Thursday, June 25, 2009

लड़कियों की खरीद-फरोख्त की मंडी बना मेरठ

सलीम अख्तर सिद्दीकी
सरकार और मीडिया महिला सशक्तिकरण की बहुत बातें करते हैं। नामचीन महिलाओं का उदाहरण देकर कहा जाता है कि महिला अब पुरूषों से कमतर नहीं हैं। लेकिन जब किसी गरीब, लाचार और बेबस लड़की के बिकने की दास्तान सामने आती है तो महिला सशक्तिकरण की धज्जियां उड़ जाती हैं। 24 जून को पष्चिम बंगाल की 25 साल की मौसमी को पष्चिम बंगाल से खरीदकर लाया गया। उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। मौसमी को अपने बेचे जाने की भनक लगी तो वह किसी तरह वहषियों के चंगुल से निकल भागी। कुछ लोगों ने उसे मेरठ के नौचंदी थाना पहुंचाया। लड़की केवल बंगला में ही बाते कर रही थी। 'संकल्प' संस्था की निदेषक श्रीमती अतुल षर्मा तथा उनकी सहयोगी कादम्बरी कौषिक ने थाने पहुंचकर कलकत्ता स्थित अपने एक कार्यकर्ता से मौसमी की बात करायी। कार्यकर्ता ने हिन्दी में मौसमी की व्यथा को बयान किया। इससे पहले भी मेरठ में लड़कियां के बिकने की खबरें आती रही हैं। संकल्प की अतुल षर्मा बताती हैं कि मेरठ लड़कियों की खरीद-फरोख्त की मंडी बन चुका है। श्रीमती अतुल बताती हैं कि वे अब तक 131 लड़कियों को बिकने से बचा चुकी हैं। लड़कियों को दिल्ली के जीबी रोड तथा मेरठ के कबाड़ी बाजार स्थित रेड लाइट एरिया मे ंखपाया जाता है।
दरअसल, मेरठ ही नहीं, पूरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश लड़कियों की खरीद-फरोख्त और देह व्यापार का अड्डा बन गया है। ये लड़कियां नेपाल, असम, बंगाल, बिहार, झारखंड मध्य प्रदेश तथा राजस्थान आदि प्रदेशों से खरीदकर लायी जाती हैं। पिछले साल के शुरू में ÷एंटी ट्रेफिकिंग सेल नेटवर्क' का एक दल झारखंड से तस्करी से लायी गयीं 602 महिलाओं को खोजने मेरठ आया था। सेल नेटवर्क की अध्यथ रेशमा सिंह ने बताया था कि पिछले पांच से छः वर्षों के दौरान पश्चिमी यूपी में लगभग 6 हजार महिलाएं तस्करी से लाकर बेची जा चुकी हैं। इनमें से कुछ 15 से 16 तथा कुछ 20 से 22 साल की आयु की थीं। उन्होंने बताया कि झारखंड के लोगों के लिए मेरठ मंडल ही यूपी है। झारखंड के बोकारो, हजारी बाग, छतरा और पश्चिम सिंह भूम जिलों में महिलाओं की हालत सबसे खराब है। इन्हीं जिलों से महिलाओं की तस्करी सबसे अधिक होती है।
मेरठ की बात करें तो पिछले दिसम्बर 2007 तक सरकारी आंकडों के अनुसार 419 बच्चों के गायब होने की रिपोर्ट है। इनमें से विभिन्न आयु वर्ग की 270 लड़कियां हैं। लड़कियों के बारे मे पुलिस शुरूआती दिनों में प्रेम प्रसंग का मामला बनाकर गम्भीरता से जांच नहीं करती है। निठारी कांड के बाद गायब हुए बच्चों की तलाश के लिए बड़ी-बड़ी बातें की गयी थीं। लेकिन निठारी कांड पर धूल जमने के साथ ही गायब हुऐ बच्चों की तलाश के अभियान पर भी ग्रहण लग गया है।
मेरठ महानगर के रेड लाइट एरिया में ही दिसम्बर 08 तक लगभग 1800 सैक्स वर्कर थीं। इनमें लगभग 1160 केवल 12 से लेकर 16 वर्ष की नाबालिग बच्चियां हैं, जिन्हें अन्य प्रदेशों से लाकर जबरन इस धंधे में लगाया गया है। जब से यह कहा जाने लगा है कि कम उम्र की लड़कियों से सम्बन्ध बनाने से एड्स का खतरा नहीं होता, तब से बाल सैक्स वर्करों की संख्या में इजाफा हुआ है। देह व्यापार में उतरते ही इन लड़कियों के शोषण का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है। दलालों और कोठा संचालकों का उनकी हर सांस और गतिविधि पर कड़ा शिकंजा रहता है। यदि कोई लड़की भागने की कोशिश करती है तो उस पर भयंकर अत्याचार किए जाते हैं। शारीरिक हिंसा, लगातार गर्भपात, एड्स, टीबी तथा हैपेटाइटिस बी जैसी बीमारियां इनका भाग्य बन जाती हैं।
मेरठ के रेड लाइट एरिया में ऐसी अनेकों लड़कियां हैं, जो इस धन्धे से बाहर आना चाहती हैं। लेकिन माफिया उन्हें धन्धे से बाहर नहीं आने देना चाहते। वे अगर बाहर आ भी जाती हैं तो उनके सामने सबसे सवाल यह रहता है कि क्या समाज उन्हें स्वीकार करेगा। ऐसे भी उदाहरण हैं कि किसी सैक्स वर्कर ने इस दलदल से मुक्ति चाही, लेकिन दलाल उसे फिर देह व्यापार के दलदल में वापस खींच लाये। पिछले दिनों मेरठ के रेड लाइट एरिया की जूही नाम की सैक्स वर्कर ने सुरेश नाम के लड़के से कोर्ट मैरिज कर ली। लेकिन कोठा संचालिका और दलालों को जूही का शादी करना अच्छा नहीं लगा। उसे जबरदस्ती फिर से कोठे पर ले जाने का प्रयास किया गया, जो असफल हो गया। लेकिन जूही एक अपवाद मात्र है। धन्धे से बाहर आने की चाहत रखने वाली हर सैक्सवर्कर की किस्मत जूही जैसी नहीं होती।
हालिया आंकड़ों के अनुसार पश्चिमी यूपी में लड़कियों की जन्म दर में सात से आठ प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है। इसके अलावा इस क्षेत्र में कुछ जातियों में विशेष कारणों से हमेशा ही अविवाहित पुरुषों की संख्या अधिक रही है। इसलिए यहां पर महिलाओं की खरीद-फरोख्त का धंधा बढ़ता जा रहा है। अपने लिए दुल्हन खरीद कर लाये एक अधेड़ अविवाहित ने बताया कि ÷दिल्ली में एक दर्जन से भी अधिक स्थानों से नेपाल, बिहार, बंगाल, झारखंड तथा अन्य प्रदेशों से लायी गयी लड़कियों को मात्र 15 से 20 हजार में खरीदा जा सकता है।' दिल्ली में यह सब कुछ ÷प्लेसमेंट एजेंसियों' के माध्यम से हो रहा है। इन्हीं प्लेसमेंट एजेंसियों के एजेन्ट आदिवासियों वाले राज्यों में नौकरी-रोजगार देने का लालच देकर लाते हैं और उन्हें ÷जरूरतमंदों' को बेच देते हैं। ये एजेंसियां इन लड़कियों के नाम-पते भी गलत दर्ज करते हैं ताकि इनके परिवार वाले इन्हें ढूंढ न सकें। अधेड़ लोग सन्तान पैदा करने के लिए तो कुूछ मात्र अपनी हवस पूरी करने के लिए इन लड़कियों को खरीदते हैं। कुछ सालों के बाद इन लड़कियों को जिस्म फरोशी के धंधे में धकेलकर दूसरी लड़की खरीद ली जाती है। कुछ पुलिस अधिकारी यह मानते हैं कि लड़कियों को बंधक बनाकर उन्हें पत्नि बनाकर रखा जाता है, लेकिन लड़की के बयान न देने के कारण पुलिस कार्यवाई नहीं कर पाती है। लड़कियों की खरीद-फरोख्त तथा देह व्यापार एक वुनौती बन चुका है। इस व्यापार में माफियाओं के दखल से हालात और भी अधिक विस्फोटक हो गये हैं। सैक्स वर्करों को जागरूक करने का कार्य करने वाले गैर सरकारी संगठनों को इन माफियाओं से अक्सर जान से मारने की धमकी मिलती रहती है। ÷संकल्प÷ की निदेशक अतुल शर्मा को कई दलाल जान से मारने की धमकी दे चुके हैं।
कुछ जातियों में देह व्यापार को मान्यता मिली हुई है। यदि ऐसी जातियों को छोड़ दिया जाये तो देह व्यापार में आने वाली अधिकतर लड़कियां मजबूर और परिस्थितियों की मारी होती हैं। प्यार के नाम ठगी गयीं, बेसहारा और विधवाएं। आजीविका का उचित साधन न होने। बड़े परिवार के गुजर-बसर के लिए अतिरिक्त आय बढ़ाने के लिए। अकाल अथवा सूखे के चलते राहत न मिलना, परिवार के मुखिया का असाध्य रोग से पीड़ित हो जाना। परिवार का कर्जदार होना, जातीय और साम्प्रदायिक दंगों में परिवार के अधिकतर सदस्यों के मारे जाने आदि देह व्यापार में आने की मुख्य वजह होती हैं। किसी देश की अर्थ व्यवस्था चरमरा जाना भी देह व्यापार का मुख्य कारण बनता है। सोवियत संघ के विघटन के बाद आजाद हुऐ कुछ देशों की लड़कियों की भारत के देह बाजार में आपूर्ति हो रही है। एक दशक पहले के आंकड़ों पर नजर डालें तो दिल्ली, कोलकाता, चैन्नई, बंगलौर और हैदराबाद में सैक्स वर्करों की संख्या लगभग सत्तर हजार थी। एक दशक बाद यह संख्या क्या होगी इसकर केवल अंदाजा लगाया जा सकता है।
देह व्यापार में केवल गरीब, लाचार और बेबस औरतें और लड़कियां ही नहीं हैं। देह व्यापार का एक चेहरा ग्लैमर से भरपूर भी है। सम्पन्न घरों की वे औरतें और लड़कियां भी इस धन्धे में लिप्त हैं, जो अपने अनाप-शनाप खर्चे पूरे करने और सोसाइटी में अपने स्टेट्स को कायम रखने के लिए अपनी देह का सौदा करती हैं। मेरठ के ट्रिपल मर्डर की सूत्रधार शीबा सिरोही ऐसी ही औरतों के वर्ग से ताल्लुक रखती है, जो पॉश कालोनी के शानदार फ्लैट में रहती हैं और लग्जरी कारों का इस्तेमाल करती हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में नवधनाढ़यों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ है, जो नारी देह को खरीदकर अपनी शारीरिक भूख को शांत करना चाहता है। इन धनाढ़यों की जरूरतों को पूरा करने का साधन ऐसी ही औरतें और लड़कियां बनती हैं।
समाज का एक बर्ग यह भी मानता है कि रेड लाइट एरिया समाज की जरूरत है। इस वर्ग के अनुसार भारत की आबादी का लगभग आधा हिस्सा युवा है और इस युवा वर्ग के एक बड़े हिस्से को अनेक कारणों से अपनी शारीरिक जरूरत पूरी करने के लिए रेड लाइट एरिया की जरूरत है। सर्वे बताते हैं कि जहां रेड लाइट एरिया नहीं हैं, वहां बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है।
सैक्स वर्करों की बीच काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाओं के सामने देह व्यापार को छोड़कर समाज की मुख्य धारा में आने वाली लड़कियों का पुनर्वास एक बड़ी चुनौती होता है। हालांकि सरकार सैक्स वर्करों के पुनर्वास के लिए कई योजाएं चलाती है। लेकिन सैक्स वर्करों के अनपढ़ होने, स्थानीय नहीं होने तथा दलालों के भय से वे योजना का लाभ नहीं उठा पाती हैं। कुछ गैर सरकारी संगठन वेश्यावृत्ति के उन्मूलन के लिए सार्थक प्रयास तो कर रहे हैं लेकिन उन्हें समाज, प्रशासन और पुलिस का उचित सहयोग और समर्थन नहीं मिल पाता। गैर सरकारी संगठनों को व्यापक शोध करके सरकार को सुझाव दें कि जो लड़कियां देह व्यापार से बाहर आना चाहती हैं, उनका सफल पुनर्वास कैसे हो।

Monday, June 22, 2009

इस्लाम का विरोध ही भाजपा का ‘हिन्दुत्व’

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
हार के बाद भाजपा में घमासान मचा हुआ है। सास-बहु के झगड़ो ंकी तरह नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। भाजपा के दो मुस्लिम चेहरों में से एक मुख्तार अब्बास नकवी कह रहे हैं कि ‘मैं वरुण के भाषण की वजह से हारा।‘ नकवी साहब से सवाल किया जा सकता है कि जब वरुण ने मुस्लिम विरोधी बयान दिया था, तब ही आपने अपना विरोध क्यों नहीं दर्ज कराया था ? क्या इसलिए कि तब शायद उन्हें लग रहा होगा कि वरुण के बयान के बाद हिन्दु वोटों का ध्रुवीकरण होगा और वह चुनाव जीत जाएंगे। और यदि नकवी साहब जीत जाते तो क्या तब भी वरुण की ऐसी ही खुली आलोचना करते ? शायद नहीं। अब बात करें जनता दल यू के शरद यादव की। 2004 के चुनाव में शरद यादव ने कहा था कि हम गुजरात दंगों की वजह से चुनाव हारे हैं। अब हालिया चुनाव में अपनी हार का ठीकरा भी नरेन्द्र मोदी के सिर पर फोड़ा है। सवाल यह है कि 2004 की हार से सबक न लेकर आप राजग में क्यों बने हुए थे ? 2009 में तो नरेन्द्र मोदी भाजपा के स्टार प्रचारक थे। तब ही उन्होंने नरेन्द्र मोदी को प्रचार से दूर रखने का दबाव भाजपा पर क्यों नहीं डाला ?
भाजपा में बहस इस बात पर थी कि भाजपा हिन्दुत्व को छोड़े या नहीं ? भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में फैसला हुआ है कि ‘भाजपा न तो हिन्दुत्व छोड़ेगी और न संध।‘ सही भी है। संघ से ही भाजपा है और हिन्दुत्व भी संघ का ही एजेण्डा है। सां की मर्जी के बगैर भाजपा में पत्ता भी नहीं खड़कता। संघ ही भाजपा को दिशा निर्देश देता है कि किस को कब क्या बोलना है और करना है। आडवाणी भी पाकिस्तान जाकर जिन्ना की मजार पर संघ की मर्जी के बगैर सिर नवा कर नहीं आए होंगे। यदि ऐसा हुंआ होता तो आडवाणी ‘पीएम वेटिंग’ तो दूर भाजपा से ही गायब हो जाते। कोई ताज्जुब नहीं कि सुधीन्द्र कुलकर्णी भी संघ की ही किसी रणनीति के तहत लेख पर लेख लिख रहे हों।
जिस हिन्दुंत्व को भाजपा अपने सीने से लगाए रखना चाहती है, आखिर उस ‘हिन्दुत्व’ की परिभाषा क्या है ? इसका खुलासा आज तक किसी भाजपा के नेता ने स्पष्ट रुप नहीं किया है। लेकिन व्यवहार में भाजपा का हिन्दुत्व मुसलमान और इस्लाम का विरोध भर दिखायी देता है। राममंदिर और रामसेतु जैसे मुद्दे, कांग्रेस सहित दूसरी राजनैतिक पार्टियों को सैकुलरिस्टों का जमावड़ा और मुसलमानों को हज यात्रा पर जाने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को मुस्लिम तुष्टिकरण प्रचारित करना ही भाजपा का हिन्दुत्व है। विडम्बना यह है कि भाजपा मुसलमानों के विरोध का अन्तरराष्ट्रीयकरण तक कर देती है। मसलन, भारत के मुस्लिम और इस्लामी मित्र राष्ट्रों के बजाय वह इसराइल का समर्थन करती नजर आती है। दुनिया में जो देश किसी मुस्लिम देश पर हमला करता है तो भाजपा उस देश को अपना स्वाभाविक मित्र मान लेती है।
मुस्लिम और इस्लाम विरोध की बात यहीं खत्म नहीं होती। इससे भी आगे पवित्र कुरान और हदीस पर भी उंगलियां उठायी जाती हैं। मुसलमानों को सलाह दी जाती है कि कुरान में से अमुक-अमुक आयतों को निकाल दिया जाए। भाजपा के दिल में मुस्लिम औरतों के प्रति बहुत दया-भाव उमड़ पड़ता है। यह प्रचारित किया जाता है कि इस्लाम में औरत को कमतर समझा जाता है। यह अलग बात है कि हिन्दुत्व के ये पुरोधा पब में घुसकर तालिबानियों की तरह लड़कियों को सरेआम पीटते हैं। मुसलमानों को निर्दयी,, जेहादी और क्रूर प्रचारित किया जाता है। लेकिन खुद गुजरात और कंधमाल करते हैं। अक्सर चुनाव के मौकों पर सघ परिवार की तरफ से पम्पलेट बांटे जाते हैं, जिनमें मुसलमानों और इस्लाम के बारे में भद्दी भाषा का प्रयोग किया जाता है। शब्दों का जाल बुनने में माहिर भाजपा नेताओं ने ही यह कहना शुरु किया कि ‘यह सही है कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं है, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों है ?’ हिन्दु लड़की का किसी मुसलमान लड़की से प्रेम या शादी करना भाजपा वालों के लिए ‘लविंग जेहाद’ है।
अब भाजपा के पास देश के लिए कोई आर्थिक और सामाजिक एजेंडा है तो नहीं,, जिसको सामने रखकर वोटरों से वोट मांगे जाएं। ले देकर एक मुस्लिम विरोधी मार्का हिन्दुत्व ही है, जिसे हर बार आजमाया जाता है। तालिबानियों की तरह भाजपा को पता नहीं यह बात क्यों समझ नहीं आती कि परिर्वतन कुदरत का नियम है। जनता का जेहन बदल रहा है। उसकी प्राथमिकता रोजी-रोटी है, तालिबान मार्का इस्लाम या भाजपा मार्का हिन्दुत्व नहीं। भाजपा को अब समझ लेना चाहिए कि हर दौर में हर चीज नहीं बिका करती। हिन्दुत्व को बेचकर उसने छह साल सत्ता का सुख भोग लिया। भाजपा मार्का हिन्दुत्व अब बिकाउ माल नहीं है। इस देश का हिन्दु सैक्यूलर है, इसीलिए वह भाजपा को सत्ता से दूर ही रखता है। एक बार फिर भाजपा अपनी ‘जड़ों’ तक जाना चाहती है। शौक से जाए। लेकिन जड़ें तो कब सूख चुकी हैं।

Wednesday, June 17, 2009

मीट व्यापारियों ने किया मेरठ में बवाल

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
आखिरकार मेरठ हिंसा से बच नहीं सका। 17 साल बाद एक बार फिर मेरठ कर्फ्यू का दंश झेलने के लिए मजबूर हो गया। लेकिन यह तय है कि यह हिंसा साम्प्रदायिक बिल्कुल नहीं है। हां, साम्प्रदायिक रुप देने की कोशिश गयी और आगे भी की जा सकती है। घटनाक्रम कुछ यूं है कि मेरठ के पास सिंघावली गांव से तबलीगी जमात का एक दल जमात में गया था। वह दल वापस लौट रहा था तो रोहटा रेलवे क्रासिंग पर जमात दल का टै्रक्टर रेलवे क्रासिंग पर अवैध रुप से बने खोखे के सामने खड़ा हो गया। जमात दल के लोग कुछ फल आदि लेने के लिए रुके थे। खोखे मालिक ने ट्रेक्टर को खोखे सामने खड़ा करने पर ऐतराज जताया। खोखे मालिक और जमात दल के लोगों में तू-तू में-में हो गयी,, जो बढ़ते-बढ़ते मारपीट में बदल गयी। जमात दल के लोग गम्भीर रुप से घायल हो गए। खबर सिंघावली गांव पहुंची,, जो घटनास्थल से मात्र चार-पांच किलोमीटर दूरी पर है। गांव वालों ने रोहटा रोड पर जाम लगाकर नारेबाजी शुरु कर दी। थोड़ी ही देर में यह खबर मेरठ में फैल गयी। यहीं से मेरठ को साम्प्रदायिक हिंसा में धकेलने साजिश भी बुनी गयी।
लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हारे पूर्व सांसद के समर्थकों ने अस्पताल के बाहर जमकर नारेबाजी और पथराव किया। देखते ही देखते नारेबाजी और पथराव शहर के घंटाघर, जली कोठी और ईदगाह चौराहे पर होने लगा, यहां यह बताना जरुरी है कि इन सब इलाकों में पूर्व सांसद के समर्थकों की बहुतयात है। पुलिस फोर्स की तमाम कोशिशों के बाद भी दंगाई दंगा करने से बाज नहीं आए। पुलिस ने लाठीचार्ज करके दंगाईयों को खदेड़ दिया। एक बार ऐसा लगा कि मामला शांत हो गया है। लेकिन शायद कुछ लोग शहर में आग लगाने का प्रण लिए हुए थे। रात दस बजे के करीब शहर के संवेदनशील क्षेत्र भूमिया के पुल पर हंगामा शुरु हो गया। कई मोटर साइकिल जला दी गयीं। एक टेलर की दुकान को आग के हवाले कर दिया गया। पुलिस पर पथराव किया गया। पुलिस ने आंसू गैस के गोले दागे। हवाई फायरिंग भी की। मामला शांत नहीं हुआ तो देर रात शहर के चार थाना क्षेत्रों, लिसाड़ी गेट, देहली गेट, कोतवाली और ब्रहपुरी में शुक्रवार तक के लिए कर्फ्यू नाफिज कर दिया गया। गनीमत यह रही कि कोई जान नहीं गयी।
क्या कारण हैं इस हिंसा के पीछे
1993 से मेरठ की राजनीति पर कुरैशी बिरादरी का वर्चस्व था। 1993 में हाजी अखलाक जनता दल के टिकट पर विधायक बने। बाद में अखलाक के पुत्र शाहिद अखलाक बसपा से मेयर बने। मेयर रहते ही शाहिद अखलाक ने बसपा से ही सांसद का चुनाव जीता। 2007 के विधानसभा चुनाव में याकूब कुरैशी अपनी पार्टी यूडीएफ से विधायक चुने गए। लेकिन पिछले मेयर में हाजी शाहिद अखलाक ने अपनी चाची को उतारा लेकिन उनकी जमानत जब्त हो गयी। हालिया चुनाव में खुद शाहिद अखलाक लोकसभा का चुनाव लडे+ लेकिन जमानत भी नहीं बचा सके। यानि मेरठ की राजनीति से कुरैशी बिरादरी का वर्चस्व लगभग खत्म हो गया। यहां यह बताना उल्लेखनीय है कि शाहिद अखलाक अपने चुनाव प्रचार में यह दावा करते थे कि मैं कभी शहर में दंगा नहीं होने दूंगा। हुआ भी ऐसा ही था। मेरठ में जब-जब हालात खराब हुए, तब-तब शाहिद अखलाक ने जनता और प्रशासन के सहयोग से शहर को बचाया। इस लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान भी उन्होंने बार-बार यह कहा कि मेरे सांसद रहते शहर में दंगा नहीं हो सकता। सिर्फ में ही शहर को दंगे से बचा सकता हूं। यानि उनके कहने का मतलब था कि यदि मुझे हरा दिया तो शहर में दंगा होगा।
इधर, पिछले एक महीने से कमेला प्रकरण जोर-शोर से चल रहा था। भाजपा कमेले का साम्प्रदायिकरण करने पर उतारु थी। उसकी मांग थी कि कमेला बंद किया जाए। जबकि कुैरशी बिरादरी का कहना था कि कमेला उनकी रोजी-रोटी है। यह बन्द नहीं हो सकता। मानवाधिकार आयोग ने मेरठ प्रशासन को कमेला हर हालत में बंद करने के निर्देश दे रखे थे। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रशासन ने कमेले की उन भट्टियों को तोड़ दिया था, जिनमें हड्डियों को पकाया जाता था और जिससे कमेले का आसपास का इलाका दुर्गन्ध और धुएं से बेहाल रहता है। मुसलमान भी कमेले के खिलाफ लामबंद होने लगे थे। हालांकि मीट व्यापारियों ने कमेले को मुसलमानों से जोड़ने के लिए शहर काजी का इस्तेमाल किया। शहर काजी ने कमेले को मुसलमानों की इज्जत बताकर प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोला। लेंकिन शहर के मुसलमानों ने शहर काजी की बात से नाइत्तेफाकी जाहिर करके कहा कि कमेला मुसलमानों के लिए अजाब से कम नहीं है।
एक तरफ मेरठ की राजनीति बेदखल होने की बौखलाहट और दूसरी तरफ व्यापार पर चोट होते देख मीट व्यापारियों को मेरठ की एक छोटी से घटना ने शहर की फिजा बिगाड़ने का मौका दे दिया। मीट व्यापारियों ने शहर में बवाल करके मेरठ के मुसलमानों को एक संदेश तो ये देना चाहा कि हम राजनीति से बेदखल होंगे तो उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। दूसरी और बवाल से मुसलमानों को अपनी ओर करने की कोशिश की, जिससे कमेला मुद्दा केवल मीट व्यापारियों का न रहकर सभी मुसलमानों का बन जाए। लेकिन शहर के मुसलमानों ने बवाल को खुद से अलग रखा। वे समझ रहे थे कि मीट व्यापारी क्या चाहते हैं। लोगों ने देखा कि बवाल में केवल वे लोग शामिल थे, जो किसी न किसी रुप से मीट व्यापार से जुड़े हैं। पूर्व सांसद शाहिद अखलाक का जनता के बीच से गायब रहना भी इस बात की पुष्टि करता है कि वे शहर में दंगा होते देखना चाहते थे।
तारीफ करनी होगी मेरठ के हिन्दु और मुसलमानों की कि उन्होंने संकट की इस घड़ी में अपना संयम नहीं खोया। कर्फ्यू लगा हुआ है, स्थिति काबू में है। तनाव नहीं है। शहर के दूसरे हिस्सों में जिन्दगी सामान्य रुप से चल रही है।

Monday, June 15, 2009

इश्क कमीना ही नहीं, बेशर्म और बेहया भी होता है

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
पता नहीं इश्क कमीना होता है या नहीं लेकिन अनुराधा बाली या फिजा और चन्द्रमोहन या चांद मौहम्मद का नाटक देखने के बाद लगता कि इश्क वाकई कमीना ही नहीं बेशर्म और बेहया भी होता है। सुबह-सुबह अखबार में जब इन दोनों की हंसती-मुस्कराती तस्वीर पर नजर पड़ी तो यही लगा कि शायद फिर से फिजा या चांद कोई बकवास की होगी। लेकिन खबर पढ़कर मालूम हुआ कि कुछ माफी-तलाफी का किस्सा है। फिजा ने चांद को और चांद ने फिजा को क्या-क्या नहीं कहा। मीडिया में ये दोनों उपहास का कारण बने रहे। लेकिन लगता है इन दोनों में शर्म नाम की कोई चीज नहीं है। बेशर्मी और बेहयाई की मिसाल कायम करने वाले ये दोनों मौहब्बत और इस्लाम का मजाक उड़ा रहे हैं। तलाक के साथ मेहर की रकम लौटाने का दावा करने वाले चांद अब पता नहीं किस मुंह से कह रहे हैं कि उन्होंने फिजा को तलाक नहीं दिया है। जिस फिजा ने चांद की कथित बेवफाई को लेकर आसमान सिर पर उठा लिया था, अब वह कैसे चांद को माफी देने की सोच रही है। यदि फिजा चांद को माफी देने की सोच रही है, उसे माफी देने से पहले यह सोचना चाहिए कि जो शख्स अपनी उस पत्नि का नहीं हुआ, जो अपने परिवार और समाज का दबाव के आगे फिजा को छोड़कर कायरों की तरह अज्ञातवास में चला गया, ऐसा कमजोर शख्स फिर कभी धोखा नहीं देगा, इसकी क्या गारंटी है। फिजा बीबी आपको यह भी सोचना चाहिए कि आपने एक बसे-बसाए घर को उजाड़कर अपना घर बसाने की सोची थी। हो सकता है, कल किसी और फिजा पर चांद ने डोरे डालकर आपको अलग कर दिया जो क्या होगा।
जब दोनों ने अपना धर्म छोड़कर इस्लाम कबूल करके शादी करने की बात की थी तब ही उनकी नीयत का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था। इस्लाम में दूसरी शादी किन्हीं अहम वजहों से और सशर्त ही की जा सकती है। इनमें संतान न होने, पत्नि का अत्याधिक बीमार होना वजह हो सकती है। युद्व में हुईं विधवाओं को सहारा देने कि लिए भी एक से अधिक शादी का प्रावधान रखा गया था। इसमें भी शर्त यह है कि पत्नि दूसरी शादी की इजाजत दे और पति दोनों पत्नियों को बराबरी का दर्जा दे।
जब चांद ने फिजा को तलाक दिया था तो उलेमाओं ने तलाक पर शरीयत की बातें शुरु कर दीं थीं। अब, जब दोनों फिर से एक होने की बात कर रहे हैं तो हो सकता है कि मीडिया फिर उलेमाओं से उत्पन्न हुई नई स्थिति पर उनकी राय मांगें। मेरा तो उलेमाओं को सलाह है कि वे इस मसले से दूर ही रहें तो बेहतर है। क्योंकि शरीयत की बात तब आती है, जब कोई सही मायनों में इस्लाम की शरण में आया हो। अभी तो यही नहीं पता कि असलियत क्या है ? दोनों ने सही मायनों में इस्लाम कबूल किया था या नहीं ? यदि इस्लाम कबूल किया था तो किस मुफ्ती के सामने किया था ? निकाह किस मौलाना ने पढ़वाया था ? गवाह कौन लोग थे ? वकील किसे बनाया गया था ? यदि निकाह हुआ था तो निकाहानामा कहां है ? सच्चाई सबके सामने है। अनुराधा आज भी मांग में सिंदूर और कलाई पर कलावा बांधे नजर आती है। चन्दमोहन भी कलाई पर कलावा बांधते हैं। इस संवेदनशील और इस्लाम को मजाक समझे जाने वाले मु्‌द्दे पर उलेमाओं को संयम से काम लेना चाहिए। खामोशी अख्तियार करना ही बेहतर हो सकता है। दो लोगों के बीच की प्रेम कहानी में बेवजह इस्लाम को घसीटना इस्लाम की तौहीन के अलावा कुछ नहीं है। उलेमाओं को कुछ ऐसा प्रावधान करना चाहिए कि केवल शादी, खासकर दूसरी शादी के लिए इस्लाम कबूल करने वाले लोग इस्लाम को केवल शादी करने का साधन न बना सकें।

Friday, June 12, 2009

दूसरे धर्म की 'बहु' मंजूर है, 'दामाद' नहीं

सलीम अख्तर सिद्दीकी
सदियों से यह कहा जाता है कि जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं। लेकिन हकीकत में देखने में आ रहा है कि जोड़ियां समाज और धर्म के ठेकेदार तय करते हैं। कम से कम पश्चिमी यूपी में तो यही हो रहा है। यदि किसी ने समाज और धर्म को अनदेखा करके जोड़ी बनाने की कोशिश की तो उस जोड़ी को अपनी जान खुद गंवानी पड़ी है अथवा समाज और धर्म के ठेकेदारों ने ली है।
सहारनपुर जिले के देवबन्द की दीपिका और जिया-उल-हक के बीच प्रेम हो गया। वो ये जानते थे कि घरवाले शादी की रजामंदी नहीं देंगे इसलिए दोनों ने घर से भागकर शादी कर ली। जैसा कि होता है। दीपिका के घर वालों ने जिया के खिलाफ बेटी को अगवा करने की रिपोर्ट दर्ज करा दी। लड़के ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में निकाहनामा दिखाकर अपहरण के मामले में गिरफ्तारी पर रोक लग वाली। हाईकोर्ट ने 20 दिन के अन्दर सहारनपुर कोर्ट को दीपिका के बयान लेने के लिए कहा। 5 जून को सहारनपुर की कोर्ट में दीपिका जांनिसार नाम के वकील के चैम्बर में पहुंची। उसके पहुंचने की खबर कोर्ट के उन वकीलों को गयी, जो संघ परिवार से ताल्लुक रखते थे। वकीलों ने सहारनपुर के हिन्दूवादी संगठनों को खबर कर दी। वकीलों और हिन्दुवादी संगठनों ने जांनिसार के चैम्बर में घुसकर तोड़फोड़ और मारपीट की। वे दीपिका को अपने साथ ले जाना चाहते थे। लेकिन उनकी नहीं चली। पुलिस ने दीपिका को नारी निकेतन भेज दिया। 10 जून को दीपिका ने कोर्ट में बयान देकर कहा कि वह जिया साथ जानो चाहती है। हम दोनों ने शादी कर ली है। कोर्ट ने दोनों को बाइज्जत घर भेज दिया। स्वर्ग में बनी जोड़ी को एक साथ रहने के लिए क्या-क्या नहीं सहना पड़ा और आगे क्या सहना पड़ेगा, यह वही जानता है, जो स्वर्ग में जोड़ियां बनाता है।
दूसरा मामला मेरठ का है। सहारनपुर की दीपिका और जिया की तरह परतापुर के गांव नगला पातु के लोकेश और खरखौदा की अमरीन की किस्मत अच्छी नहीं थी। या कह सकते हैं कि दोनों की जोड़ी स्वर्ग में नहीं बनी थी। अमरीन और लोकेश बीच प्रेम हुआ। दोनों ने घर से भागकर गाजियाबाद में 5 मई को आर्यसमाज मंदिर में शादी कर ली। अमरीन शिवानी बन गयी। 9 मई को दोनों को लोकेश के घरवालों ने हापुड़ में पकड़ लिया। लोकेश के परिजनों ने अमरीन को उसके मां-बाप को बुलाकर उन्हें सौंप दिया। लेकिन अमरीन और लोकेश अलग होने को तैयार नहीं थे। 8 जून को समाज के ठेकेदारों की पंचायत हुई। फैसला हुआ कि दोनों के बीच तलाक कराया जाए। दोनों से कोरे कागजों पर दस्तख्त करने का दबाव बनाया गया तो पहले लोकेश और फिर अमरीन ने सल्फास खाकर अपनी जा दे दी।
तीसरा मामला मेरठ के ही जानी गांव का है, जिसमें लड़के और लड़की का धर्म एक ही है। प्रियंका अंकुर को चाहती थी। घरवाले राजी नहीं थे। पहले प्रियंका ने नहर में जान देने की कोशिश की। प्रियंका के परिजन फिर भी नहीं पसीजे। 11 जून को प्रियंका ने जहर खाकर अपनी जान दे दी। शायद प्रियंका और अंकुर की जोड़ी भी स्वर्ग में तय नहीं हो पायी थी।
ये तीन मामले ताजातरीन हैं। इनमें दो मामलों में लड़के और लड़की ने खुद मौत के गले लगाया है। ऐसे मामलों की भी भरमार है, जिनमें लड़की के घरवालों ने लड़की को सरेआम गोलियों से छलनी कर दिया या चाकू से गोद डाला। इस तरह के मामले शहरों से लेकर अतिपिछड़े गांव तक में हो रहे हैं। बहस इस बात पर है कि जब यह कहा जाता है कि जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं तो फिर धर्म और समाज के ठेकेदार क्यों बीच में आते हैं ? या फिर यह झूठ है कि जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं।
एक बात जो सामने आ रही है, वह ये है कि यदि लड़का मुस्लिम है और लड़की हिन्दू है तो मुसलमानों को कोई परेशानी नहीं होती। तब परेशानी हिन्दुओं को होती है। हिन्दुवादी संगठन तो ऐसे मामलों में सड़कों तक पर उतर आते हैं। इस प्रकार के मामलों को हिन्दुवादी संगठन 'लविंग जेहाद' कहते हैं। यदि लड़की मुस्लिम है और लड़का हिन्दु है तो हिन्दवादी संगठन खुश होते हैं, मुसलमानों की इज्जत चली जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरे धर्म की 'बहु' मंजूर है, 'दामाद' मंजूर नहीं है।
दरअसल, हमारे देश के अस्सी प्रतिशत लोग कस्बों और गांवों में रहते हैं। जहां कुछ परम्पराएं हैं। रस्मो रिवाज हैं। जिन्हें छोड़ना मुमकिन नहीं हैं। इधर, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने कस्बों और गांवों के बच्चों और युवाओं को ग्लैमर और इश्क-मौहब्बत की कहानियां दिखाकर इस मोड़ पर खड़ा कर दिया है कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि क्या गलत है और क्या सही है। इसलिए मेरठ और सहारनपुर जैसे कस्बाई संस्कृति वाले शहरों, कस्बों और गांवों में प्रेम में जान देने और लेने के मामले खतरनाक हद तक बढ़ते जा रहे हैं। दिल्ली और मुबई जैसे महानगर ऐसे मामलों से लगभग उबर चुके हैं। वहां के लोग अब अन्तरधार्मिक प्रेमप्रसंग और शादियां पर चौकते या उग्र प्रतिक्रिया नहीं करते।

Friday, June 5, 2009

'राममंदिर' सरीखा है मेरठ का 'कमेला' मुद्दा

सलीम अख्तर सिद्दीकी
मेरठ शहर आरभ्म से ही एक संवेदनशील और इन्कलाबी रहा है। 10 मई, 1857 को पहली आजादी की लड़ाई यहीं से आरम्भ हुई थी। 1980 के दशक से लेकर 1991 तक इस शहर ने बदतरीन साम्प्रदायिक दंगों को झेला। पूरी दूनिया में मेरठ 'दंगों के शहर' के रुप में कुख्यात रहा। इसी के साथ हफीज मेरठी जैसा शायर, विशाल भारद्वाज जैसा फिल्म निर्देशक, नसीरुद्दीन शाह जैसा क्लासिकल अभिनेता, हरिओम पंवार जैसा कवि और न जाने कितने नामचीन लोगों की सरजमीं भी मेरठ ही रही।
इधर, आजकल मेरठ कमेले (कमेला वह स्थान होता है, जहां मीट के लिए जानवरों को हलाल किया जाता है) को लेकर सुर्खियों में है। इस पर जमकर राजनीति हो रही है। भाजपा ने कमेले को साम्प्रदाियक रंग देकर इसे 'राममंदिर' सरीखा मुद्दा बना दिया है। चुनाव चाहे मेयर का हो, विधान सभा का हो या लोकसभा का, कमेला मुद्दा छाया रहता है।
अब इस कमेले का पसमंजर भी जान लें। मेरठ का कमेला हापुड़ रोड पर आबादी के बीचों-बीच स्थित है। कभी जब यहां कमेला बना होगा तो यह शहर से बहुत दूर जंगल में रहा होगा। आबादी बढ़ती गयी। कालोनियां बसती रहीं। देखते ही देखते कमेला आबादी के बीच में आ गया। यह कमेला शहर की मीट की मांग को पूरा करता रहा। जानवर कम ही हलाल किए जाते थे। इसलिए कोई समस्या नहीं थी। समस्या नब्बे के दशक से शुरु होती है। मेरठ शहर से खाड़ी के देशों को मीट एक्सपोर्ट होने लगा। कमेले में अनुमति से कई गुना जानवरों को हलाल किया जाने लगा। देखते ही देखते कुरैशी बिरादरी के जो लोग ठेलियों पर फल आदि बेचकर गुजारा करते थे, लखपति, करोड़पति और अरबपति हो गए। पैसा आया तो राजनीति का चस्का भी लगा। 1993 के विधानसभा चुनाव में मीट कारोबारी हाजी अखलाक कुरैशी ने सपा के टिकट पर भाजपा के उम्मीदवार को शिकस्त दे दी। इसके बार कुरैशी बिरादरी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मेयर, सांसद और विधायक इसी बिरादरी के चुने गए। भाजपा को यह नागवार गुजरा कि मेरठ की राजनीति पर एक वर्ग का एकाधिकार हो गया था।
भाजपा ने कमेले से होने वाली गंदगी, दुर्गन्ध और प्रदूषण को मुद्दा बना लिया। इसमें कोई शक नहीं कि कमेले की वजह से शहर का एक बड़ा हिस्सा नरक बना हुआ है। जानवरों के अवशेषों और कमेले में हड्डियों से चर्बी को अलग करने वाली भट्टियों से निकलने वाले धुएं और बदबू से लोगों का जीवन नरक बन गया है। कमेले के मीट पर पलने वाले कुत्ते आदमखोर हो गए। इन कुत्तों ने कई मासूम बच्चों की जान ले ली। गुस्साए लोगों ने दर्जनों कुत्तों को पीट-पीट कर मार डाला। कमेले की गंदगी को बड़े-बड़े बोरिंग करके जमीन में डाला गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि लगभग पच्चीस मौहल्लों का पानी पीने लायक तो दूर नहाने और कपड़े धोने लायक नहीं रहा।
भाजपा ने कमेले को हिन्दुओं की समस्या प्रचारित करके राजनैतिक लाभ उठाया। मौजूदा मेयर मधु गुर्जर कमेले को मुद्दा बनाकर मेयर बन गयीं। जबकि सच यह है कि कमेले से हिन्दु नहीं मुसलमान सबसे ज्यादा परेशान हैं। कमेले के चारों ओर मुस्लिम कालोनियां हैं। हिन्दु कालोनी शास्त्री नगर है, जो कमेले से काफी दूर है। हां, इतना जरुर है कि जब कभी शास्त्री नगर की दिशा में हवा चलती है तो बदबू वहां तक पहुंच जाती है। कमेले को 15 दिन के अन्दर बंद कराने के वादे पर जीती मेयर मधु गुर्जर अब कमेले की बात भी नहीं करना चाहतीं।
पिछला विधानसभा का चुनाव भी भाजपा ने फिर से कमेले को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा। लेकिन जीता मीट कारोबारी याकूब कुरैशी। दरअसल, कमेले का ठेका याकुब कुरैशी के पुत्र इमरान कुरैशी के नाम पर ही था। इमरान कुरैशी के ठेके की अवधि 31 दिसम्बर 08 को पूरी हो गयी। नगर निगम ने ठेके का नवीनीकरण नहीं किया तो ठेकेदार ने 3 जनवरी 09 को कमेला नगर निगम को वापिस कर दिया। यानि कागजों में कमेला बन्द हो गया, लेकिन कमेला न केवल अवैध रुप से चलता रहा, बल्कि कमेले के चारों ओर दर्जनों अवैध मिनी कमेले विकसित हो गए। कमेले में अवैध रुप से जानवरों को हलाल किए जाने पर भाजपा, शिवसेना और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने धरने प्रदर्शन किए। कमेले में जानवरों को ले जाने वाली गाड़ियों को हिन्दु बाहुल्य इलाकों में रोका गया। ड्राइवरों को बुरी तरह से मारा-पीटा गया। जानवरों को लूटा गया। ये सिलसिला आज तक जारी है।
इधर, लोकसभा के चुनाव घोषित होने पर सुप्रीम कोर्ट के एक वकील अजय अग्रवाल को लगा कि कमेले को मुद्दा बनाकर चुनाव जीता जा सकता है। उनकी मंशा भाजपा से टिकट लेने की थी, लेकिन भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया। अजय अग्रवाल सजपा की पार्टी से चुनाव लड़े। उन्हें चन्द सौ वोट ही मिले। अजय अग्रवाल कमेले मुद्दे को मानवाधिकार आयोग में ले गए। मानवाधिकार आयोग की टीम ने मौका मुआयना करके डीएम और नगर आयुक्त को 3 जून तक आयोग में पेश होकर रिपोर्ट देने के आदेश दिए थे। दोनों 3 जून को पेश हुए। आयोग ने दोनों अफसरों को 15 दिन के अन्दर कमेले में होने वाले अवैध कटान को बंद कराने के निर्देश दिए हैं। आयोग के निर्देश पर कितना अमल होता है, यह भविष्य ही बताएगा। अब हालात यह हैं कि हर दूसरे दिन जानवरों को ले जाने वाली गाड़ियां को पकड़कर उन्हें लूटा जा रहा है। पशु व्यापारी भी इस समस्या को लेकर लामबंद हो रहे हैं। कल पशु और मीट कारोबारियों ने जीमयतुल कुरैष के बैनर पर हुई एक मीटींग में जानवरों को ले जाने वाली गाड़ियों के साथ लाईसेंसी हथियार शुदा दस्ते की तैनाती की बात कही है। मीटींग में पूर्व सांसद षहिद अखलाक ने चेतावनी दी है कि प्रषासन में हिम्मत है तो कमेला बंद कराकर दिखाएं। उन्होंने प्रषासन पर भाजपा के दबाव में काम करने का आरोप भी लगाया। उनका साफ कहना था कि अब ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाएगा।
भाजपा, विहिप, शिवसेना और बजरंग दल ने कमेला मुद्दे को, जो वास्तव में प्रत्येक शहरी की समस्या है, साम्प्रदायिक मोड़ देकर एक संवेदनशील मुद्दा बना दिया है। इस मुद्दे पर राजनैतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं, जो मेरठ जैसे संवेदनशील शहर के लिए अच्छा नहीं है। एक तथ्य यह भी है अवैध कमेले केवल मुस्लिमों के ही नहीं हैं। हिन्दुओं की कुछ जातियों के भी अवैध कमेले कई कालोनियों में चल रहे हैं। बागपत रोड पर एक सिनेमा हॉल के बराबर मे तो सड़क पर ही सुअरों को जलाया और काटा जाता है। दलित बाहल्य क्षेत्रों में मीट की दुुकानें इसी तरह खुली रहती हैं, जिस तरह से मुस्लिम इलाकों में। मीट कारोबारियों का यह भी कहना है कि संघ परिवार का रुख हिन्दुओं द्वारा चलाए जा रहे कमेलों की तरफ क्यों नहीं होता ?

Wednesday, June 3, 2009

आस्ट्रेलिया में भारतीय और भारत में बिहारी


अख्तर सिद्दीकी
उत्तर भारतीय लोगों को महाराष्ट्र में लठिया दिया जाता है। यूपी और दिल्ली वाले भी ÷बिहारी÷ को एक गाली के रुप में प्रयोग करते देखे जा सकते हैं। महाराष्ट्र के लोगों का कहना है कि उत्तर भारत के लोग यहां के स्थानीय लोगों का रोजगार छीन रहे हैं। यूपी और दिल्ली के लोग भी बिहारियों के बारे में ऐसी ही सोच रखते हैं। अब आस्ट्रेलिया की बात करे तो वहां से भी ऐसी ही खबरें आ रही हैं। उन लोगों का मानना है कि भारतीय लोग यहां के लोगों का रोजगार छीन रहे हैं। वहां भी ÷इंडियन÷ ÷बिहारी÷ की तरह एक गाली बन गया है। उनका मानना है कि इंडियन्स को न तो चलना आता है, न बात करना आता है। ये अंग्रेजी सही तरीके से नहीं बोल सकते। यही बातें हम बिहारयिों के लिए करते हैं। इंटरनेट पर इंडियन्स के विरुद्व नफरत फैलायी जा रही है। फिर बिहारियों पर आते हैं। क्या हम भी बिहारियों के खिलाफ ऐसी ही नफरत नहीं फैलाते ? जब महाराष्ट्र में राज ठाकरे की मनसे उत्तर भारतीय पर कहर ढा रही थी तो ये कहा गया था कि बिहार समेत उत्तर भारत की राज्य सरकारें अपने प्रदेशों में ही रोजगार के अवसर क्यों प्रदान नहीं करती, जिससे इन प्रदेशों के लोगों को रोजगार के लिए अन्य प्रदेशों का रुख न करना पड़े। क्या ये बात भारत सरकार पर लागू नहीं होती। क्यों नहीं भारत सरकार देश में ही रोजगार और बेहतर शिक्षा मुहैया नहीं कराती ?
पैसा और सिफारिश के बल पर आस्ट्रेलिया और अन्य पश्चिमी देशों में जाने वाले लोग रसूख और पैसे वाले होते हैं। इन लोगों को भारतीय कल्चर पसंद नहीं है। ये दिल से अंग्रेज हैं। इन लोगों को ज्यादा और ज्यादा पैसा कमाना है या इन लोगों के बच्चों को भारतीय शिक्षा अच्छी नहीं लगती। ये वही लोग हैं, जो भारत में रहकर भी भारत को हिकारत की नजर से देखते हैं। जब उन्हें पश्चिम के देश हिकारत की नजर से देखेते हैं तो इनको भारतीय होने का एहसास होता है। तब ये भारत का झंडा लेकर ÷न्याय÷ मांगने निकल पड़ते हैं। लेकिन जब यूपी-दिल्ली में बिहारियों और उनके रिक्शों पर पुलिस वाला डंडा मारता है तो यूपी-और दिल्ली वालों के मुंह से यही निकलता है, ÷इन बिहारियों ने तो सड़क पर चलना मुहाल कर दिया है।÷ ये अलग बात है कि यूपी और दिल्ली वाले सड़कों पर इतना कब्जा कर लेते हैं कि सड़क ही गायब हो जाती है।
इस देश मे आतंकवाद के नाम पर एक समुदाय को कदम-कदम पर जलील किया जाता है। अलिखित रुप से बहुत सी सुविधाओं और अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। जब आस्ट्रेलिया की ग्लासगो एअरपोर्ट की आतंकवादी घटना में मौहम्मद हनीफ नाम के एक भारतीय डाक्टर को गिरफ्तार किया जाता है और प्रधानमंत्री का यह बयान आता है कि ÷मुझे पूरी रात नींद नहीं आयी।÷ तो उनके इस बयान को एक विशेष विचारधारा के लोग ÷मुस्लिम तुष्टीकरण÷ कह प्रधानमंत्री की खिल्ली उड़ाते हैं।
अमिताभ बच्चन को आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर होने हमलों से इतना सदमा पहुंचा कि उन्होंने आस्ट्रेलिया की एक यूनिवर्सिटी द्वारा दी जाने वाली डाक्टरेट की मानद उपाधि लेने से इंकार कर दिया है। जरा याद कीजिए। जब मनसे के गुंडे उत्तर भारतीयों पर कहर बरपा रहे थे तो अमिताभ बच्चन को कितना सदमा पहुंचा था ? और जब जया बच्चन ने एक समारोह में हिन्दी की वकालत की थी तो अमिताभ बच्च्न ने राज ठाकरे की नाराजगी से बचने लिए राज ठाकरे से न केवल खुद माफी मांगी थी, बल्कि जया बच्चन से भी माफी मंगवाकर उत्तर भारतीयों के मनोबल को तोड़ दिया था। कारण सिर्फ इतना था कि राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में उनकी और उनके परिवार के सदस्यों की फिल्मों के बहिष्कार की धमकी दे दी थी। महराष्ट्र में मनसे से पंगा लेने पर रोजगार का सवाल था, लेकिन आस्ट्रेलिया से पंगा लेने में कोई दिक्कत नहीं है। इसलिए उन्हें आस्ट्रेलिया की घटनाएं तो सदमा देती हैं। लेकिन महाराष्ट्र की घटनाओं से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अमिताभ बताएं कि राजठाकरे और आस्ट्रेलिया के गुंडों में क्या फर्क है ? बाला साहेब ठाकरे ने सलाह दी है कि आस्ट्रेलिया को आईपीएल से तब तक के लिए हटा दिया जाना चाहिए, जब तक भारतीयों पर हमले नहीं रुकते। बाल ठाकरे जब भी बोलते हैं, उल्टा ही बोलते हैं। कम से कम नस्ली हिंसा के मामले में बाल ठाकरे को नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि 'महाराष्ट्र मराठियो' का नारा उनका ही दिया हुआ है। उत्तर भारतीयों के लिए महराष्ट्र को युगांडा बनाने में बाल ठाकरे का ही हाथ है। ठाकरे साहब क्यों न महाराष्ट्र को रणजी से अलग कर दिया जाए ?
यह सब लिखने का मतलब आस्ट्रेलिया को क्लीन चिट देना बिल्कुल नहीं है। मकसद सिर्फ इस बात का एहसास कराना है कि हम खुद भारतीय जब नस्लवाल, प्रदेशवाद, जातिवाद, भाषावाद और धर्मवाद से अछूते नहीं है तो विदेशियों से इस बात की उम्मीद क्यों करें कि वह हमसे बराबरी का बर्ताव करेंगे।
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