थन तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने भी किया था। यहां भी दुर्भाग्य से इस प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान जनता पार्टी की सरकार ही गिर गयी थी।
उत्तर प्रदेश की आबादी लगभग 15 करोड़। इस प्रदेश का इतना विशालकाय होना ही इसके पिछड़े होने का मुख्य कारण है। इतने बड़े भाग पर नियन्त्रण करना लखनउ के बूते के बाहर हो जाता है। राजधानी का इतना दूर होना पश्चिम उप्र के लोगों के लिए बहुत बड़ा अन्याय है। सरकारी योजनाओं का लाभ भी पश्चिम उप्र के लोगों तक इसलिए नहीं पहुंच पाता क्योंकि वे लखनउ तक आना-जाना वहन नहीं कर सकते हैं। सच बात तो यह है कि सरकार को सबसे अधिक राजस्व देने वाले पश्चिम उप्र के साथ सौतेला बर्ताव किया जाता रहा है। इन्हीं सब कारणों से पश्चिम उप्र में इलाहाबाद हाईकोर्ट बेंच की मांग भी बार-बार उठती रहती है। लेकिन क्योंकि लखनउ पर पूरब के लोगों की ज्यादा पकड़ रही है, इसलिए मांग सिरे नहीं चढ़ पाती है। प्रस्तावित हरित प्रदेश में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 22 जिले तथा 5 मंडल, मेरठ, आगरा, मुराबाद, बरेली एवं सहारनपुर हैं। इस क्षेत्र की आबादी लगभग 5 करोड़ है। हरित प्रदेश का क्षेत्रफल 2 लाख 30 हजार 411 वर्ग किलोमीटर तथा लम्बाई 1 हजार किलोमीटर है। यदि हरित प्रदेश का निर्माण हो जाता है तो अति उपजाउ यह प्रदेश देश की अति विकसित प्रदेशों में से एक होगा। छोटा राज्य होने से हरित प्रदेश की कानून व्यवस्था चुस्त-दुरस्त तो होगी ही, हाईकोर्ट भी अपना होगा, जिससे न्याय पाने के लिए हजारों रुपया खर्च करके हजारों किलामीटर की यात्रा नहीं करने पड़ेगी।
मेरठ में हरित प्रदेश निर्माण समिति का गठन किया गया है। इस बैनर के तले 21 दिसम्बर को हरित प्रदेश निर्माण के लिए एक विचार-विमर्श गोष्ठी का आयोजन किया गया था। इस गोष्ठी में प्रत्येक क्षेत्र के लोगों का प्रतिनिधत्व रहा। डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर, व्यापारी और आम नागरिकों ने एक सुर में हरित प्रदेश बनाने के लिए अहिंसत्माक आंदोलन चलाने की मांग की। गोष्ठी में सभी वक्ताओं ने उन कुछ साम्प्रदायिक लोगों के उस दुष्प्रचार को नकार दिया, जिसमें यह कहा जा रहा है कि हरित प्रदेश 'मिनी पाकिस्तान' या 'जाटलैंड' बनकर रह जाएगा। दरअसल, हरित प्रदेश के निर्माण को लेकर समय-समय पर आंदोलन होते रहे हैं। लेकिन वे राजनीति से प्रेरित इतने सतही होते हैं कि आम जनता उनसे जुड़ नहीं पाती। कोई भी आंदोलन तभी कामयाब होता है, जब उससे आम आदमी जुड़ता है। आम आदमी को यह समझाने की जरुरत है कि हरित प्रदेश उसके हित में कैसे है, तभी वह आंदोलन से जुड़ेगा और हरित प्रदेश का निर्माण संभव हो सकेगा। सवाल यह है कि क्या हरित प्रदेश का निर्माण करने का संकल्प लेने वाले ईमानदारी से इसे आगे बढ़ा पायेंगे या इतिहास अपने आप को दोहराएगा ?
170, मलियाना मेरठ।
Saleem_iect@yahoo.co.in
09045582472

क्यों जरुरी है 'हरित प्रदेश' का निर्माण ?

Tuesday, December 15, 2009

अफजल को माफी, साध्वी को फांसी !

सलीम अख्तर सिद्दीकी
एक जमाना था, जब संघी लोग गुप्त रुप से एक 'पत्रक' वितरित किया करते थे, जिसमें मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ लिखा होता था। पत्रक की भाषा बेहद उत्तेजक और नफरत भरी होती थी। यह काम अब भी होता है। लेकिन अब अपना संघ परिवार थोड़ा 'हाईटेक' हो गया है। अब एसएमएस और इंटरनेट के माध्यम से दुनिया के सामने जहर उगला जा रहा है। एसएमएस के जरिए नफरत फैलायी जा रही है। लेकिन लगता है, संघियों ने जिन लोगों को इस काम पर लगाया है, उनकी जानकारी इतनी कम और तथ्यहीन है कि हंसी आती है। अभी तीन दिन पहले मेरे पास एक परिचित संघी का एसएमएस आया है। जरा इसकी भाषा पर गौर फरमाएं।
वाह इंडिया!
अफजल को माफी, साध्वी को फांसी
आरएसएस पर प्रतिबंध, सिमी से अनुर्बध
अमरनाथ यात्रा पर लगान, हज पर अनुदान
वाकई मेरा भारत महान !
इस एसएमएस में सभी बातों को उल्टा लिखा गया है। हमें तो पता ही नहीं चला कि अफजल को कब माफी दी गयी और साध्वी को कब फांसी दे दी गयी। क्या कोई संघ परिवार का सदस्य बताएगा कि ऐसा हादसा कब पेश आया, जिससे पूरी दुनिया अनजान रही ?
यह सही है कि आरएसएस की राष्ट्र और समाज विरोधी गतिविधियों के चलते इस पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। लेकिन प्रतिबंध कब लगा पता ही नहीं चला। हमें तो इतना पता है कि सिमी पर प्रतिबंध लगा हुआ है। हां इतना जरुर है कि कांग्रेस सरकार ने लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट के बाद संघ से अनुबंध कर लिया है कि बाबरी मस्जिद को शहीद करने और प्रायोजित साम्प्रदायिक दंगों में हजारों लोगों को मारने के जुर्म में उसे कोई सजा नहीं दी जाएगी।
अमरनाथ यात्रा पर कब लगान वसूला गया यह बताने की जिम्मेदारी भी संघ परिवार की है। जहां तक हज यात्रियों को अनुदान देने की बात है, यह सही है कि हज यात्रा पर अनुदान दिया जाता है। लेकिन अबकी बार अनुदान में कटौती की गयी है। केन्द्र में पूरे छह साल तक भाजपा की सरकार रही। समझ में नहीं आता कि तब क्यों नहीं हज यात्रा के अनुदान को समाप्त नहीं किया गया। हमने तो यह देखा है कि भाजपा सरकार के प्रधानंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, जिन्हें आरएसएस का मुखौटा कहा जाता है, रमजान के महीने में गोल टोपी पहनकर और कंधों पर चैकदार कपड़ा डालकर पूरे 'मुल्ला' बनकर रोजा इफ्तार पार्टियों में शिरकत करते थे। अब पता नहीं वाजपेयी 'मुखौटे पर मुखौटा' किस लिए लगाते थे। शायद इसलिए कि मुसलमान इसी बात से रीझकर भाजपा को वोट देने लगें। आडवाणी के बारे में क्या कहा जाए, वे तो भारत के बंटवारे के जिम्मेदार माने जाने वाले मौहम्मद अली जिनाह की कब्र पर जाकर शीश नवाकर आ चुके हैं। हमारा तो बस यही कहना है कि प्रचार करो तो ऐसा करो जिसमें तथ्यात्मक गलतियों न हो। किसी पढ़े-लिखे आदमी को इस काम पर लगाओ, वरना सिवाए जगहंसाई के कुछ नहीं मिलेगा।

Tuesday, December 8, 2009

बेगुनाह लोगों को मारने से जन्नत नहीं दोजख मिलेगी

सलीम अख्तर सिद्दीकी
पाकिस्तान लम्बे अर्से से आतंकवाद से कराह रहा है। इस्लाम के नाम पर गैर इस्लामी हरकतों की वजह से इस्लाम पूरी दुनिया में बदनाम हो रहा है। आखिर वे लोग कौन हैं, जो मस्जिदों में नमाजियों को गोलियों से भून रहे हैं ? आत्मघाती हमलों से बेगुनाह लोगों की खून से जमीन को लाल कर रहे हैं ? उनका क्या उद्देश्य है ? उनका ये कौनसा इस्लाम है ? पता नहीं वे मुसलमान हैं भी या नहीं ? इस्लाम तो पूरी दुनिया को भलाई की तरफ ले जाने के लिए अल्लाह ने क़ुरआन के जरिए जमीन पर भेजा था। जिस इस्लाम में पड़ोसी के भूखा रहने पर खाना हराम करार कर दिया हो। जो इस्लाम शिक्षा के लिए चीन तक जाने की बात करता हो। जो इस्लाम औरतों की इज्जत करने की हिदायत देता है। जो इस्लाम एक बेगुनाह के कत्ल को पूरी इंसानियत का कत्ल होने की बात करता हो। उस इस्लाम के बारे में कुछ लोगों की करतूतों से पूरी दुनिया में यह संदेश गया है कि इस्लाम एक दकियानूसी और खून-खराबे वाला धर्म है। इससे उन लोगों को फायदा पहुंचा है, जो जमीन पर इस्लाम का नामो निशान मिटाना चाहते हैं। और समय-समय पर इस्लाम को बदनाम करने की साजिशें रचते हैं। पता नहीं पाकिस्तान के हुक्मरानों ने अमेरिका की शह पर अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बच्चों को कौनसा इस्लाम पढ़ाया कि वे सही इस्लाम को भूलकर गैरइस्लामी हरकतें कर रहे हैं। जेहाद की असल व्याख्या की जगह यह समझा दिया गया कि पेट पर बम बांध कर लोगों को मारोगे तो सीधे जन्नत मिलेगी। मानव बम बनने वालों का क्या पता कि मासूम और बेगुनाह लोगों को मारोगे तो जन्नत नहीं दोजख की आग मिलेगी। अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से तालिबान के अन्दर ऐसे ही जहर भरकर रुस के खिलाफ जेहाद कराया। अमेरिका कामयाब भी हुआ। अफगानिस्तान से रुस चला गया। अमेरिका का काम पूरा हो गया। अब तालिबान उसके किसी के काम के नहीं रहे। लेकिन तालिबान को ऐसे इस्लाम का पाठ पढा+ गया, जो कुरआन में कहीं नजर नहीं आता। अब तालिबान को पढ़ाया गया इस्लाम पूरी दुनिया को परेशान कर रहा है।
तालिबान इतना ताकतवर हो गया है कि पाकिस्तानी फौजें भी पस्त हो गयी हैं। अमेरिका के माथे पर पसीना आ गया है। अफगानिस्तान से लगे पाकिस्तान के वजीरिस्तान में तो हुकूमत ही तालिबान की चलती है। कुछ महीने पहले ही पाकिस्तान सरकार ने वहां तालिबान शासन को मान्यता देकर अपनी हार कबूल कर ली थी। अफगानिस्तान में हामिद करजई प्रभावहीन हैं। हामिद करजई का तालिबान से पार पाना बेहद मुश्किल काम है। इस समय पाकिस्तान की हालत 'इधर कुआं, उधर खाई' वाली हो चुकी है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि वह क्या करे ? तालिबान पाकिस्तान से इसलिए नाराज है कि वह अमेरिका का पिछलग्गू क्यों बना हुआ है। इधर, आतंकवाद के खिलाफ जंग में पाकिस्तान का अमेरिका के साथ खड़े होना जरुरी है। अमेरिका कह ही चुका है कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा दुश्मन है। इस तरह से पाकिस्तान के वजूद को दोनों तरफ से खतरा ही खतरा है। इसलिए पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक उलेमाओं से गुहार लगा रहे हैं कि वे आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी करें।
पाकिस्तान के उलेमा आतंकवाद के खिलाफ फतवा जारी करेंगे या नहीं, ये तो मालूम नहीं। लेकिन भारत के उलेमा तो मुंबई हमले के बाद आतंकवाद के खिलाफ फतवा जारी कर चुके हैं। अभी हाल ही में जमीयत-ए-उलेमा हिन्द ने अपने इजलास में भी आतंकवाद के खिलाफ काफी मुखर हो कर बोला है। जब पूरी दुनिया में एक ही इस्लाम है। एक ही कुरआन है तो फिर भारत के उलेमाओं के फतवे को पाकिस्तान में प्रचारित करना चाहिए। क्या पाकिस्तान और भारत के उलेमा कुरआन की अलग-अलग व्याख्या करेंगे ? वैसे भी ऐसा तो होगा नहीं कि भारत के उलेमा के फतवे की खबर तालिबान या पाकिस्तान के अन्य आतंकवादियों तक नहीं पहुंची होगी। पता नहीं फतवे का असर आतंकवादियों पर हुआ है या नहीं ? चलिए मान लेते हैं कि पाकिस्तान के मुसलमानों में भारत के उलेमाओं के फतवे की कोई मान्यता नहीं है। यदि पाकिस्तान के उलेमा फतवा जारी कर भी देंगे तो क्या हो जाएगा। क्या फतवा जारी होने से सभी आतंकवादी हथियार डाल कर सूफी-संत बन जाएंगे ? क़ुरआन में तो साफ लिखा है कि 'जिसने भी किसी एक बेगुनाह को कत्ल किया, समझो उसने पूरी इंसानियत का कत्ल किया।' क्या इस बात को समझने के लिए किसी फतवे की जरुरत है ? लेकिन आतंकवादी सही इस्लाम को समझें तो बात बने। पाकिस्तान ने जैसा बीज बोया है, वैसी ही फसल काट रहा है। पाकिस्तान को यह समझ लेना चाहिए कि तालिबान उसके वजूद के लिए हमेशा के लिए खतरा बन चुका है। यदि पाकिस्तानी हुक्मरानों को शांति चाहिए तो उसे सबसे पहले भारत के खिलाफ चलाए जा रहे अघोषित युद्ध को रोकना होगा। ठीक है तालिबान उसके बस में नहीं हैं, लेकिन वह इतना तो कर ही सकता है कि वह अपनी खुफिया एजेंसी आईएसआई, जो मुंबई जैसी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के लिए आतंकवादी तैयार करता है, उन पर रोक तो लगा ही सकता है। पाकिस्तान का हित भारत से दोस्ती करने में है, दुश्मनी करने में नहीं।

Sunday, December 6, 2009

26/11 से बड़ा था 6/12 का बाबरी मस्जिद पर हमला

सलीम अख्तर सिद्दीकी
26/11 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले को एक साल हो गया। इस दिन पूरे देश ने हमले में मरने वालों को अपने-अपने तरीके से याद किया। 26/11 का हमला पाकिस्तान की शह पर हुआ था, जो हमारा दुश्मन है। लेकिन याद किजिए 6/12 को अयोध्या में हुए बाबरी मस्जिद पर उस आतंकी हमले को, जिसे अंजाम देने के लिए पाकिस्तान से आतंकवादी नहीं आए थे। वो हमला अपने ही देश के उन लोगों ने किया था, जो अपने आप को 'राष्ट्रवादी' कहते नहीं थकते। विद्रूप यह था कि हमले को अंजाम देने में उत्तर प्रदेश के कुछ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने भी अपनी शर्मनाक भूमिा निभायी थी। उसी शर्मनाक भूमिका निभाने के एवज में भाजपा ने उन्हें लोकसभा और विधानसभाओं में भेजकर 'सम्मानित' किया था। जब हमलावारों के साथ सरकार भी शामिल हो जाए, तो उस हमले को 26/11 से भी बड़ा हमला कहना गलत नहीं होगा। देश ने साफ देखा था कि पुलिस वाले बाबरी मस्जिद को तोड़ने वालों का रोकने के बजाय या तो मूकदर्शक बने हुऐ थे या उनकी मदद कर रहे थे। 6/12 का हमला कुछ मायनों में 26/11 से भी बड़ा हमला इसलिए भी था क्योंकि 1 फरवरी 1986 को अनैतिक रुप से बाबरी मस्जिद के ताल खुलने के बाद से लेकर 6 दिसम्बर 1992 तक पूरे देश में पूरे संघ परिवार ने ऐसा धार्मिक उन्माद पैदा किया था कि उसे याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस वक्त बुजूर्गों का कहना था कि ऐसा धार्मिक उन्माद तो देश के बंटवारे के वक्त भी नहीं हुआ था। लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने 'पैट्रोल' का काम किया, जो जहां से गुजरी आग लगाती चली गयी। शहरों से लेकर गांवों तक रामशिला बांटने और उनके पूजन के नाम पर साम्प्रदाकिता का जहर हिन्दुओं में घोला गया। रातों-रात राम के नाम पर सेनाओं का गठन किया गया। जगह-जगह त्रिशूल बांटे गए। वे त्रिशूल रामसेवक का रुप धारण किए गुंडों में वितरित किए गए। पूरी योजना के तहत उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में प्रायोजित साम्प्रदायिक दंगों की श्रंखला चलायी गयी।
साम्प्रदायिक दंगों का सबसे भयावह रुप प्रशासनिक अधिकारियों की उनमें संलिप्ता रही थी। मैं वह मंजर कभी नहीं भूल सकता, जब मलियाना में आला पुलिस अधिकारियों के सामने ही दंगाईयों ने एक घर के 6 सदस्यों को एक कमरे में बंद करके उसमें लगा दी थी। जब पुलिस अधिकारियों से दंगाईयों को रोकने के लिए कहा गया तो वे केवल मुस्करा कर रह गए थे। यह बात याद रखी जानी चाहिए कि उस वक्त प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और जब मलियाना में पुलिस और पीएसी अपना कहर ढा रही थी तो उस वक्त के मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह मलियाना से मात्र 6 किलोमीटर दूर एक गेस्टहाउस में ठहरे हुए थे। भले ही लिब्रहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कांग्रेंस को क्लीन चिट दी हो, लेकिन यह सच है कि बाबरी मस्जिद का ताला खुलने से लेकर उसके उसके वंस तक की जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की थी। दरअसल, उस समय उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक अमले का एक बड़ा वर्ग संघ परिवार के एजेंडे को पूरा करने में सहयोग कर रहा था। उस वर्ग पर कांग्रेस सरकार का कंट्रोल नहीं रह गया था। इसलिए राममंदिर आंदोलन के चलते हुए साम्प्रदायिक दंगों में खुलकर पक्षपात किया गया था। उस वक्त दंगों में मरने वालों की तादाद तो सबसे ज्यादा होती ही थी, दंगाईयों के नाम पर पकड़े गए लोगों में नब्बे प्रतिशत मुसलमान ही होते थे। उन पर संगीन धाराओं में मुकदमे आयद किए गए थे। जेल में उनकी जमकर पिटाई की गयी थी। जेल में पिटाई के चलते कई लोग जेल में मारे गए थे।
6/12 को एक मस्जिद ही नही ढहाई गयी थी, बल्कि देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र की भी हत्या की हत्या कर दी गयी थी। 6/12 के बाद देश की राजनीति में निर्णायक तब्दीली आयी। बाबरी मस्जिद को ढहाने के बाद संघ परिवार ने अपने कुकृत्य को 'विजय' के रुप में प्रचारित करके साम्प्रदायिकता के जहर को बढ़ाने का काम किया था। संघ परिवार से पूछा जाना चाहिए कि अपने ही देश की एक प्राचीन और ऐतिहासिक इमारत को जमींदोज करके किस पर 'विजय' हासिल की थी ? जब पाकिस्तानी आतंकवादी 26 नवम्बर को मुंबई छाती पर गोलियां बरसा रहे थे, तब उनके वीर 'रामसेवक' कहां सोए हुए थे ? कहां चली गयी थी उनकी 'देशभक्ति' ? रामसेवक भी जानते थे कि अयोध्या में तैनात पुलिस अमला उन्हें कुछ नहीं कहने वाला है, लेकिन वे जो पाकिस्तानी आतंकवादी थे उनकी नजर में मुंबई का प्रत्येक इंसान सिर्फ और सिर्फ भारतीय था। इसलिए आतंकी हमले में मरने वालों में मुसलमानों की भी अच्छी खासी तादाद थी। बाबरी ध्वंस के बाद मुंबई में भयानक साम्प्रदायिक दंगा हुआ। दंगाईयों का कुछ नहीं बिगड़ा। हमेशा की तरह दंगों के जख्मों को जांच आयोग के झुनझुने से सही करने की नाकाम कोशिश की गयी। श्रीकृष्णा आयोग बना दिया गया। शायद इंसाफ न मिलने की उम्मीद में कुछ लोगों ने मार्च 1993 को मुंबई में बम धमाके किए। पाकिस्तान के पाले हुए आतंकवादियों को बम धमाके करने का तर्क मिल गया था कि उन्होंने बाबरी मस्जिद और मुंबई दंगों का बदला लेने के लिए ऐसा किया है। राममंदिर आंदोलन की भयावह परिणिति गुजरात नरसंहार के रुप में हुई। गोधरा में एक रेलगाड़ी में संदिग्ध पस्थितियों के चलते कथित कारसेवकों की मौत की आड़ में गुजरात नरसंहार किया गया।

Wednesday, December 2, 2009

मैं हिन्दू विरोधी नहीं हूं

सलीम अख्तर सिद्दीकी
कुछ लोग मुझ पर आरोप लगाते रहे हैं कि मैं हिन्दु विरोधी हूंं। सच बात तो यह है कि धर्म की राजनीति करने वालों के खिलाफ लिखता हूं। मैं हिन्दू विरोधी तब होता, जब मैं हिन्दू धर्म के खिलाफ लिखता। संघ परिवार ऐसा संगठन है, जिसकी बुनियाद ही मुस्लिम विरोध पर रखी गयी थी। बाद में ईसाईयों को भी संघ परिवार ने अपने निशाने पर ले लिया। आरएसएस की कोख से निकली जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी ने धर्म की राजनीति शुरु की। उनकी इसी राजनीति के चलते देश में भयानक साम्प्रदायिक दंगे हुए, जिनमें हजारों बेगुनाह हिन्दु और मुसलमान मारे गए थे। संघ परिवार की धर्म आधारित राजनीति का विरोध करना हिन्दु विरोधी होना नही है। संघ परिवार देश के 85 प्रतिशत हिन्दुओं का प्रतिननिधत्व नहीं करता है। ऐसे ही मुस्लिम लीग या मुस्लिमों की राजनीति करने वाले मुसलमान देश के सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। यदि ऐसा होता तो देश में दो ही पार्टियां होतीं भाजपा और मुस्लिम लीग। इस देश की बहुसंख्यक हिन्दु और मुस्लिम जनता धर्मनिरपेक्ष रही है। आजादी के बाद मुसलमानों ने कभी जवाहरलाल नेहरु तो कभी इंदिरा तो कभी विश्वनाथ प्रतापसिंह को अपना नेता माना है। अभी चार दिन पहले ही मेरठ में विहिप के प्रवीण भाई तोगड़िया कह गए हैं कि देश में गुजरात फार्मूले को लागू करने की जरुरत है। अब ऐसे में क्या मुझे तोगड़िया की तारीफ में कसीदे पढ़ने चाहिएं ?
जब भी गुजरात दंगों की बात आती है तो कुछ लोग गोधरा को बीच में ले आते हैं। गोधरा को बीच में लाना नरेन्द्र मोदी के फार्मले का समर्थन करना होता है। गोधरा एक वीभत्स घटना थी। लेकिन उस घटना की जांच करने से पहले ही इस बात को सच क्यों मान लिया गया कि ये काम मुसलमानों का ही है। यदि गोधरा कांड मुसलमानों का ही किया हुआ था तो क्या सरकार की शह पर मुसलमानों का कत्लेआम एक सभ्य, लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में जायज है ? यदि हां तो क्या इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों का नरसंहार भी जायज था ? क्या मुबई दंगों के बाद मार्च 1993 के बम धमाकों को भी सही ठहराना चाहिए ? आखिर मुंबई धमाकों को करने वालों का तर्क भी तो यही था कि उन्होंने बाबरी मस्जिद और मुंबई दंगों का बदला लेने के लिए धमाके किए हैं।
मुझ पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप संघी विचारधारा के लोग ही लगाते हैं। मेरा विरोध करने वाले यदि मेरे सभी आलेख पढ़ेंगे तो उन्हें मालूम पड़ेगा कि मेरी कलम हमेशा ही मजलूमों और समाज के सबसे निचले तबके के लोगों के लिए ही उठती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मजलूम कौन है और जालिम कौन है। स्व उदयन शर्मा मेरे आदर्श रहे हैं। उन्हीं को पढ़कर मैंने जाना है कि कलम हमेशा मजलूमों के पक्ष में ही उठनी चाहिए। मेरी तो कुछ भी औकात नहीं है। स्व उदयन शर्मा को संघी विचारधारा के लोग हिन्दू विरोधी बताते थे।

Tuesday, December 1, 2009

मंजू डागर की कविताएं


हकबात के पाठको के लिये पेश है, प्रतिष्ठित कवियित्री मंजू डागर जी की कुछ चुनिंदा कविताएं। इन कविताओं ने कहीं गहरे से मुझे छुआ, लगता है मंजू जी के कुछ एक आत्मिय क्षणों की सहज अभिव्यक्ति उनकी कविताओं में मुखर होकर बोलती है। मंजू डागर एक मशहूर न्यूज चैनल की ऐंकर हैं।


इस शहर में हर तरफ रोमांच नजर आता है

इस शहर में हर तरफ रोमांच नजर आता है ,

कही पर तेरी तो कही पर मेरी कहानी नजर आती है !

इस शहर में ...................................................

कही पर धर्म तो कही पर उन्माद नजर आता है !

कही पर आंधी तो कही पर तूफान नजर आता है !

इस शहर में ................................................

कही पर तेरी तो कही पर मेरी कहानी नजर आती है !

इस शहर में ................................................

कही पर दर्द तो कही पर ख़ुशी नजर आती है !

कही पर नमी तो कही पर मुस्कान नजर आती है !

इस शहर में ..............................................

कही पर नीति तो कही पर अनीति नजर आती है

कही पर संस्कार तो कही पर मज़बूरी नजर आती है

इस शहर में .................................................

कही पर तेरी तो कही पर मेरी कहानी नजर आती है !

साँझ और सवेरा ..........

तुम्ही मेरी साँझ !

तुम्ही मेरा सवेरा !

मुझको अपने जीवन का बना लो तुम बसेरा !

तुम्हारी आखो में चाहत के समंदर देखने को जी चाहता है !

तुम्हारी मुस्कान में पहली सी खूबसूरती देखने को जी चाहता है !

तुम्हारी जिंदगी के पल - पल में अपना हर पल बिताने को जी चाहता है !

तुम्ही मेरी ..........तुम्ही मेरा ...........

इक आवारा बादल........ A flirting cloud

जिन्दगी के हर मोड़ पर तुम्हारा साथ ,पाने की चाहत की थी कभी !

जिन्दगी के हर दोराहे पर तुम्हारे साथ ,चलने की चाहत की थी कभी !

जिन्दगी की हर उस जदोजहद पर जहा ,डगमगाए थे कदम तुम्हारे !

तुम्हे सँभालने की चाहत की थी कभी !लेकिन ,,,,,,,,,,तुम तो तुम ही थे !

न कभी किसी का साथ चाहा ,न कभी अपना साथ दिया ,अपनी मंजिल खुद खोजी !

चल कर पथरीली राहों पर !

नहीं डरे तुम काटों से ,नहीं डरे तुम पथरो से ,

सपना जो देखा था तुमने ,कुछ कर दिखने का ,दुनिया से अलग !

इसलिए ,,,,,,,,, अकेला चलने का व्रत जो लिया था तुम ने ,

आखरी दम तक निभाया भी उसको तुमने ,

तभी तो पसंद रहें तुम मेरी ,हमेशा ही सब से अलग ,

इक आवारा बादल की तरह !