Wednesday, November 25, 2009

आखिर अटल बिहारी वाजपेयी भी तो खाकी निक्करधारी हैं

सलीम अख्तर सिद्दीकी
6 दिसम्बर, 1992 को एक प्राचीन इमारत, जिसे मुसलमान बाबरी मस्जिद तो हिन्दुओं का साम्प्रदायिक वर्ग राम मंदिर होने का दावा करता था, जमींदोज कर दी गयी थी। उस दौर के लोग जानते हैं कि उस राष्ट्र विरोधी घटना को अंजाम देने के लिए भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में संघ परिवार ने अभूतपूर्व धार्मिक उन्माद फैलाया था। बुजुर्ग कहते हैं कि ऐसा उन्माद तो तब भी नहीं फैला था, जब देश का बंटवारा हुआ था। फरवरी 1986 से लेकर 6 दिसम्बर 1992 तक की घटनाओं को सिलसिलेवार देखने वाले लोग जानते हैं कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना को किसने अंजाम दिया था ? उसके पीछे कौन-कौन लोग थे ? इसकी जांच करने के लिए किसी जस्टिस लिब्रहान की जरुरत भी नहीं थी, जिसे पूरा करने में आयोग ने सत्रह साल लगा दिए। यह शीशे की तरह साफ था कि क्या हुआ था, किसने किया था और क्यों किया था। सही तो यह होता कि आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, कल्याण सिंह, उमा भारती, साध्वी रितम्भरा, मुरली मनोहर जोशी प्रमोद महाजन, विनय कटियार, अशोक सिंहल और प्रवीण तोगड़िया सहित पर्दे के पीछे से इन सभी को 'हांकने' वाले संघ नेतृत्व को जेल में डाल देना चाहिए था। लेकिन यह सभी न केवल आजाद घूमते रहे बल्कि सत्ता पर काबिज होकर 'गुजरात नरसंहार' जैसे हादसों को अंजाम देते रहे।
लिब्रहान आयोग जांच रिपोर्ट के लीक हुए हिस्से में अटल बिहारी वाजपेयी पर उंगली उठने से कुछ लोग हैरत जता रहे हैं। लेकिन सच यह है कि अटल बिहारी वाजपेयी के 'खांटी संघी' चेहरे पर आरएसएस ने एक उदारवादी मुखौटा लगा दिया था, जो बोलता कुछ था और करता कुछ और था। यह नहीं भूलना चाहिए कि आखिर अटल बिहारी वाजपेयी भी तो खाकी निक्करधारी हींं हैं। वे भला सभी स्यंवसेवकों की तरह आरएसएा की नीतियों से कैसे अलग जा सकते थे ? उसी मुखौटे से संघ परिवार ने 'अछूत' माने जाने वाली भाजपा को कुछ सत्ता के भूखे 'समाजवादियों' में स्वीकार्य कराकर भाजपा की सरकार बनवा दी थी। अटल बिहारी वाजपेयी नाम के शख्स का मुखौटा तो तब ही उतर गया था, जब वे 5 दिसम्बर 1992 को जमीन को समतल करने और वेदी के लिए जमीन लेने की बात कहकर अपनी मंशा जाहिर कर रहे थे। क्या किसी को याद पड़ता है कि कभी अटल बिहारी वाजपेयी ने सघ की मर्जी के बगैर कोई कदम उठाया हो ? याद किजिए 2002 का गुजरात नरंसहार। नरसंहार के बाद जब वाजपेयी विदेश यात्रा पर जा रहे थे, तो उन्होंने रुंधे गले से कहा था कि 'मैं क्या मुंह लेकर विदेश जाउंगा।' विदेश यात्रा से आने के बाद शायद आरएसएस की फटकार का नतीता था कि विदेश यात्रा से कुछ ही दिन बाद हुए भाजपा के गोवा अधिवेशन में वाजपेयी का 'सुर' बदला हुआ था।
लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट के कुछ अंश ही लीक हुए हैं। पूरी रिपोर्ट सार्वजनिक कर भी दी जाएगी तो क्या फायदा होने वाला है। 6 दिसम्बर का हादसा ऐसा नहीं था, जिसकी जांच में सत्रह साल का वक्त लगा दिया जाए। ऐसे में जांच रिपोर्ट बेनतीजा, बेमतलब और बेमानी है। वैसे भी भारत के इतिहास में अव्वल तो कभी जांच रिपोर्ट मुश्किल से ही सार्वजनिक की जाती है। सार्वजनिक कर भी दी गयी तो उस पर कभी अमल नहीं होता। 1987 में हुए मलियाना कांड की जांच रिपोर्ट सरकार के पास पड़ी धूल फांक रही है। मुसलमानों का अलमबरदार कहे जाने वाले मुलायम सिंह भी मुख्यमंत्री बने। मायावती पूर्ण बहुमल से सत्ता में हैं, लेकिन इन दोनों को कभी यह खयाल नहीं आया कि मलियाना कांड की रिपोर्ट को सार्वजनिक करके दोषियों को दंड दिया जाए। बाबरी मस्जिद विध्वंस के फौरन बाद हुए मुंबई दंगों की श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट का हशर सबको मालूम है। सवाल यह है कि जब ऐसी जांच आयोग की रिपोर्ट की कोई हैसियत नहीं है तो क्यों समय और पैसा बरबाद किया जाता है ?
लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट लीक होने से किस को फायदा या नुकसान होगा, ये भी अब बेमानी है। 6 दिसम्बर 1992 के बाद सरयू में बहुत पानी बह चुका है। कांठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है। यदि भाजपा या सपा से सोच रही हैं कि वे इसका फायदा उठा लेंगी तो वे गलत सोच रही हैं। हिन्दुओं को पता चल चुका है कि भाजपा ने उनका उल्लू बनाया तो मुसलमान भी बाबरी मस्जिद को भूलकर आगे निकल चुके हैं। जो बेगुनाह लोग बाबरी मस्जिद और राममंदिर आंदोलन के चलते मारे गए थे, शायद उन्हीं बेगुनाह लोगों की ही बद्दुओं का ही असर है कि बाबरी मस्जिद और राममंदिर आंदोलन के 'गर्भ' से निकली भाजपा और समाजवादी पार्टी न सिर्फ समय-समय पर अपमानित हो रही हैं, बल्कि 'सुपूर्द-ए-खाक' होने की ओर भी अग्रसर हैं। सरकार भले ही इंसाफ दे या न दे, वक्त तो अपना काम करता ही है। वक्त को किसी लिब्रहान आयोग की जरुरत नहीं है।

Tuesday, November 17, 2009

सपा के ताबूत में आखिरी कील

सलीम अख्तर सिद्दीकी
पता नहीं हमारे सियासतदांओं को क्या हो गया है। इन्हें देखकर तो गिरगिट भी सोचता होगा कि ये तो मुझसे भी जल्दी और ज्यादा रंग बदलते हैं। फिरोजाबाद सीट हारते ही मुलायम सिंह ने अपने सखा कल्याण सिंह को दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फैंक दिया। भाजपा और आरएसएस को पानी पी-पी कर कोसने वाले कल्याण सिंह को भी फौरन ही हिन्दुत्व और राममंदिर की याद आ गई। भाजपा और सपा राममंदिर आंदोलन की देन हैं। 1986 में शुरु हुए बाबरी मस्जिद-राममंदिर विवाद के चलते उत्तर प्रदेश में भयानक साम्प्रदायिक दंगों का दौर चला था। उस वक्त की कांगे्रस सरकार मुसलामनों की रक्षा करने में विफल रही थी। तब से उत्तर प्रदेश का मुसलमान कांग्रेस विरोधी हो गया था। उसी दौरान जनता दल में शामिल रहे मुलायम सिंह यादव मुसलानों के खैरख्वाह बनकर उभरे। मुसलमानों ने कांग्रेस के विकल्प के रुप में मुलायम सिंह यादव को सिर आंखों पर बैठा लिया। इधर भाजपा हिन्दुओं की सबसे बड़ी हितैषी बन कर उभरी। भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी एक दूसरे को ऑक्सीजन देने का काम करती रहीं। उत्तर प्रदेश में 1989 में जनता दल की सरकार थी। मुख्यमंत्री मुलायम सिह यादव थे। जब 30 अक्टूबर 1989 को तथाकथित उन्मादी कारसेवकों ने कार सेवा के नाम पर बाबरी मस्जिद पर धावा बोला तो मुलायम सिंह की सरकार ने कारसेवकों का प्रयास विफल कर दिया। इसके लिए सरकार को कारसेवकों पर गोली चलानी पड़ी। तभी से मुलायम सिंह भाजपाइयों के लिए 'मुल्ला मुलायम' हो गए। बस यहीं से उत्तर प्रदेश का मुसलमान मुलायम सिंह के पीछे लामबंद हो गया। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद कर दी गयी। बाबरी मस्जिद को शहीद कराने में कांग्रेस को बराबर का भागीदार माना गया। मुसलमान कांग्रेस से बिल्कुल विमुख हो गए।
धीरे-धीरे राममंदिर-बाबरी मस्जिद का मुद्दा राख में तबदील होना आरम्भ हुआ तो भाजपा और सपा से भी लोगों का मोहभंग हुआ। मुलायम सिंह यादव अपने शासनकाल में मुसलमानों के लिए कुछ नहीं कर पाए। जब भी उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरियों की भर्ती खुली तभी यादवों ने ही अपनी झोली भरी। मुसलमानों की झोली हमेशा की तरह खाली रही। भाजपा जहां दिशाहीन हुई, वहीं सपा एक परिवार और अमर सिंह की बपौती बनकर रह गयी। भाजपा सुशासन देने में न सिर्फ विफल रही बल्कि उसमें वे सब बुराइयां आ गईं जो अन्य पार्टियों में मौजूद थीं। जिन लोगों ने सपा को खड़ा करने में अपना जीवन लगाया, उन्हें हाशिए पर डालकर 'सत्ता के दलाल' कहे जाने वाले अमर सिंह को तरजीह दी गयी। अमर सिंह के चक्कर में ही राज बब्बर पार्टी छोड़ गए। रही सही कसर कल्याण सिंह को पार्टी में लाकर पूरी कर दी गयी। पता नहीं मुलायम सिंह कल्याण सिंह को क्या सोचकर पार्टी में लाए थे। भाजपा नेताओं में कल्याण सिंह और नरेन्द्र मोदी को मुसलमान सबसे ज्यादा नापसंद करते हैं। कल्याण सिंह को लेकर आजम खान ने न सिर्फ बगावत की बल्कि सार्वजनिक तौर अमर सिंह पर जम कर बरसे। अब जो वह मुलायम सिंह को भी नहीं बख्शते हैं। इन सब बातों के चलते सपा और भाजपा का नाराज वोटर कांग्रेस की ओर चला गया।
सपा के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का काम मुलायम सिंह के परिवारवाद ने किया। स्वयं मुलायम सिंह यादव समेत उनके घर के चार सदस्य लोकसभा में हैं। एक भाई राज्य सभा में हैं। जैसे इतना ही काफी नहीं था। फिरोजाबाद उपचुनाव में उन्होंने अपनी बहु डिंपल को खड़ा कर दिया। उनकी इस हरकत से मुसलमानों को ही नहीं यादवों को भी यही लगा कि मुलायम सिंह पार्टी का इस्तेमाल सिर्फ अपने परिवार का स्वार्थ साधने में कर रहे हैं। मुसलमानों में कल्याण सिंह फैक्टर ने भी काम किया। कल्याण सिंह फैक्टर तो लोकसभा के चुनाव में भी था, लेकिन तब शायद मुलायम सिंह इसे अच्छी तरह से समझ नहीं पाए। सपा के फायर ब्रांड मुस्लिम चेहरे आजम खान की बगावत को भी मुलायम सिंह ने हल्के में लिया। उन्होंने आजम खान के मुकाबिल अबूआजमी को खड़ा करने की कोशिश की, जो नाकाम रही। यह तो मानना ही पड़ेगा कि आजम खान का अपना जनाधार है। आजम खान को भी पार्टी से निकालना मुलायम सिंह को कहीं न कहीं महंगा पड़ा है। रही बात कल्याण सिंह की तो वह भले ही यह कहते रहें हों कि वह भाजपा में वापस नहीं जाएंगे। लेकिन अन्ततः उनकी गति भाजपा में ही है। सपा से निकाले जाने के बाद कल्याण सिंह को हिन्दुत्व और राममंदिर की याद आ गयी है। लेकिन अगर मुलायम सिंह यह सोच रहे हैं कि कल्याण सिंह से पल्ला झाड़कर वे मुसलमानों के वोट हासिल कर लेंगे, वे गलत सोच रहे हैं। अब कल्याण सिंह भाजपा में जाएं या आजम खान की वापसी सपा में हो जाए, लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा और सपा का फिर से पैर जमाना नामुमकिन ना सही बहुत मुश्किल जरुर है। क्योंकि राहुल गांधी जिस तरह से सधे हुए कदमों से आगे बढ़ रहे हैं, उससे लगता है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वापसी सुनिश्चित हो चुकी है।

Sunday, November 15, 2009

'लविंग जेहाद' : अफसाना और हकीकत

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मेरी पिछली संघ परिवार का नया शिगूफा है 'लविंग जेहाद' पर कुछ लोगों ने तीखे कमेंट किए हैं। उनके कमेंट पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगते हैं। दरअसल, ये वो लोग हैं, जिन्हें नागपुर से घड़कर भेजा गया कोई भी अफसाना हकीकत लगता है। 'लविंग जेहाद' का अफसाना भी इसी श्रेणी में आता है। हालांकि कुछ लोगों ने मेरी पोस्ट का समर्थन भी किया है, लेकिन उनकी संख्या बेहद कम रही। बहरहाल, मुझे इस बारे में यह कहना है कि वे लोग जो, नागपुर के अफसाने को हकीकत की तरह देखते हैं, उन्हें अपना नजरिया तथ्यों की रोशनी में बदलना चाहिए। कई लोगों ने कहा कि केरल हाईकोर्ट ने 'लविंग जेहाद' की जांच के आदेश दिए हैं। उन लोगों के लिए ताजा खबर यह है कि केरल सीआईडी ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में कहा है कि राज्य में लविंग जेहाद ेका कोई वजदू नहीं है।
मैं यह कह चुका हूं कि अन्तरधार्मिक प्रेम और शादियों की वजह क्या है। ऐसा भी नहीं है कि ऐसा कभी हुआ ही नहीं। यह अलग बात है कि मीडिया के फैलाव और संघ परिवार की हायतौबा के चलते यह ज्यादा लगने लगना है। यह सिलसिला तभी से चल रहा है, जब से मुस्लिम भारत में आए। मुगल बादशाह अकबर ने जोधाबाई से शादी की थी। फिल्मों मे अन्तरधार्मिक शादियों को सिलसिला भी पुराना है। नर्गिस ने सुनील दत्त से शादी की। किशोर कुमार ने मधुबाला से शादी की, जो मुस्लिम थीं । सुनील शेट्टी की पत्नि मुस्लिम हैंं। इसी तरह शाहरुख और आमिर खान ने हिन्दु लड़कियों से शादी की। मशहूर फिल्म निर्देशक फरहा खान और तब्बू की बह फरहा ने हिन्दू से शादी की है। बॉलीवुड की यह कुछ मिसालें हैं। यदि बात की जाए राजनीति की तो इंदिरा गांधी ने एक पारसी फिरोज से शादी की थी। राजीव गांधी ने ईसाई से शादी की। उमर अब्दुल्ला ने एक हिन्दू परिवार में शादी की तो सचिन पायलट की पत्नि उमर अब्दुल्ला की बहन हैं। किसी का बेटा यूरोप के किसी देश से गोरी मेम से शादी करके आ जाता है। मुसलमानों में सुन्नी और शियों में शादियां आमतौर पर नहीं होती हैं। लेकिन लखनउ जैसे शहर में जहां शियों की संख्या ज्यादा है, सुन्नी और शियों की शादियां भी होती हैं। यह सब कहने का मतलब यह है कि जब दो बड़े धार्मिक समूह, मत अथवा जातियां एक साथ रहेंगी तो आपस में प्रेम भी होगा और शादियां भी होंगी। अब इसे लविंग जेहाद कहें या कुछ और कहें। यह भी सच है कि मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग में ऐसी शादियां अपवाद स्वरुप ही होती हैं। अपवाद स्वरुप शादियों पर इतनी हायतौबा मचाना ठीक नहीं है।
यहां मैं बहुत तल्ख बात कहना चाहूंगा कि धर्म, जाति और संस्कृति का ढिंढोरा पीटने वाले लोग खुद अपने बच्चों का कितना ध्यान रखते है ? धीरे-धीरे लड़कियों से सिर से दुपट्टा पहले गले में आया। थोड़े दिन बाद गले से भी गायब हो गया। भारतीय संस्कृति का प्रतीक सलवार सूट भी अपनी पहचान खो गया। उसकी जगह टाइट जींस और टॉप ने ले ली। कुछ दिन बाद जींस नाभि से नीचे आ गयी। टॉप थोड़ा और उंचा हो गया। इनमें उनकी लड़कियां भी शामिल हैं, जो सुबह-शाम शाखाओं में जाते हैं और भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर रास्ते जाम करते हैं। उनकी लड़कियां भी कम नहीं हैं, जो इस्लाम के अलमबरदार बने फिरते हैं। आप इन लड़कियों के मां-बाप से ड्रेस के बारे में कहेंगे तो जवाब मिलेगा जमाने के साथ चलना पड़ता है। अब जब ऐसी ड्रेस होगी तो स्कूल-कालेजों के रास्ते में लड़कों का जमावड़ा भी होगा और छेड़छाड़ भी होगी। लड़कों के जमावड़े में हिन्दू भी होंगे और मुसलमान भी। कुछ मां-बाप कभी अपनी लड़कियों से यह भी नहीं पूछते कि महंगा मोबाइल कहां से आया ? मोबाइल का बिल कौन भरता है ? मंहगे कपड़े और गैजेट कहां से आते हैं ? आमतौर से देख लीजिए लड़कियों के कान पर हर समय मोबाइल लगा रहता है। पता नहीं इन लड़कियों के कौनसे इतने बड़े बिजनेस चल रहे हैं, जो उन्हें हर समय मोबाइल कान से लगाना पड़ता है ? यदि तथाकथित लविंग जेहाद को रोकना है या परिवार की इज्जत बरकरार रखनी है तो भारतीय संस्कृति का अनुसरण करना ही पड़ेगा। लेकिन दिक्क्त यह है कि 1991 से शुरु हुई आंधी 2009 में तूफान में बदल चुकी है। इसे रोकना मुमकिन नहीं है। अच्छा तो यही है कि अपने बच्चों को इस तूफान से बचाकर रखें। लविंग जेहाद का स्यापा पीटने से कुछ नहीं होने वाला है। अफसानों पर यकीन मत किजिए हकीकत का सामना करें।

Thursday, November 12, 2009

संघ परिवार का नया शिगूफा है 'लविंग जेहाद'

सलीम अख्तर सिद्दीकी
यह बात तो माननी पड़ेगी कि संघ परिवार का 'थिंक टैंक' नए-नए मिथक घड़ने में बहुत माहिर है। खासतौर से मुसलमानों के बारे में संघ परिवार ऐसे-ऐसे मिथक घड़ता है कि कभी हंसी आती तो कभी संघ परिवार पर तरस आता है। राममंदिर के आंदोलन को उसने 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की संज्ञा देकर अपने गुनाहों पर परदा डालने की कोशिश की। आतंकवाद के दौर में संघ परिवार ने यह कहना शुरु किया कि 'यह सही है कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन प्रत्येक आतंकवादी मुसलमान ही क्यों है।' लेकिन जब मालेगांव से लेकर मडगांव तक के बम धमाकों में हिन्दुवादी संगठनों की संलिप्ता सामने आयी तो संघ परिवार को सांप सूंघ गया। बहुत पहले से संघ परिवार ने 'लविंग जेहाद' का मिथक घड़ रखा है। शुरु में तो यही पता नहीं चल पाया कि यह 'लविंग जेहाद' बला क्या है। धीरे-धीरे पता चला कि संघ परिवार ने एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत यह अफवाह फैलाई कि मुस्लिम लड़के अपनी पहचान छिपाकर भोली और मासूम हिन्दू लड़कियों को अपने प्रेम जाल में फंसाकर उनसे शादी करते हैं और बाद में उनका धर्म-परिवर्तन कराते हैं। यहां तक झूठ बोला गया कि हिन्दू लड़कियों को आतंकवादी कार्यवाई में हिस्सा लेने के लिए तैयार किया जाता है। ऐसा लगता है कि संघ परिवार को यही नहीं पता कि यह इक्कसवीं सदी चल रही है। इस सदी में वह सब कुछ हो रहा है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। आज की तारीख में भारत में मल्टीनेशनल कम्पनियों की बाढ़ आयी हुई है। इन कम्पनियों में हिन्दु और मुस्लिम लड़कियां और लड़के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं। सहशिक्षा ले रहे हैं। साथ-साथ कोचिंग कर रहे हैं। इस बीच अन्तरधार्मिक, अन्तरजातीय और एक गोत्र के होते हुए भी प्रेम होना अस्वाभाविक नहीं है। प्रेम होगा तो शादियां भी होंगी। समाज और परिवार से बगावत करके भीे होंगी। अब कोई हिन्दु लड़की किसी मुस्लिम लड़के से प्रेम और शादी कर लेती हैं तो संघ परिवार 'लविंग जेहाद' का राग अलापना शुरु कर देता है। जबकि सच यह है कि मुस्लिम लड़कियां भी हिन्दु लड़कों से अच्छी खासी तादाद में शादियां कर रही हैं। इसे संघ परिवार क्या नाम देना चाहेगा ? शायद इसमें भी संघ परिवार यह कहना चाहेगा कि मुस्लिम लड़कियां हिन्दू लड़के का भी धर्म-परिवर्तन कराकर 'लविंग जेहाद' को अन्जाम दे रही हैं। मेरठ के एक गैर सरकारी संगठन ने उन हिन्दू और मुस्लिम लड़कियों से बातचीत की थी, जो विपरीत धर्म के लड़कों से प्रेम करती थीं। उस बातचीत में यह निकलकर आया था कि वे लड़के का धर्म पहले से जानती थीं, लेकिन दिल के हाथों मजबूर थीं।
लड़के और लड़की की जिद के चलते अब तो परिवार की रजामंदी से भी अन्तरधार्मिक शादियां हो रही हैं। कुछ साल पहले जब मैं अपने छोटे भाई की शादी के लिए शादी कार्ड लेने बाजार गया तो सेम्पल के तौर पर जो कार्ड दुकानदार ने मुझे दिखाए थे, उनमें एक कार्ड अन्तरधार्मिक शादी का कार्ड भी था। उस दिन मेरा यह मिथक टूटा था कि अन्तरधार्मिक शादियां केवल समाज और परिवार से बगावत करके की सम्भव हो सकती हैं। मेरे एक रिश्तेदार के लड़के का स्कूल के जमाने में ही एक हिन्दू लड़की से अफेयर हो गया था। मेरे रिश्तेदार बहुत परेशान हो गए थे। लेकिन वह इस बात से आशवस्त थे कि किशोर उम्र की प्यार की खुमारी वक्त के साथ खुद ही दूर हो जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं । लड़के ने दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कम्पनी ज्वायन कर ली। लड़की अपनी एजुकेशन पूरी करके घर में रही। लेकिन दोनों का प्यार कम नहीं हुआ। दोनों ही ने कहीं और शादी करने से साफ इनकार कर दिया। दोनों परिवारों ने आपसी रजामंदी से दोनों के कोई गलत कदम उठाने से पहले दोनों को शादी की रजामंदी दे दी। अब इसे 'लविंग जेहाद' कहें या यह कहें कि 'जोड़ियां स्वर्ग में तय होती हैं।' यह भी सवाल है कि जब एक मुस्लिम लड़की एक हिन्दू लड़के से शादी करले तो उसे क्या कहा जाए ? क्या उसे मुसलमान 'धर्मयुद्ध' कहना शुरु कर दें ?
सच्चाई यह है कि 90 के दशक के बाद से उदारीकरण के दौर में बहुत खुलापन आया है। मीडिया, खासतौर से टेलीविजन और फिल्मों ने युवाओं पर गहरा असर डाला है। मल्टीनेशनल कम्पनियों ने युवाओं को टारगेट करके व्यापारिक नीतियां बनायीं और उन पर मीडिया के जरिए अमल किया। परिवार के बुजूर्ग रुढ़ियों को पकड़े बैठे रहे जबकि मीडिया ने अपने स्वार्थ के चलते युवाओं को ऐसी राह दिखा दी, जिसने न जानें कितने युवाओं की बलि ले ली। अन्तरधार्मिक, अन्तरजातीय तथा समान गोत्र में शादियां हुईं, जिनके के चलते 'ऑनर किलिंग' सिलसिला चल पड़ा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा 'ऑनर किलिंग' को लेकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय चर्चा में हैं। संघ परिवार ने 'लविंग जेहाद' जैसे मिथक घड़ दिए। याद रखिए संकीर्णता और आधुनिकता एक साथ नहीं चल सकतीं। अब वह जमाना गया, जब लड़कियों को परिवार वाले किसी भी खूंटे से बांध देते थे। लड़कियों ने शिक्षा ली है तो उन्हें अपने अधिकार भी पता चले हैं। परिवर्तन की इस आंधी को युवाओं की जान लेकर या लविंग जेहाद का नाम देकर नहीं रोका जा सकता है। वक्त बदल रहा है। सभी को वक्त के साथ बदलना ही पड़ेगा, संघ परिवार को भी।

Wednesday, November 11, 2009

राजठाकरे को महाराष्ट्र का 'भिंडरावाला' मत बनाइए

सलीम अख्तर सिद्दीकी
महाराष्ट्र में चुनाव नतीजे आने और मनसे को 13 सीटें मिलने के बाद मैंने एक आलेख 'महाराष्ट्र में खून-खराबे की आहट' शीर्षक से लिखा था। ज्यादा वक्त नहीं बीता कि मेरी आशंका सही साबित हो गयी। लेकिन मुझे इस बात का अंदाजा तब भी नहीं था कि मनसे के 'कायर' विधायक हिन्दी में शपथ लेने पर ही इतना बड़ा वितंडा खड़ा करेंगे, जिससे पूरा देश शर्मसार हो जाएगा। हंगामे के बाद जिस बेशर्मी से मनसे विधायकों ने मीडिया के सामने खुद ही अपनी जय-जयकार की है, उससे इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि महाराष्ट्र में क्या होने जा रहा है। जरा सोचिए, जो लोग विधानसभा के अंदर शपथ लेते एक विधायक के सामने से माइक लेकर तोड़ दें और विधायक की पिटाई कर दें, वे लोग आम उत्तर भारतीयों के साथ क्या कुछ नहीं कर सकते ? मजे की बात यह है कि मराठी भाषा के नाम पर राष्ट्रभाषा का अपमान करने वाले वही लोग हैं, जो वंदेमातरम्‌-वंदेमातरम्‌ कह कर देशभक्त होने का ढिंढोरा पीटते हैं। इस पूरे हंगामे के बाद महाराष्ट्र सरकार की चुप्पी शर्मनाक ही नहीं है बल्कि उसकी नीयत भी ठीक नहीं लगती। कांगेस महाराष्ट्र में राजठाकरे नाम का एक और 'भिंडरावाला' पैदा कर रही है। ऐसी ही गलती कांगेस ने अस्सी के दशक में अकालियों के मुकाबले जनरैल सिंह भिंडरावाला को खड़ा करके की थी। कांगेस की उस राजनीति ने देश को कितनी बड़ी कीमत चुकाई थी, यह इतिहास में दर्ज है। जून 1984 में ऑप्रेशन ब्लू स्टार के बाद 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या और इंदिरा गांधी की हत्या के फौरन बाद पूरे देश में सिखों का कत्लेआम हुआ। तब भी 'नासूर' को 'कैंसर' में जानबूझकर तब्दील होने दिया गया था। कैंसर की 'सर्जरी' तब की गयी जब मरीज के ऑप्रेशेन टेबिल पर ही मृत्यु होने के सौ फीसदी चांस थे। ऐसा ही हुआ भी था।
अब कांग्रेस महाराष्ट्र में अस्सी के दशक वाली वही गलती कर रही है, जो उसने पंजाब में की थी। शिवसेना के मुकाबिल मनसे को खड़ा किया जा रहा है। बल्कि खड़ा कर दिया गया है। लौंडो-लपाड़ों की पार्टी के 13 विधायक विधानसभा में उत्पात मचाने के लिए भिजवा दिए गए। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि आज समाजवादी पार्टी का विधायक मनसे की गुंडागर्दी का निशाना बना है तो कल कांग्रेस के विधायक भी बन सकते हैं। इतिहास गवाह है कि भस्मासुर को पालने वाला ही भस्मासुर का शिकार होता आया है। वह भस्मासुर भिंडरावाला हो या ओसमा-बिन-लादेन। अभी यह कहीं से नहीं लग रहा है कि कांग्रेस मनसे पर लगाम लगाने की नीयत रखती है। कांग्रेस की नीति हमेशा से ही किसी भी समस्या को ठंडे बस्ते में डालकर इंतजार करने की रही है। समस्या जब विकराल रुप धारण कर लेती है और पूरा देश कुछ करने की गुहार लगाता है, तब कांगे्रस 'देश को बचाने' के नाम पर कार्यवाई करती है। लेकिन तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि समस्या खत्म होने के बजाय बढ़ जाती है। पंजाब में भी कांगे्रस ने यही किया था। बाबरी मस्जिद मुद्दे पर भी यही स्टैण्ड था। अब मनसे पर भी कांग्रेस की यही नीति है।
यदि अतीत पर नजर डालें तो पाएंगे कि इस देश में भावनात्मक, धार्मिक, क्षेत्रीय और भाषाई मुद्दों पर ही राजनीति की शुरुआत की जाती है। राष्ट्रीय हित गौण हो जाते हैं। ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब जनता ही ऐसे मुद्दों पर राजनैतिक दलों की झोलियां वोटों से भर देती हैं। सभी प्रदेशों में क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने प्रदेश, जाति और धर्म की अस्मिता के नाम पर राज करती है। आम भारतीयता कहीं नजर नहीं आती है। भावनात्मक मुद्दों की रौ में बहकर आम आदमी यह भी भूल जाता है कि उसका कितना शोषण हो रहा है। उसके बच्चों के लिए अच्छे स्कूल नहीं हैं। अस्पताल नहीं हैं। दो वक्त की रोटी नहीं है। राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर हजारों बेगुनाह लोगों का खुन बहाया गया। हजारों लोग अपने ही शहर में विस्थापित हुए। देश के दुश्मनों को पेट पर बम बांधकर धमाके करने वाले नौजवान आसानी से उपलब्ध हुए। इतना गंवाने के बाद हिन्दुत्व के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा को 6 साल तक सत्ता सुख भोगने का अवसर मिला। लेकिन राममंदिर नहीं बन सका। यही कमोबेश यही कहानी सपा, बसपा, लोकदल, शिवसेना और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों की है।
राज ठाकरे भी मराठी अस्मिता के नाम पर नफरत बांटकर सत्ता का सुख उठाना चाहते हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि ऐसी राजनीति की एक सीमा होती है। चाचा बाल ठाकरे ने भी राजनीति के इसी शॉर्टकट से महाराष्ट्र में सत्ता हासिल की थी, लेकिन महाराष्ट्र के बाहर उन्हें आज भी कोई नहीं पूछता। मनसे की नफरत की राजनीति की भी एक सीमा तय है। वे 13 से ज्यादा से ज्यादा 30 हो सकते हैं। इससे ज्यादा के लिए उन्हें नफरत की नहीं प्यार की राजनीति करनी पड़ेगी, जो उनके खून में नहीं है। मनसे को यह भी याद रखना चाहिए कि तमाम तरह के हथकंडों के बाद भी भाजपा अपने बूते केन्द्र में सरकार नहीं बना सकी थी। सर्वस्वीकार्य होने के लिए उसे भी दिखावे के लिए ही सही राममंदिर जैसे महत्वाकांक्षी मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा था। आज भाजपा लगातार गर्त में जा रही है। हालत यह हो गयी है कि भाजपा के लोग ही अब भाजपा के दुश्मन हो गए है। लेकिन भाजपा ने देश का जो नुकसान करना था, वह तो कर ही दिया है। इस नुकसान को पूरा होने में बहुत वक्त लगेगा। दलितों के भरोसे सत्ता हासिल करने का ख्वाब देखने वाली मायावती को भी सभी जातियों को साथ लेकर चलना पड़ा, तभी उन्हें विधानसभा में बहुमत मिला। मुसलमानों और यादवों के सहारे सत्ता का स्वाद चख चुके मुलायम सिंह यादव को उन्हीं के गढ़ में कांग्रेस और बसपा ने पटकनी दी है। मनसे भी एक तयशुदा उंचाई तक जाने के बाद नीचे आएगी ही लेकिन इस बीच वे महाराष्ट्र और देश का कितना बड़ा नुकसान कर देंगे, इसका अंदाजा भी होना भी जरुरी है। क्यों नहीं राज ठाकरे को 'भिंडरावाला' बनने से रोकने के उपाएं अभी से किए जाएं ?

Sunday, November 8, 2009

वंदेमातरम्‌ की नहीं, रोटी की बात करें

सलीम अख्तर सिद्दीकी
जमीयत उलेमा हिन्द के तीसवें अधिवेशन में वंदेमातरम्‌ के गाने के खिलाफ फतवा क्या आया, भूचाल आ गया। सबसे पहले तो यह कि जब पहले से ही जमीयत का वंदेमातरम्‌ पर रुख साफ है तो इस मुद््‌दे को क्यों बार-बार हवा देकर भावनाएं भड़काने का काम किया जाता है ? वंदेमातरम्‌ गाना न गाना किसी की इच्छा पर निर्भर करता है। न तो इस पर किसी को न गाने का दबाव दिया जा सकता है और न ही जबरदस्ती गाने के लिए मजबूर किया जा सकता है। जमीयत और संघ परिवार बुनियादी इंसानी जरुरतों को नजरअंदाज करके ऐसे मुद्दों को हवा दे रहे हैं, जिनसे समाज में केवल नफरत ही फैल सकती है। वंदेमातरम्‌ गाने से न तो कोई देशभक्त बन सकता है और न ही ना गाने से देशद्रोही हो जाता है। वंदेमातरम्‌ गाने वाले देश में बम धमाके करके देशद्रोही होने का सबूत दे चुके हैं तो न गाने वाले देश के सम्मान के लिए जान भी न्योछावर करते रहे हैं। इसलिए वंदेमातरम्‌ को देशभक्ति से जोड़ कर देखने वाले अहमक हैं। क्या यह हैरत की बात नहीं है कि जमीयत उलेमा हिन्द के इजलास में इंसानी बुनियादी जरुरतों को नजरअंदाज किया गया। आज देश की गरीब ही नहीं निम्न मध्यम और मध्यम वर्ग कही जानी वाली जनता के सामने रोटी की गम्भीर समस्या पैदा हो गयी है। आटा, दाल, चीनी और दूध जैसी बुनियादी चीजों पर मंहगाई की मार है। आम आदमी त्राहि-त्राहि कर रहा है। जमीयत ने मंहगाई के खिलाफ अपना मुंह क्यों नहीं खोला ? संघ परिवार कभी भी अपने अधिवेशनों में रोटी की बात नहीं करता। उसे केवल हिन्दुत्व की चिंता रहती है। हिन्दुत्व भी वह, जिससे सिर्फ घ्‌णा ही फैलती है।
कहते हैं कि भूखे पेट तो भजन भी नहीं होता। क्या वंदेमातरम्‌ गाकर आदमी का पेट भर सकता है ? या न गाने से मुसलमानों की समस्याएं खत्म हो जाती हैं ? देश की प्रति वफादारी अपनी जगह है। लेकिन देश पर हूकुमत करने वाले लोगों की भी जिम्मेदारी है कि वह जनता को दो जून की रोटी मुहैया कराएं। अक्सर देखा गया है कि जब भी मंहगाई होती है तो कुछ राज्य सरकारें अपनी तरफ से सस्ती चीजें बेचने के लिए कुछ दुकानें लगाती हैं। क्या इतने मात्र से ही मंहगाई पर काबू पाया जा सकता है ? सवाल यह है कि देश की जनता को सरकार यह क्यों नहीं बताती कि चीनी 20 से 40 रुपए क्यों हो गयी है ? आटा क्यों 20 रुपए किलो बिकने लगता है और घी -तेल में क्यों रातों-रात आग लग जाती है ? आखिर कीमते बढ़ने की कुछ तो वजह होती है ? क्या सरकार जमाखोरों के आगे घुटने टेकने के लिए अलावा कुछ नहीं कर सकती ? क्या कानून का डंडा जमाखोरों और मुनाफाखोरों के लिए नहीं है ? क्या सरकार उस वक्त का इंतजार कर रही है, जब भूखी जनता दुकानों में लूटपाट शुरु कर देगी ? क्या आगरा की घटना इसकी शुरुआत मानी जाए ? खुदा न करे यदि ऐसा हुआ तो भी सरकार का चाबुक उन्हीं गरीबों की पीठ पर पड़ेगा, जो भूख से मजबूर होकर अपना आपा खो बैठेंगे और सुरक्षा होगी उन जमाखोरों की जो, अनाज को मनमाने दामों पर बेचकर अपनी तिजोरियां भरते हैं।
पहले भी कहता रहा हूं आज भी कहता हूं आजकल की सरकारें गरीबों को केवल वोट देने वाली भेड़ों के अलावा कुछ नहीं समझतीं। सरकार गरीब लोग ही बनाते हैं। अमीर लोगों को तो वोट देना भी बेकार का काम लगता है। इसलिए वंदेमातरम्‌ गाने या न गाने की बहस में न उलझकर रोटी की चिंता कीजिए। याद रखिए वंदेमातरम्‌ पर बहस चलाने वालों को रोटी की चिंता नहीं है। इनके पेट भरे हुए हैं। ये लोग ऐशोआराम की जिंदगी जीते हैं। इन्हें नहीं पता कि आटे का क्या भाव हो गया है। इसलिए ये लोग कभी भी रोटी की बात नहीं करते। भूख कभी इनके एजेंडे में नहीं रही। देश के गरीबों को एक बात समझ लेनी चाहिए के राजनैतिक दलों ने हमें धार्मिक जाति और क्षेत्रीयता में इसलिए बांट दिया है ताकि गरीब लोग एक साथ इकट्ठा होकर इनके गिरेबां पर हाथ न डाल सकें। सही बात तो यह है कि गरीब न हिन्दू होता न मुसलमान। भूख की आग हिन्दू के पेट को भी उतना ही जलाती है जितना मुसलमान के पेट को।

Tuesday, November 3, 2009

नक्सलवादी आतंकवादी नहीं हैं आशुतोष जी

सलीम अख्तर सिद्दीकी
2 नवम्बर के दैनिक 'हिन्दुस्तान' में आइबीएन-7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष का एक आलेख 'सर कलम करने की विचारधारा' प्रकाशित हुआ है। उस लेख में आशुतोष ने वामपंथ को लोकतन्त्र, मानवाधिकार विरोधी और हिंसा का समर्थक बताया है। आशुतोष ने अपने इस लेख में वामपंथ को कोसने के साथ ही नक्सली आन्दोलन को सिर कलम करने की विचारधारा बताया है। हिंसा का समर्थन किसी भी तरह से नहीं किया जा सकता है। लेकिन मैं इस बात का समर्थन करता हूं कि जब किसी देश के एक वर्ग को हाशिए पर धकेल दिया जाए। उसके साथ नाइंसाफी की जाए। उसके अधिकार उसे नहीं दिए जाएं। उसके हिस्से के पैसे को बिचौलिए डकार जाएं। ऐसे में उस वर्ग को विरोध करने के लिए सामने आना ही चाहिए। उनके विरोध का तरीका भगत सिंह वाला भी हो सकता है और गांधी वाला भी। दोनों ही तरीकों की अपनी-अपनी महत्ता है। देश की आजादी की लड़ाई दोनों तरीकों से लड़ी गयी। तब भी भगत सिंह सरीखे लोगों को ब्रिटिश हकूमत आतंकवादी कहती थी। ब्रिटिश दस्तावेजों में आज भी भगत सिंह और उनके साथी आतंकवादी के रुप में दर्ज हैं। इस बात पर आज भी बहस होती रहती है कि देश को आजाद कराने में भगत सिंह का तरीका सही था या महात्मा गांधी का।
आज जब समाज का एक वर्ग अपने अधिकारों को पाने के लिए या सिस्टम को बदलने के लिए संघर्ष करता है तो वही बात आती है कि कौनसा तरीका सही है। हिंसा का यहा अहिंसा का। सही बात तो यह है कि गांधी का अहिंसा का सिद्धान्त ही सर्वोत्तम है। लेकिन आज का शासक वर्ग अहिंसात्कम रुप से चलाए जा रहे आन्दोलनों की परवाह कब करता है। देश की राजधानी के जन्तर-मन्तर पर जाएं या लखनउ की विधानसभा के सामने धरना स्थल पर जाकर देखें। वहां पर सालों-साल से कुछ लोग अपनी मांगों के लिए धरना दे रहे हैं। उनके तम्बूओं में छेद हो गए हैं। लेकिन उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया है। कल यही लोग धरना स्थल से उठकर हथियार उठा लें तो उन पर आतंकवादी होने का ठप्पा लग जाएगा। आशुतोष जैसे लोग ही लिखेंगे कि उनका तरीका गलत है। एक पत्रकार होने के नाते आशुतोष जानते होंगे कि अपने मौहल्ले की एक सड़क बनवाने के लिए भी लोगों को धरना-प्रदर्शन और सड़क जाम करनी पड़ती है, तब जाकर प्रशासन को पता चलता है कि वाकई इनकी सड़क बनवाने की मांग जायज है। इससे पहले नगर-निकाय के अधिकारियों को लाख पत्र लिखते रहिए उनके कानों पर जूं नहीं रेंगती है।
यह ठीक है कि नक्सली आन्दोलन हिंसात्मक हुआ है, लेकिन इतना नहीं कि नक्सलियों को आतंकवादियों की श्रेणी में रखकर उन पर गोलियां चलाने की बात की जाए। और फिर हर आन्दोलन में कुछ ऐसे लोग घुस आते हैं, जो अपनी हरकतों से आन्दोलन को बदनाम करते हैं। नक्सलियों ने हाल ही में राजधानी एक्सप्रेस को हाईजैक किया। जरा सोचिए नक्सली यात्रियों की हत्या भी कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्या आतंकवादी यात्रियों को छोड़ देते? यही फर्क है नक्सलियों और आतंकवादियों मे। बार-बार कहा जाता है कि नक्सली लोकतन्त्र का रास्ता अपनाकर अपनी मांगों को मनवाएं संसद और विधानसभाओं में पहुंचे। सवाल यह है कि क्या संसद और विधानसभा में पहुंचने से ही समस्या का हल हो जाएगा ? इस सिस्टम को नौकरशाह चलाते हैं। क्या नौकरशाह इस सिस्टम को बदलने की नीयत रखते हैं ? लड़ाई तो यही है कि सरकारी योजनाओं के पैसे की नौकरशाह, ठेकेदार और नेता आपस में बंदरबांट कर लेते हैं। अब यह बात किसी से छिपी नहीं है कि एक रुपए में से केवल 15 पैसे ही आम जनता की भलाई के लिए खर्च होता है। मौजूदा सिस्टम में जनता के 85 पैसों को डकार लिया जाता है। क्या मौजूदा सरकारें ऐसा कुछ नहीं कर सकतीं, जिससे कम से कम पचास पैसे तो जनता को मिल जाएं। यदि सरकारें ऐसा कर लें तो नक्सली समस्या खुद ही खत्म हो जाएगी। सरकारें और आशुतोष जैसे लोग इस बात पर विचार क्यों नहीं करते कि आखिर 'लाल गलियारा' ग्लोबल वार्मिंग की तरह बढ़ता क्यों जा रहा है ? इसको रोकने के लिए क्या उपाए किए गए ? इसको बढ़ाने में कौन जिम्मेदार है ?
लोकतन्त्र एक अच्छी चीज है। लेकिन क्या लोकतन्त्र में भी तानाशाही मौजूद नहीं हैं ? मिसाल के तौर पर क्या गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकतन्त्र का चोला पहनकर तानाशाही नहीं चलायी ? नक्सली किसी एक पुलिस अधिकारी का गला रेत दें तो बहुत बड़ा जुर्म होता है। आशुतोष जैसे लोग नक्सली विचारधारा को 'सर कलम करने की विचारधारा' कहने लगते हैं। लेकिन एक मुख्यमंत्री हजारों लोगों को मरवा दे, वह फिर भी न केवल मुख्यमंत्री बना रहता है, बल्कि उसे दोषी भी नहीं माना जाता। क्या आशुतोष नरेन्द्र मोदी को 'सर कलम करने वाला मुख्यमंत्री' कहने की जुर्रत कर सकते हैं ? भारी उत्पात मचाकर लोकतन्त्र के रास्ते राजठाकरे जैसा आदमी 13 सीटें जीतकर विधानसभा में एक ताकत बनकर क्यों जाना वाहिए ? यह कैसा लोकतन्त्र है, जिसमें राष्ट्रविरोधी, माफिया और गुंडे संसद और विधानसभाओं में पहुंच जाते हैं ? यह कैसा सिस्टम है, जिसमें ऐसे लोगों को रोकने का कोई प्रावधान नहीं है ? क्या आशुतोष नहीं जानते कि मौजूदा संसद में लगभग आधे सांसद करोड़पति और अरबपति हैं ? इनसे सरकारें यह क्यों नहीं पूछतीं कि इतना पैसा इनके पास कैसे आया ? लगातार कम होता वोटिंग प्रतिशत इस बात का साफ संकेत है कि आम आदमी का भी लोकतन्त्र से मोहभंग होता जा रहा है। पहले लोकतन्त्र के रास्ते घुस आयी गंदगी को दूर करने की मुहिम तो चलाइए, फिर नक्सलियों को लोकतन्त्र अपनाने की बातें की जाएं तो बेहतर होगा। यदि सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो 'लाल गलियारा' ऐसे ही बढ़ता रहेगा और उन जगहों पर पहुंच जाएगा, जिन के बारे में कहा जाता है कि वहां पर नक्सली विचारधारा पनपने के हालात नहीं हैं।