Thursday, October 29, 2009

'हिन्दुस्तान समागम' उर्फ 'बौद्धिक ऐय्याशी'

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
'हिन्दुस्तान' अखबार के 'हिन्दुस्तान समागम-2009' : उत्तर प्रदेश 2020 दिशा और दशा' के अर्न्तगत लखनऊ में एक आयोजन किया गया। इसमें नामचीन हस्तियों ने इस बात पर मंथन किया कि 2020 तक उत्तर प्रदेश को कैसे 'उत्तम प्रदेश' में बदला जाए। पता नहीं अखबार के नए प्रधान सम्पादक शशि शेखर ने किस नीयत से समागम का आयोजन किया था। लेकिन इतना तो तय है कि जो चेहरे इस समागम में बोले हैं, ये वही चेहरे हैं, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में शासन किया है। समागम में लोकदल के जयंत चौधरी, कांग्रेस के जितिन प्रसाद तथा भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी, आदि लोगों की उत्तर प्रदेश के लिए चिंता और उसकी तरक्की की बातें करते देख गुस्से के साथ-साथ हंसी भी आयी। इनमें से लोकदल, कांग्रेस और भाजपा ने प्रदेश पर कई-कई बार शासन किया है। उनके शासन काल में उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश बनने के बजाय उल्टा प्रदेश क्यों बन गया?
सरकार उनकी थी। क्या अड़चन थी उनके साथ? अब जब वह सत्ता से बाहर हैं तो एक पांच सितारा होटल के वातानूकुलित हॉल में बैठकर उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने की बातें करके उन गरीबों, दलितो वंचितों और अल्पसंख्यकों के घावों पर नमक छिड़क रहे हैं, जो इन लोगों के कुशासन की वजह से जर्रा-जर्रा मरने पर मजबूर हैं। मुख्तार अब्बास नकवी साहब उस पार्टी से ताल्लुक रखते हैं, जिसने उत्तर प्रदेश को 'कर्फ्यू प्रदेश' में तब्दील कर दिया था। उनकी पार्टी के राम मंदिर आंदोलन की वजह से उत्तर प्रदेश के लोग सालों-साल खौफ और दहशत के साए में रहने को मजबूर हुए। हजारों बेगुनाह लोगों का खून बहा। ऐसे लोग जब उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने की बात करते हैं तो बहुत कोफ्त होती है और गुस्सा आता है ऐसे लोगों पर जो उनको मंच प्रदान करते हैं। कांग्रेस ने सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश पर शासन किया है। उनकी पार्टी के जितिन प्रसाद कहते हैं कि राजनीति में 'युवाओं का दखल बढ़ाना होगा।' सवाल यह है कि कौन से युवाओं का? क्या जितिन प्रसाद, जयंत चौधरी, अखिलेश यादव, उमर अब्दुल्ला, ज्योतिरादत्य सिंधिया और राहुल गांधी आदि जैसे युवाओं की जो अपने बाप की विरासत के चलते राजनीति में आए हैं? इन युवा नेताओं की इससे ज्यादा क्या योग्यता है कि वे एक राजनीतिज्ञ के बेटे हैं? एक गली का लड़का क्यों विधायक या सांसद बनने का ख्वाब नहीं देख सकता? क्या इसलिए कि राजनीति केवल कुछ परिवारों की बपौती बन गयी है? क्या यह महज इत्तेफाक है कि किसी ने भी राजनीति में वंशवाद के खिलाफ अपना मुंह नहीं खोला। खोलते भी कैसे, हमाम में सभी नंगे जो हैं?
समागम में केवल एक आदमी संदीप पांडे था, जिसने उन लोगों की बात की, जिनके उत्थान के बगैर उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश नहीं बन सकता। लेकिन मजबूरी यह है कि संदीप पांडे जैसे लोग हैं कितने और उनकी आवाज सुनता कौन है? यह सच है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली कुछ लोगों को अमीर बनाने की मशीन में तब्दील हो गयी है। उनका अधिकतर कोटा ब्लैक में जमाखोरों के गोदामों में पहुंच जाता है। रातों-रात आटा दो रुपए किलो मंहगा हो जाता है। मजदूरी आठ आने भी नहीं बढ़ती। प्रदेश की जनता को मुनाफखोरों, जमाखोरों और मिलावटखोरों के हाल पर छोड़ दिया गया है। एक साइकिल चोर को तो पुलिस मार-मारकर अधमरा कर देती है। लेकिन जमाखोर की तरफ निगाह नहीं उठाती। ऐसा इसलिए होता है कि जमाखोर इन्हीं नेताओं को चन्दा देता है, जो पांच सितारा होटल में बैठकर 'बौद्धिक ऐय्याशी' करते हैं। शिक्षा सबका मौलिक अधिकार नहीं रही। शिक्षा को बहुत बड़ा बाजार बना दिया गया है। इन्हीं नेताओं की नीतियों से एक गरीब आदमी अपने बच्चों को इन्जीनियर या डाक्टर बनाने का सपना नहीं देख सकता। समागम का क्या उद्देश्य था, यह तो शशि शेखर ही बता सकते हैं। शशि जी को एक बात समझ लेनी चाहिए कि जब तक मीडिया नेताओं की चमचागिरी के बजाय उन पर प्रहार नहीं करेगा, भ्रष्टाचार, जमाखोरी, मुनाफखोरी और मिलावटखोरी के खिलाफ मोर्चा नहीं खोलेगा, आम आदमी को राहत नहीं पहुंचाएगा, तब तक उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश नहीं बनेगा। यह याद रखिए, मल्टी नेशनल कम्पनियों के सहारे एक अखबार को ब्रांड में तो बदला जा सकता है, जनता के दिलों में नहीं उतरा जा सकता है। आज उत्तर प्रदेश को ऐसे मीडिया की जरूरत है, जो जनपक्षधर होने के साथ-साथ निर्भीक हो।
saleem_iect@yahoo.co.in
'खुद का हाल ठीक नहीं, चले हैं यूपी संवारने'
शशिशेखर का इमोशनल अत्याचार
'यशवंत भाई, बेवजह न करें टांग खिंचाई!'

Monday, October 26, 2009

महाराष्ट्र में खून-खराबे की आहट

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
महाराष्ट्र में भले ही कांग्रेस जीत गयी हो, लेकिन कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र चुनौती बनने जा रहा है। यह सच है कि कांगेस को तीसरी बार सत्ता में लाने का श्रेय राजठाकरे को भी है। 13 सीट जीतकर राजठाकरे की महत्वाकांक्षा को पंख लग जाएंगे। अपने चाचा बाल ठाकरे से मराठा मानुष की अस्मिता का मुद्दा छीनकर राजठाकरे ने जो 13 सीटें हथियाई हैं, उन्हें वे 130 करने में वही हथकंडा अपनाएंगे, जिस हथकंडे से 13 सीटें हासिल की हैं। आज राज ठाकरे शिवसेना को सत्ता से दूर रखने में कामयाब हुए हैं, कल वह हर हाल में सत्ता का स्वाद चखना जरुर चाहेंगे। राजठाकरे जैसे लोगों के पास जनता में अपनी पैंठ बढ़ाने के लिए कोई आर्थिक या सामाजिक एजेंडा तो है नहीं, जिसे आगे बढ़ाकर वे जनता में अपनी स्वीकार्यता बढ़ा सकें। मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे उनकी प्राथमिकता नहीं है। कभी याद नहीं पड़ता कि शिवसेना ने इन मुद्दों पर कोई आन्दोलन किया हो। अब इन मुद्दों से वोट भी कहां मिलते हैं। वोट तो क्षेत्रीयता और धर्मिक भावनाओं को भुनाकर मिलते हैं। मराठी अस्मिता ही इनके लिए सब कुछ है। जैस नरेन्द्र मोदी के लिए गुजरात की अस्मिता ही सब कुछ हो गयी है। भले ही देश की अस्मिता दांव पर लग जाए लेकिन मराठी और गुजराती अस्मिता को आंच नहीं आनी चाहिए। नफरत और खून-खराबा ही राजठाकरों और नरेन्द्र मोदियों का एकमात्र एजेंडा है। बाल ठाकरे ने भी यही किया था। राजठाकरे ने भी यही किया, कर रहे हैं और आगे भी करेंगे।
शिवसेना बाल ठाकरे उस घायल बूढ़े शेर की तरह हो गए हैं, जो कमजोर हो गया है, जिसके दांत भी नहीं है। लेकिन वह दहाड़ रहा है। जंगल में आग लगाने की बात तो करता है, लेकिन कर कुछ नहीं सकता। ऐसा लगता है घायल होने के साथ ही उनका दिमागी संतुलन भी बिगड़ गया है। तभी तो वे 'सामना' में घृणास्पद और छिछोरी और उल-जलूल भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसी भाषा बालठाकरे इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे देखते हुए तो उन्हें जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए था, लेकिन वे बालठाकरे हैं। उनका कोई कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इस देश में कानून तो आम आदमी रुपी मेमने के लिए है, जिसकी जब चाहे गर्दन मरोड़ दी जाए। बालठाकरे ने हमेशा ही एक निर्मम तानाशाह जैसा बर्ताव किया है। बालठाकरे वैसे भी हिटलर जैसे तानाशाह को अपना रोल मॉडल मानते रहे हैं। लेकिन क्या उन्हें यह नहीं पता कि हिटलर ने भी खुदकशी करके कायरता का परिचय दिया था ? क्या वे सद्दाम हुसैन का हश्र भी भूल गए हैं ? सच यह है कि एक तानाशाह के डर की वजह से सब हां में हां मिलाते हैं, तो वह यह समझता है कि उसकी प्रजा उसकी बहुत इज्जत करती है। जबकि सच्चाई यह होती है कि बेबस जनता तानाशाह के कमजोर होने का इंतजार करती है। बालठाकरे के साथ भ्ी ऐसा ही हुआ। जनता ने दिखा दिया कि वही सबसे बड़ी ताकत है। सभी तानाशाह अन्दर से कमजोर और डरपोक हुआ करते हैं। बालठाकरे मराठियों के बारे में कह रहे हैं कि मराठियों ने उन्हें धोखा दिया है। पीठ में खंजर घोंपा है। बाल ठाकरे से सवाल किया जाना चाहिए कि क्या एक लोकान्त्रिक देश की जनता को एक ही परिवार को शासन करने के लिए वोट देते रहना चाहिए ? यदि वे वोट नहीं दें तो गद्दार कहलाएं। क्या महाराष्ट्र या मुंबई ठाकरे परिवार की बपौती है ?
कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं। मराठी वोटों के वर्चस्व के लिए चाचा-भतीजा में तलवारें खिंच गयी है। दोनों अपनी-फौजों को तैयार कर रहे हैं। बकौल चाचा बालठाकरे, 'उन्होंने हार के फूलों को संजो कर रखा है। यही फूल अंगोर बनेंगे।' चाचा के इन शब्दों का मतलब कोई अक्ल का अंधा भी निकाल सकता है। इधर, भतीजा राजठाकरे उत्साहित है। इस उत्साह में उनकी ब्रिगेड कब उत्तर भारतीयों को निशाना बनायी, यह देखना दिलचस्प होगा। इतना तय है कि मुंबई की सड़कों पर उत्तर भारतीयों पर एक बार फिर कहर टूटने वाला है। अमिताभ बच्चन जैसे बड़े लोग तो राजठाकरे या बालठाकरे की डयोढी पर जाकर सिर नवा आएंगे और बचे रहेंगे्र। लेकिन उन इलाहबादियों और बिहारियों का क्या होगा, जो दो जून की रोटी का जुगाड़ करने मुंबई जाते हैं। उन्हें चाचा-भतीजे के ताप से कौन बचाएगा ? महाराष्ट्र सरकार ने अतीत में ही राजठाकरे का क्या बिगाड़ लिया था, जो अब बिगाड़ेगी। तो क्या महाराष्ट्र का 'भिंडरावाला' ऐसे ही उत्पात मचाता रहेगा ? क्या आपको महाराष्ट्र में खून-खराबे की आहट सुनाई नहीं दे रही ? मुझे तो दे रही है।

महाराष्ट्र में खून-खराबे की आहट

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
महाराष्ट्र में भले ही कांग्रेस जीत गयी हो, लेकिन कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र चुनौती बनने जा रहा है। यह सच है कि कांगेस को तीसरी बार सत्ता में लाने का श्रेय राजठाकरे को भी है। 13 सीट जीतकर राजठाकरे की महत्वाकांक्षा को पंख लग जाएंगे। अपने चाचा बाल ठाकरे से मराठा मानुष की अस्मिता का मुद्दा छीनकर राजठाकरे ने जो 13 सीटें हथियाई हैं, उन्हें वे 130 करने में वही हथकंडा अपनाएंगे, जिस हथकंडे से 13 सीटें हासिल की हैं। आज राज ठाकरे शिवसेना को सत्ता से दूर रखने में कामयाब हुए हैं, कल वह हर हाल में सत्ता का स्वाद चखना जरुर चाहेंगे। राजठाकरे जैसे लोगों के पास जनता में अपनी पैंठ बढ़ाने के लिए कोई आर्थिक या सामाजिक एजेंडा तो है नहीं, जिसे आगे बढ़ाकर वे जनता में अपनी स्वीकार्यता बढ़ा सकें। मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे उनकी प्राथमिकता नहीं है। कभी याद नहीं पड़ता कि शिवसेना ने इन मुद्दों पर कोई आन्दोलन किया हो। अब इन मुद्दों से वोट भी कहां मिलते हैं। वोट तो क्षेत्रीयता और धर्मिक भावनाओं को भुनाकर मिलते हैं। मराठी अस्मिता ही इनके लिए सब कुछ है। जैस नरेन्द्र मोदी के लिए गुजरात की अस्मिता ही सब कुछ हो गयी है। भले ही देश की अस्मिता दांव पर लग जाए लेकिन मराठी और गुजराती अस्मिता को आंच नहीं आनी चाहिए। नफरत और खून-खराबा ही राजठाकरों और नरेन्द्र मोदियों का एकमात्र एजेंडा है। बाल ठाकरे ने भी यही किया था। राजठाकरे ने भी यही किया, कर रहे हैं और आगे भी करेंगे।
शिवसेना बाल ठाकरे उस घायल बूढ़े शेर की तरह हो गए हैं, जो कमजोर हो गया है, जिसके दांत भी नहीं है। लेकिन वह दहाड़ रहा है। जंगल में आग लगाने की बात तो करता है, लेकिन कर कुछ नहीं सकता। ऐसा लगता है घायल होने के साथ ही उनका दिमागी संतुलन भी बिगड़ गया है। तभी तो वे 'सामना' में घृणास्पद और छिछोरी और उल-जलूल भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसी भाषा बालठाकरे इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे देखते हुए तो उन्हें जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए था, लेकिन वे बालठाकरे हैं। उनका कोई कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इस देश में कानून तो आम आदमी रुपी मेमने के लिए है, जिसकी जब चाहे गर्दन मरोड़ दी जाए। बालठाकरे ने हमेशा ही एक निर्मम तानाशाह जैसा बर्ताव किया है। बालठाकरे वैसे भी हिटलर जैसे तानाशाह को अपना रोल मॉडल मानते रहे हैं। लेकिन क्या उन्हें यह नहीं पता कि हिटलर ने भी खुदकशी करके कायरता का परिचय दिया था ? क्या वे सद्दाम हुसैन का हश्र भी भूल गए हैं ? सच यह है कि एक तानाशाह के डर की वजह से सब हां में हां मिलाते हैं, तो वह यह समझता है कि उसकी प्रजा उसकी बहुत इज्जत करती है। जबकि सच्चाई यह होती है कि बेबस जनता तानाशाह के कमजोर होने का इंतजार करती है। बालठाकरे के साथ भ्ी ऐसा ही हुआ। जनता ने दिखा दिया कि वही सबसे बड़ी ताकत है। सभी तानाशाह अन्दर से कमजोर और डरपोक हुआ करते हैं। बालठाकरे मराठियों के बारे में कह रहे हैं कि मराठियों ने उन्हें धोखा दिया है। पीठ में खंजर घोंपा है। बाल ठाकरे से सवाल किया जाना चाहिए कि क्या एक लोकान्त्रिक देश की जनता को एक ही परिवार को शासन करने के लिए वोट देते रहना चाहिए ? यदि वे वोट नहीं दें तो गद्दार कहलाएं। क्या महाराष्ट्र या मुंबई ठाकरे परिवार की बपौती है ?
कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं। मराठी वोटों के वर्चस्व के लिए चाचा-भतीजा में तलवारें खिंच गयी है। दोनों अपनी-फौजों को तैयार कर रहे हैं। बकौल चाचा बालठाकरे, 'उन्होंने हार के फूलों को संजो कर रखा है। यही फूल अंगोर बनेंगे।' चाचा के इन शब्दों का मतलब कोई अक्ल का अंधा भी निकाल सकता है। इधर, भतीजा राजठाकरे उत्साहित है। इस उत्साह में उनकी ब्रिगेड कब उत्तर भारतीयों को निशाना बनायी, यह देखना दिलचस्प होगा। इतना तय है कि मुंबई की सड़कों पर उत्तर भारतीयों पर एक बार फिर कहर टूटने वाला है। अमिताभ बच्चन जैसे बड़े लोग तो राजठाकरे या बालठाकरे की डयोढी पर जाकर सिर नवा आएंगे और बचे रहेंगे्र। लेकिन उन इलाहबादियों और बिहारियों का क्या होगा, जो दो जून की रोटी का जुगाड़ करने मुंबई जाते हैं। उन्हें चाचा-भतीजे के ताप से कौन बचाएगा ? महाराष्ट्र सरकार ने अतीत में ही राजठाकरे का क्या बिगाड़ लिया था, जो अब बिगाड़ेगी। तो क्या महाराष्ट्र का 'भिंडरावाला' ऐसे ही उत्पात मचाता रहेगा ? क्या आपको महाराष्ट्र में खून-खराबे की आहट सुनाई नहीं दे रही ? मुझे तो दे रही है।

Wednesday, October 21, 2009

गुजरात नरसंहार का एक और खूंखार चेहरा

शेष नारायण सिंह
गुजरात के २००२ नरसंहार प्रोग्राम में बहुत लोग मारे गए थे । सारे काण्ड एक से बढ़ कर एक क्रूर थे .लेकिन नरोदा पटिया में जिस तरह से लोगों को मारा गया वह वहशत की सारी सीमायें पार करने वाला था . गुजरात सरकार के ट्रांसपोर्ट विभाग में काम करने वाले एक सुभाष चन्द्र दरजी ने वहां की एक चाल में जलते हुए टायरों के टुकड़े या और कोई अति ज्वलन शील चीज़ फ़ेंक देते थे . जिस चाल पर उन्होंने यह कारनामा किया ,उसी चाल से करीब ५८ लोगों की मौत की जानकारी है . नरोदा पटिया के नरसंहार में ९५ लोग मारे गए थे . जिन लोगों ने नरोदा पटिया के क़त्ले-आम को मीडिया के लिए कवर किया था उनमें से कई लोगों ने बताया कि सुभाष चन्द्र दरजी २००२ नर संहार का सबसे खूंखार हत्यारा था . लेकिन जब राज्य सरकार ने जांच का काम शुरू किया तो उसके खिलाफ एफ आई आर तक नहीं दर्ज किया. लिहाजा वह छुट्टा घूमता रहा और इस बात का उदाहरण बना रहा कि मोदी नाल रहोगे तो मौज करोगे॥ लेकिन कानून के लम्बे हाथ से इतना खूंखार अपराधी कब तक बच सकता था . जब तीस्ता सीतलवाड की कोशिश के बाद सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात नरसंहार २००२ के मामलों में राज्य सरकार की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाया और उनकी जांच को रद्द किया तो इतिहास के इस सरकारी प्रायोजित नरसंहार की परतें खुलना शुरू हो गयीं . बेस्ट बेकरी से शुरू हो कर अब तक कई मामलों में सच्चाई सामने आने का काम शुरू हो गया है. नरोदा पटिया मामले में भी गुजरात सरकार की जांच में उल्टा सीधा किये जाने के आरोप थे जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट की विशेष जांच टीम ( एस आई टी ) जांच का ज़िम्मा लिया और सुभाष चन्द्र दरजी के खिलाफ दिए गए आम लोगों के बयानों कके बाद उसे पकड़ कर तरीके से पूछ ताछ की . नतीजा यह हुआ कि उसने सारी सच्चाई उगल दी. अब दुनिया जानती है कि नरोदा पटिया में जितने लोग मारे गए थे , लगभग सभी की हात्य इसी आदमी की वजह से हुई थी . कुछ को इसने खुद ही जिंदा जलाया था और कुछ को मारने वालों ने इस से प्रेरणा ली थी. नरसंहार के बाद यह सरकार और मोदी के ख़ास बन्दों में गिना जाने लगा और बदमाशी के ज़रिये वसूली का धंधा करने लगा . इसके व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उस इलाके में और भी कुछ लोगों ने बदमाशी को एक पेशे के रूप में अपनाया. इसकी ताक़त इतनी बढ़ गयी थी कि यह गुजरात सरकार में किसी के भी अटके काम करा देता था , नरेंद्र भाई का ख़ास आदमी माना जाता था और उम्मीद कर रहा था कि एक दिन कहीं से चुनाव जीत कर सम्मान की जिन्दगी बिताने लगेगा . इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और न्याय की ताक़त का अंदाज़ इस अपराधी को भी लग गया और गुजरात सरकार में बैठे इसके आकाओं को भी .अदालतें सुभाष चन्द्र दरजी के अपराध को इतना गंभीर मान रही हैं कि उसे कहीं से ज़मानत नहीं मिल रही है . निचली अदालत से ज़मानत की अर्जी खारिज होने के बाद, उसने गुजरात हाई कोर्ट में ज़मानत की प्रार्थना की थी जो कि खारिज हो गयी है . यानी अब अगर उसे ज़मानत लेनी है तो सुप्रीम कोर्ट जाना होगा.हाई कोर्ट इस अपराधी की ज़मानत की सुनवाई के दौरान जो कहा है वह दरजी के अपराध को सही परिप्रेक्ष्य में रख देता है .हाई कोर्ट ने कहा कि दरजी का सामूहिक हत्या का अपराध ऐसा है जिसका समकालीन सामाजिक इतिहास में कोई और कोई जोड़ नहीं है .उसके अपराध की गंभीरता के मदद-ए-नज़र उसे खुला छोड़ना ठीक नहीं है . अजीब बात यह है कि दरजी के वकील ने हाई कोर्ट से गुजारिश की है कि उसके जेल में होने की वजह से उसकी पत्नी को बहुत ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ रहा है . कोई भी उसकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा है. हालांकि उसके अपराध के लिए उसकी पत्नी की परेशानी से खुश होने की ज़रुरत नहीं है लेकिन यह दिमाग में रखा जाए तो बेहतर होगा कि जिन लोगों के परिवार वालों को दरजी ने जला कर मार डाला था उनके ऊपर क्या गुज़र रहा होगा.करीब २ साल से जेल में बंद सुभाष चन्द्र दरजी की केस का प्रचार किया जाना चाहिए कि राजनीतिक नेता मामूली आदमी को इस्तेमाल करके उस से अपराध तो करवा लेता है लेकिन जब वह अपराधी आदमी सज़ा पा जाता है तो उसके राजनीतिक आका उसके परिवार को नहीं पूछते . राजनीतिक अपराध करवाने वाले बहुत गुरु होते हैं . जो अपराधी बेकार हो जाते हैं या जिन्हने जेल की सज़ा हो जाती है उन्हें राजनीतिक आका लोग भूल जाते हैं और नए अपराधी पाल लेते हैं. गुजरात में इस तरह की बहुत सारी घटनाएं हो रही हैं . अपराध जगत के लोग और पुलिस में जी हुजूरी करने वालों की जो जमात है , उसे गुजरात सरकार और उसेक राजनीतिक आकाओं के असली रूप का अंदाज़ हो रहा है. जो भी अपराधी पुलिस की पकड़ में आ जा रहा है, नेता लोग उसे डंप करने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा रहे हैं . सुभाष दरजी का मामला भी उसी तरह का एक केस है. सबक यह है कि राजनेता को खुश करने के लिए अपराध करने वाला तभी तक खुश रहता है जब तक कि वह पकडा नहीं जाता . ज्यों ही वह पकडा जाता है उसके परिवार के सामने भीख माँगने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता .बहर हाल यह ज़रूरी है कि गुजरात नर संहार के सारे मामलों की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एक ऐसी जांच एजेन्सी के हवाले कर दी जाए जो गुजरात सरकार के प्रभाव क्षेत्र से बाहर हो . इस एजेन्सी को उस वक़्त गुजरात सरकार में जिम्मेदारी के पदों पर रहे अफसरों और नेताओं की भूमिका की भी जांच की जानी चाहिए क्योंकि जो भी मामले सामने आ रहे हैं सब में सत्ता प्रतिष्ठान के शामिल होने के सबूत साफ़ नज़र आ रहे हैं. ज़ाहिर गुजरात नर संहार की योजना २००२ में मुसलमानों को मार डालने तक की नहीं सीमित थी . उसमें यह भी निहित था कि कैसे मुसलमानों को हमेशा के लिए दहशत का शिकार बना दिया जाए और सुभाष दरजी टाइप लोग इस खेल के मामूली मोहरे थे .

Thursday, October 15, 2009

सिस्टम से लड़ें, नक्सलवाद से नहीं


सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
आजकल नक्सलवाद की बहुत चर्चा है। सरकार नक्सलवाद से आर-पार की लड़ाई के मूड में नजर आ रही है। नक्सलवाद एक विचार है, शोषण और असामनता के खिलाफ। लेकिन क्या इस देश में केवल विचार से ही इंकलाब आ सकता है ? इस बात को बहुत बार दोहराया जा चुका है कि इस देश की बड़ी जनसंख्या मात्र पन्द्रह से बीस रुपए रोज की कमाई से अपना पेट भरने के लिए मजबूर है। अब कोई भी इस बात को आसानी से समझ सकता है कि कितनी बड़ी विषमता इस देश में आजादी के साठ साल भी मौजूद है। शोषण, अत्याचार और असमानता में जकड़े हुए लोग केवल विचार के बल पर अपना हक हासिल करें ? कैसे इंकलाब लाएं ? कभी दौर रहा होगा, जब केवल विचार से इंकलाब हो जाया करते होंगे। अब जब तक बमों के धमाके न किए जाएं तब तक सरकार तो क्या एक जिले का डीएम भी नहीं जागता। यहां हिंसा का समर्थन करना नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि देश की सत्तर फीसदी से भी ज्यादा जनता करे तो क्या करे ? याद करिए वो पुराना जमाना, जब कोई नौजवान गांव के जमींदार के जुल्मों से तंग आकर बागी बनकर बीहड़ों में उतर जाया करता था। उस बागी को उन सभी लोगों का समर्थन हासिल होता था, जो खुद शोषित तो होते थे, लेकिन उनमें बागी बनने की हिम्मत नहीं होती थी। इसी समर्थन के कारण बागी जल्दी से पुलिस की पकड़ में नहीं आता था। याद करिए सत्तर और अस्सी के दशक की फिल्मों का नायक, जो शोषण के खिलाफ विद्रोह करता था। अमिताभ बच्चन ने उसी दौर में लगभग एक नक्सली की बहुत से भूमिकाओं को अदा करके बुलंदियों को छुआ था। लेंकिन आज क्या है। आज अमिताभ बच्चन खुद एक दब्बू और डरपोक आदमी नजर आता है, जो राज ठाकरे और बाल ठाकरे की ड्योढी पर जाकर सिर नवाता है और बार-बार माफी मांगता है।
दरअसल, नक्सलवाद से उन लोगों को डर लगता है, जो केवल पूंजीवाद के गुलाम होकर रह गए हैं और मौजूदा सिस्टम का हिस्सा बनकर ऐश कर रहे हैं। यह वही वर्ग है, जो कहता है कि नक्सली बंदूके छोड़कर लोकतान्त्रिक तरीक से संसद में चुनकर आएं और अपनी बात कहें। ये लोग किस लोकतन्त्र की बात करते हैं ? वो लोकतन्त्र जिसमें एक मुख्यमंत्री हजारों बेगुनाह लोगों को मरवाने के बाद भी एक प्रदेश का तीन बार मुख्यमंत्री बना रह सकता है ? दूसरे मुख्यमंत्री चारा घोटाला में दोषी ठहराए जाने के बाद सत्ता को अपने परिवार को देकर जेल काटता है। तीसरी मुख्यमंत्री मूर्तियां तराशने के लिए अरबों रुपए स्वाहा कर देती हैं। ठीक है जनता ने उन्हें चुनकर भेजती है। लेकिन यदि कल किसी आतंकवादी सरगना को जनता चुनती है तो क्या देश उसे भी बर्दाश्त करेगा ? यहां कातिलों और भ्रष्टाचारियों पर चुनाव लड़ने की रोक क्यों नहीं लग सकती ? सवाल यह भी है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से भी तो विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के लोग संसद और विधानसभा में जाते हैं, उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों के लिए क्या किया है आज तक ? नक्सली मौजूदा सिस्टम के खिलाफ ही तो लड़ाई लड़ रहे हैं। वे कैसे इस सिस्टम का हिस्सा बन सकते हैं ?
नक्सलवाद तो बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के पिछड़े और आदिवासी इलाकों में है, लेकिन क्या हालात ऐसे नहीं बनते जा रहे हैं कि अब नक्सलवाद का विचार उन राज्यों और शहरों के लोगों को भी अच्छा लगने लगा है, जो साधन सम्पन्न कहलाते हैं। मैं वेस्ट यूपी के मेरठ से ताल्लुक रखता हूं। वेस्ट यूपी साधन सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है। शोषण, अत्याचार और असमानता देखने के लिए नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में जाने की जरुरत नहीं है। मेरठ में ही बहुत से इलाके हैं, जहां सरकार, नेता और पुलिस अपनी मनमानी करती है। उदहारण के लिए सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों का सारा राशन ब्लैक में बिक जाता है, उस राशन को लेने का हकदार बस देखता रहता है। यदि किसी ने हिम्मत करके दुकानदार की शिकायत अधिकाारियों से कर दी तो राशन की दुकान वाले का तो कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन शिकायतकर्ता की मुसीबत आ जाती है। उससे साफ कहा जाता है, हमसे पंगा लेना मंहगा पड़ेगा। प्राइवेट नर्सिंग होम लूट के अड्डों में तो सरकारी अस्पताल बूचड़खानों में तब्दील हो गए हैं। आजकल मेरठ में डेंगू, मलेरिया और वायरल का इतना जबरदस्त प्रकोप है कि कोई कालोनी कोई घर ऐसा नहीं है, जिसमें इन रोगों से ग्रस्त रोगी न हो। लोग चिल्ला रहे हैं। बुखार से रोज दो-तीन मौतें हो रही हैं। मीडिया भी लोगों की आवाज को सरकार तक पहुंचा रहा है। लेकिन मेरठ प्रशासन कानों में तेल डाले पड़ा है। अब ऐसे में जनता के सब्र का बांध टूट जाए तो क्या हो ? वेस्ट यूपी में ही आए दिन आर्थिक तंगी, कर्ज और बीमार होने पर इलाज न होने पर आत्महत्या करने की खबरें छपती हैं। इन आत्महत्या करने वालों में कितने ही लोग ऐसे होंगे, जो मौजूदा सिस्टम से नाखुश होते होंगे। लेकिन उनमे इतनी ताकत नहीं होती कि वे कुछ कर सकें। इसलिए उन्हें मौत ही एकमात्र आसान रास्ता लगता है। लेकिन भविष्य में कुछ लोग ऐसे भी तो सामने आ सकते हैं, जो सिस्टम के खिलाफ उठ खड़े होने का हौसला रख सकते हैं। कल उनके बीच भी कोई कोबाड़ गांधी आ सकता है।
नक्सलवाद को बलपूर्वक कुचलने की बात करने वाले यह क्यों नहीं सोच रहे कि नक्सलवाद को पनपाने में सरकार की भ्रष्ट नौकरशाही भी बराबर की जिम्मेदार है। जब झारखंड जैसे प्रदेश का मुख्यमंत्री केवल दो साल में चार हजार करोड़ रुपए की काली कमाई करेगा तो नक्सलवाद नहीं तो क्या रामराज्य पनपेगा ? सरकार की बंदूकें भ्रष्ट नौकरशाहों और नेताओं की तरफ क्यों नहीं उठतीं ? क्यों उनके गुनाहों को जांच दर जांच में उलझाकर भूला दिया जाता है ? दो जून की रोटी की मांग करने वालों के सीने में गोलियां उतारने की बात क्यों की जाती है ? ठीक है हिंसा नहीं होनी चाहिए। लेकिन सवाल फिर वही है कि इस देश में केवल आराम से मांगने वालों को क्या कभी कुछ मिला है ? याद रखिए अंग्रेजों ने भी इस देश को ऐसे ही अलविदा नहीं कह दिया था। नक्सलवाद से डरने वालों को पहले भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण और आर्थिक विषमता के खिलाफ भी तो मुहिम चलानी चाहिए।

Saturday, October 10, 2009

इस्लाम किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की इजाजत नहीं देता

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
आजकल बहुत से ब्लॉग धर्म पर बहस कर रहे हैं। संघी की विचारधारा का एक ऐसा गिरोह है, जो धर्म पर बेमतलब की बहस को बढ़ावा देता है। स्चच्छ संदेश : हिन्दुस्तान की आवाज के नाम से ब्लॉग चलाने वाले सलीम खान अपने ब्लॉग पर इस्लाम की पैरवी करते नजर आते हैं तो संघी विचारधारा के लोग उनके पीछे पड़ जाते हैं। किन्हीं रचना ने अपने ब्लॉग पर लिखा कि वह इस्लाम धर्म अपनाने को तैयार हैं। लेकिन उन्होंने कुछ शर्तों क साथ इस्लाम धर्म कबूलने की बात कही है। मैं रचना जी से बहुत ही एहतराम और अदब से कहना चाहता हूं कि धर्म और प्यार समर्पण मांगता है, इनमें शर्तें नहीं लगायी जाती हैं। दरअसल, बहुत सारे लोग कुछ गुमराह मुसलमानों के आचरण को देखकर यह मान लेते हैं कि यही इस्लाम है। जबकि ऐसा नहीं हैं। इस्लाम में शराब पीने और ब्याज लेने का हराम करार दिया गया है। अब यदि कोई मुसलमान ये दोनों काम करता है तो यह इस्लाम की गलती नहीं है। ये उसके अपने आचरण हैं। जैसे कोई सनातन धर्म को मानने वाला गाय का गोश्त खाता है तो यह सनातन धर्म की गलती नहीं है। यदि जैन धर्म से ताल्लुक रखने वाला आदमी जीव हत्या करता है तो वह जैन धर्म के विपरीत काम करता है। इससे जैन धर्म की शिक्षाएं गलत नहीं हो जाती हैं। इस्लाम कहता है कि 'जिसने भी किसी एक बेगुनाह का कत्ल किया, उसने पूरी इंसानियत का कत्ल किया।' अब अगर कोई मुसलमान बम बांधकर बेगुनाह लोगों के बीच जाकर फट जाए तो इसमें इस्लाम की गलती कैसे है। ऐसा भी नहीं है कि मुसलमानों ने ऐसी कायरतापूर्ण कार्यवाईयों का समर्थन किया हो। आतंकवाद के खिलाफ उलेमा फतवा जारी कर चुके हैं।
धर्म कोई बुरा नहीं हैं। इसको मानने वाले बुरे हैं। दिक्कत तब शुरु होती है, जब हर कोई अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताकर दूसरे धर्म में खामियां निकालता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो खुर्दबीन लेकर धार्मिक पुस्तकों का पोस्टमार्टम करते हैं। एक धारणा बना ली गयी है कि इस्लाम में औरतों की बहुत दुर्गति है। चार शादियां करते हैं। यहां मैं बता दूं कि इस्लाम में चार शादियां का प्रावधान ऐयाशी के लिए किन्हीं हालातों के तहत रखा गया है। अब अगर कोई इस्लाम में दी गयी सुविधा का गलत इस्तेमाल किया जाए तो इसमें इस्लाम क्या करे ? क्या देश के संविधान में भी दी गयी कुछ रियायतों को गलत इस्तेमाल नहीं होता ? इस्लाम ने ही औरत को सबसे पहले आजादी दी। इस्लाम ने ही सबसे पहले इंसानों को गुलाम बनाकर रखने की परम्परा को खत्म करने की शुरुआत की। इस्लाम औरत को नंगेपन से बचने की सलाह देता है। क्या सनातन धर्म नंगेपन की इजाजत देता है ? रचना जी कहती हैं कि इस्लाम अपनाने के बाद वह जींस भी पहनेंगी और और स्कर्ट भी। उनसे सवाल है कि क्या मुस्लिम युवतियां जींस नहीं पहनती हैं ? क्या वे नौकरी नहीं करतीं ? इस्लाम किसी पर जोर जबरदस्ती नहीं करता है। अब यह मत कहना कि तालिबान क्या कर रहे हैं ? यह बात मैं पहले ही कह चुका हूं कि एक मुसलमान का गैर इस्लामी आचरण इस्लाम नहीं है। संघी गिरोह से एक सवाल यह भी है कि क्या सनातन धर्म जींस और स्कर्ट पहनने की इजाजत देता है ? यदि हां तो फिर हमारे संघी भाई क्यों स्कूल कॉलेजों में ड्रेस कोड लागू कराने के लिए धरन-प्रदर्शन करते है ? क्यों वे पबों में जाकर जींसधारी युवतियों को मारते-पीटते हैं ? क्या फर्क है उनमें और तालिबान में ?
दरअसल, इस्लाम के उदय से ही इस्लाम को खत्म करने की साजिशें की जा रही है। क्योंकि इस्लाम धर्म ने ही शोषण और असमानता को खत्म करने का बीड़ा सबसे पहले उठाया था। यही वजह रही कि डेढ़ सदी की अन्दर ही इस्लाम धर्म दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है। एक ताजा सर्वे के अनुसार दुनिया का हर चौथा आदमी इस्लाम को मानने वाला है। आखिर इस्लाम में ऐसा कुछ तो है, जिससे आकृषित होकर दुनिया के बहुत सारे लोग आज भी इस्लाम को अपनाते हैं। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि इस्लाम में कुछ ऐसे लोगों ने भी घुसपैठ की है, जो मुसलमानों को सही इस्लाम के बजाय ऐसी बातें सिखा रहे हैं, जिनका इस्लाम सख्ती से विरोध करता है। आज का तथाकथित जेहाद ऐसा ही गैर इस्लामी कृत्य है। जेहाद उस वक्त किया जाता है, जब मुसलमानों को अपने धर्म के अनुसार जीने का हक छीना जाए। मुझे नहीं लगता कि आज दुनिया में कहीं भी मुसलमानों को अपने धार्मिक फर्ज अदा करने से रोका जाता हो। हां, फ्रांस जैसे कुछ देश जरुर हिजाब आदि पर पाबंदी लगाकर मुसलामनों को उकसाते रहते हैं। लेकिन वह इतनी बड़ी बात नहीं है कि जेहाद किया जाए। एक बात और मैं और कहना चाहता हूं कि इस्लामी देशों में रहने वाले गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भी धार्मिक आजादी मिलनी चाहिए। इस्लाम किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की इजाजत भी नहीं देता है। साफ कहा गया है कि 'दूसरे धर्म को बुरा मत कहो।'

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आखिर हिंसा से नहीं बच सका मेरठ
इसलाम के असली दुश्मन तालिबान