Wednesday, September 30, 2009

पैसों के लिए ये ईमान बेचने वाले

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
अब तक तो खाने पीने के सामान में मिलावट, सब्जियों में एक विशेष प्रकार का इंजेक्शन लगाकर उन्हें रातों रात बढ़ाने, असली घी में चर्बी की मिलावट, सिंथेटिक दूध, सिंथेटिक मावा तथा नकली दवाईयां बनाने की खबरे आती थीं, लेकिन अब इससे भी आगे का काम हो रहा है। स्लाटर हाउसों में मरे हुए जानवरों को काट कर उनका मीट बाजार में बेचा जा रहा है। पैसों के लिए ईमान बेचने वालों ने आम आदमी का ईमान भी खराब करने की ठान ली है। हैरत की बात यह है कि पैसों के लिए ईमान बेचने वाले नास्तिक नहीं हैं, बल्कि धर्म कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाले लोग हैं। खबर मेरठ की है। यहां का स्लाटर हाउस, जिसे आम बोल की भाषा में कमेला कहा जाता है, कई सालों से सुर्खियों में है। मेरठ भाजपा की राजनीति केवल कमेले तक सिमट कर रह गयी है। इसी मुद्दे पर जून के महीने में मेरठ तीन दिन का कर्फ्यू भी झेल चुका है।
चौबीस सितम्बर को कमेले से सटी आशियाना कालोनी के लोग यह देखकर तब दंग रह गए, जब उन्होंने देखा कि एक अहाते में मरी हुई भैंसों को काटकर उनका मीट मैटाडोर में भरकर भेजा जा रहा है। कालोनी के हाजी इमरान अंसारी से यह देखा नहीं गया। उन्होंने इस घिनावने काम का विरोध किया तो मरी हुई भैंसों को काटने वाले लोगों ने इमरान अंसारी के घर में घुसकर उनसे और उनके बेटे कामरान से मारपीट की। भैंस काटने वाले और विरोध करने वालों के बीच पथराव हुआ। पुलिस आ गयी। लेकिन कमाल देखिए कि मरी भैंसे काटने का विरोध करने वाले इमरान और उनके बेटे कामरान को ही पुलिस उठकार ले गयी। इससे पुलिस के ईमान धर्म का भी पता चलता है।
जब से मीट का एक्पोर्ट होने लगा है, तब से मीट व्यापारियों ने मेरठ को नरक बना दिया है। इन मीट व्यापारियों के सामने नगर निगम, शासन, प्रशासन और पुलिस या तो बेबस और लाचार है या फिर ईमान भ्रष्ट करने वाले इस धंधे को चालू रखने के लिए बहुत ईमानदारी से सबको हिस्सा मिल जाता है। वरना क्या कारण है कि कुछ लोग मरी हुई भैंसों को काटते हुए रंगे हाथों पकड़े जाते हैं, लेकिन उनका कुछ नहीं बिगड़ता है ? दरअसल, मीट के काम में इतना लाभ है कि सबका पेट भर दिया जाता है। कहा जाता है कि मरी हुई भैंसों का मीट बहुत सस्ते दामों पर होटलों और ठेलों पर बिरयानी बेचने वालों को सप्लाई किया जाता है। यह भी कहा जाता है कि मेरठ का एक नामी गिरामी बिरयानी वाला मरी हुई भैंस का मीट इस्तेमाल करता हुआ पकड़ा भी गया था, लेकिन मोटी रिश्वत और सिफारिश के बल पर छूट कर आ गया। आज भी उसके यहां बिरयानी खाने वालों की लाईन लगती है। कोई ताज्जुब नहीं कि मरी हुई भैंसों का ही मीट खाड़ी के देशों को भी एक्सपोर्ट किया जाता हो। मरी हुई भैंसों का मीट बेचने वालों, सिंथेटिक दूध और मावा बनाने वालों, मसालों में मिलावाट करने वालों और नकली दवाईयां बनाने वालों से एक ही सवाल है, इंसान के ईमान को खराब करके और भयानक बीमारियां बांटकर पैसा कमाना कहां तक जायज है ? डाक्टरों का कहना है कि मरे हुऐ जानवर का मीट खाने से घातक बीमारियां हो सकती हैं।
पुलिस और प्रशासन मीट व्यापारियों की अप्रत्यक्ष रूप से मदद करके शहर की फिजा खराब करने में मदद ही कर रहा है। उल्लेखनीय है कि मेरठ में भाजपा आए दिन कमेले को लेकर हंगामा करती रहती है। अभी कुछ दिन पहले ही भाजपा के कारण शहर का साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़ने से बच गया था। कोई दिन नहीं जाता, जब भाजपा कार्यकर्ता पशुओं और मांस से लदे वाहनों का रोककर ड्राइवरों से मारपीट नहीं करते। यह तो अच्छा है कि मीट व्यापारियों से आम मुसलमान भी बहुत ज्यादा त्रस्त है। इसलिए बात ज्यादा नहीं बढ़ती, वरना भाजपा कार्यकर्ता दंगा भड़काने की पूरी कोशिश करते हैं। जब भाजपा कमेले को लेकर हायतौबा मचाती है तो उसकी नीयत एक समस्या को खत्म करने के स्थान पर मुस्लिमों का विरोध करना ज्यादा होती है। दिक्कत यह है कि भाजपा कमेले को सभी की समस्या के स्थान पर उसे केवल हिन्दुओं की समस्या बताकर मामले को न सिर्फ उलझा देती है, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से कमेला संचालकों को बच निकलने का मौका दे देती है। सच यह है कि कमेला हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों की समस्या अधिक है। क्योंकि कमेले के आस पास मुस्ल्मि बाहुल्य कालोनियां ज्यादा आबाद हैं। भाजपा यह भी क्यों भूल जाती है की मेरठ में कमेला ही एकमात्र समस्या नहीं है बल्कि समस्याओं का घर है। किसी अन्य समस्या को भाजपा इतनी शिद्दत से क्यों नहीं उठाती, जितनी शिद्दत से कमेले की समस्या को उठाती है ? मेरठ में बहुत सारी ऐसी फैक्टरियां हैं, जिनका सारा कैमिकलयुक्त गन्दा पानी मेरठ से गुजरने वाली काली नदी में डाला जाता है। इसलिए काली नदी के आस पास बसे दर्जनों गांवों का पानी पीने लायक नहीं रहा। हैंडपम्पों से निकलने वाला पानी पीले रंग का और दूषित है। उस पानी को पीकर जानलेवा बीमारियां फैल रही हैं। इन गांवों के बारे में मीडिया में बहुत छपता है। गैर सरकारी संगठन समय समय पर प्रशासन को चेताते रहते हैं। लेकिन भाजपा ने आज तक इस मुद्दे पर कोई आन्दोलन इसलिए नहीं किया, क्योंकि काली नदी के पानी को प्रदूषित करने वाली फैक्टरियां मुसलमानों की नहीं है, बल्कि अधिकतर उन लोगों की हैं, जो डंडा लेकर जानवरों और मीट ले जाने वाले वाहनों के पीछे भागते रहते हैं।

Tuesday, September 29, 2009

इस्लाम का आतंकवाद से कोई मतलब नहीं

दक्षिण अफ्रीका के तीन शहरों में शबाना आजमी की फिल्मों का रिट्रोस्पेक्टिव चल रहा है। इस मौके पर वहां तरह तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। कुछ कार्यक्रमों में शबाना आजमी शामिल भी हो रही हैं। ऐसे ही एक सेमिनार में उन्होंने कहा कि इस्लाम को आतंकवाद से जोडऩे की कोशिश अनुचित और अन्यायपूर्ण तो है ही, यह बिल्कुल गलत भी है। उनका कहना है कि इस्लाम ऐसा धर्म नहीं है जिसे किसी तरह के सांचे में फिट किया जा सके। शबाना आजमी ने बताया कि 53 देशों में इस्लाम पर विश्वास करने वाले लोग रहते हैं और जिस देश में भी मुसलमान रहते हैं वहां की संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव साफ देखा जा सकता है।दरअसल अमरीका के कई शहरों में 9 सितंबर 2001 को हुए आतंकवादी हमलों के बाद के मुख्य अभियुक्त के रूप में ओसामा बिन लादेन का नाम आया जिसने अपने संगठन अल-कायदा के माध्यम से आतंक के बहुत से काम अंजाम दिए है। अमरीका ने योजनाबद्घ तरीके से ओसामा बिन लादेन और उसके साथियों को अपने अभियान का निशाना बनाना शुरू किया। यह दुनिया और सभ्य समाज की बद किस्मती है कि उन दिनों अमरीका का राष्ट्रपति एक ऐसा व्यक्ति जिसके बौद्घिक विकास के स्तर को लेकर जानकारों में मतभेद है।आम तौर पर माना जाता है कि तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश अव्वल दर्जे के मंद बुद्घि इंसान हैं लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जिसे शक है कि बुश जूनियर कभी कभी समझदारी की बात भी करने की क्षमता रखते हैं। बहर-हाल अपने आठ साल के राज में उन्होंने अमरीका का बहुत नुकसान किया। अमरीकी अर्थ व्यवस्था को भयानक तबाही के मुकाम पर पहुंचा दिया, इराक और अफगानिस्तान पर मूर्खता पूर्ण हमले किए।पाकिस्तान के एक फौजी तानाशाह की ज़ेबें भरीं जिसने आतंक का इतना जबरदस्त ढांचा तैयार कर दिया कि अब पाकिस्तान का अस्तित्व ही खतरे में है। अपने गैर जिम्मेदार बयानों से बुश ने जितने दुश्मन बनाए शायद इतिहास में किसी ने न बनाया हो। बहरहाल बुश ने ही शायद जानबूझकर यह कोशिश की कि मुसलमानों से आतंकवाद को जोड़कर वह उन्हें अलग थलग कर लेंगे। यह उनकी मूर्खतापूर्ण गलती थी। उनको जानना चाहिए था कि इस्लाम मुहब्बत, भाईचारे और जीवन के उच्चतम आदर्श मूल्यों का धर्म है।अगर कोई मुसलमान इस्लाम की मान्यताओं से हटकर आचरण करता है तो वह मुसलमान नहीं है। इसलाम में आतंक को कहीं भी सही नहीं ठहराया गया है। अगर यही बुनियादी बात बुश जूनियर की समझ में आ गई होती तो शायद वे उतनी गलतियां न करते जितनी उन्होंने कीं। उन्होंने योजनाबद्घ तरीके से इस्लाम को आतंक से जोडऩे का अभियान चलाया। उसी का नतीजा है कि अमरीकी हवाई अड्डों पर उन लोगों को अपमानित किया जाता है जिनका नाम फारसी या अरबी शब्दों से मिलता जुलता है। अपने बयान में शबाना आजमी इसी अमरीकी अभियान को फटकार रही थीं।अमरीकी विदेश नीति की इस योजना को सफल होने से रोकना बहुत जरूरी है। संतोष की बात यह है कि वर्तमान अमरीकी राष्टï्रपति बराक ओबामा भी इस दिशा में काम कर रहे हैं। भारत में भी एक खास तरह की सोच के लोग यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि सभी मुसलमान एक जैसे होते हैं। और अगर यह साबित करने में सफलता मिल गई तो संघी सोच वाले लोगों को मुसलमान को आतंकवादी घोषित करने में कोई वक्त नहीं लगेगा। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि संघी सोच के लोग आर.एस.एस. के बाहर भी होते हैं। सरकारी पदों पर बैठे मिल जाते हैं, पत्रकारिता में होते हैं और न्याय व्यवस्था में भी पाए जाते हैं।एक उदाहरण से बात को स्पष्ट करने की कोशिश की जायेगी। सरकार की तरफ से सांप्रदायिक सदभाव के पोस्टर जारी किये जाते हैं जिसमें कुछ शक्लें बनाई जाती है। चंदन लगाए व्यक्ति को हिंदू, पगड़ी पहने व्यक्ति को सिख और एक खास किस्म की पोशाक वाले को पारसी बताया जाता है। मुसलमान का व्यक्तित्व दिखाने के लिए जालीदार बनियान, चारखाने का तहमद और एक स्कल कैप पहनाया जाता है। कोशिश की जाती है कि मुसलमान को इसी सांचे में पेश करके दिखाया जाय। सारे मुसलमान इसी पोशाक को नहीं पहनते लेकिन इस तरह से पेश करना एक साजिश है और इस पर फौरन रोक लगाई जानी चाहिए।क्योंकि अगर ऐसा न हुआ और दुबारा बीजेपी का कोई आदमी प्रधानमंत्री बना तो भारत में भी वही हो सकता है जो बुश जूनियर ने पूरी दुनिया में कर दिखाया है। वैसे संघ बिरादरी ने यह कोशिश शुरू कर दी थी कि आतंकवाद की सारी घटनाओं को मुसलमानों से जोड़कर पेश किया जाय लेकिन जब मालेगांव के धमाकों में संघ के अपने खास लोग पकड़ लिए गए तो मुश्किल हो गई। वरना उसके पहले तो बीजेपी के सदस्य और शुभचिंतक पत्रकार मुसलमान और आतंकवादी को समानार्थक शब्द बताने की योजना पर काम करने लगे थे। शबाना आजमी जैसे और भी लोगों को सामने आना चाहिए और यह साफ करना चाहिए कि मुसलमान और इसलाम को आतंकवाद से जोडऩे की कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा। धर्मनिरपेक्ष पत्रकारों को भी इस दिशा में होने वाली हर पहल का उल्लेख करना चाहिए क्योंकि एक वर्ग विशेष को आतंकवादी साबित करने की कोशिशों के नतीजे किसी के हित में नहीं होंगे।

Wednesday, September 23, 2009

इंसानों में ही रहती है शैतानो की भी टोली..

अतीक अहमद उस्मानी

ईद के दिन इत्तेफाक़न B4M के जरिये उदय शंकर खरवारे के संघी, सांप्रदायिक, मुस्लिम विरोधी विचार पढने को मिले ! ईद के स्नेहिल, प्यारो मोहब्बत, भाईचारा, इंसानियत भरे पलों में कुछ ही देर के लिए ही सही, खटास महसूस हुआ और दिल से एक आह निकली " या खुदा! ये सांप्रदायिक तत्व क्या क़यामत तक इसी तरह इंसानियत, प्यार-मोहब्बत, खुलूस, साम्प्रदयिक सोहार्द के दामन को अपनी नापाक इरादों से तार तार करने का दुस्साहस करते रहेंगे " लेकिन अगले ही पल अपने इस सहमे ख्याल के लिए तौबा भी की क्योंकि खुदा ने तो क़यामत तक शेतानो को इंसानियत के खिलाफ मुहीम चलाने की छूट का वादा कर लिया है! सवाल उठता है कि ये शैतान कहां है ? इसका जवाब मै ही इस शेर के जरिये देना चाहूँगा -" इंसानों में ही रहती है शैतानो की भी टोली काटने पर ही पता चले है सांप है कैसे ज़हरीले "रहा भाई उदय जी आपके " सही बात कही तो संघी कह गए " लेख के लिए जवाब तो फिर अपने ही कहे गए इस मुक्तक के जरिये आपको सचेत करना चाहूँगा-अपनी नस्लों में नफरतों का ज़हर ये त-आ-स्सुब परस्त भरते हैकितने नादान है कि खुद सामाँअपनी तखरीब का भी करते है(तखरीब- विनाश)उदय जी आप संघी है या नहीं एक सामान्य बुद्धि का आदमी भी आसानी से बता सकता है हरिवंश जी, ओमप्रकाश अश्क जी, महेश खरे, ............ इन सभी के साथ काम करना आपके निश्चल साम्प्रदायिकताहीन हदय का प्रमाण नहीं , आप उस वक़्त क्या थे आज क्या हो ये आपके विचारो से साफ़ झलकता है ! किसको पता चलता है की उजले तन में काला मन भी छुपा है ! आप द्वारा मुस्लिमो की आंतकवादी, बलात्कारी, हिन्दू लड़की को भगाकर विवाह करने की प्रतिशतता की जानकारी देने पर मुसलमानों को तो क्या किसी भी खुले मस्तिष्क वाले समुदाय को भी ना तो यकीन है और ना आश्चर्य ! क्योंकि सम्पुर्ण मुस्लिम समुदाय के प्रति जहर उगलने वाले आपके विचार खुद स्पष्ट करते है की आप किस प्रकार के पत्रकार हो और इस प्रकार के विचार व्यक्त करने में आपकी क्या मज़बूरी है !यकीन रखिये, कोई भी आपके व्यवसाय में बाधक नहीं होगा आप अपने सवालो का जवाब देने का क्योँ चैलेन्ज दे रहे हो क्योंकि आपने तो सिर्फ कुछ करोड़ मुसलमानों की जनसंख्या की प्रतिशतता अपने आशियाने में ही निकाल ली और अधिकतर मुसलमानों पर दोषारोपण करते हुए ये भी एलान कर दिया की भारत जितने मुस्लिम है वो सब हिन्दू थे आपको तो नोबल पुरस्कार मिलना चाहिए क्योंकि आपने मेंडल के आनुवंशिकता के नियमो की बिना किसी सबूत व प्रयोग की पुष्टि करने की कुचेष्टा की है या फिर कहिये की आप वेघ्यानिक लेमार्क के अनुयायी है जिसने कहा है की अर्जित गुण पैतृक होते है और आप ही ये बता सकते है कि मुसलमानों में मानवता विरोधी गुण कहा से आये? आप तो वरिष्ठ पत्रकार है जानते होंगे कि राज्य स्थायी होता है कभी मरता नही (क्या मोदी को ये विशेषता हासिल है) , राज्य का स्वरूप , सरकार पर निर्भर है- वो प्रजातांत्रिक है या तानाशाही । जनाब ये कहिऐ-मोदी राज्य नही राज्य का स्वरूप है । रही मोदी को शर्म आने की बात, तो गुजरात का तांडव , पूरे देश को ही नही पूरे विश्व को शर्मसार कर गया ।(यंहा गोधरा को मे नही भूलूंगा वो भी एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी ) और उस समय के माननीय पीएम अटल जी को भी । और आज आप जौसे लोगो की आत्मग्लानि, चिंता,सीमित सोच,डर और साम्प्रदायिकता भरी रक्षा इस बात का सबूत है के उस समय गुजरात मे वर्ग विशेष का आतंकवाद,बलात्कार, खून खराबा, धार्मिक उन्माद के लिए आपके नायक मोदी (असल मे खलनायक) और उनके समर्थक ही जिम्मेदार थे । आप कितने बरसो तक अपने घर वालों को दूसरे घर मे जाने की सलाह देते रहेंगे ।वैस सलीम सिद्दीकी आपके कुप्रचार का जवाब दे चुके हैं (पढने के लिए सलीम सिद्दीकी को ब्लाग हक बात खोले ) उम्मीद है खरवारे साहिब, झूठे आंकड़ों काजाल ना फैलाऐंगे आप ने जो सवाल लिखे है उनके जवाब सिर्फ आपके लिए (बाकि हिन्दु भाई इसे अन्यथा ना ले)आपने आतंकवादियो की तादाद मे 90 फीसदी से ज्यादा मुसलमानों को शामिल कहा लेकिन भाई आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, नागालैण्ड और उड़ीसा राज्य भी भारत के हिस्से है जंहा क्या होता है , सब जानते है (शायद वो लोग आपकी नजर मे आतंकवादी नही क्रांतिकारी है ) ये भी सबको पता है कि इन राज्यो मे मुसलमान कितनी संख्या मे है............आपने कहा देश मे 85 फीसदी बलात्कारी मुस्लिम है साथ ही आप ये कहते हैं सारे मुसलमान कनवर्टेड हैं । यानि इसके लिए हिन्दु जिम्मेदार है क्योकि मुसलमानों को जो मिला है वो हिन्दुओ से ही तो मिला है.............आप ये भी कहते है हिन्दु लड़कियो को भगाकर विवाह करने वालों में 94 फीसदी मुस्लिम है । इस बात का जवाब है कि लड़की अगर घर से भागती है तो यही कहा जाऐगा कि उसके घर वाले उसे सही संस्कार ना दे सके । या यूं भी कह सकते हैं कि इंसान की फितरत होती है कि वो हमेशा बेहतरीन चीजों के पीछे भागे, यंहा भी शायद घर से भागने वाली लड़कियों को पता चल जाता है कि इस्लाम धर्म उनके वर्तमान धर्म से बेहतर है तभी तो वो सब कुछ छोड़कर घर से चली जाती है और आप उसके लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराते हो......................

(राजस्थान)01580-222345

Tuesday, September 22, 2009

पुण्य प्रसून वाजपेयी के माफीनामे से उठे सवाल

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
एनडीए शासनकाल में अहमदाबाद पुलिस ने इशरतजहां और अन्य तीन लोगों को आतंकवादी बताकर मुठभेड़ में मार गिराया था। उस मुठभेड़ की मजिस्टे्रट जांच में मुठभेड़ को फर्जी और सरकार से तमगे हासिल करने के लिए किया हत्याएं बताया गया है। मजिस्ट्रेट तमांग जांच रिपोर्ट आने के बाद इशरजहां फर्जी मुठभेड़ को लेकर मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए हैं। मीडिया पर उठे सवालों के बाद टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने'इशरत हमें माफ कर दो' शीर्षक से एक आलेख दैनिक जागरण के लिए लिखा है। उस आलेख को भड़ास4मीडिया डॉट कॉम पर भी प्रकाशित किया गया है। इस आलेख में वाजपेयी ने अपनी और पूरे मीडिया की बेबसी और लाचारी को जिस तरह से जाहिर किया है, उससे लगता है कि आज का मीडिया कहीं न कहीं या तो पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाता है या सरकारों के दबाव में सही तथ्यों को नजरअंदाज करके सरकारों द्वारा बताए गए तथ्यों को ही प्रसारित और प्रचाारित करता है।
मुठभेड़ वाले दिन पन्द्रह जून दो हजार चार को अहमदाबाद से चैनल के रिपोर्टर ने पुण्य प्रसून वाजपेयी से कहा था कि यह फर्जी एनकाउंटर है। वाजपेयी ने रिपोर्टर द्वारा कही गई बातों का देते हुए लिखा है - 'पुलिस कमिश्नर खुद कह रहे हैं कि चारों के (मुडभेड़ में मारे बए लोग) ताल्लुकात लश्कर-ए-तोएबा से हैं। घटनास्थल पर पुलिस कमिश्नर कौशिक, ज्वायंट पुलिस कमिश्नर पांधे और डीआईजी बंजारा खुद मौजूद हैं, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम बता रहे हैं। ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल कौन खड़ा करे?'
वाजपेयी से यहां से कई सवाल किए जा सकते हैं। क्या अहमदाबाद के पुलिस अधिकारी देश के इदी अमीन या हिटलर थे, जिनकी कही गयी बातों पर सवाल करने का मतलब मौत थी ? क्या यह माना जाए कि पूरे मीडिया समेत आपका वह चैनल, जिसमें उस वक्त आप काम कर रहे थे, गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी से डरता था ? उस समय ऐसे बहुत सारे सवाल थे, जिन्हें मीडिया उठा सकता था। मीडिया ने यह सवाल क्यों नहीं किया कि मुडभेड़ के फौरन बाद ही बिना किसी जांच के कोई पुलिस अधिकारी इतनी जल्दी कैसे यह निर्ष्कष निकाल सकता है कि मुठभेड़ में मारे गए लोग आतंकवादी ही हैं ? यदि यह मान लिया जाए कि इंटेलीजेंस ने पक्के सबूतों के आधार पर यह रिपोर्ट दी थी कि लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादी मुंबई से अहमदाबाद के लिए सीएम नरेन्द्र मोदी की हत्या के लिए चले हैं। यहां यह भी सवाल किया जा सकता था कि कथित आतंकवादियों को मुंबई में ही रोक कर गिरफ्तार करने की कोशिश क्यों नहीं की गयी ? उनका अहमदाबाद तक आने का इंतजार क्यों किया गया ? अहमदाबाद में घुसने के बाद ही मुठभेड़ क्यों हुई ? सबसे बड़ा सवाल यह है कि किसी एक भी कथित आतंकवादी को जिन्दा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं की ? आखिर ऐसा क्यों होता है कि केवल नरेन्द्र मोदी को ही मारने आने वाले सभी कथित आतंकवादी मुठभेड़ में मार दिए जाते है, लेकिन अक्षरधाम मंदिर पर हमला करने वाले आतंकवादियों की भनक भी गुजरात पुलिस को नहीं लगती ?
वाजपेयी साहब आगे लिखते हैं- 'हर न्यूज चैनल पर (इशरतजहां मुठभेड़ के बाद) आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरु हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी एनकाउंटर को फर्जी कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत कौन करे ? यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था। क्योंकि लड़की के लश्कर के साथ जुड़े तार को न्यूज चैनलों में जिस तरह से परोसा जा रहा था, उसमें पहली और आखिरी हकीकत यही थी कि एक सनसनाहट देखने वालों में हो और टीआरपी बढ़ती चली जाए।'
पुण्य प्रसून वाजपेयी ने मान ही लिया कि न्यूज चैनलों के लिए पहली प्राथमिकता सनसनी और उससे बढ़ती टीआरपी ही सब कुछ और हकीकत है। इसी टीआरपी के चक्कर में वाजपेयी भी तथ्यों को टटोलने में वक्त खराब करने बजाय अन्य चैनलों की तरह टीआरपी की होड़ में शामिल हो गए। जाहिर है, यहां भी वाजपेयी किसी दबाव में ही यह काम कर होंगे। जहां एक ओर वह इशरतजहां मुठभेड़ में गुजरात पुलिस अधिकारियों द्वारा उपलब्ध तथ्यों से अलग नहीं जा सकते थे, वहीं दूसरी ओर वह अपने उन मालिकों से अलग नहीं जा सकते थे, जिनका एक ही मकसद है, सनसनी से पैसा कमाना। पैसा तभी आएगा, जब टीआरपी बढ़ेगी। अब इसी टीआपी के चक्कर में किसी के चरित्र की हत्या हो या किसी की औरत पर आतंकवादी की मां होने का ठप्प चस्पा हो जाए। इससे चैनलों को कुछ लेना-देना नहीं है। हालांकि इशरतजहां और उसके साथी वापस नहीं आ सकते। लेकिन तमांग की रिपोर्ट ने इतना तो किया ही है कि मुठभेड़ों में मारे गए लोगों के परिवारों को इस बात का सकून तो मिला ही होगा कि उनके बच्चे आतंकवादी नहीं थे। वाजपेयी का यह सवाल बहुत वाजिब है- 'यदि मजिस्ट्रेट जांच सही है तो उस दौर में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका को किस तरह देखा जाए ?' वाजपेयी के इस सवाल का जवाब मीडिया को देना ही चाहिए। मीडिया को अपना कलंक धोने के लिए उन सभी मुठभेड़ों की जांच की मांग करनी चाहिए, जो मोदी शासनकाल में अब तक हुई हैं। पुण्य प्रसून वाजपेयी ने इशरतजहां से माफी मांग कर एक शुरुआत की है। उनको दाद दी जानी चाहिए कि देर से ही सही, उन्होंने सच को स्वीकार किया है।

2009-09-08 - मीडिया को शर्म से सिर झुका लेना चाहिए
2009-09-09 - सिंह साहब, शर्म तो आपको आनी चाहिए
2009-09-12 - मगर मोदी को शर्म क्यों नहीं आती?
2009-09-13 - सही बात कही तो वो मुझे संघी कह गए
2009-09-14 - 'Saddened by Uday's cheap article'
2009-09-15 - The questions raised by Mr. Uday
2009-09-15 - अपने देश में कितने इम्तेहान देंगे हम?
2009-09-18 - पुण्य प्रसून वाजपेयी का माफीनामा
2009-09-20 - पुण्य के माफीनामे से उठे कई सवाल
2009-09-20 - इशरत, इन संपादकों-पत्रकारों को माफ करना
2009-09-22 - जिन्होंने गलती की, वो माफी मांगें : पंकज

Thursday, September 17, 2009

साम्प्रदायिकता फैलाते पत्रकार


सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
भडास4मीडिया डॉट कॉम पर वरिष्ठ पत्रकार शेषनारायण सिंह का आलेख 'मीडिया को सिर शर्म से झुका लेना चाहिए' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। सिंह साहब का आलेख इशरत जहां और उसके तीन साथियों को फर्जी मुठभेड़ में मार डालने के विषय में था। एक मजिस्ट्रेट तमांग ने जांच रिपोर्ट में मुठभेड़ का फजी कहा है। सिंह साहब के आलेख के जवाब में एक अल्पज्ञात अखबार अभी-अभी के समाचार सम्पादक उदय शंकर खवारे का आलेख 'सिंह साहब शर्म तो आपको आनी चाहिए' भी बी4एम पर प्रकाशित हुआ था। खबारे ने अपने आलेख में मोदी का बचाव करते हुए मुसलमानों पर ही दोषोपारण कर दिया था। खवारे के आलेख के जवाब में मैंने बी4एम पर अपने आलेख 'मगर मोदी को शर्म क्यों नहीं आती' में उदय शंकर की बातों का प्रतिवाद किया था। मेरे प्रतिवाद के जवाब में बी4एम पर ही खवारे 'सही बात कहा तो मुझे संघी कह गए' आलेख लिखा। उन्होंने अपने आलेख में कुछ ऐसी मनघडंत बातें कहीं गयीं थीं, जो सुनी सुनाई बातों पर आधारित थीं। उन्होंने अपने आलेख में कुछ सवालों के जवाब मुझ से ही नहीं नहीं मांगे थे, बल्कि पूरे देश का चैलेन्ज को किया था कि है कोई तो मेरे सवालों का जवाब दे सके। किन्हीं कारणों से मेरा आलेख बी4एम पर प्रकाशित नहीं हो सका। लेकिन उनको जवाब देना जरुरी था, इसलिए अपने ब्लॉग पर उनके सवालों के जवाब दे रहा हूुं।
बारह सितम्बर को बी4एम पर प्रकाशित मेरे आलेख 'मगर मोदी को शर्म क्यों नहीं आती?' के जवाब में उदय शंकर खवारे ने अपने आलेख 'सही बात कहा तो वो मुझे संघी कह गए' में जो कुछ लिखा है उसका जवाब दिया जाना इसलिए जरुरी है, क्योंकि उन्होंने मुझे ही नहीं पूरे देश को सवालों का जवाब देनी की चुनौती दी है। सबसे पहले तो मैं यह कहना चाहता हूं कि उदय शंकर ने सच नहीं बोला, बल्कि ऐसा झूठ बोला है, जो सिर्फ एक संघी से भी कट्टर विचारधारा वाला व्यक्ति ही बोल सकता है। कैसे अजीब आंकड़े दिए हैं उदय ने। क्या उदय बताएंगे कि उनके आंकड़ों की क्या प्रमाणिकता है ? भैया अगर देश के 90 प्रतिशत आतंकवादी, चोर और बलात्कारी मुसलमान होते तो इस देश की पुलिस और सेना भी अपराध को नहीं रोक पाती। पता नहीं किस गुफा में बैठकर और किस मानसिकता के तहत उदय ने पूरे मुसलमानों को गाली दी है ? सच यह है कि जब भी कोई चुनाव आता है तो संघी लोग हिन्दु बहुल इलाकों में एक पत्रक वितरित करते हैं। उस पत्रक में मुसलमानों के खिलाफ ऐसी ही नफरत भरी बातों को लिखा होता है। लगता है कि उदय के हाथ ऐसा ही कोई पत्रक लग गया होगा। ऐसे आंकड़े तो उसी में दिए होते हैं। अब संघ के लोग तो उसे ही आंख मूंदकर सच मान लेते हैं, जो नागपुर से कहा जाता है। उदय शंकर जी सरकारी नौकरियों में तो आप जैसे ही लोग बैठे हुए हैं। फिर क्या कारण है कि कोई भी काम बिना रिश्वत के नहीं होता ? क्या मैं यह कह दूं कि भ्रष्टाचारियों में 90 प्रतिशत हिन्दू होते हैं ? यह तो अच्छा है कि मुसलमानों की संख्या सरकारी नौकरियों में नहीं के बराबर है, वरना उदय शंकर यह लिख मारते कि भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी मुसलमानों की वजह से है।
उदय कहते हैं कि 'एक हिन्दु बच्चे से पूछिए कि उसका दुश्मन कौन ? उसका जवाब सुनिए। और फिर एक मुस्लिम बच्चे से पूछिए तो उसका जवाब होगा, अमेरिका और इसराइल।' यहां उदय ने यह नहीं बताया कि हिन्दू बच्चे का क्या जवाब होता ? उदय को तो इस बात पर खुशी होनी चाहिए कि एक मुस्लिम बच्चा अपना दुश्मन हिन्दु को नहीं बताता। अजीब थ्योरी है उदय की। कहते हैं, मोदी व्यक्ति नहीं, राज्य है ? भैया मैं तो अनपढ़ आदमी हूं और उदय एक अखबार के समाचार सम्पादक हैं। जाहिर है पढ़े-लिखे (?) भी होंगे। क्या कोई मुझे यह बताएगा कि नरेन्द्र मोदी राज्य कैसे हैं ? क्या एक राज्य का मुख्यमंत्री कानून से अलग होता है ? यदि किसी प्रदेश का सीएम एक व्यक्ति राज्य होता है तो क्या उसे मनमानी करने की छुट मिल जाती है ? राष्ट्रीय मानवाधिकर आयोग से लेकर चुनाव आयोग तक ने राज्य को ही लताड़ा था ? यदि राज्य का सीएम ही सब कुछ होता तो उनका प्रिय एनकाउण्टर स्पेशलिस्ट बंजारा जेल में नहीं होता। बाबरी मस्जिद शहीद होने के बाद क्यों उन चार राज्यों की सरकारें बर्खास्त की जातीं, जिनमें भाजपा की सरकारें थीं ? सबसे बड़ी बात सुप्रीम कोर्ट क्यों गुजरात के कुछ बदतरीन हादसों के मुकदमों की सुनवाई दूसरे राज्यों में कराने के आदेश देता ? बात कुछ समझ मे आयी उदय जी ? नहीं आयी तो समझ लिजिए। सीएम से भी बड़ी ताकत न्यायपालिका की होती है। चलिए माने लेते हैं कि मोदी व्यक्ति नहीं राज्य है। क्या एक राज्य को ऐसा होना चाहिए, जिसमें एक कम्यूनिटी के साथ भेदभाव किया जाए और उसको हाशिए पर डाल दिया जाए ? और उस पर यह कहना कि जिसको परेशानी हो, वह राज्य को छोड़कर चला जाए। ऐसा कहना और करना लोकतन्त्र नहीं तानाशाही होती है। ऐसे तो किसी राज्य का मुख्यमंत्री अपने विरोधियों को राज्य से बाहर खड़ा कर देगा।
उदय, अब यह मत कहना कि नरेन्द्र मोदी को किसी ने ऐसे ही गुजरात का मुख्यमंत्री नहीं बनाया, उनको गुजरात की जनता ने चुना है। याद रखिए। पाकिस्तान, बंगलादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया और आस्ट्रेलिया में भी जनता ही सरकार को चुनती है। जब इन देशों से हिन्दुओं पर जुल्म की खबरें आती हैं तो क्या उनको नजरअंदाज इसलिए कर देना चाहिए कि वे जनता की चुनी हुई सरकारें हैं ? एक बात और उदय साहब, किसी देश की जनता आपस में लड़े, यह इतना बुरा नहीं है। बदतरीन हालात तब होते हैं, जब राज्य ही किसी एक के पक्ष में खड़ा हो जाए ? गुजरात में यही हुआ था। अब वह बात, जो उदय ने सबसे पहली लिखी थी। उन्होंने लिखा था कि 'अब मैं सलीम को प्रिय नहीं लिख सकता हूं क्योंकि ऐसी मानसिकता के लोग प्रिय नहीं होते। इसमें उनका दोष नहीं है। दरअसल, भारत में जितने मुस्लिम हैं, वे पहले हिन्दु थे।' आपकी बातों का मैं क्या अर्थ निकालूं ? क्या यह कि बलात्कारियों और आतंकवादियों में 90 प्रतिशत मुसलमान इसलिए होते हैं, क्योंकि ये सब चीजें मुसलमानों के खून में हिन्दुओं से ही आयी हैं ? आखिर बकौल आपके भारतीय मुसलमानों में खून तो हिन्दुओं का ही दौड़ रहा है। समझ में नहीं आता कि आपको एक अखबार का समाचार सम्पादक किसने बना दिया ? कहीं आपकी नियुक्ति नरेन्द्र मोदी की सिफारिश पर तो नहीं हुई थी ?


मीडिया को शर्म से सिर झुका लेना चाहिए
सिंह साहब, शर्म तो आपको आनी चाहिए
मगर मोदी को शर्म क्यों नहीं आती?
सही बात कही तो वो मुझे संघी कह गए
The questions raised by Mr. Uday
अपने देश में कितने इम्तेहान देंगे हम?



Friday, September 11, 2009

भारतीय राजनीति में वंशवाद का दंश

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
आन्ध््रा प्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के निधन के बाद से ही उनके पुत्र को मुख्यमंत्री बनाने की बात की जा रही है। आखिर ऐसा क्यों है कि किसी लोकप्रिया नेता की मौत के बाद उसकी गद्दी को उसके परिवार को देने की कवायद की जाती है ? जवाहरला नेहरु, शेख अब्दुल्ला, करुणानिधि, एनटीआर, एमजीआर, बीजू पटनायक, लालूप्रसाद यादव, चौधरी चरण सिंह, अजीत सिंह, मुफ्ती मौहम्मद सईद और मुलायम सिंह यादव ने यही किया है और कर रहे हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती के हालांकि कोई औलाद नहीं है, लेकिन यह तय है कि उनकी विरासत को भी उनका कोई भाई या भतीजा ही संभालेगा। इन पार्टियों के मुखिया अपने परिवार के अलावा कुछ नहीं सोचते हैं। वे सोचे भी क्यों, जब जनता ही उनको राजा समझने लगती है। कमोबेश देश की सभी तथाकथित लोकतान्त्रिक राजनैतिक पार्टियां में वंशवाद का दंश लगा हुआ है। समझ में नहीं आता कि ये नेता अपनी पार्टी का नाम भी परिवार के किसी सदस्य के नाम पर ऐसे ही क्यों नहीं रख लेते, जैसे दुकानों के रखे जाते हैं। मसलन, 'नेहरु परिवार पार्टी', 'मुलायम सिंह एंड संस पार्टी', 'शेख अब्दुल्ला एंड संस पार्टी', 'चौधरी चरण सिंह प्राइवेट लिमिटेड पार्टी' आदि। पार्टी का संविधान बनाते समय उसमें में यह भी जोड़ लिया करें कि परिवार का सदस्य ही पार्टी का आजीवन मुखिया रहेगा। इससे कम से कम यह तो होगा कि पार्टी के दूसरे नेता इस उम्मीद में तो नहीं रहेंगे कि वे भी पार्टी में सर्वोच्च पद पा सकते हैं। यूं तो ये सभी पार्टियां अपने आप को लोकतान्त्रिक कहती हैं, लेकिन इन पार्टियों का अध्यक्ष कभी भी लोकतान्त्रिक तरीके से चुनता हुआ नहीं देखा गया। भारत में केवल भाजपा और वामपंथी पार्टियां ही ऐसी हैं, जिनमें वंशवाद नहीं है और थोड़ा बहुत आन्तिरक लोकतन्त्र भी मौजूद है। वरना सबमें वंशवाद और एक परिवार की तानाशाही है।
फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में मुलायम सिंह यादव ने अपनी पुत्रवधु को टिकट देकर यह साबित किया है कि समाजवाद का चोले पहने समाजवादी पार्टी एक ही परिवार की बबौती बन गयी है। हैरत की बात है कि मुलायम सिंह यादव को पूरी पार्टी में एक भी एक ऐसा योग्य आदमी नहीं मिला, जिसे फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव का टिकट दिया जा सके। उनकी पुत्रवधु की क्या योग्यता है ? सिर्फ यही ना कि वह एक पार्टी के मुखिया की पुत्रवधु हैं। मुलायम सिंह यादव खुद सांसद हैं। उनके भाई शिवपाल सिंह सांसद हैं। उनका भतीजा सांसद है। उनके पुत्र सांसद हैं। शायद मुलायम सिंह ने सोचा हो कि परिवार की एक महिला का भी सांसद होना जरुरी है, इसलिए पुत्रवधु को ही सांसद बना दिया जाए।
लालू प्रसाद यादव जब चारा घौटाले में जेल गए तो उन्होंने बिहार का मुख्यमंत्री अपनी उस पत्नि को बनाना ज्यादा सही समझा, जो घर की चारदीवारी से कभी बाहर नहीं निकली। उन्हें पूरे राष्ट्रीय जनता दल में एक भी विधायक इस योग्य नहीं मिला था, जिसे मुख्यमंत्री बनाया जा सकता था। अपनी पत्नि और पुत्रवधु को मुख्यमंत्री और सांसद बनाने वाले यही नेता संसद में तैंतीस प्रतिशत महिलाओं को टिकट देने वाले विधेयक पर पता नहीं क्या-क्या दलील देकर उसमें अड़ंगा डाल देते हैं। नेहरु परिवार से वंशवाद की शुरुआत हुई थी। नेहरु परिवार के बगैर कांग्रेस की कल्पना नहीं की जा सकती है। कांग्रेस की देखा-देखी वंशवाद रोग लगभग सभी पार्टियों को लग गया है। खासकर क्षेत्रीय पार्टियां तो बिल्कुल ही जेबी पार्टियां बनकर रह गयी हैं। जम्मू कश्मीर की नेशनल कांफ्रेन्स के सुप्रीमो पहले शेख अब्दुल्ला रहे। उनके बाद फारुक अब्दुल्ला आ गए। फारुक अब्दुल्ला ने अपनी विरासत उमर अब्दुल्ला को सौंप दी। बीच में जरुर फारुक अब्दुल्ला के बहनोई जीएम शाह ने बगावत करके जम्मू कश्मीर की सत्ता कुछ दिनों के लिए हथिया ली थी। लेकिन जीएम शाह भी तो उनके परिवार के ही सदस्य थे। जम्मू कश्मीर की ही पीडीपी के मुखिया मुफ्ती मौहम्मद सईद की विरासत को उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती संभाल रही हैं। बीजू पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल के मुखिया उनके बेटे नवीन पटनायक बने। हालांकि बीजू पटनायक ने तो पहले ही अपनी पार्टी का नाम अपने नाम पर ऐसा ही रखा था, जैसे नामों का सुझाव मैं दे चुका हूं।
केवल पार्टियों में ही नहीं, सांसद या विधायक के परिवारों में भी वंशवाद का दंश मौजूद है। माधवराव सिंधिया की मौत के बाद ज्योतिरादत्य सिंधिया ही उनकी जगह सांसद बने। राजेश पायलट की सांसदी भी उनके बेटे सचिन पायलट के हिस्से में आयी। भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने तो न केवल अपने बेटे राजबीर सिंह को राजनीति में आगे बढ़ाया बल्कि अपनी प्रिय कुसुम राय को भी राजनीति में कैरियर बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अजीत सिंह ने भी अपने बेटे को भी संसद में भेजा। अजीत सिंह का अनुराधा चौधरी के बगैर संसद में दिल नहीं लगता। सहारनपुर से सांसद रह चुके रशीद मसूद ने भी अपने बेटे शादान मसूद को सांसद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कैराना से बसपा सांसद मुनव्वर हसन की मौत के बाद हुए उपचुनाव में बसपा ने उनकी पत्नि तबस्सुम हसन को ही टिकट देकर वंशवाद को बढ़ावा दिया। जनता यह क्यों नहीं सोचती कि यह जरुरी नहीं कि जो योग्यता पिता में है वह उसके बेटे, बेटी या भतीजे में भी हो। पता नहीं आजादी के साठ साल भी देश की जनता आजादी और लोकतन्त्र का मतलब कब समझेगी ?

Saturday, September 5, 2009

अब भाजपा का अन्तिम संस्कार हो ही जाना चाहिए

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
लोकसभा चुनाव में हार के बाद से ही भाजपा में घमासान मचा हुआ है। जसवंत सिंह की किताब आने के बाद तो भाजपा की जंग कौरव और पांडव सरीखी लड़ाई में तब्दील हो गयी है। लेकिन यहां कौरव और पांडव की शिनाख्त करना मुश्किल है। सब के सब दुर्योधन नजर आ रहे हैं। युधिठिर का कहीं अता-पता नहीं है। ऐसा लग रहा है मानो भगवान राम को बेचने वाली भाजपा में रावण की आत्मा प्रवेश कर गयी है। उसके दस चेहरे हो गए हैं। यही पता नहीं चल पा रहा है कि कौनसा चेहरा क्या और क्यों कह रहा है। एक दूसरे पर इतनी कीचड़ उछाली जा रही है कि 'कमल' भी कीचड़ से बदसूरत हो गया है। भाजपा की चाल बदल गयी है। चरित्र तो उसका कभी था ही नहीं। चेहरा कई चेहरों में बदल गया है। बात यहां तक पहुंच चुकी है कि घमासान रोकने के लिए भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस को आगे आना पड़ा है। हालांकि संध यह कहता रहा है कि भाजपा के आंतरिक मसलों से संघ को कुछ लेना-देना नहीं है। सवाल किया जा सकता है कि जब कुछ लेना-देना नहीं है तो संघ प्रमुख मोहन भागवत क्यों भाजपा नेताओं से मुलाकातें करते घूम रहे हैं ?
भाजपा में मची घमासान ने 1977 की जनता पार्टी की याद दिला दी है। लेकिन इतनी कीचड़ तो 1977 की जनता पार्टी के नेताओं ने तब भी एक-दूसरे पर नहीं उछाली थी, जब जनता पार्टी मे विभिन्न विचारधाराओं की पार्टियां और नेता शामिल थे। हां इतना जरुर था कि जनता पार्टी में फूट तब की जनसंघ की वजह से ही पड़ी थी। जनसंघ का विलय जनता पार्टी में तो जरुर हो गया था लेकिन जनसंघियों ने खाकी नेकर को नहीं त्यागा था। झगड़ा इसी दोहरी सदस्यता लेकर था। गैरसंघियों का कहना था कि जनता पार्टी में हैं तो आरएसएस से नाता तोड़ें। लेकिन जनसंघी खाकी निकर उतारना नहीं चाहते थे। जनता पार्टी टूटने के बाद जनसंघ ने 1980 में अपना चोला बदला और दीनदयाल उपाध्याय के एकात्मक मानववाद को अपना कर भारतीय जनता पार्टी का चोला पहन लिया। तमाम तरह की कोशिशों के बाद भी भाजपा एक धर्मनिपेक्ष दल नहीं बन पाया। और न वह कभी एक स्वतन्त्र रुप से राजनैतिक दल ही बन सका।
भाजपा का एजेण्डा नागपुर से ही तय होता रहा है। गौहत्या, अनुच्छेद 370 और समान सिविल कोड उसके एजेण्डे में शुरु से ही बने रहे। जब 1981 में तमिलनाडू के मीनाक्षीपुरम में बड़े पैमाने पर दलितों ने धर्मपरिवर्तन करके इस्लाम अपनाया तो भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने धर्मपरिवर्तन को भी अपने एजेण्डे में शामिल कर लिया था। तब भाजपा ने प्रचारित किया था कि धर्मपरिर्वतन के लिए खाड़ी के देशों से 'पैट्रो डालर' आ रहा है। यहां उल्लेखनीय है कि संघ परिवार शुरु से ही नए-नए शब्द घड़ने में माहिर रहा है। क्योंकि खाड़ी के देश पैट्रोल बेचकर ही पैसा कमाते हैं, इसलिए खाड़ी के देशों में जो भारतीय काम करते थे और अपनी कमाई का जो पैसा भारत भेजते थे, उस पैसे को 'पैट्रो डालर' की संज्ञा दी गयी थी। बहुत दिनों तक लोगों के यही समझ में नहीं आया था कि 'पैट्रोडालर' नाम की यह करंसी कब आयी और किस देश की है। तमाम तरह के हथकंडों के बाद भी भाजपा जनता में अपनी विश्वसनीयता नहीं बना सकी। 1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में भी उसके दो ही सांसद जीते थे। कुल मिलाकर भाजपा एक ऐसी पार्टी थी, जिसका कोई वजूद नहीं था। तब भी आज की तरह उसके पास सिकन्दर बख्त और आरिफ बेग नाम के दो मुस्लिम चेहरे हुआ करते थे।
1985 में जब सुप्रीम कोर्ट ने एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो के शौहर को गुजारा भत्ता देने का फैसला सुनाया तो हिन्दुस्तान की राजनीति में तूफान आ गया था। मुसलमानों ने इसे मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखलअंदाजी मानते हुए इस फैसले का जबरदस्त विरोध किया था। कहीं मुस्लिम नाराज न हो जाएं, इसे देखते हुए राजीव सरकार ने संसद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करा दिया था। मुसलमान तो संतुष्ट हो गए, लेकिन अब कांग्रेस को हिन्दुओं का डर सताने लगा। राजीव गांधी की अपरिपक्व मंडली ने हिन्दुओं को खुश करने के लिए फरवरी 1986 को 1949 से बन्द पड़ी बाबरी मस्जिद का ताला अदालत के जरिए रातों-रात खुलवा दिया। अदालत ने यह मान लिया कि यह बाबरी मस्जिद नहीं राम मंदिर है। कांग्रेस का यह ऐसा आत्मघाती कदम था, जिसने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदल कर रख दी। हाशिए से मैदान पर आने को छटपटा रही भाजपा और पूरे संघ परिवार को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गयी। राममंदिर मुद्दे पर पूरा संघ परिवार मैदान में आ डटा। भयंकर खून-खराबे, नफरतों और साम्प्रदायिक दंगों का ऐसा सिलसिला चला कि हजारों बेगुनाह लोग मारे गए। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की खाई चौड़ी और चौड़ी होती चली गयी। भारत में यह पहला अवसर था, जब अपने ही देश में लोग विस्थापित हुए। संघ परिवार ने जितनी नफरत बढ़ायी लोकसभा में उसकी सीटें भी बढ़ती रहीं। वह वक्त भी आया कि 1999 में केन्द्र में भाजपा ने सरकार बनायी। सरकार में आते ही भाजपा राम को भूल गयी। अनुच्छेद 370 को तिलांजली देदी। समान सिविल कोड को भुला दिया। यानि राम को भी धोखा दिया और अपने वोटरों को भी।
'सबको देखा बार-बार हमको भी देखो एक बार' का नारा लगाने वाली भाजपा का जनता ने ऐसा चेहरा देखा, जिसको देखकर जनता सन्न रह गयी। देश ने भाजपा अध्यक्ष बंगारु लक्ष्मण को टीवी पर रिश्वत लेते देखा। भाजपा नेता जूदेव को नोटों की गड्डियों को माथे लगाते यह कहते सुना कि 'खुदा की कसम पैसा खुदा तो नहीं, लेकिन खुदा से कम नहीं।' संसद पर आतंकवादियों का हमला देखा। खूंखार पाकिस्तानी आतंकवादियों को सुरक्षित कंधार तक छोड़ते देखा। रक्षा सौदों में दलाली खाते देखा। यह सब देखा तो जनता ने लगातार दो बार भाजपा को हराकर प्रायश्चित किया। अब भाजपा फिर से एक मरती हुई पार्टी बन गयी है। इससे पहले कि फिर से संजीवनी के रुप में राममंदिर जैसा मुद्दा भाजपा के हाथ आ जाए, इसका अन्तिम संस्कार हो ही जाना चाहिए।

Wednesday, September 2, 2009

विभाजन से मुसलमानों का ही नुकसान हुआ है

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
जसवंत सिंह की किताब के बहाने पाकिस्तान के तथाकथित कायद-ए-आजम मौहम्मद अली जिनाह (सही शब्द जिनाह ही है, जिन्ना नहीं) एक बार फिर चर्चा के विषय बने हुए हैं। जिनाह की चर्चा हो और भारत विभाजन का का जिक्र न हो यह सम्भव नहीं है। क्या विभाजन जिनाह की जिद ने कराया ? क्या नेहरु और पटेल विभाजन के जिम्मेदार थे ? क्या अंग्रेजों ने भारत को कमजोर करने के लिए भारत को विभाजित करने की साजिश की थी ? इन सब सवालों पर बहस होती रही है और होती रहेगी। इन सवालों का कभी ठीक-ठीक जवाब मिल पाएगा, यह कहना मुश्किल है। असली सवाल यह है कि विभाजन की त्रासदी किसने सबसे ज्यादा झेली और आज भी झेल रहे हैं। सच यह है कि विभाजन की सबसे ज्यादा मार भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों के ही हिस्से में आयी है। वे तीन हिस्सों में बंट गए। बंटने के बाद भी जिल्लत से निजात नहीं मिली। जिन उर्दू भाषी मुसलमानों ने पाकिस्तान को अपना देश मानकर हिन्दुस्तान से हिजरत की थी, वे आज भी पाकिस्तानी होने का सर्टिफिकेट नहीं पा सके हैं। उन्हें आज भी महाजिर (शरणार्थी) कहा जाता है। पाकिस्तान के सिन्धी, पंजाबी और पठान महाजिरों को निशाना बनाते रहते हैं। महाजिरों को रॉ का एजेन्ट और हिन्दुओं की नाजायज औलाद तक कहा जाता है। सरकारी नौकरियों में महाजिरों के साथ भेदभाव आम बात है। अब महाजिर कहने लगे हैं कि उन्होंने मौलाना अबुल कलाम की बात न मानकर गलती की थी।
इसी तरह कभी पश्चिम पाकिस्तान कहे जाने वाले हिस्से के निवासियों ने (सिन्धी, पंजाबी और पठान) ने पूर्ची पाकिस्तान (अब बंगलादेश) के बंगाली मुसलमानों को हमेशा ही पाकिस्तानी नहीं, बल्कि 'भूखे बंगाली' की नजर से देखा। जैसे भारत में 'बिहारी' एक गाली बन गया है, इसी तरह पाकिस्तान में 'बंगाली' गाली के रुप में प्रचलित है। 1970 के आम चुनाव में बंगालियों को चुनाव में बहुमत मिलने के बावजूद सत्ता से बेदखल रखा। सत्ता मांगने पर बंगालियों पर जुल्म की इंतहा कर दी गयी। नतीजे में बंगलादेश वजूद में आया। यानि भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान तीन हिस्सों में बंट गए। मौहम्मद अली जिनाह की 'टू नेशन थ्योरी' धराशयी हो गयी। इस्लाम के नाम पर बना मुल्क सिन्धियों, पंजाबियों, पठानों और महाजिरों में तब्दील हो गया।
भारत में रह गए मुसलमानों को तो कदम-कदम पर जिल्ल्त झेलने पड़ती है। विभाजन के बाद से ही भेदभाव के चलते सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिशत गिरना शुरु हुआ तो कभी भी रुका नहीं। आज हालत यह है कि प्रतिशत नगण्य रह गया। 1980 के दशक तो यही कहा जाता रहा कि जब मुसलमानों को अलग देश दे दिया गया है तो मुसलमान भारत में क्यों रह रहे हैं ? भारत में मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी गई गुजरी हो गयी। दलितों को तो आरक्षण देकर संभाल लिया गया, लेकिन मुसलमानों को केवल वोट देने वाली भेड़ों में तब्दील कर दिया गया। वोट लेने के बाद मुसलमानों को इसी तरह लावारिस छोड़ दिया जाता है, जैसे भेड़ के शरीर से उन उतारकर जंगलों में छोड़ दिया जाता है। मुसलमानों का दिल बहलाने के लिए 'सच्चर समिति' का गठन किया जाता है, लेकिन जब उस पर अमल का वक्त आता है तो रिपोर्ट को बहस-मुबाहिसों में उलझाकर पल्ला झाड़ लिया जाता है। साम्प्रदायिक दंगे मुसलमानों की नियति बन गए हैं। आतंकवादी होने का ठप्पा चस्पा भी कर दिया गया है। जसवंत सिंह ने अपनी किताब में सही लिखा है कि देश के मुसलमानों को दूसरे ग्रह का प्राणी समझा जाता है। इस पर तुर्रा यह है कि संघ परिवार हर समय चिल्लाता रहता है कि देश में मुसलमानों का तुष्टिकरण किया जा रहा है। हमारी समझ में आज तक यह नहीं आया कि यह तुष्टीकरण क्या बला है ? देश की सरकारों ने मुसलमानों के लिए ऐसा क्या कर दिया कि मुसलमानों की तुष्टी हो गयी है। सच्चाई यह है कि अधिकतर मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में कोई सरकारी स्कूल नहीं होता। कोई सरकारी या निजि बैंक अपनी शाखा नहीं खोलना चाहता। सरकारी अस्पताल नहीं होते। मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरी नहीं है। यानि मुसलमान बुनियादी चीजों तक से महरुम हैं। ऐसे में किस तरह से मुसलमानों का तुष्टीकरण हो गया ? हां, इतना जरुर है कि राजनैतिक दल मुसलमानों के वोट लेने के लिए उनकी हिमायत में दो-चार शब्द बोलकर इमोशनल ब्लैकमेल करते रहते हैं। इसे संघ परिवार मुसलमानों का तुष्टीकरण कहकर प्रचारित करता है।
अब सवाल यह है कि भारत अखंड रहता तो क्या होता। भारत अखंड रहता तो पाकिस्तान नहीं होता। पाकिस्तान नहीं होता तो तीन-तीन जंग नहीं करनी पड़ती। रक्षा बजट बहुत कम होता। आतंकवाद नहीं होता। जाली करेंसी नहीं होती। चीन तिब्बत को नहीं हड़पता। बाबरी मस्जिद शहीद नहीं होती। देश में गुजरात जैसे भयंकर साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते। होते तो एकतरफा नहीं होते। मुसलमानों की सत्ता में बराबर की भागीदारी होती। सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या होती। एक ही क्रिकेट टीम होती, जो हर बार वर्ल्ड कप जीतती। हाकी में भारत की सबसे मजबूत टीम होती। साहित्यकारों और शायरों की बहुत बड़ी संख्या होती। उर्दू का भी बोलबाला होता। सबसे बड़ी बात भाजपा का वजूद नहीं होता।
कहीं ऐसा तो नहीं कि लालकृष्ण आडवाणी ने जिनाह के मजार पर जाकर यह कहा हो कि 'जिनाह भैया, तुम थे, तो आज हम भी हैं।' आज भले ही संघ परिवार अखंड भारत का नारा लगाता हो लेकिन सच यह है कि खंडित भारत से सबसे ज्यादा फायदा हिन्दु साम्प्रदायिक ताकतों ने उठाया और नुकसान मुसलमानों के हिस्से मे आया। यदि संघ परिवार को रियलिटी शो 'सच का सामना' की हॉट सीट पर बैठाकर यह सवाल किया जाए कि 'क्या खंडित भारत ही आपके हित में है ? इसका जवाब देने में संघ परिवार के छक्के छूट जाएंगे। यदि हां कहता है तो मुसीबत और ना कहेगा तो पॉलीग्राफ मशीन बोल उठेगी, 'यह जवाब सच नहीं है।'